सोमवार, 31 जनवरी 2011

मांसाहार भुखमरी और जल की बर्बादी का बड़ा भीषण कारक --- श्री रमेश दुबे

यह जानकारीपूर्ण लेख अभी कुछ दिनों पहले मुझे मेल से मिला था, जो की श्री रमेश जी दुबे द्वारा लिखित है. मेल में इस जानकारी के प्रसार का निवेदन था, इसलिए इस ब्लॉग पर आप से साझा कर रहा हूँ , आशा है हवन व अन्य परम्पराओं को भुखमरी और जल संसाधनों की बरबादी का कारण बतलाने वाले और मांसाहार के पक्ष में ऊल-जुलूल तर्क देने वाले सज्जनों की कुछ आँखे तो खुलेंगी .


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भुखमरी, कुपोषण के कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारण गिनाए जाते रहे हैं, लेकिन मांसाहार की चर्चा शायद ही कभी होती हो, जबकि वास्तविकता यह है कि दुनिया में बढ़ती भुखमरी-कुपोषण का एक मुख्य कारण मांसाहार का बढ़ता प्रचलन है। इसकी जड़ें आधुनिक औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य जीवन शैली के प्रसार में निहित हैं। दुनिया में यूरोप की सर्वोच्चता स्थापित होने के साथ ही मांसाहारी संस्कृति को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ। आर्थिक विकास और औद्योगिकीकरण ने पिछले दो सौ वर्षो में मांस केंद्रित आहार संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विकास व रहन-सहन के पश्चिमी माडल के मोह में फंसे विकासशील देशों ने भी इस आहार संस्कृति को अपनाया। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस और पशुपालन उद्योग तेजी से फल-फूल रहा है। उदाहरण के लिए 1961 में विश्व का कुल मांस उत्पादन 7.1 करोड़ टन था, जो 2007 में बढ़कर 28.4 करोड़ टन हो गया। इस दौरान प्रति व्यक्ति खपत बढ़कर दोगुने से अधिक हो गई। विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और 20 वर्षो में ही प्रति व्यक्ति खपत दोगुनी से अधिक हो गई। उदाहरण के लिए सुअर का मांस कभी चीन का संभ्रांत वर्ग ही खाता था, लेकिन आज चीन का गरीब व्यक्ति भी अपने दैनिक आहार में मांस को शामिल करने लगा है।
औद्योगिकीकरण व पश्चिमी सांस्कृतिक प्रभाव के कारण उन देशों में भी मांस प्रमुख आहार बनता जा रहा है जहां पहले कभी-कभार ही मांस खाया जाता था, जैसे भारत। इस क्रम में परंपरागत आहारों की घोर उपेक्षा हुई। पहले गांवों में कुपोषण दूर करने में दलहनों, तिलहनों, गुड़ की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन खेती की आधुनिक पद्धतियों व खानपान में इन तीनों की उपेक्षा हुई। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए विटामिन की गोली दी जाने लगी। पहले प्राकृतिक संसाधनों पर समाज का नियंत्रण होने से उसमें सभी की भागीदारी होती थी, लेकिन उन संसाधनों पर बड़ी कंपनियों, भूस्वामियों के नियंत्रण के कारण एक बड़ी जनसंख्या इनसे वंचित हुई। शीतल जल के प्याऊ की जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बोतलबंद पानी ने ले ली और वह दूध से भी महंगा बिक रहा है। फार्म एनिमल रिफार्म मूवमेंट के अनुसार अमेरिकी उपभोक्ता मांस की भूख के कारण न केवल पर्यावरण को हानि पहुंचा रहे हैं, अपितु अमेरिकी आहार आदतें दुनिया भर में फैल रही हैं। विज्ञान व तकनीक का क्षेत्र हो या फैशन, यह धारणा दुनिया भर में फैल गई है कि जो अमेरिका कर रहा है वह ठीक है। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले गांव-जंगल-खेत आधारित पशुपालन होता था। इस पद्धति में खेती, मनुष्य के भोजन और पशुआहार में कोई टकराव नहीं था। दूसरी ओर आधुनिक पशुपालन में छोटी सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है ताकि जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इस तंत्र में बड़े पैमाने पर मांस का उत्पादन होता है, जिससे वह सस्ता पड़ता है और अमीर-गरीब सभी के लिए सुलभ होता है। आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति व मनुष्य से भारी कीमत वसूल की। इस पशुपालन में पशु आहार तैयार करने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। मक्का और सोयाबीन की खेती के तीव्र प्रसार में आधुनिक पशुपालन की मुख्य भूमिका रही है। आज दुनिया में पैदा होने वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, जबकि भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका में दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की मांस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों व 6 हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है।
मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थो की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। यह भी एक तथ्य है कि एक किलो आलू पैदा करने में मात्र पांच सौ लीटर पानी की खपत होती है वहीं इतने ही मांस के लिए दस हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चारागाह व पशुआहार तैयार करने में नियोजित है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी वैसे-वैसे पशुआहार की सघन खेती की जाएगी, जिससे ग्रीनहाउस गैसों में तेजी से बढ़ोतरी होगी। 



क्या आप नॉन वेज खाते हैं? अगर हां, तो क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा करके आप ग्लोबल वॉर्मिंग    बढ़ा रहे हैं? यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है पर दोनों में गहरा संबंध है। हमारी टेबल पर सजा लज़ीज़ मांसाहार हमारे स्वास्थ्य पर चाहे जो प्रभाव डाल रहा हो लेकिन पर्यावरण पर तो इसका बहुत बुरा असर हो रहा है। असल में पूरी दुनिया में नॉन वेज (मांसाहार) की संस्कृति का प्रसार विश्व पर यूरोपीय वर्चस्व स्थापित करने की भावना से जुड़ा है। आर्थिक विकास और औद्योगीकरण ने पिछले दो सौ साल में नॉनवेज फूड कल्चर को पॉप्युलर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विकासशील देशों ने डिवेलपमेंट व लाइफ स्टाइल के वेस्टर्न मॉडल के मोह में फंस कर इसे अपनाया है। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस व पशुपालन उद्योग फल-फूल रहा है।

उदाहरण के लिए पहले चीन में पोर्क्स (सूअर का मांस) सिर्फ वहां का संभ्रांत वर्ग खाता था, लेकिन आज वहां का गरीब तबका भी अपने रोज के खाने में उसे शामिल करने लगा है। यही कारण है कि चीन द्वारा पोर्क्स के आयात में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। भारत में भी नॉन वेज खाना स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है। जिन राज्यों व वर्गों में संपन्नता व बाहरी संपर्क बढ़ा है, उनमें मांस के उपभोग में भी तेजी आई है। इस कारण हमारे ट्रैडिशनल फूड की बड़ी उपेक्षा हुई है। पहले गांवों में कुपोषण दूर करने में दलहनों-तिलहनों और गुड़ की    महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन आज खेती की आधुनिक पद्धतियों व खानपान में इन तीनों की काफी उपेक्षा हुई है।

गौरतलब है कि 1961 में दुनिया की कुल मांस सप्लाई लगभग 7 करोड़ टन थी जो 2008 में बढ़कर 28 करोड़ टन से भी ज्यादा हो गई। इस दौरान विश्व स्तर पर प्रति व्यक्ति मांस की औसत खपत दोगुनी हो गई।    लेकिन गौर करने की बात है कि विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और मात्र 20 साल में ही प्रति    व्यक्ति खपत दोगुने से अधिक हो गई। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

हमारे यहां पहले भी पशुपालन होता था, लेकिन वह गांव-जंगल और खेती पर आधारित होता था। उसकी उत्पादकता कम थी, इसलिए वह महंगा पड़ता था। मगर इसका लाभ यह था कि इस पद्धति में खेती, मनुष्य के भोजन और पशु आहार में कोई टकराव नहीं होता था। आधुनिक पशुपालन में छोटी सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंसकर खिलाया जाता है, ताकि जल्द से जल्द उनसे ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इससे बड़े पैमाने    पर मीट का उत्पादन होता है, जिससे वह सस्ता पड़ता है।

इस आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति व मनुष्य से भारी कीमत वसूल की है। इसमें पशु आहार तैयार करने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों तथा पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। इससे पानी का संकट, वायु व जल प्रदूषण, मिट्टी की उर्वरा शक्ति में गिरावट जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। मक्का और सोयाबीन की खेती के तीव्र प्रसार में आधुनिक पशुपालन की मुख्य भूमिका रही है। आज दुनिया में पैदा होने    वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, ताकि उनका मांस खाया जा सके, जबकि दूसरी तरफ भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अमेरिका में तो दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन    पशुओं को खिला दिया जाता है।

विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की मांस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18000 बच्चों व 6000 वयस्कों का जीवन बचा सकती है। सघन आवास, रसायनों और हार्मोन युक्त पशु आहार व दवाइयां देने से पर्यावरण और हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। पशुपालन के इन कृत्रिम तरीकों ने ही मैड काऊ, बर्ड फ्लू व स्वाइन फ्लू जैसी नई महामारियां पैदा की हैं। मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थों की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहां मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने ही मांस के लिए 10,000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए काफी जमीन और संसाधनों की जरूरत होती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में लगा दी गई है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी, वैसे-वैसे पशु आहार की खेती बढ़ती जाएगी, और इससे ग्रीनहाउस गैसों में तेजी से बढ़ोतरी होगी।

फूड ऐंड ऐग्रिकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के अनुसार पशुपालन क्षेत्र ग्लोबल ग्रीन हाउस गैसों में 18 प्रतिशत का योगदान करता है जो कि परिवहन क्षेत्र से अधिक है। पशुपालन के कारण ग्लोबल टेम्प्रेचर भी बढ़ा है। असल में दुनिया भर में चरागाह और पशु आहार की खेती के लिए वनों को काटा जा रहा है। एफएओ के अनुसार लैटिन अमेरिका में 70 प्रतिशत वन भूमि को चरागाह में बदल दिया गया है। पेड़- पौधे कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषक होते हैं। पेड़ों के कम होने से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है    जिसके कारण तापमान में भी बढ़ोतरी होती है। ऐनिमल वेस्टेज से नाइट्रस ऑक्साइड नामक ग्रीनहाउस गैस निकलती है जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 296 गुना जहरीली है। गौ पालन के कारण मिथेन का उत्पादन होता है, जो कि कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में तेइस गुना खतरनाक है।

पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसीलिए कहा था कि यदि दुनिया बीफ (गाय का मांस) खाना बंद कर दे तो कार्बन उत्सर्जन में नाटकीय ढंग से कमी आएगी और ग्लोबल वॉर्मिंग में बढ़ोतरी धीमी हो जाएगी। सौभाग्य की बात है कि भारत में बीफ का ज्यादा चलन नहीं है। मांस के ट्रांसपोर्टेशन और उसे पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले ईंधन से भी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है। इतना ही नहीं, जानवरों के मांस से भी कई प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न होती हैं जो वातावरण में घुलकर उसके तापमान को बढ़ाती हैं।

कोपनहेगन सम्मेलन में साफ हो गया कि कार्बन इमिशन में कटौती पर कानूनी बाध्यताओं को स्वीकार करना फिलहाल संभव नहीं है। यह भी तय हो गया कि इमिशन में स्वैच्छिक कटौती तब तक संभव नहीं होगी जब तक कि जन-जन इसके लिए प्रयास न करे। इस दिशा में मांसाहार में कटौती एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। ग्रीन हाउस उत्सर्जन कम करने के अन्य उपायों की तुलना में यह सबसे आसान है। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? 
रमेश कुमार दुबे

शनिवार, 29 जनवरी 2011

जहाँ निष्ठुरता आवश्यक है……………


कहीं किसी की टिप्पणी में ऐसा कुछ पढा था………

1, क्या यह रवैया दुरुस्त है ?
2, क्या हमारी सेना मांस नहीं खाती ?
3, क्या हमारे वीर सैनिकों को राक्षस कहा जाना उचित है ?
4, क्या सिक्ख गुरु बलि नहीं देते थे या मांसाहार नहीं करते थे ?
5, ये थोड़े से शाकाहारी पूरी दुनिया को उनके भोजन के कारण राक्षस ठहराकर क्या लक्ष्य पाना चाहते हैं ?
ऐसे ही…………
क बार यात्रा में हम दो मित्र शाकाहार- मांसाहार पर चर्चा कर रहे थे। मित्र नें कहा यार लोग किसी जीवित प्राणी को मारकर कैसे खा लेते होंगे? यह तो क्रूरता है। सामने सीट पर बैठे दो मित्र हमारी चर्चा को ध्यान से सुन रहे थे, मांसाहार समर्थक थे निर्दयता वाला वाक्य उन्हे नागवार गुजर रहा था। हमें निरुत्तर करने के उद्देश्य से बडा सम्वेदनशील प्रश्न उछाला आप मांसाहार करने वालो को राक्षस कहते हो, हमारे देश की रक्षा करने वाले वीर सैनिक भी मांसाहार करते है, आपने सैनिको को क्यों राक्षस कहा?
आचानक आए प्रश्न से हमें हतप्रभ देखकर एक क्षण के लिये उनके चहरो पर कुटिल विजयी मुस्कान तैर गई।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

सात्विक आहार पर निरामिष ब्लॉग का अवतरण

निरामिष ब्लॉग पर शाकाहार द्वारा मानवीय लाभार्थ, तर्कपूर्ण व तथ्यपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई जाएगी, ताकि लोग अपने आहार के चुनाव में जाग्रत रहें।

शाकाहार के गुणानुवाद में मांसाहार की आलोचना अवश्यंभावी है, इसे मांसाहारीयों (व्यक्तियों) की निंदा की तरह नहीं लिया जाना चाहिए। यह मांसाहार के दोषो की मात्र अभिव्यक्ति होती है।

शाकाहार की प्रसंशा करना शुद्धता या पवित्रता का दर्प नहीं, क्योंकि यह है ही अपने आप में स्वच्छ और सात्विक। इसलिये शुद्धता और पवित्रता सहज अभिव्यक्त हो सकती है।

कुविचार चाहे पारम्परिक हो या आधुनिक, अथवा साम्यता के चोले में, स्वीकार्य नहीं हो सकता।

मांसाहार की निंदा करना, किसी भी धर्म की निंदा नहीं है। क्योंकि कोई भी ऐसा धर्म नहीं है जो मात्र मांसाहार के सिद्धांत पर ही टिका हो, और यदि किसी धार्मिक संस्कृति का अस्तित्त्व हिंसाजन्य मांसाहार पर ही टिका हो तो वह धर्म हो ही नहीं सकता। इस प्रकार की विचारधारा की निंदा, धर्म-निंदा की श्रेणी में नहीं आती।

निरामिष पर ब्लॉग लेखक मण्डल समय समय पर तात्विक सार्थक लेख प्रस्तुत करते रहेंगे।

शाकाहार : सात्विक भोजन : निरामिष खाद्य पर लेखो के लिये अवश्य 'निरामिष' विजिट करें…

रविवार, 16 जनवरी 2011

वेदों में विज्ञान - एंटीमैटर क्या है ?

       वेदों में गूढ़ विज्ञान-सम्बन्धी सामग्री विस्तृत मात्रा में संचित है। जिसमें से बहुत ही अल्प मात्रा में अबतक जानकारी हो सकी है,कारण यह है कि वैज्ञानिक सामग्री ऋचाओं में अलंकारिक भाषा में है जिसका शाब्दिक अर्थ या तो सामान्य सा दिखाई पड़ता है या वर्तमान सभ्यता के संदर्भ में प्रथम दृष्टितया कुछ तर्क संगत नहीं दिखलाई पड़ता जबकि उसी पर गहन विचार करनें के पश्चात उसका कुछ अंश जब समझ में आता है तो बहुत ही आश्चर्य होता है कि वेद की छोटी-छोटी ऋचाओं(सूत्रोंके रूप में कितने गूढ़ एवं कितने उच्च स्तर के वैज्ञानिक रहस्य छिपे हुए हैं।

       कुछ ही समय पूर्व साइन्स रिपोर्टर नामक अंग्रेजी पत्रिका जो नेशनल इंस्टीच्युट आफ साइन्स कम्युनिकेशन्स ऐन्ड इन्फार्मेशन रिसोर्सेज (NISCAIR)/CSIR,डा०के० यस० कृष्णन मार्ग नई दिल्ली ११००१२ द्वारा प्रकाशित हुई थी,में माह मई २००७ के अंक में एक लेख ANTIMATTER The ultimate fuel के नाम के शीर्षक से छपा था। इस लेख के लेखक श्री डी०पी०सिहं एवं सुखमनी कौर ने यह लिखा है कि सर्वाधिक कीमती वस्तु संसार में हीरायूरेनियमप्लैटिनमयहाँ तक कि कोई पदार्थ भी नहीं है बल्कि अपदार्थ/या प्रतिपदार्थ अर्थात ANTIMATTER है। 

वैज्ञानिकों ने लम्बे समय तक किये गये अनुसंधानों एवं सिद्धान्तो के आधार यह माना है कि ब्रह्मांड में पदार्थ के साथ-साथ अपदार्थ या प्रतिपदार्थ भी समान रूप से मौजूद है। इस सम्बन्ध में वेदों में ऋग्वेद के अन्तर्गत नासदीय सूक्त जो संसार में वैज्ञानिक चिंतन में उच्चतम श्रेणी का माना जाता की एक ऋचा में लिखा है किः-

तम आसीत्तमसा गू---हमग्रे----प्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छेच्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्।।
(ऋग्वेद १०।१२९।३)
अर्थात्
       सृष्टि से पूर्व प्रलयकाल में सम्पूर्ण विश्व मायावी अज्ञान(अन्धकारसे ग्रस्त थासभी अव्यक्त और सर्वत्र एक ही प्रवाह थावह चारो ओर से सत्-असत्(MATTER AND ANTIMATTER) से आच्छादित था। वही एक अविनाशी तत्व तपश्चर्या के प्रभाव से उत्पन्न हुआ। वेद की उक्त ऋचा से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मांड के प्रारम्भ में सत् के साथ-साथ असत् भी मौजूद था (सत् का अर्थ है पदार्थ

 यह कितने आश्चर्य का विषय है कि वर्तमान युग में वैज्ञानिकों द्वारा अनुसंधान पर अनुसंधान करने के पश्चात कई वर्षों में यह अनुमान लगाया गया कि विश्व में पदार्थ एवं अपदार्थ/प्रतिपदार्थ(Matter and Antimatter) समान रूप से उपलब्ध है। जबकि ऋग्वेद में एक छोटी सी ऋचा में यह वैज्ञानिक सूत्र पहले से ही अंकित है। उक्त लेख में यह भी कहा गया है कि Matter and Antimatter जब पूर्ण रूप से मिल जाते हैं तो पूर्ण उर्जा में बदल जाते है। वेदों में भी यही कहा गया है कि सत् और असत् का विलय होने के पश्चात केवल परमात्मा की सत्ता या चेतना बचती है जिससे कालान्तर में पुनः सृष्टि (ब्रह्मांड) का निर्माण होता है।

       छान्दोग्योपनषद् में भी ब्रह्म एवं सृष्टि के बारे में यह उल्लेख आता है कि आदित्य (केवल वर्तमान अर्थ सूर्य नहीं,बल्कि व्यापक अर्थ मेंब्रह्म है। उसी की व्याख्या की जाती है। तत्सदासीत्-वह असत् शब्द से कहा जाने वाला तत्वउत्पत्ति से पूर्व स्तब्धस्पन्दनरहितऔर असत् के समान थासत् यानि कार्याभिमुख होकर कुछ प्रवृति पैदा होने से सत् हो गया। फिर उसमें भी कुछ स्पन्दन प्राप्तकर वह अकुरित हुआ। वह एक अण्डे में परणित होगया। वह कुछ समय पर्यन्त फूटावह अण्डे के दोनों खण्ड रजत एवं सुवर्णरूप हो गये। फिर उससे जो उत्पन्न हुआ वह यह आदित्य है। उससे उत्पन्न होते ही बड़े जोरों का शब्द हुआ तथा उसी से सम्पूर्ण प्राणी और सारे भोग पैदा हुए हैं। इसीसे उसका उदय और अस्त होने पर दीर्घशब्दयुक्त घोष उत्पन्न होते हैं तथा सम्पूर्ण प्राणी और सारे भोग भी उत्पन्न होते हैं।
 अथ यत्तदजायत सोऽसावादित्यस्ततं जायमानं घोषा 
उलूलवोऽनुदतिष्ठन्त्सर्वाणि च भूतानि सर्वे च 
कामास्तस्मात्तस्योदयं प्रति प्रत्या यनं प्रति घोषा
 उलूलवोऽनुत्तिष्ठन्ति सर्वाणि च भूतानि सर्वे च कामाः।
(छान्दग्योपनिषद् -शाङ्करभाष्यार्थ खण्ड १९ ।।३।।

(अधुनिक वैज्ञानिक भी ब्रह्माण्ड के पैदा होने पर जोर की ध्वनि होना ही मानते है। स्टीफेन हाँकिंग महाविज्ञानी आंइस्टाइन के आपेक्षिकता सिद्धान्त की व्याख्या करते हुये घोषित करते है कि दिक् और काल (Time and spaceका आरम्भ महाविस्फोट (Big bang) से हुआ और इसकी परणति ब्लैक होल से होगी।
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एंटीमैटर क्या है ?




कणीय भौतिकी में, एंटीमैटर पदार्थ के एंटीपार्टिकल के सिद्धांत का विस्तार होता है, जहां एंटीमैटर उसी प्रकार एंटीपार्टिकलों से बना होता है, जिस प्रकार पदार्थ कणों का बना होता है। उदाहरण के लिये, एक एंटीइलेक्ट्रॉन (एक पॉज़ीट्रॉन, जो एक घनात्मक आवेश सहित एक इलेक्ट्रॉन होता है) एवं एक एंटीप्रोटोन (ऋणात्मक आवेश सहित एक प्रोटोन) मिल कर एक एंटीहाईड्रोजन परमाणु ठीक उसी प्रकार बना सकते हैं, जिस प्रकार एक इलेक्ट्रॉन एवं एक प्रोटोन मिल कर हाईड्रोजन परमाणु बनाते हैं। साथ ही पदार्थ एवं एंटीमैटर के संगम का परिणाम दोनों का विनाश (एनिहिलेशन) होता है, ठीक वैसे ही जैसे एंटीपार्टिकल एवं कण का संगम होता है। जिसके परिणामस्वरूप उच्च-ऊर्जा फोटोन (गामा किरण) या अन्य पार्टिकल-एंटीपार्टिकल युगल बनते हैं। वैसे विज्ञान कथाओं और साइंस फिक्शन चलचित्रों में कई बार एंटीमैटर का नाम सुना जाता रहा है।



एंटीमैटर केवल एक काल्पनिक तत्व नहीं, बल्कि असली तत्व होता है। इसकी खोज बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में हुई थी। तब से यह आज तक वैज्ञानिकों के लिए कौतुहल का विषय बना हुआ है। जिस तरह सभी भौतिक वस्तुएं मैटर यानी पदार्थ से बनती हैं और स्वयं मैटर में प्रोटोन, इलेक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन होते हैं, उसी तरह एंटीमैटर में एंटीप्रोटोन, पोसिट्रॉन्स और एंटीन्यूट्रॉन होते हैं।

 एंटीमैटर इन सभी सूक्ष्म तत्वों को दिया गया एक नाम है। सभी पार्टिकल और एंटीपार्टिकल्स का आकार एक समान किन्तु आवेश भिन्न होते हैं, जैसे कि एक इलैक्ट्रॉन ऋणावेशी होता है जबकि पॉजिट्रॉन घनावेशी चार्ज होता है। जब मैटर और एंटीमैटर एक दूसरे के संपर्क में आते हैं तो दोनों नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मांड की उत्पत्ति का सिद्धांत महाविस्फोट (बिग बैंग) ऐसी ही टकराहट का परिणाम था। हालांकि, आज आसपास के ब्रह्मांड में ये नहीं मिलते हैं लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड के आरंभ के लिए उत्तरदायी बिग बैंग के एकदम बाद हर जगह मैटर और एंटीमैटर बिखरा हुआ था। विरोधी कण आपस में टकराए और भारी मात्रा में ऊर्जा गामा किरणों के रूप में निकली। इस टक्कर में अधिकांश पदार्थ नष्ट हो गया और बहुत थोड़ी मात्रा में मैटर ही बचा है निकटवर्ती ब्रह्मांड में। इस क्षेत्र में ५० करोड़ प्रकाश वर्ष दूर तक स्थित तारे और आकाशगंगा शामिल हैं। वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार सुदूर ब्रह्मांड में एंटीमैटर मिलने की संभावना है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर के खगोलशास्त्रियों के एक समूह ने यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) के गामा-रे वेधशाला से मिले चार साल के आंकड़ों के अध्ययन के बाद बताया है कि आकाश गंगा के मध्य में दिखने वाले बादल असल में गामा किरणें हैं, जो एंटीमैटर के पोजिट्रान और इलेक्ट्रान से टकराने पर निकलती हैं। पोजिट्रान और इलेक्ट्रान के बीच टक्कर से लगभग ५११ हजार इलेक्ट्रान वोल्ट ऊर्जा उत्सर्जित होती है।इन रहस्यमयी बादलों की आकृति आकाशगंगा के केंद्र से परे, पूरी तरह गोल नहीं है। इसके गोलाई वाले मध्य क्षेत्र का दूसरा सिरा अनियमित आकृति के साथ करीब दोगुना विस्तार लिए हुए है।


एंटीमैटर की खोज में रत वैज्ञानिकों का मानना है कि ब्लैक होल द्वारा तारों को दो हिस्सों में चीरने की घटना में एंटीमैटर अवश्य उत्पन्न होता होगा। इसके अलावा वे लार्ज हैडरन कोलाइडर जैसे उच्च-ऊर्जा कण-त्वरकों द्वारा एंटी पार्टिकल उत्पन्न करने का प्रयास भी कर रहे हैं।


पृथ्वी पर एंटीमैटर की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वैज्ञानिकों ने प्रयोगशालाओं में बहुत थोड़ी मात्रा में एंटीमैटर का निर्माण किया है। प्राकृतिक रूप में एंटीमैटर पृथ्वी पर अंतरिक्ष तरंगों के पृथ्वी के वातावरण में आ जाने पर अस्तित्व में आता है या फिर रेडियोधर्मी पदार्थ के ब्रेकडाउन से अस्तित्व में आता है। शीघ्र नष्ट हो जाने के कारण यह पृथ्वी पर अस्तित्व में नहीं आता, लेकिन बाह्य अंतरिक्ष में यह बड़ी मात्र में उपलब्ध है जिसे अत्याधुनिक यंत्रों की सहायता से देखा जा सकता है।

 एंटीमैटर नवीकृत ईंधन के रूप में बहुत उपयोगी होता है। लेकिन इसे बनाने की प्रक्रिया फिल्हाल इसके ईंधन के तौर पर अंतत: होने वाले प्रयोग से कहीं अधिक महंगी पड़ती है। इसके अलावा आयुर्विज्ञान में भी यह कैंसर का पेट स्कैन (पोजिस्ट्रान एमिशन टोमोग्राफी) के द्वारा पता लगाने में भी इसका प्रयोग होता है। साथ ही कई रेडिएशन तकनीकों में भी इसका प्रयोग प्रयोग होता है।
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इस विषय पर विभिन्न समाचार पत्रों (News Papers) में प्रकाशित लेखों के लिंक अंग्रेजी वर्णों (English Words) में नीले रंग (blue color) से दिए गए हैं !!!
 
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साभार : पूर्वांश भाग "वेद-विद्या"  वेबसाइट से लिया गया है, जो कि वहाँ  मन्त्रों का वैज्ञानिक महत्त्व नामक लेख में उपलब्ध है.

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

सफलता-सूत्र

राजनीतिक सफलता —
 "राजनेता होने के लिये" अंशतः विश्वासघात और पूर्णतः 'छल' पर आधारित है. 
एक बात और : राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिये नारी व नारी-हृदयों को भावनात्मक-स्तर पर और पुरुषों को विचारों और कर्म [साम, दाम, दंड, भेद] से छलना चाहिए. 

आर्थिक सफलता — 
"नगर-सेठ होने के लिये" अंशतः शील-भ्रष्टता और पूर्णतः 'मिथ्या' पर आधारित है. 

सामाजिक सफलता — 
"सन्त-महात्मा होने के लिये" अंशतः प्रदर्शन की भावना और पूर्णतः सद-आचरण पर आधारित है. 

धार्मिक सफलता — 
"अवतार-पुरुष होने के लिये" अंशतः सामान्य दिखने की भावना और पूर्णतः धृति (धैर्य], क्षमा, दम, अस्तेय [चोरी न करना], शौच [पवित्रता], इन्त्रिया-निग्रह [संयम], धी [बुद्धि], विद्या, सत्य, अक्रोध जैसे धर्म के १० लक्षणों पर आधारित है. 


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