रविवार, 27 फ़रवरी 2011

हिन्दू धर्म, संस्कृति और क्यों ?

भारतीय संस्कृति, जिसके विभिन्न स्वरूपों के साथ देश,काल आदि भौगोलिक एवं वैज्ञानिक चिन्तन जुडा हुआ है. जिसके प्रत्येक आचार-विचार के मूल में विज्ञान विराजमान रहा है.
भारतीय सदाचार शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए वैज्ञानिक उपयोगिता पर आधारित है. 'आचार प्रभवो धर्म:' अर्थात आचार से ही धर्म उत्पन्न होता है. 'आचार ग्राहयति इति आचार्य'--ऎसा कहकर निरूक्तकार यास्क नें स्पष्ट कर दिया है कि श्रेष्ठ तथा आचार्यों का कार्य आचार का पालन कराना है. मनुस्मृति भी यही कहती है कि 'आचारहीन न पुनन्ति वेदा'---अर्थात आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते. दरअसल भारतीय संस्कृति ओर उसके प्रत्येक आचार-विचार में वैज्ञानिक चिन्तन विद्यमान रहा है. लेकिन अब इसे युग का प्रभाव कहा जाए या कुछ ओर, आज का समाज विज्ञान की चकाचौंध से प्रभावित होकर प्राचीन आचार-विचार पर कुछ अधिक ही तर्क करने लगा है. इस विषय में आधुनिक शिक्षा एवं संस्कारों नें इन्सान के मन-मस्तिष्क में ओर अधिक भ्रम उत्पन किया है.
परन्तु बेशक धीरे-धीरे ही सही, जहाँ आज आधुनिक विज्ञान इसका वैज्ञानिक स्वरूप प्रतिपादित करने लगा है, वहीं आज का सभ्य समाज भी इसके महत्व को स्वीकार करता जा रहा है. किन्तु फिर भी इस देश की प्राचीन संस्कृति को लेकर सभ्य समाज में मन में कुछ ऎसे प्रश्न शेष रह जाते हैं, जिनका समाधान होना बहुत आवश्यक हो जाता है. यूँ तो समय-समय पर अनेक योग्य विद्वानों द्वारा इस विषय पर भरपूर प्रकाश डाला जाता रहा है. किन्तु इस सनातन संस्कृति की वैज्ञानिकता को समग्र रूप से समझने के इच्छुक जिज्ञासुजनों को इस विषय पर शास्त्रार्थ महारथी स्वामी माधवाचार्य द्वारा लिखित 'क्यों' शीर्षक ग्रन्थ को एक बार अवश्य देखना चाहिए. हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित यह ग्रन्थ आपके मन में उठने वाले प्रत्येक 'क्यों' का संतुष्टिपरक जवाब दे पाने में पूर्णरूपेण सक्षम है. न केवल जिज्ञासुजनों अपितु अनर्गल प्रलाप करने वाले कुतर्कियों को भी एकबार इसे अवश्य पढना चाहिए.
पुस्तक नाम:- 'क्यों' ( दो खंडों में)

लेखक:- शास्त्र महारथी पं. माधवाचार्य शास्त्री
प्रकाशक:- माधव विद्या भवन, दिल्ली
भाषा:- हिन्दी तथा अंग्रेजी
मूल्य:- 180/-(प्रत्येक खंड)

वेदों में विज्ञान - रसायन विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान

जब आधुनिक विज्ञान का उदभाव सामान्यत: राबर्ट बोयल (1626-91 ई०) से माना जाता है, तो यह जानकार आपको निसंदेह आश्चर्य होगा कि ईसा से हजारों वर्ष पूर्व वेदों में रसायन विज्ञान के निश्चित संकेत मिलते हैं ! आयु बल और दीर्घायु के लिए शंख कृशनम, हिरण्य, स्वर्ण, रजत, अयास, सीस, त्रपु लौह आदि के भस्म का प्रयोग (देखें- अथर्ववेद 4.10.1, 19.26.2) होता था, अनेक औषधियों, वनस्पतियों, भोजों एवं मणियों को भी तन-मन के अनेक रोगों के निवारण में उपयोगी समझा जाता था ! अथर्ववेद में अपामार्ग, सहसपर्णी, अभीवार्त्मापी, दर्भमणी आदि के द्वारा अनेक रोगों की चिकित्सा होती थी ! आज का विज्ञान अथर्ववेद का कर्जदार है !

ऋग्वेद (1.191) में, विषघनोपनिषद में सर्वविषहरी विद्या है, तो अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में न केवल विविध प्रकार के सर्पों का उल्लेख है, अपितु उनके विष को दूर करने के उपाय भी हैं! सीसे का उपयोग अनेक रोगों के निवारण के लिए होता था :-

सिसायाध्याह वरूप: सीसायागिरूपा वती !
सीसं म इन्द्र: प्रयच्छत तदअन्ग्यातु चात्नाम !! (अथर्ववेद 1.16,2)

इसी प्रकार छान्दोग्य उपनिषद से पता चलता है कि सीसे के समान ही लौह, दारो, त्रपु, सुवर्ण, और लवन जैसे पदार्थों का उपयोग भी अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं में होता था :-

तद्यथा लवणएन सुवर्ण
सं दध्यात सुवर्णएन रजतं
राज्तें त्रपु त्रपुण सीसं
सीसें लोहं लोहेन दारूम
दारुम चर्मण !!!

इस प्रकार स्पष्ट है कि निश्चित रूप से वेदों में विज्ञान के दर्शन होते है !

परन्तु हमारा दुर्भाग्य यहीं है कि , हमारे पूर्वज विदेशियों के छल - प्रपंच के आगे हार गए और हमारा प्राचीन ज्ञान - विज्ञान अतीत के अँधेरे में खो गया ! यह स्थिति आज भी थोड़ी बहुत ही ठीक हुई है, शेष सब पूर्वत ही है !!!!
मेरी दृष्टि में अब तक का सबसे श्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग -

भारत का वैज्ञानिक चिन्तन

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जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, रसायन विज्ञान का विकास भी उसी के साथ हुआ। प्रकृति में पाई जानेवाली अगाध संपत्ति और उसका उपभोग कैसे किया जाए, इस आधार पर इसकी नींव पड़ी। घर, भोजन, वस्त्र, निरोग रहने की आकांक्षा, और आगे चलकर विलास की सामग्री तैयार करने की प्रवृत्ति ने इस शास्त्र के व्यावहारिक रूप को प्रश्रय दिया। अथर्वांगिरस ने भारत काष्ठ और शिलाओं के मंथन से अग्नि उत्पन्न की। अग्नि सभ्यता और संस्कृति की केंद्र बनी। ग्रीक निवासियों की कल्पना में प्रोमीथियस पहली बार अग्नि को देवताओं से छीनकर मानव के उपयोग के लिए धरती पर लाया।

मनुष्य ने देखा कि बहुत से पशु प्रकृति में प्राप्त बहुत सी जड़ी-बुटियाँ खाकर अपना रोग दूर कर लेते हैं। मनुष्य ने भी अपने चारों ओर उगनेवाली वनस्पतियों की मीमांसा की और उनसे अपने रोगों का निवारण करने की पद्धति का विकास किया। महर्षि भारद्वाज के नेतृत्व में हिमालय की तजहटी में वनस्पतियों के गुणधर्म जानने के लिए आज से २,५०० वर्ष पूर्व एक महान्‌ सम्मलेन हुआ, जिसका विवरण चरक संहिता में मिलता है। पिप्पली, पुनर्नवा, अपामार्ग आदि वनस्पतियों का उल्लेख अथर्ववेद में है। यजुर्वेद में स्वर्ण, ताम्र, लोह, त्रपु या वंग तथा सीस धातुओं की ओर संकेत है। इन धातुओं के कारण धातुकर्म विद्या का विकास लगभग सभी देशो में हुआ। धीरे-धीरे इस देश में बाहर से यशद और पारद भी आया। पारद भारत में बाहर से आया और माक्षिक तथा अभ्रक इस देश में थे ही, जिससे धीरे-धीरे रसशास्त्र का विकास हुआ। सुश्रुत के समय शल्यकर्म का विकास हुआ, और व्रणों के उपचार के निमित्त क्षारों का उपयोग प्रारंभ हुआ। लवणों का उपयोग चरक काल से भी पुराना है। सुश्रुत में कॉस्टिक, या तीक्ष्ण क्षारों, को सुधाशर्करा (चूने के पत्थर) के योग से तैयार करने का उल्लेख है। इससे पुराना उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। मयर तुत्थ (तुतिया), कसीस, लोहकिट्ट, सौवर्चल (शोरा), टंकण (सुहागा), रसक, दरद, शिलासीत, गैरिक, और बाद को गंधक, के प्रयेग से रसशास्त्र में एक नए युग को जन्म दिया। नागार्जुन पारद-गंधक-युग का सबसे महान्‌ रसवेत्ता है। रसरत्नाकर और रसार्णव ग्रंथ उसकी परंपरा के मुख्य ग्रंथ हैं। इस समय अनेक प्रकार की मूषाएँ, अनेक प्रकार के पातन यंत्र, स्वेदनी यंत्र, बालुकायंत्र, कोष्ठी यंत्र और पारद के अनेक संस्कारों का उपयोग प्रारंभ हो गया था। धातुओं के भस्म और उनके सत्य प्राप्त करने की अनेक विधियाँ निकाली गई और रोगोपचार में इनका प्रयोग हुआ। समस्त भोज्य सामग्री का भी बात, कफ, पित्त निवारण की दृष्टि से परीक्षण हुआ। आसव, कांजी, अम्ल, अवलेह, आदि ने रसशास्त्र में योग दिया।

भारत में वैशेषिक दर्शन के आचार्य कणाद ने द्रव्य के गुणधर्मों की मीमांसा की। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचतत्वों ने विचारधारा को इतना प्रभावित किया कि आजतक ये लोकप्रिय हैं। पंचज्ञानेद्रियों के पाँच विषय थे : गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द, और इनके क्रमश: सबंध रखनेवाले ये पाँच तत्व "पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाश' ("क्षिति, जल, पावक गगन समीरा", तुलसीदास के शब्दों में) थे। कणाद भारतीय परमाणुवाद के जन्मदाता है। द्रव्य परमाणुओं से मिलकर बना है। प्रत्येक द्रव्य के परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। ये परमाणु गोल और अविभाज्य हैं। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक और फिर इनसे त्रयणुक आदि बनते हैं। पाक, या अग्नि के योग से पविर्तन हाते हैं। रासायनिक पविर्तन किस क्रम में होते हैं, इसकी विस्तृत मीमांसा कणाद दर्शन के परवर्ती आचार्यों ने की।

भारत में और भारत से बाहर लगभग सभी प्राचीन देशों, चीन, अरब, यूनान में भी, मनुष्य की दो चिर आकांक्षाएँ थीं :

    * (१) किस प्रकार रोग, जरा और मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाए अर्थात्‌ संजीवनी की खोज या अमरुल की प्राप्ति हो और
    * (२) लोहे के समान अधम धातुओं को कैसे स्वर्ण के समान मूल्यावान्‌ धातुओं में परिणत किया जाए।

 

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

देश उन्नति की ओर जा रहा है अथवा अवनति की ओर

एक विचारक ने कहा है — कोई देश कितना उन्नत है या अवनत, इसका ज्ञान करने के लिए मुझे उस देश के युवकों के साथ रहने का कुछ समय दीजिये. उनके मुखों पर जो गीत हैं, उन्हें सुनकर मैं यह बतला दूँगा कि वह देश उन्नति की ओर जा रहा है अथवा अवनति की ओर. 

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

कड़वाहट भरी साधना के बीच मधुर औषधि है वसंत


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छह ऋतुओं में वसंत को ऋतुराज कहा जाता है. इस ऋतु के आगमन से पूर्व ही प्रकृति की भदेसता पुष्पादि के सौन्दर्य से ढाँपित होने लगती है. इस कारण ही वसंत को प्रकृति ने विशिष्टता प्रदान की है. जलवायु सम होकर प्राणीमात्र के आनंद का स्रोत हो जाती है. ऐसे में आलस्य नहीं रहता, शरीर में हर क्षण स्फूर्ति अनुभव होने लगती है. मन-तुरग पर वल्गा कसना सहज हो जाता है. ब्रह्मचारी विद्यार्थी अपने व्यक्तित्व में कलात्मक विकास लाते हैं. 

विद्या ग्रहण करना साधना है, तपस्या है, एक दुष्कर कर्म है. प्राप्ति में मस्तिष्क को अत्यधिक श्रम करना पड़ता है. वसंत ऋतु उस मार्ग को सरल बनाती है, सात्विक मनोरंजन के लिये अवसर भी देती है. पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ [नेत्र, श्रोत, नासिका, जिह्वा और त्वचा] वसंत में ही उल्लिसित होती हैं, विकास पाती हैं. व्याधियाँ विश्राम करती हैं. 

नेत्र प्रकृति के सौन्दर्य का दर्शन कर वंचक मोहकता से मुक्त होते हैं; श्रोत भौंरों की गुंजार में अनहद नाद-सा सुख पाकर दैनिक क्लेशों के रव से छुटकारा पाते हैं, नासिका पुष्पादि से सुगन्धित हुए वातावरण में, व्यक्ति की बाहरी और भीतरी मलजन्य दुर्गन्ध से कष्ट पाने के कारण अनचाहा प्राणायाम करना छोडती है; जिह्वा षट रसों का कृत्रिम स्वाद लेते-लेते खाद्य का वास्तविक स्वाद लेने को प्रेरित होती है और त्वचा लोलुप-स्पर्श का क्षणिक-सुख भूलकर अपने रंध्रों से निराकार [ब्रह्म-तेज, वायु, प्रकाश आदि] को पीने की क्षमता पाती है. साथ ही मन प्रकृति के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर, नीरवता में एकाग्र होकर, प्राण-वायु से सही संतुलन पाकर, 'मूलरस' [शांतरस] में विलीन होते शेष अष्ट-रसों की धाराओं की परिणति में गोता खाकर व रोम-रोम से आनन्द को पीकर वसुधा पर मनुष्य-जन्म को धन्य विचारने लगता है. 

काल की दृष्टि से वसंत-पंचमी का वसंत के १० दिवस पूर्व ही आगमन हो जाता है. कवि कल्पना करता है कि विशिष्ट अतिथियों के लिये जिस प्रकार आगमन से पूर्व ही साज-सजावट की जाती है, तोरणद्वार आदि सजाये जाते हैं, सुगंधी का छिडकाव किया जाता है,  बालक-बालिकायें सुन्दर वेश-भूषा में स्वागत-गीत गाते हैं. भेंट आदि से सम्मान किया जाता है. उसी प्रकार प्रकृति भी ऋतुराज वसंत के आगमन से पूर्व ही सजावट की तैयारियाँ किया करती है और वसंत-पंचमी को वसंत को सम्मानित किया जाता है. अस्सी प्रहरों के उपरान्त विधिवत रूप से ऋतुराज वसंत [माघ मास की पूर्णिमा के पश्चात] कृष्ण-पक्षीय फाल्गुन की प्रतिपदा से अपनी द्वैमासीय सत्ता को संभालता है. 

वसंत-पंचमी पर सरस्वती-पूजन और विष्णु-पूजन भी किया जाता है. वैज्ञानिक सोच पूजन की मनाही नहीं करती, किन्तु आडम्बरों को वास्तविकता भुलाने वाली शैली मानती है. वैज्ञानिक सोच में विधि की प्राथमिकता है. पूजन-विधि ऎसी न हो जिससे हम कुछ वस्तुओं तक सिमटते चले जाएँ. अन्नादि खाद्य-पदार्थों को जड़-प्रतिमाओं से चिपकाकर उन्हें भोग लगाने का, वास्तविक-सा लगने वाला, नाटक न करें. सरसता विकसाने वाली कलाओं को प्रोत्साहन देकर या उसमें निष्णात होकर सरस्वती का पूजन करें. उन्नतिपरक सभी तरह की विद्या को और विकारमोचक कलाओं का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार करके उसका संवर्धन करें, यही विष्णु-पूजन है. 

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