क्या धरा संतो से खाली हो गयी है?
यदि नहीं तो आज सन्त कौन है या कौन हो सकता है?
अभी समय ऐसा हुआ जाता है कि हर मनुष्य तुरन्त परिणाम पाना चाहता है! उसे कैसे-क्या करना है इसका ज्ञान नहीं है! फिर अध्यात्म या धर्म सम्बन्धी विषय की जानकारी भी उसे नहीं है, कम से कम जितनी होनी चाहिए उतनी तो है ही नहीं! कही सुनी बातों पर ही वह भागा फिरता है! उसके जीवन में परेशानिया जितनी है उस से भी अधिक उसकी जरूरते है, जिनको पूरा करने के चक्कर में किसी ओर बात पर वो ध्यान नहीं दे पा रहा है! वो चाहता है कि उसके जीवन की भौतिक जरूरते पूरी करने वाली दिनचर्या भी यथावत चलती रहे और आनन्-फानन में अध्यात्म की जानकारी भी ले ले, या सीधे ही परमात्मा का साक्षात्कार भी कर ले, क्योकि उसने सुना है कि यही परम अवस्था है, यही हमारे होने का उद्देश्य है !
अब समस्या यह है कि उसे इस विषय के बारे में केवल सुना है,तेरे-मेरे के मुंह से, जिन पर उसे इतना विश्वाश नहीं है! ऐसे में उसे ध्यान आता है कि बिन गुरु भी निस्तार नहीं है! वही उसे सच्चा ज्ञान देगा जो उसकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए परमात्मा-प्राप्ति का मार्ग पक्का करेगा !
यहाँ एक और भावना उभर कर आती है, वो है "आस्था और श्रद्धा" की! हमारी अपने गुरु में पूरी आस्था होनी चाहिए, कोई भी शंका हमारी श्रद्धा से ऊपर नहीं होनी चाहिए! फिर गोबिंद से पहले गुरु-पूजन भी बताया है! अब यदि कोई अपने माने हुए गुरु में अंध-विश्वाश भी कर ले तो उसकी कहाँ तक गलती है! यदि विश्वाश ना करे तो उनकी परीक्षा लेना भी तो उचित नहीं लगता है !
हाँ! विश्वाश करने,उसे अपना गुरु मानने से पूर्व हम उसकी जांच-परख कर सकते है! लेकिन आज जनसँख्या ही इतनी हो गयी है कि बस अड्डा, अस्पताल, रेलवे स्टेशन और (यहाँ तक के) हर धर्म-स्टेशन पर बहुत बड़ा जन समूह दिखाई देता है! किसी पर भी विश्वाश कर लेने का एक बहुत बड़ा कारण ये देखा-देखी भी है! सोचते है, अब इतने सारे लोग पागल तो ना होंगे!
उसके ऐसा होने के कारणों पर अलग से चर्चा चलनी चाहिए !
लेकिन असल प्रशन जो अभी चित में कुलाचे मार रहे है वो ये कि, माना पाखण्ड ने अपने पैर पूरी तरह से पसार रक्खे है, लेकिन जब पहले भारतवर्ष में ऋषि-महर्षि हुए है और होते रहे है तो आज भी कोई ऋषि-महर्षि कहलाने के लायक व्यक्तित्व अस्तित्व में है या नहीं? क्या जो दिखता है वो सब पाखण्ड ही है? और जो पाखंडी अभी धर्मगुरु बना फिर रहा है (चाहे वो कोई भी हो) क्या ये उस पर परमात्मा कृपा नहीं है, और जो उसके बहकावे आ रहे है उन पर किस की कृपा हो रही है ?
कुंवर जी,
सोमवार, 29 नवंबर 2010
रविवार, 28 नवंबर 2010
जांके नख अरु जटा विशाला,सोई तापस प्रसिद्द कलिकाला
हिन्दू मन अभी भी उस मानसिकता से नहीं निकल पाया है जब मध्यकाल में उसके देश,धर्म,संस्कृति, सभी को तहस-नहस किया जा रहा था. तत्कालीन समाज इसका प्रतिकार नहीं कर पाया,और अपने को असहाय समझ निराशा के गर्त में डूब रहा था.
तब संतो ने भक्ति में नाच -गान संकीर्तन,प्रवचन आदि से समाज के मन को दिलासा देते हुए उन्हें संभालने की सफल कोशिश की थी.
नहीं तो हिन्दू धर्म में तो कर्मवाद प्रधान है- "कर्म प्रधान विश्व करी राखा, जो जस कराइ तस फल चाखा"(तुलसीकृत रामायण).जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है.
जब सुख दुःख कर्मो के परिणाम है तो यह पाखंडी गुरु कैसे किसी को दुखो से छुटकारा दिला सकतें है . गुरु की आवश्यकता बताई गयी है, पर ज्ञान प्राप्ति के लिए.और ज्ञान पाने का उद्देश्य उस परमेश्वर की शरण प्राप्त करना है न की,तथाकथित कलयुगी भगवानो की.
शास्त्रों में संतो के जो लक्षण बताये गएँ है - वह आज के इन पाखंडियों में कहाँ मिलते है. बाकी पाखंडियो के जो लक्षण तुलसीबाबा ने बतलाये है उन पे यह पूरे खरे उतरते है
तुलसीदास जी के शब्दों में -
"जांके नख अरु जटा विशाला,सोई तापस प्रसिद्द कलिकाला" -
जिसने लम्बी-लम्बी जटा और नाखून रखें हो(ढोंग रचा रखा हो) ऐसे पाखंडी ही कलियुग में बड़े तपस्वी कहलातें है.
"नारी मुई,गृह संपत्ति नाशी,मुंड मुंडाए भये सन्यासी "
जिसकी पत्नी मर गयी घर-बार संपत्ति का नाश हो गया है, ऐसे लोग सिर मुंडवा के सन्यासी का भेष धरे बैठ जाते है
हिन्दू समाज आज इन ढोंगियों के पाँव पड़ने में ही अपना कल्याण मान रहा है .
तब संतो ने भक्ति में नाच -गान संकीर्तन,प्रवचन आदि से समाज के मन को दिलासा देते हुए उन्हें संभालने की सफल कोशिश की थी.
नहीं तो हिन्दू धर्म में तो कर्मवाद प्रधान है- "कर्म प्रधान विश्व करी राखा, जो जस कराइ तस फल चाखा"(तुलसीकृत रामायण).जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है.
जब सुख दुःख कर्मो के परिणाम है तो यह पाखंडी गुरु कैसे किसी को दुखो से छुटकारा दिला सकतें है . गुरु की आवश्यकता बताई गयी है, पर ज्ञान प्राप्ति के लिए.और ज्ञान पाने का उद्देश्य उस परमेश्वर की शरण प्राप्त करना है न की,तथाकथित कलयुगी भगवानो की.
शास्त्रों में संतो के जो लक्षण बताये गएँ है - वह आज के इन पाखंडियों में कहाँ मिलते है. बाकी पाखंडियो के जो लक्षण तुलसीबाबा ने बतलाये है उन पे यह पूरे खरे उतरते है
तुलसीदास जी के शब्दों में -
"जांके नख अरु जटा विशाला,सोई तापस प्रसिद्द कलिकाला" -
जिसने लम्बी-लम्बी जटा और नाखून रखें हो(ढोंग रचा रखा हो) ऐसे पाखंडी ही कलियुग में बड़े तपस्वी कहलातें है.
"नारी मुई,गृह संपत्ति नाशी,मुंड मुंडाए भये सन्यासी "
जिसकी पत्नी मर गयी घर-बार संपत्ति का नाश हो गया है, ऐसे लोग सिर मुंडवा के सन्यासी का भेष धरे बैठ जाते है
हिन्दू समाज आज इन ढोंगियों के पाँव पड़ने में ही अपना कल्याण मान रहा है .
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शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
मैं किसी से कोई बदला नहीं चाहता — प्रो. बकरा हलाल
एक बकरे की आत्मकथा अब आगे ...............
धीरे-धीरे मेरी आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा व चेतना लुप्त होने लगी. शायद साँस चलना भी बंद हो गया था. मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे प्राण निकल चुके हैं और यमदूत मुझे आकाश में कहीं उडाये लिये जा रहे हों, किन्तु यह क्या? मेरा शरीर तो अभी भी वहीं कत्लखाने में पड़ा था और अब तो दो आदमी मेरे शरीर की खाल को भी मांस चरबी व हड्डियों से अलग कर रहे थे. उन्होंने मेरी सारी खाल अलग करके एक तरफ फैंक ड़ी व मांस एक तरफ. वहाँ एक आदमी ने छुरी से मेरे मांस के अनगिनत टुकडे कर करके उसका बिलकुल भुरता ही बना दिया. वह सब जुल्म भी शायद इस देवता स्वरुप इंसान के लिये कम था क्योंकि कटे पर नमक मिर्च लगाना जो इनकी पुश्तैनी आदत व शौक है. वह तो अभी बाक़ी था सो उसे यह मेरे लिये ही क्यों छोड़ते? अतः मेरे मांस का भुरता बनाने के बाद उसमें न केवल नमक मिर्च बल्कि कई अन्य मसाले डालकर व आग पर भूनकर पूरी तरह अपनी क्रूरता का परिचय दे दिया. अब इसके आगे क्या होगा मैं यह देख ही रहा था कि तभी एक आदमी ने मेरे मांस को एक प्लेट में सजाकर एक शानदार कमरे में बैठे एक नौजवान जोड़े के सामने ला कर रख दिया. आदमी ने तो बड़ी शान जताते हुए मुझे खाना शुरू कर दिया किन्तु उसके सामने बैठी औरत को मेरा मांस खाना शायद अच्छा नहीं लग रहा था और वह केवल अपने पति का साथ निभाती-सी प्रतीत हो रही थी.
अब तक मैं धर्मराज के दरबार में पहुँच जीवात्माओं की लाइन में लग चुका था और चित्रगुप्त जी की आवाज़ ने जो सबका लेखा-जोखा बता रहे थे मेरा ध्यान अपनी ओर खेंच लिया. मेरी बारी बाने पर चित्रगुप्त जी ने बताया कि पिछले जन्म में मैंने एक बकरे का मांस खाया था जिसके परिणामस्वरूप मुझे इस जन्म में एक बकरा बनना पड़ा व अपना मांस दूसरों के भोजन के लिये देना पड़ा. उन्होंने यह भी बताया कि इस समय जो व्यक्ति होटल में बैठे तुम्हारा मांस खा रहे हैं वे तुम्हारे पूर्व जन्म की अपनी संतान ही हैं जिसके लिये तुमने उस जन्म में अपना पूरा जीवन दाँव पर लगाया था. अब ये इस जन्म में जो तुम्हारा मांस खा रहे हैं इसका दंड इन्हें अगले जन्म में भुगतना पड़ेगा. इतना सुनते ही मेरी आत्मा थरथरा उठी. मैं यह कैसे पसंद कर सकता था कि मेरी संतान को भी मेरी भाँति यंत्रणा सहनी पड़े. अतः मैंने धर्मराज जी से प्रार्थना की, कि इन सबको वे क्षमा कर दें क्योंकि मैंने भी इन सबको क्षमा कर दिया है, मैं किसी से कोई बदला नहीं चाहता. धर्मराज जी ने मुझ पर कृपा की और कहा कि चूँकि तुमने बकरे की योनि में केवल बेल पत्ते ही खाए हैं व किसी का अहित नहीं किया और अब सबको क्षमा कर दिया है अतएव अब तुम्हें मनुष्य योनि में भेजा जा रहा है और उन्होंने मेरी आत्मा को पुनः मनुष्य जन्म के लिये भेज दिया.
दूसरे जन्म के लिये जाते हुए मैंने निश्चय किया कि अब मैं दया, सत्य व सदआचरण ही करूँगा और कभी भी किसी भी जीव की ह्त्या करना व उसका मांस खाना तो दूर किसी भी जीव को कोई कष्ट तक नहीं दूँगा और न ही किसी को कोई नुकसान पहुँचाऊँगा. मैं सदैव हर जीव की रक्षा करूँगा. इन्हीं विचारों के साथ मैं अपनी नहीं माँ की कोख में चला गया.
लेबल:
एक बकरे की आत्मकथा
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
क्या यह वही इंसान है जो अपने को देवताओं व पीरों का वंशज बताता है और अहिंसा की रट लगाता है. नहीं, यह वह इंसान नहीं हो सकता. ऎसी सामूहिक हिंसा तो वे जंगली पशु भी नहीं करते जिनका भोजन सिर्फ दूसरे पशु ही हैं
एक बकरे की आत्मकथा
{गोपीनाथ अग्रवाल जी द्वारा लिखित 'शाकाहार या मांसाहार फैसला आप स्वयं करें' से साभार}
अन्य सभी जीवों की भाँति अनेक योनियों में भ्रमण करने के बाद जब मैं बकरी माँ के गर्भ में आया और पाँच महीने गर्भ की त्रास सहने के बाद जब मेरा जन्म हुआ तो एक बार मुझे यह दुनिया बहुत सुन्दर व प्यारी लगी. मनुष्य व बकरी माँ का दूध पीकर मैं शीघ्र बड़ा होने लगा. मेरी माँ का मालिक भी मुझे प्यार करता व अपने खेत पर ले जाता जहाँ मैं अपने आप हरी पत्तियाँ खाता. मेरे यहाँ गोबर कर देने पर व खेत में लोट-पोट कर खेलने पर भी मालिक कभी नाराज़ नहीं होता. जब मैंने अपनी माँ से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे गोबर से खाद बन जाती है व खेत में लेटने से धरती अधिक उपजाऊ बनती है जो मालिक के खेत की उपज बढाती है, इसलिये मालिक कुछ बुरा नहीं मानता.
धीरे-धीरे समय बीतता गया और मैं अपने साथियों के साथ मस्त जीवन बिताता रहा. जब मैं करीब डेढ़ वर्ष का हुआ तो एक दिन यहाँ आदमी मेरे मालिक के पास आया, उसने मालिक से कुछ बात की और मालिक ने मुझे व मेरे अन्य चालीस-पचास साथियों को एक साथ खड़ा कर दिया. कुछ देर बाद वहाँ एक बड़ी-सी गाड़ी आयी और हम सबको उसमें जबरदस्ती ठूँस दिया गया. मैं माँ के पास जाना चाहता था किन्तु असमर्थ था जब मैंने माँ माँ पुकारा तो एक भद्दे से आदमी ने मुझे लकड़ी से मारा. लाचार हम गाड़ी में दुबक गये. गाड़ी में पिचपिच के कारण मेरा दिमाग चकराने लगा. मेरे अन्य साथियों का भी बुरा हाल था. सबके चेहरों की मायूसी व पीलापन देखकर एक ओर कुछ भय व आशंका हो रही थी तो दूसरी ओर कुछ भय व आशंका हो रही थी तो दूसरी ओर गाड़ी के झटकों से आपस में रगड़ते हुए हमारे बदन की खरोंचे कसक रही थीं. दिन बीता रात आयी, फिर दिन बीता रात आयी कुन्तु गाड़ी सफ़र करती ही जा रही थी. रास्ते में गाड़ी चलाने वाले के आदमी ने हमें दो बार कुछ खाना दिया लेकिन उससे तो हमारा आधा पेट भी नहीं भरा. जैसे-तैसे अगले दिन हमारी गाड़ी एक बड़े शहर में आकर रुकी. तभी गाड़ी के पास एक लम्बी दाढी मूँछ वाला आदमी आया उसने गाड़ी वाले को कुछ दिया और गाड़ी वाले ने हम सबको उसके हवाले कर दिया. नया मालिक हम सबको डंडे मारता हुआ एक मकान के पास लाया हमें धूप में खड़ा कर दिया. भूख-प्यास से व्याकुल, ऊपर से धूप व मालिक का डंडा, इससे अपने प्राण निकले जा रहे थे.
काफी देर बाद हमें मकान के अन्दर ठेला गया वहाँ एक आदमी कान में कुछ नली-सी लगाकर हमारे जैसे अन्य साथियों को बारी-बारी देख रहा सा लगता था. तब हम लोगों की बारी आयी तो हमारे मालिक ने उसे कुछ दिया और उसने हमें बगैर देखे ही अन्दर भेज दिया. यह बात मैं कुछ समझ नहीं सका किन्तु मेरे एक बड़े साथी ने बताया कि यह डॉक्टर था जो हम सबकी जाँच करता था क्योंकि अब हम सबकी मौत नज़दीक है. यह सुनते ही मैं तो अधमरा हो गया, भय से भूख-प्यास सब गायब हो गई और जब एक बार हमें खाना व पानी दिया गया तो वह भी मुझसे खाया नहीं गया. पानी के लिये मुँह बढाया किन्तु भय से पानी हलक के लिये मुँह बढ़ाया किन्तु भय से पानी हलक में जा ही नहीं पाया. तभी एक दूसरे कमरे का दरवाजा खुला और वहाँ का दृश्य देखकर तो मेरी रूह कांपने लगी. आँखों के आगे अन्धेरा-सा छा गया. उस कमरे से भरे साथियों के रोने व चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं जिसे सुनकर मुझे भी रोना आ गया. मैंने चिल्लाने की कोशिश की किन्तु पता नहीं मेरी आवाज़ निकल ही नहीं पायी. बाहर भागने के लिये मैंने पीछे मुड़ने का प्रयत्न किया किन्तु तभी एक आदमी ने मेरी दोनों टांगों को पीछे से पकड़ कर उसी कमरे में धकेल दिया जहाँ एक डरावना राक्षस जैसा व्यक्ति हाथ में बड़ा-सा चाकू लिये मेरे साथियों को मौत के घात उतार रहा था. अचानक एक विचार मेंरे दिमाग में कौंधा कि क्या यह वही इंसान है जो अपने को देवताओं व पीरों का वंशज बताता है और अहिंसा की रट लगाता है. नहीं, यह वह इंसान नहीं हो सकता. ऎसी सामूहिक हिंसा तो वे जंगली पशु भी नहीं करते जिनका भोजन सिर्फ दूसरे पशु ही हैं.............. मैं सोच ही रहा था कि एक आदमी मेरा कान खींचकर उस भयानक आदमी की ओर ले जाने लगा. मैंने अपना पूरा जोर लगाकर छोटना चाहा किन्तु कोई फल नहीं निकला, क्षोभ से मेरा खून खुलने लगा, मुँह से झाग आया, मल-मूत्र निकलने लगा किन्तु किसी को भी मेरी हालत पर तरस नहीं आया. उलटे दो और आदमियों ने आकर मुझे पकड़ लिया, एक ने मेरी टांगें पकड़ी व दूसरा मेरी गर्दन पर छुरी चलाने लगा. मेरी गर्दन से खून का फौव्वारा छूट गया और रोम-रोम पीड़ा से भर गया. अब मेरे पास कोई उपाय नहीं था और मैं यही चाह रहा था कि इस भाँति पीड़ा देने की बजाये मुझे ये फ़ौरन ही मार दें तो अच्छा हो; किन्तु नहीं, मुझे अभी और कष्ट उठाने थे और तडपना था क्योंकि सिर्फ आधी गर्दन कटी होने से मेरी मौत में विलम्ब हो रहा था. इस बेबसी व यातना का एक-एक क्षण मुझे एक वर्ष से भी बड़ा लग रहा था. कभी अपने भाग्य को कोसता हुआ व कभी भगवान को याद करता हुआ मैं बेसब्री से अपनी मौत की प्रतीक्षा कर रहा था.
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
सोमरस के विषय में कुछ प्रचलित विवादो का निराकरण – वेदरहस्यम्
सोमरस के विषय में कुछ प्रचलित विवादो का निराकरण – वेदरहस्यम्
बहुत दिनों के पहले हमने सोमरस पर एक लेख लिखा था जिसमें कई वैदेशिक विद्वानों के मतों का उल्लेख तथा यथाशक्य उनका दुराग्रह खण्डन किया गया था । किन्तु पर्याप्त अध्ययन के अभाव में लेख पूर्णता को प्राप्त नहीं हुआ । किन्तु अब जब कि ईश्वर की कृपा से शोध के सन्दर्भ में वेद भगवान के अध्ययन का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो कई बातें स्पष्ट होती जा रही हैं ।
इसी क्रम में सोम के विषय में प्रचलित कुछ अपवादों का निराकरण निम्नोक्त मन्त्रों के द्वारा करने का प्रयास कर रहा हूँ ।
मन्त्र:-सुतपात्रे सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये । सोमासो दध्याशिर: ।। (ऋग्वेद-1/5/5)
मन्त्रार्थ: -यह निचोडा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस , सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इन्द्र देव को प्राप्त हो ।।
मन्त्र: - तीव्रा:सोमास आ गह्याशीर्वन्त:सुता इमे । वायो तान्प्रस्थितान्पिब ।। (ऋग्वेद-1/23/1)
मन्त्रार्थ: - हे वायुदव यह निचोडा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है । आइये और इसका पान कीजिये ।।
मन्त्र: - शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् । एदु निम्नं न रीयते ।। (ऋग्वेद-1/30/2)
मन्त्रार्थ: - नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकडो घडे सोमरस में मिले हुए हजारों घडे दुग्ध मिल करके इन्द्र देव को प्राप्त हों ।।
उपर्युक्त मन्त्रों में सोम में दधि और दुग्ध मिश्रण की बात कही गयी है । आजतक मैने किसी भी व्यक्ति को शराब में दूध या दही मिलाते हुए नहीं देखा है अत: इस बात का तो सीधा निराकरण हो जाता है कि सोम शराब है । कुछ विद्वानों ने सोम को एक विशेष प्रकार का कुकुरमुत्ता माना है । किन्तु क्या आपने कुकुरमुत्ते की सब्जी में दूध या दही मिलाये जाते देखा है । मैने तो नहीं देखा । खैर कदाचित् ऐसा कहीं होता भी तो कुकुरमुत्ते की सब्जी तो सुनी थी पर किसी ने कुकुरमुत्ते को निचोड कर पिया हो ऐसा तो कभी नहीं सुना है और उूपर साफ वर्णित है कि सोम को ताजा निचोडा जाता है ।
ऋग्वेद में आगे सोम का और भी वर्णन है , एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि मनुष्यों के साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाये और पिलाये जाने की बात कही गई है । कुकुरमुत्ता तो पशु खाते ही नहीं फिर तो समस्या स्वयं ही और भी निराकृत हो जाती है ।
विचार करने पर सोम आज के चाय की तरह ही कोई सामान्य प्रचलित पेय पदार्थ लगता है, जिसे सामान्य जन भी प्रतिदिन पान किया करते थे ।।
क्रमश: ……….
भवदीय:- आनन्द:
सोमवार, 15 नवंबर 2010
यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। भाग -- २
इस संसार में अनेक प्रकार की प्रकृति के लोग है ; गीताजी में उनको दो भागों में विभक्त किया गया है ------ एक दैवी प्रकृति के तथा दूसरे आसुरी प्रकृति के मनुष्य----
इन दोनों प्रकार की प्रकृति के मनुष्यों के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है. फिर भी बिलकुल सूक्ष्म रूप से कहना चाहे तो कह सकते है की दैवी प्रकृति के लोग सात्विक जीवनचर्या का निर्वहन करते हुए परोपकार में निरत रहते है, जबकि आसुरी वृत्ति के मनुष्य दंभ,मान और मद में उन्मत्त हुए स्वेच्छाचार पूर्ण आचरण करते हुए पापमय जीवन जीते है.
बतलाने की आवश्यकता नहीं की प्राय ऐसे आसुरी लोग ही मांस-भक्षण और अश्लील सेवन की रूचि रखते है, और ऐसे कुक्करों ने ही अर्थ का अनर्थ करके वेद आदि शास्त्रों में मद्य मांस तथा मैथुन की आज्ञा सिद्ध करने की धृष्टता की है.
महाभारत में कहा गया है की प्राचीन काल से यज्ञ-याग आदि केवल अन्न से ही होते आये है. मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है. वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है------
असुर शब्द का अर्थ ही है --- "प्राण का पोषण करने वाला" जो अपने सुख के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा करते है वे सभी असुर है. ये शास्त्र पड़ते हि इसलिए है की शास्त्र का मनमाना अर्थ करके येनकेन प्रकारेण शब्दों की व्युत्पत्ति करके खींचतान से चाहे जो अर्थ निकाल कर शास्त्रों की मर्यादा का नाश किया जा सके. इन कुकर्मियों द्वारा वेदों द्वारा यज्ञों में मद्य-मांस का विधान, पशुवध की रीति बतायी गयी है ऐसा कहा जाता है .
वेद साक्षात भगवान् की वाणी है, उनमें ऐसी कोई बात कभी नहीं हो सकती जो मनुष्य को अनर्गल विषयभोग और हिंसा की और जाने के लिए प्रोत्साहित करती हो. वेद भगवान् की तो स्पष्ट आज्ञा है ------------ "मा हिंस्यात सर्वा भूतानि" ( किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें ).
बल्कि यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम है उनसे ही यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक होते आये है.
"ध्वर" शब्द का अर्थ है हिंसा. जहाँ ध्वर अर्थात हिंसा ना हो उसी का नाम है "अध्वर" . यह "अध्वर" ही यज्ञ का पर्यायवाची नाम है . अतः हिंसात्मक कृत्य कभी भी वेद विहित यज्ञ नहीं माना जा सकता है.
"यज" धातु से "यज्ञ" बनता है. इसका अर्थ है----- देवपूजा,संगतिकरण और दान. इनमें से कोई से भी क्रिया हिंसा का संकेत नहीं करती है.
वैदिक यज्ञों में तो मांस का इतना विरोध है की मांस जलाने वाली आग को सर्वथा ताज्य घोषित किया गया है. प्राय: चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है. जहाँ अपनी मृत्यु से मरे हुए मनुष्यों के अंत्येष्टि-संस्कार में उपयोग की जाने वाली अग्नि का भी बहिष्कार है, वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठापित विशुद्ध अग्नि में अपने द्वारा मरे गए पशु के होम का विधान कैसे हो सकता है ?
आज भी जब वेदी पर अग्नि की स्थापना होती तो उसमें से अग्नि का थोडा सा अंश निकालकर बाहर रख दिया जाता है. इस भावना के साथ की कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली अग्नि ) के परमाणु ना मिले हो. अत: "क्रव्यादांशं त्यक्त्वा" (क्रव्याद का अंश निकालकर ही ) होम करने की विधि है.
ऋग्वेद का वचन है-------
ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहाँ गया है की जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गाय आदि पशुओं का मांस खाता हो तथा गाय के दूध को चुरा लेता हो, उसका मस्तक काट डालो --------
"द्वौ भूतसर्गौ लोकेsस्मिन दैव आसुर एव च"
इन दोनों प्रकार की प्रकृति के मनुष्यों के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है. फिर भी बिलकुल सूक्ष्म रूप से कहना चाहे तो कह सकते है की दैवी प्रकृति के लोग सात्विक जीवनचर्या का निर्वहन करते हुए परोपकार में निरत रहते है, जबकि आसुरी वृत्ति के मनुष्य दंभ,मान और मद में उन्मत्त हुए स्वेच्छाचार पूर्ण आचरण करते हुए पापमय जीवन जीते है.
बतलाने की आवश्यकता नहीं की प्राय ऐसे आसुरी लोग ही मांस-भक्षण और अश्लील सेवन की रूचि रखते है, और ऐसे कुक्करों ने ही अर्थ का अनर्थ करके वेद आदि शास्त्रों में मद्य मांस तथा मैथुन की आज्ञा सिद्ध करने की धृष्टता की है.
महाभारत में कहा गया है की प्राचीन काल से यज्ञ-याग आदि केवल अन्न से ही होते आये है. मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है. वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है------
१. श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणां विहिमयः पशु: ।
येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः ।।
२. सुरां मत्स्यान मधु मांसमासवं क्रसरौदनम ।
धुर्ते: प्रवर्तितं ह्योतन्नैतद वेदेषु कल्पितम ।।
असुर शब्द का अर्थ ही है --- "प्राण का पोषण करने वाला" जो अपने सुख के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा करते है वे सभी असुर है. ये शास्त्र पड़ते हि इसलिए है की शास्त्र का मनमाना अर्थ करके येनकेन प्रकारेण शब्दों की व्युत्पत्ति करके खींचतान से चाहे जो अर्थ निकाल कर शास्त्रों की मर्यादा का नाश किया जा सके. इन कुकर्मियों द्वारा वेदों द्वारा यज्ञों में मद्य-मांस का विधान, पशुवध की रीति बतायी गयी है ऐसा कहा जाता है .
वेद साक्षात भगवान् की वाणी है, उनमें ऐसी कोई बात कभी नहीं हो सकती जो मनुष्य को अनर्गल विषयभोग और हिंसा की और जाने के लिए प्रोत्साहित करती हो. वेद भगवान् की तो स्पष्ट आज्ञा है ------------ "मा हिंस्यात सर्वा भूतानि" ( किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें ).
बल्कि यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम है उनसे ही यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक होते आये है.
"ध्वर" शब्द का अर्थ है हिंसा. जहाँ ध्वर अर्थात हिंसा ना हो उसी का नाम है "अध्वर" . यह "अध्वर" ही यज्ञ का पर्यायवाची नाम है . अतः हिंसात्मक कृत्य कभी भी वेद विहित यज्ञ नहीं माना जा सकता है.
"यज" धातु से "यज्ञ" बनता है. इसका अर्थ है----- देवपूजा,संगतिकरण और दान. इनमें से कोई से भी क्रिया हिंसा का संकेत नहीं करती है.
वैदिक यज्ञों में तो मांस का इतना विरोध है की मांस जलाने वाली आग को सर्वथा ताज्य घोषित किया गया है. प्राय: चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है. जहाँ अपनी मृत्यु से मरे हुए मनुष्यों के अंत्येष्टि-संस्कार में उपयोग की जाने वाली अग्नि का भी बहिष्कार है, वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठापित विशुद्ध अग्नि में अपने द्वारा मरे गए पशु के होम का विधान कैसे हो सकता है ?
आज भी जब वेदी पर अग्नि की स्थापना होती तो उसमें से अग्नि का थोडा सा अंश निकालकर बाहर रख दिया जाता है. इस भावना के साथ की कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली अग्नि ) के परमाणु ना मिले हो. अत: "क्रव्यादांशं त्यक्त्वा" (क्रव्याद का अंश निकालकर ही ) होम करने की विधि है.
ऋग्वेद का वचन है-------
क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
एहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन ।।
( ऋ ७।६।२१।९ )
"मैं मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए. इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है."
ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहाँ गया है की जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गाय आदि पशुओं का मांस खाता हो तथा गाय के दूध को चुरा लेता हो, उसका मस्तक काट डालो --------
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्गक्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः ।
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ।।
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ।।
( ऋ ८।४।८।१६ )
अब प्रश्न होता है की वेदों में आदि मांस वाचक या हिंशा बोधक कोई शब्द ही प्रयुक्त न हुआ होता तो कोई उसका इस तरह का अर्थ कैसे निकाल सकता है ?
इसका चिंतन करने योग्य सरल उत्तर यह है की प्रकृति स्वभावतः निम्न गामी होती है ; अतः प्रकृति के वश में रहने वाले मनुष्यों की प्रवृत्ति स्वभावतः विषयभोग की ओर जाती है. आसुरी स्वाभाव वाले विशेष रूप से निकृष्ट भोगों की तरफ जातें है. ओर उनकी प्राप्ति के साधन खोजतें है. इसी न्याय से इन आसुरी प्रकृति के लोगों ने वेद कथनों का मनमाना अर्थ लगा कर अपने कुकर्मों को वेद विहित कर्म घोषित कर दिया.
महाभारत में प्रसंग आता है की एक बार ऋषियों और दूसरे लोगों में "अज" शब्द के अर्थ पे विवाद हुआ. ऋषि पक्ष का कहना था की "अजेन यष्टव्यम" का अर्थ है "अन्न से यज्ञ करना चाहिये. अज का अर्थ है उत्पत्ति रहित; अन्न का बीज ही अनादी परम्परा से चला आ रहा है; अतः वही "अज" का मुख्य अर्थ है; इसकी उत्पत्ति का समय किसी को ज्ञात नहीं है; अतः वही अज है."
दूसरा पक्ष अज का अर्थ बकरा करता था. दोनों पक्ष निर्णय कराने के लिए राजा वसु के पास गए. वसु कई यज्ञ कर चुका था . उसके किसी भी यज्ञ में मांस का प्रयोग नहीं हुआ था, पर उस समय तक वह मलेच्छों के संपर्क में आकर ऋषि द्वेषी बन गया था. ऋषि उसकी बदली मनोवृत्ति से अनजान उसी के पास न्याय करवाने पहुँच गए . उसने दोनों का पक्ष सुनकर ऋषियों के मत के विरुद्ध निर्णय देते हुए कहा " छागेनाजेन यष्टव्यम" . असुर तो यही चाहते थे. वे इस मत के प्रचारक बन गए; पर ऋषियों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि यह किसी भी हेतु से संगत नहीं बैठता था.
संस्कृत-वांग्मय में अनेकार्थ शब्द बहुत है. "शब्दा: कामधेनव:" यह प्रसिद्द है. उनसे अनेक अर्थों का दोहन होता है. पर कौन सा अर्थ कहाँ लेना ठीक है यह विवेकशीलता का काम है. कोई यात्रा पर जा रहा हो और "सैन्धव" लाने के लिए काहे तो उस समय "नमक" लाने वाला मुर्ख ही कहलायेगा, उस समय तो सिन्धु देशीय घोड़ा लाना ही उचित होगा. इसी तरह भोजन में सैन्धव डालने के लिए कहने पर नमक ही डाला जाएगा घोड़ा नहीं .
इसी तरह आयुर्वेद में कई दवाइयों में घृतकुमारी (ग्वारपाठा) का उपयोग होता है, तो जहां दवा बनाने की विधि में " प्रस्थं कुमारिकामांसम " लिखा गया है; वहाँ किलो भर घृतकुमारी/ग्वारपाठा/घीकुंवार का गूदा ही डाला जाएगा . कुँवारी-कन्या का एक किलो मांस डालने की बात तो कोई नरपिशाच ही सोच सकता है.
(साभार कल्याण उपनिषद-अंक)
जारी..............
शनिवार, 13 नवंबर 2010
क्षुद्रता के विविध रूप
क्षुद्रताओं को छिपाकर [दबाकर] रखना शिष्टता है,
उन्हें उजागर न होने देना सभ्यता है और उन्हें भीतर ही भीतर समाप्त करते रहना संस्कृत होते जाना है.
क्षुद्रताओं का छिपे रूप से पोषण करना वंचकता है,
उन्हें वहीं सड़ते रहने देना व किसी अन्य की दृष्टि का भाजन बनना धूर्तता है और स्वयं स्पष्टीकरण करते हुए उनमें लिप्त रहना — उच्छृंखलता कहा जाएगा.
क्षुद्रताओं की स्वयं द्वारा सहज स्वीकृति सज्जनता है,
किन्तु परिमार्जन का भाव उसकी अनिवार्यता है अन्यथा वह यशलोलुपतापूर्ण स्पष्टवादिता कहलायेगी.
लेबल:
उच्छृंखलता,
धूर्तता,
वंचकता,
शिष्टता,
संस्कृत,
सज्जनता,
सभ्यता,
स्पष्टवादिता
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
घृत (घी) और सूर्य किरणों में में पुष्टिदायक तत्त्व- वेदों में विज्ञान !!
मूल मन्त्र यहाँ देखें
विदित हो कि आज का विज्ञानं चिल्ला चिल्ला कर घी को और सूर्य कि किरणों को उर्जा का स्रोत कहता है !
और आज सभी लोग इस बात को स्वीकार करते भी हैं ! किन्तु लाखों वर्षों पहले यही तथ्य हमारे मनीषियों ने संपादित किया था क्या हम इस तथ्य को भी जानते हैं या जानने का प्रयास करते हैं क्या ?
ऋग्वेद का यह सूक्त आपको इस तथ्य से अवगत कराता है !
संकेत . -- मित्रं हुवे ............................................................ साधन्ता ! (ऋग्वेद १/२/७)
भावार्थ . - घृत के समान पुष्ट, प्राणप्रद प्रकाशक हितैषी पवित्र सूर्य देवता और समर्थ वरुण देवता का आवाहन करता हूँ ! वे हमारी बुद्धि को उर्वरा बनाएं !!
टिप्पणी- उक्त मन्त्र में सूर्य को घृत के समान पुष्ट प्राणदायक पवित्र कहा गया है ! अब जरा दादी नानी के नुस्खे याद कीजिये ! जब आप की सेहत को देखते हुए आप के खाने में ढेर सारा घी डालते हुए वो कहा करती थी , बेटा खा ले, मोटा हो जाएगा !
आज का विज्ञान क्या कहता है ये तो आप सब को पता होगा ! घी की शक्ति का प्रमाण मिल जाने के बाद मन्त्र के आगे के भाग पर गौर करें तो देखते हैं कि घी के समान गुण वाला सूर्य को कहा गया है ! तात्पर्य यह है कि सूर्य कि ऊर्जा हमारे लिए उतनी ही लाभ दायक है जितनी कि घी ! अब विज्ञान की बातें याद करें तो वह भी यही कहता है कि सूर्य कि किरणों में फला- फला विटामिन होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अति लाभदायक होते हैं ! वरुण के लिए समर्थ शब्द का प्रयोग किया गया है ! क्यूंकि वरुण के मूर्त रूप जल के गुणों की आगे के मन्त्रों में चर्चा है ! किन्तु यदि वरुण के साथ भी उक्त विशेषण लगा दिए जाएँ तो भी कोई गलत नहीं होगा, क्यूंकि जल में भी कई गुण होते हैं जिनका वर्णन आगे के मंत्रो में प्राप्त भी होता है ! ये स्पष्टीकरण इसलिए दे रहा हूँ कि हमारे कुछ भाई हैं जो तथ्यों से ज्यादा गलतियों पर ध्यान देते हैं ! अब वेद भगवान कि महिमा का ज्ञान अधिकाधिक जनों को हो इसके लिए इस लेख को जितना अधिक लोगों को भेज सकें उत्तम है !
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विदित हो कि आज का विज्ञानं चिल्ला चिल्ला कर घी को और सूर्य कि किरणों को उर्जा का स्रोत कहता है !
और आज सभी लोग इस बात को स्वीकार करते भी हैं ! किन्तु लाखों वर्षों पहले यही तथ्य हमारे मनीषियों ने संपादित किया था क्या हम इस तथ्य को भी जानते हैं या जानने का प्रयास करते हैं क्या ?
ऋग्वेद का यह सूक्त आपको इस तथ्य से अवगत कराता है !
संकेत . -- मित्रं हुवे ............................................................ साधन्ता ! (ऋग्वेद १/२/७)
भावार्थ . - घृत के समान पुष्ट, प्राणप्रद प्रकाशक हितैषी पवित्र सूर्य देवता और समर्थ वरुण देवता का आवाहन करता हूँ ! वे हमारी बुद्धि को उर्वरा बनाएं !!
टिप्पणी- उक्त मन्त्र में सूर्य को घृत के समान पुष्ट प्राणदायक पवित्र कहा गया है ! अब जरा दादी नानी के नुस्खे याद कीजिये ! जब आप की सेहत को देखते हुए आप के खाने में ढेर सारा घी डालते हुए वो कहा करती थी , बेटा खा ले, मोटा हो जाएगा !
आज का विज्ञान क्या कहता है ये तो आप सब को पता होगा ! घी की शक्ति का प्रमाण मिल जाने के बाद मन्त्र के आगे के भाग पर गौर करें तो देखते हैं कि घी के समान गुण वाला सूर्य को कहा गया है ! तात्पर्य यह है कि सूर्य कि ऊर्जा हमारे लिए उतनी ही लाभ दायक है जितनी कि घी ! अब विज्ञान की बातें याद करें तो वह भी यही कहता है कि सूर्य कि किरणों में फला- फला विटामिन होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अति लाभदायक होते हैं ! वरुण के लिए समर्थ शब्द का प्रयोग किया गया है ! क्यूंकि वरुण के मूर्त रूप जल के गुणों की आगे के मन्त्रों में चर्चा है ! किन्तु यदि वरुण के साथ भी उक्त विशेषण लगा दिए जाएँ तो भी कोई गलत नहीं होगा, क्यूंकि जल में भी कई गुण होते हैं जिनका वर्णन आगे के मंत्रो में प्राप्त भी होता है ! ये स्पष्टीकरण इसलिए दे रहा हूँ कि हमारे कुछ भाई हैं जो तथ्यों से ज्यादा गलतियों पर ध्यान देते हैं ! अब वेद भगवान कि महिमा का ज्ञान अधिकाधिक जनों को हो इसके लिए इस लेख को जितना अधिक लोगों को भेज सकें उत्तम है !
क्रमशः ..................
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भवदीय: - आनन्द:
रविवार, 7 नवंबर 2010
यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। भाग -- १
।। सम्पूर्ण मन्त्र यहाँ देखें ।।
संकेत - अग्ने यं ................................................................. इद्देवेषु गच्छति ।। (ऋग्वेद - 1/1/4)
संकेत - अग्ने यं ................................................................. इद्देवेषु गच्छति ।। (ऋग्वेद - 1/1/4)
भावार्थ - हे अग्निदेव । आप जिस हिंसा रहित यज्ञ को चारों ओर से आवृत किये रहते हैं , वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है ।।
विशेष - पिछले कई सौ वर्षों में वैदिक यज्ञों पर कुछ विक्षिप्त मस्तिष्क वाले देशी-विदेशी विद्वानों के द्वारा हिंसा का मिथ्या आरोप लगता रहा है । आश्चर्य यह होता है कि ये विद्वान पूरे ग्रन्थ का सम्यक अध्ययन करने के बाद भी ग्रन्थारम्भ में ही दत्त उपर्युक्त मन्त्र को अनदेखा करते रहे । ये सत्य है कि ग्रन्थ में कई द्वयार्थी शब्द मध्य में प्रयुक्त हुए हैं जिनका अज्ञानता वश हिंसा अर्थ कर लिया जाता है । यथा - मेध, आलभन, बलि, माँस इत्यादि किन्तु इनका दूसरा हिंसा जनित अर्थ करने की किसी भी आवश्यकता का निवारण उपर्युक्त मन्त्र ग्रन्थारम्भ में ही कर देता है । इस मन्त्र में स्पष्ट लिखा गया है कि जिस हिंसा रहित यज्ञ को आप चारो ओर आवृत किये रहते हैं वही देवों तक पहुँचता है । यज्ञों का आयोजन देवों को प्रसन्न करने हेतु किया जाता है, यज्ञभाग का देवों तक पहुँचने का माध्यम अग्नि देव हैं, और अग्निदेव को ही लक्षित करके यह मन्त्र हिंसा का निवारण करता है । इस तरह से ग्रन्थ के आरम्भ में ही हिंसा का विरोध किया गया है । भला कौन ऐसा यज्ञ करना चाहेगा जो देवों तक उसकी विनय को पहुँचाये ही न ।
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भवदीय: - आनन्द:
भवदीय: - आनन्द:
बुधवार, 3 नवंबर 2010
विश्व की प्रधानतम व प्राचीनतम खोज - वेदों में विज्ञान ।।
आज के युग में भारतीय मेधा के प्रथम प्रदर्शन 'वेद' विद्या के प्रसार प्रचार की बहुत ही आवश्यकता है । वेदों के विषयों में पाश्चात्य व प्रार्च्य कतिपय विद्वानों द्वारा इतने भ्रामक तथ्य फैला दिये गये हैं कि समाज में वेदों के सम्यक प्रचार की पुन: आवश्यकता प्रतीत होती है, ये वेद प्राचीनकाल से आज तक के आविष्कारों व खोजों की सूची हैं । यदि हम ठीक से इन्हे पढें तो ये देखेंगे कि विश्व का सर्वप्रथम आविष्कार कब और कहाँ हुआ था ।
वेदों में वैज्ञानिक तथ्यों की भरमार है । मेरे स्वयं के अध्ययन से मैने ये पाया कि वस्तुत: वेद हमारे आस पास की वस्तुओं में ही निमीलित वैज्ञानिक तथ्यों का ही अध्ययन है ।
वेदों के मन्त्र बडे ही सांकेतिक है जिनमें ऐसी ऐसी बातों का वर्णन है जिसे आज का विज्ञान अब ढूढ पाया है । इन्ही सूक्ष्म वैज्ञानिक तथ्यों का खुलासा करने हेतु ही वेदों में विज्ञान की यह श्रृंखला प्रारम्भ की जा रही है । आज सर्वप्रथम ऋग्वेद के प्रथम सूक्त के प्रथम मन्त्र का वर्णन करता हूँ , जिसमें विश्व की सर्वप्रथम और महानतम खोज हुई थी ।।
संकेत - ॐ अग्निमीले पुरोहितं........................................ रत्नधातमम् ।। (ऋग्वेद-1/1/1)
अर्थ - हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं जो यज्ञ के पुरोहित, देवता, ऋत्विज, होता और याजकों को रत्नों से विभूषित करने वाले हैं ।।
विशेष - अग्नि विश्व की सर्वप्रथम खोज है , ये विश्व की सबसे महानतम खोज कही जा सकती है । इस मन्त्र में अग्नि की महत्ता का वर्णन है । ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र किसी विशिष्ट देव को ही समर्पित किया जाना चाहिये । विशिष्ट में भी देवराज इन्द्र प्रधान हैं किन्तु फिर भी प्रथम मन्त्र उनको समर्पित नहीं किया गया । देवगुरू वृहस्पति तो इन्द्र के भी मार्गदर्शनकर्ता हैं पर प्रथम मन्त्र उनको भी समर्पित न होकर अग्नि को समर्पित किया गया इससे यह पता चलता है कि वैदिक काल में ही अग्नि की महत्ता का पता चल गया था । अग्नि याजकादि को समृद्धि प्रदान करने वाले हैं इससे भी अग्नि की महत्ता की ओर संकेत किया गया है । आगे के मन्त्रों में अग्नि की उत्पत्ति का भी वर्णन दिया गया है और अग्नि का विशेष महत्व भी बताया गया है । जो क्रमश: प्रस्तुत किया जायेगा ।
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
प्राचीन को बचाइये पहना नवीन आवरण
प्राचीन पर नवीन का हो गया है आक्रमण.
प्राचीन को बचाइये पहना नवीन आवरण.
भूत में सोचा भविष्य है बना हुआ नवीन
आज, कल नवीनता से वह भी होगा विहीन.
आज तुम नवीनता से होकर हर्षातिरेक
चमक को स्वीकारते नकारते हो चिर विवेक.
प्राचीन को बचाइये पहना नवीन आवरण.
भूत में सोचा भविष्य है बना हुआ नवीन
आज, कल नवीनता से वह भी होगा विहीन.
आज तुम नवीनता से होकर हर्षातिरेक
चमक को स्वीकारते नकारते हो चिर विवेक.
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