गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

पाँव की संख्या से निर्धारित तरह-तरह की वृत्तियाँ


विवाह से पूर्व व्यक्ति दो पाया होने से राक्षसी-वृत्ति का होता है. विवाह होने पर चौपाया होने से पाशविक-वृत्ति का हो जाता है. उसके पश्चात संतान होने पर पूर्णतः गृहस्थी हो जाने से छह पाया अर्थात लूतिका-वृत्ति का हो जाया करता है. वानप्रस्थ में आ जाने पर पुनः दो पाया अर्थात मनुष्य वृत्ति का कहलाता है और अंशतः परिपक्व अवस्था में आकर सर्वदाता होने से देववृत्ति का हो जाता है. 

राक्षसी वृत्ति — निरंतर विकास करने की वृत्ति [गुरु से गुरुतर हो जाने का स्वभाव] और अन्यों को पराजित करने की भावना. इसमें ईर्ष्या-द्वेष भी चरम सीमा पर (प्रायः) पाया जाता है. 

पशु वृत्ति — निरंतर भोगने की वृत्ति [तृप्ति के पश्चात भी अतृप्ति का भाव] और अन्यों का भाग भी पा लेने की भावना. इसमें मस्तिष्क की जड़ता और विवशता दोनों अवस्थाएँ पायी जाती हैं. 

लूतिका वृत्ति / पिपीलिका वृत्ति — निरंतर संग्रह करने की वृत्ति और सुखद भविष्य के लिये योजनायें (जाल) तैयार करना. अन्यों को अपने पोषण के लिये शिकार बनाने की भावना. इसमें छल-कपट भी चरम सीमा पर पाया जाता है. 

मनुष्य वृत्ति — निरंतर त्याग करने की वृत्ति और अन्यों का परोपकार करने की भावना. इसमें मात्र जीवन जीने का 'मोह' शेष रह जाता है और स्वार्थ रूप में मोक्ष-प्राप्ति की भावना ही बचती है अर्थात वह उत्तम देवता बनने की इच्छा रखता है. 

देव-वृत्ति — निरंतर देते जाने की वृत्ति, पर फिर भी वह रिक्त हस्त नहीं होता. इसमें स्वार्थ का पूर्णतः पराभाव होता है. 

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

मजहबी संस्कृति बनाम राष्ट्रीयता....

अमूमन जो व्यक्ति जिस घर,जिस कुटुम्ब, जिस कुल में जन्म लेता है, वह उस पर अपना स्वामित्व रखता है और अपने कुल की मर्यादा का ध्यान रखते हुए अपने पुरखों के संस्कार लेकर चलता है. परन्तु ऎसा भी होता है कि किसी दूसरे घर में पैदा हुए बच्चे को अगर कोई व्यक्ति 'गोद' ले लेता हैं,तो वह भी इस नये घर में आकर संतान होने के समस्त अधिकार स्वत: ही पा जाता है. गोद आए हुए बच्चे अर्थात दत्तक सन्तान को इस नये घर को ही 'अपना' घर समझना होता है. इसी घर के पुरखों को वह अपनाता है और इसी के आचार-विचार ग्रहण करता है. परन्तु उसके मन में कदाचित यह विचार भी आ सकता है----आना स्वाभाविक है---कि मैं इस घर में आ गया हूँ, पर मेरा असली घर तो वह है जहाँ से ये लोग मुझे लेकर आए हैं! यानि थोडी बहुत ममता उधर भी रहती है, रह सकती है. परन्तु इस गोद आए हुए बच्चे की भावी पीढियाँ 'उस' घर की ममता एकदम छोड देती है, जिस घर से उनका वह पूर्वज आया था. वे सुनी-सुनाई बातों से इतना जानते भर हो सकते हैं कि हमारा वो पूर्वज अमुक जगह से गोद लिया गया था. आगे चलकर वह स्मृति भी प्राय: नहीं रहती.
इसी तरह एक जाति किसी दूसरी जाति के घर में----उसके राष्ट्र में पहुँच जाती है. वहाँ पहुँच युद्ध आदि के द्वारा विजेता रूप में रहती है, तो कुछ दिन तक गुप्त-प्रकट संघर्ष रहता है और फिर आपस में उन जातियों का मेल हो जाता है. धीरे-धीरे यह नई आई हुई जाति उस नई जगह को अपना लेती है---उसी में घुलमिल जाती है और वह अनेकता पुन: एकता में परिणत हो जाती है. ऎसी स्थिति में "प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति"----बहुत्व के आधार पर नाम-रूप ग्रहण होता है. जो धारा पहले से प्रतिष्ठित है, जो आधिक्य से भी है, उस का नाम-रूप रहता है. दूसरी उसी में विलीन हो जाती है. ऎसा नहीं होता कि दो संस्कृतियों के इस 'संगम' के बाद 'मिश्रित' नाम की कोई नई ही संस्कृति बन जाए! गंगा में आरम्भ से लेकर समुद्र प्रयन्त हजारों नदी-नाले मिलते हैं, परन्तु सब की वह मिली-जुली धारा आखिर रहेगी "गंगा" ही.
इसी तरह भारतीय जाति----यानि "हिन्दुस्तान" में बाहर से आ-आकर शक, हूण, मंगोल, मुगल आदि न जाने कितनी धाराएं मिली और खप गई. सब के सब स्वत: भारतीय बन गए. यहाँ का रहन-सहन और आचार-विचार ग्रहण कर लिया और बस! मत-मजहब चाहे जो मानते रहो. एक जाति में सैकडों मत-मजहब रह सकते हैं. कोई ईश्वर को मानता है, कोई नहीं मानता; दोनों ही "भारतीय" हैं, यदि भारतीयता उनमें बरकरार है. जब तक कोई बाह्य संस्कृति के रंग में डूबा रहेगा, तब तक वह सच्चे रूप में "भारतीय जाति" का नहीं हो सकता. हो ही नहीं सकता, अब कहने को भले ही कोई कुछ भी कहता रहे, समझता रहे.
शक, हूण और मंगोल आदि जो जातियाँ कभी इस देश में आई होंगी, वे सब तो "भारतीय" बनकर इस समाज में मिल-खप गई; पर बाद में आगे आने वाले कईं जातियों के लोग----पूरी तरह से न मिल सके! मजहब की आड लेकर उन लोगों द्वारा एक पृथक संस्कृति के निर्माण के प्रयास किए जाते रहे, बल्कि एक तरह से कहें तो निर्माण कर ही लिया गया. अब एक ही राष्ट्र में दो संस्कृतियाँ जन्म ले चुकी हैं, तो दो जातियाँ बन ही गई. "संस्कृति" और "जातीयता" प्राय: एक ही चीज है. "हिन्दू" और "हिन्दू-संस्कृति" एक ही चीज समझिए. हिन्दू तो एक जाति, जिस में हजारों मत-मजहब और वर्ग या दल हैं. परन्तु इस्लाम एक मजहब है, जाति नहीं. दशकों से इस मजहब के आधार पर ही भारत में एक नईं संस्कृति का निर्माण किया जाता रहा है, जिसे सब लोग "मुस्लिम-संस्कृति" कहते हैं. एक राष्ट्रीय संस्कृति और दूसरी महजबी संस्कृति. तुर्क-संस्कृति, अरब-संस्कृति, ईरानी-संस्कृति, चीनी-संस्कृति आदि की तरह ही "हिन्दू-संस्कृति" है, राष्ट्रपरक न कि मत-परक. हिन्दू-संस्कृति और भारतीय-संस्कृति दोनों पर्य्याय-शब्द हैं. दूसरे लोग जब 'हिन्दू' को एक धर्म समझने लगे, तब 'भारतीय-संस्कृति' शब्द चला. परन्तु 'मुस्लिम-संस्कृति' के साथ-साथ 'हिन्दू-संस्कृति' शब्द भी चलता ही रहा, चल ही रहा है और आगे चलेगा भी. शब्द कहाँ तक छोडे जाएँगें. हिन्दू भी तो विदेशियों नें ही कहना शुरू किया था, जिसका सम्बन्ध सिन्धु से है; किसी मजहब से नहीं. इसलिए हमने----भारतीयों नें इसे ही ग्रहण कर लिया.
जब दो संस्कृतियाँ, तो दो जातियाँ-----उसी का परिणाम दो राष्ट्र ! इस बात को तो हर व्यक्ति जानता हैं कि भिन्न संस्कृति---"मुस्लिम-संस्कृति" के आधार पर ही कभी इस राष्ट्र के दो टुकडे किए गए थे. जहाँ-जहाँ 'मुस्लिम-संस्कृति' या इस्लाम की प्रधानता थी, सब को काट-जोडकर एक नया राष्ट्र बना-पाकिस्तान!
परन्तु बचे हुए शेष भारत में तो अब भी वह 'दूसरी' संस्कृति कायम है, उस संस्कृति के अभिमानी यहाँ कितने ही करोडों लोग हैं. सौ-पचास तो आपके यहाँ ब्लागजगत में ही मिल जाएँगें, जिन्हे आप सब बखूबी जानते हैं. इन लोगों का बस चले तो ये लोग राष्ट्रभाषा हिन्दी से बदलकर फारसी कर दें. संविधान को दरकिनार कर देश में शरियत ही लागू कर दें, वैश्चिक बैंकिंग प्रणाली को बन्द कर देशभर में सिर्फ इस्लामिक बैंकिंग प्रणाली ही लागू कर दी जाए. भिन्न संस्कृति के अनुरूप ये लोग सभी बातों में पूरी तरह से भिन्नता बनाए हुए हैं.
अभी बीते दो-चार दिनों की ही बात है, यहीं किसी ब्लाग पर, बनारस बम विस्फोट के सूत्रधार इण्डियन मुजाहिदीन नाम के किसी इस्लामिक आंतकवादी संगठन द्वारा मीडिया के नाम भेजे गए एक सन्देश को पढ रहा था. शायद आप लोगों नें भी पढा हो.यदि न पढ पायें हो तो जरा इस पंक्ति को पढ लीजिए....."इंडियन मुजाहिद्दीन,महमूद गजनी,मुहम्मद गोरी,कुतुबुद्दीन ऐबक,फिरोज शाह तुगलक और औरंगजेब (अल्लाह इनको अपनी कुदरत से नवाजे)के बेटों ने यह संकल्प लिया है.......". देखिये ये है "मजहबी संस्कृति" का दुष्परिणाम, जिसे ये राष्ट्र भोगने को विवश है.
अब जम्मू-कश्मीर को ही देख लीजिए. दशकों से वहाँ जो नारकीय हालात बने हुए हैं, वो भी किसी से छुपे हुए नहीं है. सारी दुनिया जानती है. विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए बहुत बार देखा/सुना/पढा है कि आए दिन इस्लामिक तत्वों द्वारा खुलेआम "पाकिस्तान जिन्दाबाद" के नारे लगा-लगाकर आसमान गुँजा दिया जाता है. अब इनसे कोई पूछे कि भला इस्लाम से और पाकिस्तान जिन्दाबाद से क्या सम्बन्ध? आप लोगों नें कभी कहीं पढा/सुना है कि खुद के ही देश में किसी अफगानी या ईरानी मुसलमान नें "पाकिस्तान-जिन्दाबाद" और "अफगान/ईरान मुर्दाबाद" के नारे लगाये हों? कभी सुना है कि चीन के मुसलमानों नें भी, वहाँ के बौद्धों या अन्य विधर्मियों से लडकर "पाकिस्तान जिन्दाबाद" या "अरब-जिन्दाबाद" के नारे लगाए हैं ? असम्भव!!! उन लोगों में राष्ट्रीयता है, जातीयता है और मजहब उस राष्ट्रीयता पर हावी नहीं हो सकता. राष्ट्रीयता ही आगे बढेगी. चीन बौद्ध देश है; बुद्ध की मान्यता वहाँ सर्वोपरि है. परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि बुद्ध की जन्मस्थली(भारत) के वे मानसिक गुलाम हों. वे सब चीनी पहले हैं; बौद्ध आदि बाद में. चीन तो बुद्ध की इस जन्मस्थली हिन्दुस्तान पर सैनिक आक्रमण तक कर चुका है. अब भी इस देश की हजारों मील भूमी पर कब्जा किए बैठा है. मतलब ये है कि मजहब से ऊँचा दर्जा राष्ट्रीयता का है, जातियता का है. अगर जाति ही नहीं, तो मजहब कहाँ रहेगा ?
आज इस युग का यह सबसे बडा एवं महत्वपूर्ण काम है कि हम लोग संस्कृति का सही रूप समझकर "मजहबी मिथ्याभिमान" छोडें. तभी सही रूप में "एक जाति" का निर्माण होगा-----एक जाति का महत्व समझ में आएगा----और वो जाति होगी "भारतीय". यदि ऎसा हो पाता है, तो ही ये राष्ट्र एक सूत्र में बँधकर तेजस्वी हो पायेगा.अन्यथा.......??? न जाने ये देश कब खंड......खंड.......हो जाये!!!
जी हाँ....खंड...खंड!!

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

{SANSKRITJAGAT} स्‍वागतम् ।।

प्रिय बान्‍धवा: स्‍वागतमस्ति अस्मिन् संस्‍कृतवर्गे भवतां सर्वेषाम्
प्रिय बन्‍धुओं स्‍वागत है इस संस्‍कृतवर्ग में आप सब का ।।

इत: परं वयं संस्‍कृतविषये बहुकिमपि चर्चयाम: ।।
अब हम लोग संस्‍कृत के विषय में बहुत कुछ चर्चा करेंगे ।।

चर्चाया: माध्‍यमं कापि भाषा भवितुम् अर्हति ।।
चर्चा का माध्‍यम कोई भी भाषा हो सकती है ।।

आग्‍लं भवतु वा, हिन्‍दी भवतु वा संस्‍कृतम् वा ।।
अंग्रजी हो, हिन्‍दी हो या संस्‍कृत हो ।

अस्‍माकं विषया: अपि केपि भवितुम् अर्हन्ति ।।
हमारे विषय भी कुछ भी हो सकते हैं ।।

वयं मिलित्‍वा सर्वेषां विषयानां पुनश्‍च समस्‍यानां समाधानं निराकरणं च
करिष्‍याम: ।।
हम सब मिलकर सभी विषयों और समस्‍याओं का समाधान और निराकरण करेंगे ।।

पठनं पाठनं चापि करिष्‍याम: ।।
पढें और पढायेंगे भी ।।

ग्रन्‍थानां आदान-प्रदानम् अपि करिष्‍याम: ।।
ग्रन्‍थों का आदान प्रदान भी करेंगे ।।

अनेन माध्‍यमेन एव सरलतया संस्‍कृतं अपि बोधयिष्‍याम: ।।
इसी माध्‍यम से ही सरल रूप से संस्‍कृत का ज्ञान भी करेंगे ।।


मया सह कृतसंकल्‍पा: भवन्‍तु सर्वे
मेरे साथ सभी कृतसंकल्‍प हों ।।


कृण्‍वतो विश्‍वमार्यम्
सम्‍पूर्ण विश्‍व को आर्य बनायें ।।

जयतु संस्‍कृतम्
भवदीय: - आनन्‍द:

--
भवान् एष: सन्‍देश: प्राप्‍तवान् यतोहि भवान् अस्‍य वर्गस्‍य एक: सदस्‍य: ।
एतस्‍मै वर्गाय सन्‍देशं दातुं sanskritjagat@googlegroups.com जालसंकेते जालसंदेशं करोतु ।
वर्गं त्‍यक्‍तुं sanskritjagat+unsubscribe@googlegroups.com उपरि जालसंदेशं प्रेषयतु ।
अधिकं ज्ञातुं http://groups.google.com/group/sanskritjagat?hl=en संकेतम् उद्घाटयतु ।।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

स्वार्थों के पुरातन गढ टूटकर रहेंगें.........

जो पुरातन है, वो केवल इसी कारण से अच्छा नहीं माना जा सकता कि वो हमारे पूर्वजों की देन है. और जो नया है, उसका भी तिरस्कार करना उचित नहीं.
बुद्धिमान व्यक्ति सदैव दोनों को कसौटी पर कसकर किसी एक को अपनाते हैं. जो मूढ हैं,   उन बेचारों के पास घर की बुद्धि का टोटा होने के कारण वे दूसरों के भुलावे में आ जाते हैं.
गुप्त युग के महान विद्वान श्री सिद्धसेन दिवाकर जी की एक बात मुझे स्मरण हो रही है.  उन्होने कहा है कि  " जो पुरातन काल था, वह मर चुका, वह दूसरों का था. आज का इन्सान यदि उसको पकडकर बैठेगा तो वह भी पुरातन की तरह ही मृत हो जाएगा.  पुराने समय के जो विचार हैं, वे तो अनेक प्रकार के हैं. कौन ऎसा है जो भली प्रकार उनकी परीक्षा किए बिना, अपने मन को उधर जाने देगा".
जो स्वयं विचार करने में आलसी है, वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता. जिसके मन मे सही निश्चय करने की बुद्धि है, उसी के विचार प्रसन्न और साफ सुथरे हो सकते हैं. जो यह सोचता है कि पहले के धर्माचार्य, धर्मगुरू, पीर-पैगम्बर जो कह गए, सब सच्चा है, उनकी सब बातें सफल हैं और हमारी बुद्धि तथा विचारशक्ति टटपूंजिया है, ऎसा "बाबा वाक्य प्रमाणं" के ढंग से सोचने वाले इन्सान केवल आत्महनन का मार्ग अपनाते है.


अवार्चीन विचारधारा मानव केन्द्रिक रही है अर्थात जीवन के प्रत्येक अनुष्ठान का मध्यवर्ती बिन्दु मनुष्य है. वही प्रयोग आज महत्वपूर्ण है, जिसका इष्टदेवता मनुष्य है. जिस कार्य का फल साक्षात इहलौकिक मानव-जीवन के लिए न हो, जो निरीह जीवों के वध में ही अपने ईश्वर/अल्लाह की खुशी देखता हो, जो मनुष्य की अपेक्षा स्वर्ग के देवताओं या जन्नत के फरिश्तों को श्रेष्ठ समझता हो----वह किसी भी रूप में आधुनिक जीवन पद्धति के अनुकूल नहीं है.
विज्ञान,कला,साहित्य इत्यादि विश्व के समस्त विषयों की उपयोगिता की एकमात्र कसौटी मनुष्य का प्रत्यक्ष लाभ और प्रत्यक्ष जीवन है.  प्रत्येक क्षेत्र में विचारों की हलचल मनुष्य के इसी रूप को पकडना चाहती है.
इस दृ्ष्टिकोण से आज जहाँ एक ओर मानव का मूल्य बढा है तो वहीं दूसरी ओर स्वर्ग-नरक, फरिश्तों, हूरों के ख्यालों में उडने वाले मानव के विचारों नें इस जीवन को सुन्दर बनाने का एक नया पाठ पढा है.
यह सच है कि अभी बहुत से क्षेत्रों में यह नया पाठ पूरी तरह से गले से नीचे नहीं उतर पाया है और स्वार्थों के पुराने गढ इसके विरोधी बने हुए हैं, पर निश्चित जानिए देर-सवेर ये गढ टूटकर रहेंगें......इन्हे टूटना ही होगा.  आज नहीं तो कल!!!
क्योंकि विश्व के विचारों का केन्द्रबिन्दु आज मानव के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है और न ही अब आगे भविष्य में कभी हो सकता है.......
(पं.डी.के.शर्मा "वत्स")
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