बुधवार, 23 नवंबर 2011

ताजमहल की असलियत ... एक शोध -- 5


भाग - 1भाग - 2भाग -3, भाग -4 से आगे ....

 

 

०४) टैवर्नियर की समीक्षा

यद्यपि टैवर्नियर ने अपनी पुस्तक ''ट्रैवल्स इन इण्डिया'' में लिखा है कि ताजमहल का प्रारम्भ होना तथा पूरा होना उसने स्वयं देखा था, परन्तु उसकी यात्राओं से यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि वह इस देश की यात्रा करते समय न तो सन्‌ १६३१-३२ में ही इस देश में था और न ही वह सन्‌ १६५३ में उत्तर भारत में आया था।

टैवर्नियर ने आगे लिखा है 'इस पर उन्होंने २२ वर्षों का समय लिया जिसमें २० सहस्र व्यक्ति लगातार कार्यरत रहे।' बीस सहस्र कामगारों की संख्या एवं उनके सतत कार्यरत रहने की बात महत्वपूर्ण है। सतत कार्यरत रहने से तात्पर्य है कि इस अवधि में जो भी व्यक्ति वहां पर आया होगा उसे इतनी संख्या में कामगार मिले होंगे। सम्भव है कि किसी दिन कम हो गये होंगे तो १८-१६१५ नहीं तो दस हजार कार्मिक तो मिले ही होंगे, परन्तु नहीं। फ्रे. सेबेस्टियन मनरिक जो एक पुर्तगाली यात्री था और लगभग उसी समय आया था जिस समय टैवर्नियर प्रथम बार आया था अर्था्‌ सन्‌ १६४०-४३ की शरद ऋतु में, उसने मात्र १,००० (एक हजार) कार्मिकों को कार्यरत पाया जिसमें ओवरसियर, अधिकारी एवं कार्मिक सम्मिलित और उनमें से अधिकांश बाग में कार्यरत थे, छायादार कुंज लग रहे थे, सुशोभित मार्ग बना रहे थे, सड़कें बना रहे थे एवं स्वच्छ जल की व्यवस्था कर रहे थे क्या एक सहसत्र एवं बीस सहस्र की संख्या में भयानक असामंजस्य नहीं है ? क्या मनरिक, विदेशी, प्रबुद्ध एवं निष्पक्ष लेखक नहीं है ?

सम्भव है जिन दिनों में मनरिक ताजमहल देखने गया हो उन दिनों एक सहस्र व्यक्ति ही कार्यरत रहे हों, अथवा उसका आकलन गलत रहा हो। आइए टैवर्नियर की कसौटी पर ही उसे कसते हैं। टैवर्नियर ने अपनी पुस्तक के प्रथम खण्ड के पृष्ठ ४६ पर लिखा है 'एक मजदूर को कुल मिलाकर रु. ४ प्रति मास देना होता है और यदि मात्रा लम्बी हो तो रु. पांच।'

शाहजहाँ शासक था, अतः अपने मजदूरों को बहुत कम वेतन देता होगा। बेगार की प्रथा भी उन दिनों में थी तथा दास प्रथा भी। फिर भी मजदूरों को कम से कम पेट-भर भोजन और कुछ वस्त्र तो देता ही होगा और यदिइस पर मात्र एक रुपया मासिक व्यय मान लें, साथ ही हर छोटे-बड़े कार्मिक पर भी एक रुपया मासिक ही रखें तो २० सहस्त्र व्यक्तियों का २२ वर्ष का केवल वेतन (भोजन वस्त्र) ही हुआ रु. बावन लाख अस्सी हजार मात्र। ईंट, गारा, चूना, पत्थर, संगमरमर एवं अन्य बहुमूल्य पत्थरों का मूल्य अलग से। काम में आने वाले उपकरणों-औजारों का मूल्य अलग से एवं पत्थर आदि सामान की ढुलाई अलग से। आदि-आदि।

हमारे पास फारसी लेखकों एवं यूरोपीय लेखकों के अनुसार २५ व्यक्तियों के नामों की सूची है जिनको २०० रु. से लेकर एक हजार रु. तक प्रतिमाहस वेतन दिया जाता था और जिन्होंने ताजमहल बनाने का कार्य किया थां इन २५ कार्मिकों का मासिक वेतन ११,३१५ रु. आता है इसमें २६४ मास का गुणा करने पर रु. २९,८७,१६० मात्र २२ वर्ष का वेतन आता है। इसके अतिरिक्त यदि अर्धकुशल एवं कुशल कारीगरों का वेतन ५-१० रुपये प्रतिमाहस, पर्यवेक्षकों एवं अधिकारियों का वेतन रु. २० से २०० रुपये तक प्रतिमास मान कर चलें तो मात्र वेतन पत्रक कई करोड़ रुपये हो जायेगा।

विशेषज्ञों के अनुसार मजदूरी एवं निर्माण-सामग्री के मध्य १० : ८ का मूल्यानुपात रहता है, परन्तु यदि सामग्री बहुमूल्य हो तो यह अनुपात बढ़भी सकता हैं टैवर्नियर के २२ वर्ष एवं बीस सहस्र की संखया के अनुसार ताजमहल के बनाने पर शाहजहाँ ने ३०-४० करोड़ रुपये व्यय किये होंगे, जबकि २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक किसी भी विशेषज्ञा ने इसका (ताजमहल का) मूल्य २-३ करोड़ रुपये से अधिक नहीं कूता था। इन सबके विपरीत बादशाहनामा में व्यय मात्र चालीस लाख रुपये लिखा है देखें पृष्ठ ४०३ अन्तिम पंक्ति, 'आफरीन चिहाल लाख रुपियाह अखरजते एैन इमारत बर आवुर्द नमूदन्द' अर्थात्‌ इस भवन पर चालीस लाख रुपया व्यय किया गया।

तर्क तो बहुत सुन लिये अब एक कुतर्क करके भी देख लें। शाहजहाँ कहता है कि उसने मात्र ४० लाख रुपये इस भवन पर व्यय किये थे। मनव प्रकृति के अनुसार यदि २-३० लाख रुपये व्यय किये होंगे तभी ४० लाख लिखे होंगे। आज के समयानुसार नम्बर दो का पैसा शाहजहाँ ने व्यय नहीं किया था जो (आयकर से) छिपाने के लिये कई करोड़ व्यय कर मात्र ४० लाख लिखाता। इन ४० लाख का बंटवारा सब (छोटे-बड़े) २० सहस्र मजदूरों में कर दीजिये तो प्रत्येक को २०० रुपये की विशाल राशि हाथ लगेगी। इस राशि में उनका सपरिवार जीवनयापन २२ वर्ष के छोटे समय में कितनी सरलता से बिना महंगाई के उस स्वर्णिम-काल में होगया होगा, यह कल्पना की बात नहीं, वास्तविकता है। टैवर्नियर महादेय के लिये क्योंकि प्रति परिवार को प्रतिमास के लिये बारह आने (पचहत्तर नये पैसे) अर्थात्‌ ढाई नया पैसा प्रतिदिन जो मिल रहा था। धन्य है हमारे विद्वान्‌ इतिहासज्ञाता जो कम पढ़े-लिखे टैवर्नियर को विदेशी एवं निष्पक्ष मानते हुए इतना अधिक मान देते हैं। साथ ही पता नहीं क्यों पीटर मुण्डी, सेबेस्टियन मनरिक आदि की ओर ध्यान नहीं देते हैं। और तो और अपने देशवासी बादशाहनामा के रचियता मुल्ला अब्दुल हमीद लाहोरी को भी नकार देते हैं। ताजमहल का बनना प्रारम्भ होते तथा समाप्त होते देखना क्या लाहोरी के लिये सम्भव नहीं रहा होगा ? अरे ! उसने तो लगभग प्रतिवर्ष का कार्य देखा होगा चाहे वह एक वर्ष का रहा हो, १० वर्ष का अथवा २२ वर्ष का, परन्तु क्या कहें हम अपनी बुद्धि को। सन्‌ १६३१ में पेरिस में बैठा हुआ टैवर्नियर सच्चा है और अपने हाथों से सम्राज्ञी को मिट्‌टी देने वाला अब्दुल हमीद लाहोरी झूठा है। कम पढ़ा लिखा टैवर्नियर विश्वसनीय है, परन्तु महान्‌ विद्वान्‌ लाहोरी (जिसकी विद्वता के कारण शाहजहाँ ने अवकाश प्राप्त कर लेने के बादभी बादशाहनामा की रचना करने के लिये विशेष रूप सेबुलाकर उसे नियुक्त किया था) गप्पी है।

डॉ. बाल के अनुसार टैवर्नियर इस देश की किसी भाषा को नहीं जानता था तथा दुभाषिये की सहायता लेता था, जबकि इसी मिट्‌टी में पला-बढ़ा अब्दुल हमीद अनेक भाषाओं का ज्ञाता था। दुभाषिये की सहायता लेने के कारण अनेक स्थानों पर एवं ताजमहल के बारे में भी टैवर्नियर ने लिखा है 'सुना जाता है' अथ्वा 'सुना गया है'। इसके विपरीत लाहोरी के वर्णन में वास्तविकता तथा अधिकार-बोध स्पष्ट है।

अब एक अन्य विचित्र परिस्थिति पर भी ध्यान दीजिये। किसी भवन को बनाते समय जब उसकी ऊँचाई पर्याप्त हो जाती है, उस समय कारीगरों को ऊँचाई पर काम करने के लिए एवं सामग्री, ईंट गारा आदि पहुँचाने के लिए बांस-बल्ली, जाली आदि के द्वारा एक मचान तैयार किया जाता हैं इस मचान पर कई चढ़ाईदार मार्ग भी बना लिया जाता है। इसके ऊपर ही खड़े होकर कारीगर निर्माण-कार्य करते हैं तथा इसके द्वारा ही मजदूर ऊपर सामान पहुँचाते हैं। पुराने ऊँचे भवनों की मरम्मत अथवा परिवर्तन-परिवर्द्धन के समय भी इसी प्रकार की व्यवस्था की जाती है। समय-समय पर आगरा में आज भी मरम्मत करने के लिये ताजमहल तथा जामा मस्जिद के किसी एक खण्ड पर इस प्रकार की बाड़ या मचान देखा जा सकता है यद्यपि यह लोहे का है।

इस सन्दर्भ में टैवर्नियर ने लिखा है कि मचान बनाने पर पूरे कार्य से अधिक व्यय हुआ क्योंकि लकड़ी (बांस-बल्ली आदि) उपलब्ध न होने के कारण उन्हें ईंटों का प्रयोग करना पड़ा-साथ ही साथ मेहराब को सम्भालने के लिये। है न आश्चर्यजनक कथ्य ? मचान बनाने पर आने वाला व्यय साधारणतः मजदूरी में ही जोड़ा जाता है, अर्थात्‌ यह उपरिलिखित १० : ८ भाग की मजदूरी का भी एक अति छोटा अंश होता है। यदि इसे मजदूरी में न भी जोड़ें तो भी यह पूरे भवन पर हुए व्यय का अति छोटा अंश होता है।

अब हमारा कार्य सरल हो गया है। ताजमहल को ईंटों की दीवार से घिरवा दीजिये। उस पर जितना व्यय आयेगा उससे कम में भवन पर कुरान शरीफ की खुदाई का कार्य हो जायेगा। टैवर्नियर ने अपने लेख में 'महान कार्य' (ग्रेट वर्क) 'पूरा कार्य) (एनटायर वर्क) आदि शब्दों का ही प्रयोग किया है, न कि भवन निर्माण का। मुसलमान लोग कुरान को सदैव आदर सहित कुरान शरीफ कह कर पुकारते हैं। अतः एक विदेशी की दृष्टि में यह 'महान कार्य' ही हुआ अर्थात्‌ कुरान शरीफ का लिखना और यदि बादशाहनामा पर ध्यान दें, यह कार्य चालीस लाख रुपये में या उससे भी कम में परिपूर्ण हो जायेगा।

किसी भी महान्‌ कार्य अथवा आविष्कार से अपने को जोड़ कर अमर हो जाने की यूरोपियनों में प्रवृत्ति रही है। टैवर्नियर की इसी लालसा ने उससे यह लिखवाया कि वह इस कार्य का प्रारम्भ से अन्त तक का प्रत्यक्षदर्शी था। दूसरे संस्करण की प्रस्तावना में डॉ. बॉल ने सत्य ही कहा है, 'इतिहासकार के रूप में टैवर्नियर पर विश्वास नहीं किया जा सकता।'

कुरान शरीफ लिखने के बाद इसके लेख अमानत खाँ शीराज़जी ने अपना नाम तथा तारीख १०४८ हिजरी-सम्राट के शासन काल का १२वाँ वर्ष (सन्‌ १६३९) अर्थात् टैवर्नियर के भारत आगमन से एक वर्ष से अधिक पूर्व कुरान लेखन पूरा हो गया था तथा मचान हटा दिया गया था। अतः टैवर्नियर ने मचान देखा ही नहीं था। इसी कारण वह कहता है, ''कहा जाता है कि मचान बनाने पर ''पूरे कार्य'' से अधिक व्यय हुआ।''

कैसे विरोधाभास पर हम भारतीय आंख मूंद कर विश्वास कर लेते हैं ? एक ओर तो हम उसे ताजमहल बनने का प्रारम्भ से अन्त तक का प्रत्यक्षदर्शी मानते हैं, दूसरी ओर वही विदेशी, यूरोपीय, निष्पक्ष टैवर्नियर स्वीकार करता है कि जितने दिन मचान लगा रहा उतने दिन 'मैं' स्वयं उपस्थित नहीं था।मचान बनाने पर पूरे कार्य से अधिक व्यय हुआ ऐसा मैंने ''सुना था''

सोचिये :
यदि शाहजहाँ ने ताजमहल बनवाया होता तो मचान ताजमहल, के ऊपर गुम्बज पर कलश लग जाने के बाद ही उतारा जाता। उसके बाद ही टैवर्नियर आगरा जाता ऐसी दशा में वह ताजमहल के प्रारम्भ तथा समापन का तथा बाईस वर्षों के कार्य प्रत्यक्षदर्शी कैसे मान लिया गया? है न आश्चर्य?
है किसी के पास समुचित उत्तर ?


जारी .... 
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"ताजमहल की असलियत"  पोस्ट-माला की प्रकाशित पोस्टें --



गुरुवार, 3 नवंबर 2011

पशु-बलि : प्रतीकात्मक कुरिति पर आधारित हिंसक प्रवृति

पशु-बलि : प्रतीकात्मक कुरिति पर आधारित हिंसक प्रवृति


ईद त्याग का महान पर्व है, जो त्याग के महिमावर्धन के लिए मनाया जाता है। हमें संदेश देता है कि हर क्षण हमें त्याग हेतू तत्पर रहना चाहिए। प्रेरणा के लिए हम हज़रत इब्राहीम के महान त्याग की याद करते है। किन्तु उस महान् त्याग की महिमा और प्रेरणा की जगह, गला रेते जा रहे पशुओं की चीत्कार कानों को चीर डालती है। त्याग-परहेज के उल्हासमय प्रसंग के बीच, मन विशाल स्तर पर सामूहिक पशु-बलि के बारे में सोचकर ही व्यथित हो उठता है। अनुकंपा स्वयं कांप उठती है।
 

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

पशुबलि-कुरबानी , शाकाहार-मांसाहार , वैचारिक बहस, प्रवीण शाह के ११ सवालों के उत्तर निरामिष पर

हमनें मात्र कथनी से ही इस का उत्तर देने की बजाय, करनी से उदाहरण प्रस्तुत करने निर्णय लिया और मात्र बकरीद के दिन ही नहींसाल के 365 दिन जीव-दया को प्रोत्साहन और शाकाहार जाग्रति अभियान को ‘निरामिष’ ब्लॉग के माध्यम से नियमित रूप से चलाया। इस प्रयत्न से हमने यह सिद्ध किया कि हम अहिंसा के सांगोपांग प्रवर्तक हैं और हमें मात्र बकरीद के दिन ही अहिंसा सूझती हो, ऐसा कदापि नहीं है। अहिंसा ही निरामिष का पैगाम हैयह प्रयत्न अनवरत जारी है,  और तब तक जारी रहेगा जब तक लोगों के दिल में करूणा का सागर हिलोरें न लेने लगे।

क्यों इस महाहिंसा का विरोध किया जाता है? सभी 11 प्रश्नों के सार्थक प्रत्युत्तर पढ़ें निरामिष पर
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