शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

हमारा विवेक अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है। -सम्वेदना युक्त है शाकाहार


शाक, सब्जी या अन्य शाकाहारी पदार्थों के उत्पादन, तोड़ने तथा सेवन करने पर क्या जीव हिंसा नहीं होती ?

क्रूर सच्चाई तो यह है कि माँसाहार समर्थकों का यह तर्क, सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है।

शाकाहार की तुलना मांसाहार से करना और दोनों को समान ठहराना न केवल अवैज्ञानिक और असत्य है बल्कि अनुचित व अविवेक पूर्ण कृत्य है। एक ओर तो साक्षात जीता जागता प्राणी , अपनी जान बचाने के लिए भागता, संघर्ष करता, बेबसी महसुस करता प्राणी , सहायता के लिए याचना भरी निगाहों से आपकी ओर ताकता आतंकित प्राणी , चोट व घात पर दर्द और पीड़ा से आर्तनाद कर तड़पता, छटपटाता प्राणी और उसे मरते देख रोते बिलखते अन्य प्राणी? तब भी यदि करूणा नहीं जगती तो निश्चित ही यह मानव मन के निष्ठुर व क्रूर भावों की पराकाष्टा होनी चाहिए।

शाकाहार और मांसाहार के विषय पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हिंसा में अंतर स्पष्ट है। पशु-पक्षी आघात और हत्या के समय मरणांतक पीड़ा महसुस करते है, और बेहद भयभीत होते है जबकि पेड़-पौधे ऐसी सम्वेदना से मुक्त हैं।

किसी भी जीव का प्राण-घात, करूण प्रसंग है। क्रूर भावों के निष्कासन के लिए, करूणा भाव जरूरी है। हमारा विवेक अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

ताजमहल की असलियत ... एक शोध -- 6


भाग -१, भाग - २, भाग - ३, भाग -४, भाग - ५  से आगे ---

०५) अन्य विदेशियों ने क्या देखा ?
आपने पढ़ा कि कुरान के लेखक अमानत खाँ शीराजी ने कुरान लेखन सन्‌ १६३९ में पूरा कर लिया था। अर्थात्‌ ताजमहल सन्‌ १६३१ तक कम से कम कुरान लेखन की ऊँचाई तक तो बन ही चुका था। उसके पश्चात्‌ ताजमहल  के चारों ओर बनाया गया ईंटों का मचान हटा दिया गया होगा, क्योंकि इसके ऊपर जाने के लिये भवन के अन्दर ही जीना बना हुआहै। इसके लगभग एक वर्ष बाद टैवर्नियर इस देश में आया था। उस समय तक ताजमहल पूरा हो चुका था अथवा कम से कम कुरान लिखे भाग तक तो पूरा हो ही चुका था। मचान हटाया ही जा चुका था। उसने सुना कि मचान बनाने पर जितना व्यय हुआ उतना सम्पूर्ण कार्य (कुरान लेखन) पर भी नहीं हुआ, अस्तु उसके द्वारा 'कहा जाता है' लिखना स्वाभाविक ही था। (इट इज सेड दैट दि स्काफोल्डिंग एलोन कॉस्ट मोर दैन दि एनटायरवर्क) यदि टैवर्नियर ने सन्‌ १६४० में मचान बना हुआ स्वयं देखा होता तो उसकी लेखन शैली कुछ इस प्रकार होती 'मैंने देखा कि' (उसे) इतना बड़ा मचान बनाना पड़ा कि उस पर आया व्यय मुख्य भवन से भी अधिक था'। मुख्य भवन इसलिये कि टैवनिर्यर के भक्तों के अनुसार टैवर्नियर का तात्पर्य पूरे ताजमहल के बनने से था, और सही भी है। २२ वर्ष में पूरा ताजमहल ही तो बनेगा। कुरान लेखन तो ८ वर्ष में ही हो गयाथा। पर यह सत्य नहीं है कि टैवर्नियर ने पूरा ताजमहल बनते देखा था। सत्य यह है कि ताजमहल को टैवर्नियर ने बना बनाया कुरान युक्त देखा था। ऊपर के आख्यान से सिद्ध है कि कुरान लेखन टैवर्नियर के आगमन से एक वर्ष से भी पूर्व समाप्त हो चुकाथा। कुरान लेखन की ऊँचाई के ऊपर मुख्य गुम्बज है, परन्तु इस गुम्बज का बनना कुरान लेखन के बाद प्रारम्भ नहीं हुआ था अपितु उससे पहले, बहुत पहले बन चुका था। कैसे ?

बादशाहनामा <http://tajmahal.gaupal.in/parishishtha/badasahanama> पर ध्यान दीजिए। पृष्ठ ४०३ की पंक्ति क्र. ३६, ३७ तथा ३८ के अनुसार 'उस आकाश चुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर' ......... 'उस महान्‌ भवन में गुम्बज है'.........'जो आकार में बहुत ऊँचा  है'..........'वा इमारत ए आलीशान वा गुम्बजे'.... आदि आदि। अर्थात्‌ जिस समय सम्राज्ञाी के शव को दफन किया गया उस समय 'आकाश चुम्बी उस महान भवन पर गुम्बज था जो आकार में बहुत ऊँचा था।' तथा रानी के शव को दफन कब किया गया था ?अगले वर्ष। देखिये उसी पृष्ठ की पंक्ति ३५ अर्थात्‌ सन्‌ १०४२ हि. तदनुसार सन्‌१६३२ की जुलाई या उसके बाद।टैवर्नियर ने मात्र २० सहस्र कार्मिक कार्यरत बताये हैं, परन्तु कितने कर्मचारी क्या-क्या काम कर रहे थे, यह नहीं बताया है। इसके विपरीत सेबेस्टियन मनरिक का कथन अधिक स्पष्ट, सटीक एवं अधिकार पूर्ण प्रतीत होता है। कार्मिकों में उसे, अधिकारी, ओवरसियर एवं कारीगर मिले वे बगीचे, मार्ग, जल आदि के कार्य में लगे थे। इस प्रकार सन्‌ १६४० में मनरिक ने ताजमहल देखा तो उस समय ताजमहल के बाहर (मुख्य भवन से दूर) कार्य चल रहा था। कारीगरों में कोई भी फूल पत्ती बनाने वाला, पत्थर की कटाई या बेल बूटा बनाने वाला या कुरान लिखने वाला या राजमिस्त्री मनरिक को नहीं मिला था। इसके साथ ही मनरिक ने मुख्य भवन तो क्या किसी भी भवन को बनते हुए नहीं देखा। 

पाठकों की जिज्ञासा को शान्त करने के लिये यह स्पष्ट कर दूंकि से बेस्टियन मनरिक एक पुर्तगाली मिशनरी था तथा वह आगरा २४ दिसम्बर १६४० कोआया था तथा यहाँ पर २० जनवरी १६४१ तक रहा था। एक अन्य जर्मन यात्री अक्टूबर सन्‌ १६३८ में आया था, परन्तु उसे ताजमहल के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है। उसका नाम जे. ए. डी मैनडेल्सलो था। इसने किले का विस्तृत वर्णन किया है। आगरा नगर तथा यहां की गतिविधियों का भी उसने विस्तार से वर्णन किया है। 

एक अन्य अंग्रेज जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी का कर्मचारी था, पीटर मुण्डी, वह सन्‌ १६३१-१६३३ में आगरा आया था। वह १ जनवरी १६३१ से १७ दिसम्बर १६३१; १६ जनवरी १६३२ से ६ अगस्त १६३२ तथा २२ दिसम्बर १६३२ से २५ फरवरी १६३३ तक आगरा में रहा। १७ जून सन्‌ १६३१ को महारानी का देहान्त बरहानपुर में हुआ था। इस वर्ष वह आगरा में ही था, परन्तु रानी के देहान्त का समाचार आगरा आने के बारे में अथवा किसी राजकीय शोक के बारे में कुछ ने कुछ नहीं लिखा है। ८ जरवरी १६३२ को रानी का पार्थिव शरीर आगरा लाया गया था। १६ जनवरी १६३२ को मुण्डी पुनः आगरा आ गया था,परन्तु इस बारे में भी वह मौन है। पीटर मुण्डी के अनुसार शाहजहाँ आगरा में १ जिल्हाज सन्‌ १०४१ हिजरी तदनुसार १ जून सन्‌ १६३२ को आया था। यह १०४१ हि. काअन्तिम मास था और बादशाहनामा में लिखे अगले वर्ष के अनुसार रानी के शव को जुलाईमें अथवा उसके बाद दफनाया गया होगा। पीटर मुण्डी के बारे में विशेष बात यह है कि वह लिखता है कि आगरा में देखने योग्य वस्तुएं हैं, अकबर का मकबरा, किला, ताजमहल तथा बाजार। है न आश्चर्यजनक। पीटर मुण्डी २५ फरवरी १६३३ को आगरा से चला गया था, परन्तु साथ में ताजमहल की मधुर स्मृति भी ले गया था। अध बने नहीं, पूरे बने ताजमहल की स्पष्ट सिद्ध है कि ताजमहल २५ फरवरी १६३३ तक बन चुका था। बनने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि १ जनवरी १६३१ से २५ फरवरी १६३३ तक लगभग कुछ मासों को छोड़ कर वह आगरा में ही था। इस बीच ताजमहल के बनने की कोई कार्यवाही यदि हुई होती तो वह अवश्य लिखता। 


२०जून १६३१ को सम्राज्ञी के देहान्त के पश्चात्‌ २५ फरवरी १६३३ तक के १ वर्ष ८मास के समय में ताजमहल बन कर खड़ा हो गया, ऐसा तो केवल अलादीन के चिराग से ही सम्भव है, अन्यथा आज के मशीनी युग में भी २० हजार तो क्या २० लाख व्यक्ति लगानेपर भी इतने कम समय में ताजमहल का निर्माण सम्भव नहीं हैं बादशाहनामा के अनुसार जुलाई १६३२में (१ जून १६३२ को शाहजहाँ के आगरा आगमन के बाद) रानी के शव को 'बने हुए भवन में' दफन किया गया था जिसे पीटर मुण्डी ने भी बनी हुई दशा में देखा था। बाद में सन्‌ १६४० में टैवर्नियर ने भी देखकर लिखा 'कहा जाता है'... आदि।

इस प्रकार स्पष्ट है कि ताजमहल को शाहजहाँ ने बनवाया नहीं था अपितु राजामानसिंह के भवन में दफनाया था जो उसने उनके पोते राजा जयसिंह से लिया था।अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सन्‌ १६३१-३२ के बाद तो अनेक विदेशियों नेताजमहल देखा जिसमें से कइयों ने तो उसे बनते हुए भी देखा, चाहे उसे मैं कुरान लिखना मात्र मान रहा हूँ यदि ताजमहल रानी के देहान्त के पूर्व भी था तथा इसी दशा में था तो किसी अन्य विदेशी यात्री ने भी देखा होता अन्यथा यही सिद्ध होगा कि ताजमहल को सम्राज्ञी का शव दफन करने के बाद ही बनाया गया था।

आइये डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का लेखा देखें। फ्रँासिस्को पालसेर्ट उनका मुख्य अधिकारी आगरा में सन्‌ १६२० से १६२७ तक था। वह स्थानीय भाषा में पारंगत था। उसने सन्‌ १६२६ में एक रिपोर्ट बनाई थी। इस रिपोर्ट में वह आगरा का वर्णन निम्न प्रकार से करता है- इस नगर की चौड़ाई-लम्बाई का अनुपात बहुत कम है। इसका कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति नदी के किनारे ही बसना चाहता है। फलतः नदी के सामने अनेक भवन उच्चाधिकारियों के बने हैं, जिसके कारण यह भाग अत्यन्त सुन्दर एवं मनोरम हो गया। इसका विस्तार ६ कोस व ३ १/२ हालेन्ड के मी अथवा १० १/२ ब्रिटिश मील है। 

मैं इनमें से मुख्य भवनों का वर्णन क्रमानुसार कर रहा हूँ। उत्तर दिशा की ओर से प्रारम्भ करते हुए जो महल हैं, वे हैं बहादुर खान, राजाभोजराज १, इब्राहिम खान, रुस्तम कन्धारी, राजा किशनदास, इतिगाद खान २, शहजादाखानम ३, गौलजेऱ बेगम, खवाजा मुहम्मद थक्कर, खवाजा बन्सी, बजीर खान, योग फोरा (एक विशाल बाड़ा जिसमें स्वर्गीय सम्राट अकबर की विधवायें निवास करती हैं)  एहतिबारखाँ, बागड़ खान, मिर्जा अबू सगील, आसफ खान, इतिमादउद्‌दौला, खवाजा अब्दुल हसन,रुचिया सुल्तान बेगम के।इसके पश्चात्‌ किला है। किला पार करने के पश्चात्‌ नक्खास है, जो बड़ा बाजार है इसके आगे के भवन ऊँचे ओहदेदारों के हैं जैसे, मिर्जा अब्दुला, आगरा नूर, जहान खान, मिर्जा खुर्रम, राजा बेतसिंह४, स्वर्गीय राजामान सिंह, राजा माधौसिंह५। नदी के दूसरे छोर पर स्थित है नगर सिकन्दरा। सुन्दर बना हुआ जिसमें अधिकांश बनिया व्यापारी रहते हैं। क्या अब किसी को शंका रह जाती है कि सन्‌ १६२६ में किले से आगे राजा मानसिंह का महल था, जो शाहजहाँ के राज्याभिषेक से २ वर्ष पूर्व तथा सम्राज्ञी के देहान्त के ५ वर्ष पूर्व की रिपोर्ट में उल्लिखित है। १ से ४ : यह नाम शाहजहाँ के फरमानों में आये हैं। देखे परिशिष्ट  <http://tajmahal.gaupal.in/parishishtha/pharamana>

जारी ....
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"ताजमहल की असलियत"  पोस्ट-माला की प्रकाशित पोस्टें --

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

विटामिन बी-12, और मात्र मांसाहार निर्भरता? दुग्ध-पदार्थों में है पर्याप्त उपस्थिति (आहार वैभव)


दूध, दही, खमीर, अंकुरित दालें, शैवाल
संतुलित भोजन अच्छे स्वास्थ्य की और पहला कदम है। स्वस्थ भोजन में प्रोटीन, शर्करा, वसा, खनिज पदार्थों आदि के अतिरिक्त सूक्ष्म मात्रा में भी बहुत से ऐसे पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है जिन्हें विटामिन कहते हैं। संतुलित शाकाहारी भोजन विभिन्न विटामिनों सहित उपरोक्त सभी तत्वों को प्रदान करने में सक्षम है। तो भी शाकाहार के विरोध में कभी-कभी ऐसे बयान पढने या सुनने में आते हैं कि ऐसी शंका हो सकती है कि निरामिष भोजन में सभी तत्व भरपूर हैं कि नहीं। शाकाहार-विरोधी ऐसे ही प्रचार को ध्यान में रखते हुये निरामिष सम्पादक मण्डल ने समय समय पर शाकाहारी भोजन में उपस्थित पोषक तत्वों की जानकारी देने के उद्देश्य से स्वास्थ्य के लिये आवश्यक खनिजों व विटामिनों के बारे में जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है। पिछले दिनों आपने विटामिन डी सम्बन्धी जानकारी के लिय "विटामिन डी - सूर्य नमस्कार से पोषण" पढा था। इसी शृंखला में आज प्रस्तुत है विटामिन बी 12 के बारे में तथ्यात्मक जानकारी।

विटामिन बी के नाम से पुकारा जाने वाला समूह बहुत से विटामिनों का ऐसा समूह है जिसके अधिकांश घटक शाकाहारी भोजन में निसन्देह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। केवल एक घटक "बी12" के बारे में बार-बार यह बात कही जाती है कि यह वनस्पति जगत में नहीं होता। आइये सत्यान्वेषण पर आगे चलने से पहले इस तर्क को परख लिया जाये। यदि बी12 वनस्पति जगत में न बनकर केवल प्राणियों के शरीरों में उत्पन्न होता है तब तो उसके लिये चिंता करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि तब वह हमारे शरीर में भी आवश्यकतानुसार उत्पन्न होना ही चाहिये। और तथ्य यह है कि ऐसा होता भी है। अंतर केवल इतना है कि वह मांस का उत्पाद न होकर सूक्ष्म जीवों(Streptomyces griseus, Propionibacterium shermanii, Pseudomonas denitrificans) द्वारा ही उत्पादित पोषक तत्व है। अधिकांश प्राणियों की तरह हमारे शरीर में भी पाचन-तंत्र के कुछ अवयवों में इन्हीं सूक्ष्म जीवों की सहायता से बी 12 की भारी मात्रा उत्पन्न होती है। मांस में भी यह जिन अवयवों में अधिक मात्रा में पाया जाता है उन भागों को तो अधिकांश मांसाहारी भी अभक्ष्य मानते हैं।
विटामिन बी12 के लिये मांसाहार अनिवार्य नहीं है। सभी शाकाहारी प्राणी अपने शरीर में विटामिन बी 12 की पर्याप्त मात्रा उत्पन्न करते हैं।
यह सच है कि पौधे विटामिन बी12 के महत्वपूर्ण स्रोत हैं या नहीं, इस पर बहुत खोज हुई ही नहीं है। पोषण सम्बन्धी अधिकांश आधुनिक अध्ययन पश्चिमी देशों में हुए हैं जहाँ मांस और दुग्धाहार सामान्य है इसलिये किसी वैकल्पिक स्रोत की जाँच की आवश्यकता नहीं पड़ती। परंतु यह कहना बिल्कुल ग़लत है कि वनस्पति स्रोतों में बी12 का पूर्णाभाव है। हाल के वर्षों में पश्चिम में शाकाहार के बढते प्रचलन के कारण विटामिन बी12 के स्रोतों पर शोधों में भी वृद्धि हुई है। गोबर आदि जैविक खादों से पोषित भूमि में उगाई गयी फसलों में बी12 की जांच योग्य मात्रा पाये जाने के प्रमाण हैं। पशुओं के दूध और दुग्ध-उत्पादों यथा दही, पनीर, खोया, मट्ठा आदि से भी बी12 की पर्याप्त मात्रा प्राप्त होती है। अन्य प्राणियों की तरह ही मानव शरीर भी बी12 को लम्बे समय तक सुरक्षित रखता है और इसके सार को नष्ट किये बिना बारम्बार इसका उपयोग करता है। नई आपूर्ति के बिना भी हमारा शरीर विटामिन "बी12" को 30 वर्षों तक सुरक्षित रख सकता है, ऐसे चिकित्सकीय प्रमाण हैं। इसका कारण यह है कि अन्य विटामिनों के विपरीत, विटामिन बी12 अन्य प्राणियों की तरह हमारी मांसपेशियों और शरीर के अन्य अंगों विशेषकर यकृत में भंडारित रहता है। लेकिन यह वहाँ उत्पन्न नहीं होता है।

घास, चारा, पत्तियाँ और अनाज खाने वाले मवेशियों के मांस और दूध में पाया जाने वाला विटामिन बी12 उनके जठरांत्र संबंधी मार्ग में जहाँ-तहाँ रहते सूक्ष्मजीवों द्वारा संश्लेषित होता है। सच तो यह है कि शाकाहारी प्राणियों में विटामिन बी12 का संश्लेषण मांसाहारी पशुओं के मुकाबले इतना अधिक है कि उनके दूध और मांस ही अधिकांश मानवों के लिये बी12 का स्रोत हैं। वास्तव में यह सारा बी12 उन्हीं सूक्ष्म जीवों बैक्टीरिया द्वारा आया है जो हमारे पाचन-तंत्र में ही निवास करते हैं। संतुलित शाकाहारी भोजन से हम उन सूक्ष्म-जीवों की वृद्धि के लिये अनुकूल वातावरण उत्पन्न करते हैं और इस प्रकार बी12 पर बाह्य निर्भरता को कम कर सकते हैं। विटामिन बी12 के उत्पादक सूक्ष्म जीवों के लिये ऐसा अनुकूलन करने के लिये दूध, दही, पनीर, खमीर उचित आहार है। जानकारी के कुछ स्रोतों के अनुसार सोयाबीन, मूंगफली, दालें और अंकुरित बीज भी अच्छे हैं। समुद्री शैवाल स्पाइरुलिना भी अन्य विटामिनों के साथ बी12 का भी अच्छा स्रोत है। यीस्ट के एक विशिष्ट प्रकार टी 6635+ (Red Star T-6635+) में ऐक्टिव बी12 पाया गया है।
कोबाल्ट का यौगिक विटामिन बी12 मांस या शाक से नहीं बल्कि सूक्ष्मजीव बैक्टीरिया से उत्पन्न होता है।
वयस्कों के लिये बी12 की सुझाई हुई दैनिक मात्रा 2.4 माइक्रोग्राम है। विटामिन बी12 की कमी के बहुत से मामले दरअसल उसके अवशोषण की कमी के मामले होते हैं। चालीस से अधिक वय के लोगों की बी12 अवशोषण की क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है। बहुत सी दवाइयाँ भी लम्बे समय तक प्रयोग किये जाने पर बी12 के अवशोषण को अस्थाई रूप से या सदा के बाधित करती हैं। इसके अलावा भोजन में नियमित रूप से बी12 की अधिकता होने पर शरीर उसकी आरक्षित मात्रा में कमी कर देता है। आहार में लिये गये विटामिन बी12 का अवशोषण प्राणियों की छोटी आंत के अंत में आंतों की दीवार की कोशिकाओं द्वारा छोड़े गये एक जैव-रासायनिक अणु (intrinsic factor, a glycoprotein) की सहायता से सूक्ष्मजीवों द्वारा होता है। यदि आपके शरीर में इस जैव-रासायनिक अणु की कमी है तो हम भोजन में कितना भी बी12 लें, हमारा शरीर उसे ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। इसी प्रकार , कोबाल्ट धातु/खनिज की आपूर्ति या विशिष्ट सूक्ष्मजीवों की अनुपस्थिति में प्राणियों के शरीर में इसका निर्माण संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त भोजन में भले ही बी12 होने का दावा किया जाये, अधिक पकाये हुए भोजन में बी12 नष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में लम्बे समय तक विटामिन बी12 की कमी रहने पर मस्तिष्क सम्बन्धी गतिविधियाँ और रक्त निर्माण जैसी प्रक्रियाओं पर असर पड़ता है और चिकित्सकों की सलाह से सुइयों या नासिका के द्वारा विटामिन बी की पूरक मात्रा शरीर में पहुँचाई जा सकती है।

भोजन के प्राकृतिक स्रोतों और शरीर के भीतर निर्मित होने वाले विटामिन बी12 के अतिरिक्त हम इसकी आपूर्ति पूरक स्रोतों, जैसे विटामिन की गोलियों द्वारा भी कर सकते हैं। पूरक स्रोतों में पाया जाने वाला विटामिन बी12 प्रयोगशाला में संश्लेषित होता है। इसमें किसी पशु-उत्पाद का प्रयोग नहीं होता है। पश्चिमी देशों में प्रचलित डब्बाबन्द शाकाहारी नाश्ता (फ़ोर्टिफ़ाइड सेरियल) और चिक्की/पट्टी (ग्रेनोला बार) बी12 सहित आवश्यक विटामिनों और खनिजों से भरपूर होता है।

तो देर मत कीजिये। अपने नाश्ते में दूध का गिलास और अंकुरित दालों को शामिल कीजिये, और भोजन में गाहे-बगाहे खमीरी रोटी और स्पाइरुलिना भी ले लिया कीजिये, विशेषकर यदि आप चालीस के निकट हैं या उससे आगे पहुँच चुके हैं। संतुलित भोजन कीजिये और शाकाहारी रहिये, यह आपके लिये तो अच्छा है ही, हमारे पर्यावरण के लिये भी उपयोगी है।

सार:
शरीर को रक्त-निर्माण जैसे कार्यों के लिये विटामिन बी12 (कोबालअमीन) की अत्यल्प मात्रा की आवश्यकता होती है। बी12 को बैक्टीरिया बनाते हैं जो हमारे पाचन-तंत्र के आंतरिक अंगों में रहते हैं। खमीर, अंकुरित दालों, शैवालों, दुग्ध-उत्पादों तथा विशिष्ट शाकाहारी भोजन और इन सूक्ष्म-जीवों की सहायता से बी12 की पर्याप्त मात्रा प्राप्त कर सकते हैं। हमारा शरीर बी12 को लम्बे समय तक आरक्षित रख सकता है। मांसाहार आदि करने वालों में होने वाली अधिक आमद में शरीर बी12 का संचित कोष रखना बन्द कर देता है; अतः, मांस से शाक की ओर आने वालों को दूध आदि न लेने पर नया कोष बनने तक बी12 की कमी हो सकती है जिसे दूध, दही आदि के संतुलित आहार से पूरा किया जा सकता है।

सम्पूर्ण आलेख को देखें निरामिष पर


मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

भारतीय संस्कृति का वैभव, शाकाहार



शाकाहार और मांसाहार को लेकर पिछले कई दशकों से चल रहे विवाद में भले ही दोनों पक्षों के पास अपने अपने प्रबल तर्क हों, लेकिन शाकाहार के पक्ष में यह बात सबसे महत्वपूर्ण साबित होती है कि इसके जरिये प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचने की बजाय लाभ होता है। दुनियाभर में शाकाहार को बढ़ावा देने वाली प्रतिष्ठित संस्था ‘पेटा’ की प्रवक्ता बेनजीर सुरैया ने कहा, “भारत शाकाहार का जन्मस्थान रहा है और ‘विश्व शाकाहार दिवस’ के मौके पर हमें शाकाहारी होने पर विचार करना चाहिये। इससे हानिकारक गैसों का उत्पादन रुकेगा और जलवायु परिवर्तन रुकेगा। इसके अलावा आप खुद भी चुस्त दुरुस्त रहेंगे।“

बेनजीर ने बताया कि अध्ययन से पता चला है कि शाकाहारी लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता मांस खाने वाले लोगों से ज्यादा मजबूत होती है। इसी तरह शाकाहारी लोगों को दिल से जुड़ी बीमारियां, कैंसर और मोटापा जैसी बीमारियां बहुत ही कम होती हैं। आहार विशेषज्ञ डॉक्टर भुवनेश्वरी गुप्ता ने कहा, “आहार विशेषज्ञ होने के नाते मैं जानती हूं कि मेरे शरीर के लिये शाकाहारी भोजन ही सबसे उत्तम है। मांस, अंडे और डेयरी उत्पाद छोड़ देने से कम वसा, कम कोलेस्ट्राल और बहुत पौष्टिक खाना मिलता है।“

उन्होंने कहा,“भारत में हृदय से जुड़ी बीमारियाँ, मधुमेह और कैंसर के मामले बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं और इसका सीधा संबंध अंडों, मांस और डेयरी उत्पादों जैसे मक्खन, पनीर और आईपीम की बढ़ रही खपत से है।“ भारत में तेजी से बढ़ रहे मधुमेह टाइप 2 से पीड़ित लोग शाकाहार अपना कर इस बीमारी पर नियंत्रण पा सकते हैं और अपना मोटापा भी घटा सकते हैं। शाकाहारी खाने में कोलेस्ट्राल नहीं होता, बहुत कम वसा होती है, और यह कैंसर के खतरे को 40 फीसद कम करता है।“  

बेनजीर ने कहा, “शाकाहारी खाना खाने वाले लोगों में मांस खाने वाले लोगों की तुलना में मोटापे का खतरा एक चौथाई ही रहता है।“ उन्होंने कहा, “खाने के लिये पशुओं की आपूर्ति में बड़े पैमाने पर जमीन, खाद्यान्न, बिजली और पानी की जरूरत होगी।  वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने, प्रदूषण को कम करने, जंगलों को काटे जाने को रोकने और दुनियाभर से भुखमरी को खत्म करने के लिये वैश्विक स्तर पर शाकाहारी भोजन अपनाया जाना जरूरी है।“  डॉक्टर भुवनेश्वरी गुप्ता ने कहा कि एक स्वास्थ्यवर्धक तथा संतुलित शाकाहारी खाने में सभी अनाज, फल, सब्जियां, फलियां, बादाम, सोया दूध और जूस आता है।  यह खाना आपकी दिन प्रतिदिन की विटामिन, कैल्शियम, आयरन, फोलिक एसिड, विटामिन सी, प्रोटीन और अन्य जरूरतों को पूरा करता है। 

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गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

शाकाहार जागृति अभियान : निरामिष ब्लॉग परिचय

 


निरामिष-आहार, निर्मल-विचार, निर्दोष-आचार, निरवध्य-कर्म, निरावेश-मानस।

अहिंसा जीवन का आधार है, सहजीवन का सार है और जगत के सुख और शान्ति का एक मात्र उपाय है। अहिंसा के कोमल और उत्कृष्ट भाव में समस्त जीवों के प्रति अनुकम्पा और दया छिपी है। अहिंसा प्राणीमात्र के लिए शान्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। स्पष्ट है कि किसी भी जीव को हानि पहुँचाना, किसी प्राणी को कष्ट देना अनैतिक है। यूँ तो सभी धार्मिक सामाजिक परम्पराओं में जीवन का आदर है परंतु "अहिंसा परमो धर्मः" का उद्गार भारतीय संस्कृति की एकमेव अभिन्न विशेषता है। अपौरुषेय वचन के तानेबाने अहिंसा, प्रेम, करुणा और नैतिकता के मूल आधार पर ही बुने गये हैं।

चूँकि आहार जीवन की एक मुख्य आवश्यकता है, इसलिये अहिंसा भाव का प्रारंभ आहार से ही होता है और हम अपना आहार निर्वध्य रखते हुए सात्विक निर्दोष आहार की ओर बढते हैं तो हमारे जीवन में सात्विकता प्रगाढ होती है। इसीलिये "निरामिष" आहार पर हमारा विशेष आग्रह है। जीवदया का मार्ग सात्विक आहार से प्रशस्त होता है। ज्ञातव्य है कि कुछ लोगों के लिये भोजन भी एक अति-सम्वेदनशील विषय है यद्यपि सभ्य समाज में हिंसा को सही ठहराने वाले लोग मांसाहारियों में भी कम ही मिलते हैं। सिख, बौद्ध, हिन्दू, जैन समुदाय में तो शाकाहार सामान्य ही है परंतु इनके बाहर भी कितने ही ईसाई, पारसी और मुसलमान शुद्ध शाकाहारी हैं जो जानते बूझते किसी प्राणी को दुख नहीं देना चाहते हैं, स्वाद के लिये हत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा जैसे दैवी गुण धर्म, क्षेत्र, रंग, जाति भेद आदि के बन्धनों से कहीं ऊपर हैं। जब यह कोमल भाव हमारे अन्तर में दृढभूत हो जाते हैं तब मानव की मानव के प्रति हिंसा भी रुकती है जो कि आज संसार भर में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है

आज कई मांसाहार प्रचारक अपने निहित स्वार्थों, व्यवसायिक हितों, या धार्मिक कुरीतियों के वशीभूत होकर अपना योजनाबद्ध षड्यंत्र चला रहे हैं। वस्तुतः कुसंस्कृतियाँ सामिष आहार के माध्यम से ही आक्रमण करने को तत्पर है। न केवल विज्ञान के नाम पर भ्रामक और आधी-अधूरी जानकारियाँ दी जा रही हैं, बल्कि अक्सर धर्मग्रंथों की अधार्मिक व्याख्यायें भी इस उद्देश्य के लिये प्रचार माध्यमों से फैलाई जा रही हैं। यह सब हमारी अहिंसक संस्कृति को दूषित कर पतित बनाने का प्रयोजन है। ऐसे सामिष प्रचारी 'हर आहार के प्रति सौहार्द', 'आहार चुनाव की स्वतंत्रता', व 'आवेश उत्थान शक्ति' आदि भ्रांत तर्कों के माध्यम से प्रभावित करते नज़र आते है। हमारी नवपीढी सामिष दुष्प्रचार की शिकार हो रही है। कहीं अधिक पोषण का झांसा दिया जा रहा है तो कहीं स्वास्थ्य का, कही खाद्य अभाव का रोना रोया जाता है और कभी स्टेटस सिंबल का प्रलोभन। जबकि उसके पीछे सच्चाई का अंश भी नहीं है।

‘निरामिष’ सामुदयिक ब्लॉग एक जागृति अभियान है, एक दयावान, करूणावान ‘निरामिष समाज’ के निर्माण का। हमारा मुख्य प्रयोजन, जगत में शान्ति के उद्देश्य से अहिंसा भाव के प्रसार का है। मनुष्य के हृदय में अहिंसा भाव परिपूर्णता से स्थापित नहीं हो सकता जब तक उसमें निरीह जीवों पर हिंसा कर मांसाहार करने का जंगली संस्कार विद्यमान हो। शाकाहार समर्थन के लिए लोकहित में यहां तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ लेख उपलब्ध होंगे। हमारी निष्ठा सत्य और अहिंसा के प्रति है। हमारा प्रयत्न यहाँ पर अहिंसा और जीवदया के उस गौरव को पुनर्स्थापित करना है जो सदा से भारतीय संस्कृति की आधारशिला रहा है। "निरामिष" पर उपलब्ध सभी सामग्री न केवल श्रमसाध्य है बल्कि हमारी विशेष निष्ठा इस बात पर है कि यहाँ केवल विश्वसनीय सामग्री ही उपलब्ध हो।

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सद्चरित्र
 ( निरामिष )

आज निरामिष पर:- बेल्जियम का नगर घेंट - शाकाहार का मार्गदर्शक

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। भाग -- 3

वेद  का अर्थ ज्ञान होता है. वेद को ज्ञान का सर्वोच्च शिखर भी कहा जाता है . और ज्ञान ही ब्रह्म का स्वरुप है. इस तरह वेद और परमात्मा भिन्न नहीं है . और परमात्मा के लिए उपनिषद कहतें है ----
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
                                पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।।

जैसे ब्रह्म अनवद्य और अनामय है, वैसे ही वेद भी है; अतः वेदमें कोई ऐसी बात नहीं हो सकती जो मनुष्य के लिए परम कल्याणमयी न हो. जब ब्रह्म ही शांत और शिवरूप है तब उसीका ज्ञान वेद अशिव रूप कैसे हो सकता है

कोई भी सामान्य विचारशील आदमी भी विवेक का उपयोग करे तो उसे जीव हिंसा अनुचित लगने लगती है . यहाँ तक की मांसाहारी लोग भी अगर पशुओं को निर्ममतापूर्वक काटे जाते हुए देख लें तो शायद ज्यादातर मांसाहारी जो की परंपरा से मांसाहारी नहीं है मांसाहार करना छोड़ दें. सामान्य संवेदना भी जिसमें है वह भावनाशील व्यक्ति भी किसी की हिंसा करना तो दूर रहा उसे देखना भी पसंद नहीं कर सकता. ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है की सामान्य भावशीलता के रहते जो कर्म अनुचित लगता है, उस कर्म का समर्थन,  उद्दात्त और स्वाभाव से ही प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करने वाली भारतीय संस्कृति के आधार-ग्रंथों में किस प्रकार हो सकता है.

बहुत से मतवादी लोग वेद पर आक्षेप लागतें है की वेदों में यज्ञ के लिए पशुहिंसा की विधि है. कहने की आवश्यकता नहीं की गीता अध्याय सोलह में वर्णित प्रकृति के लोग ही मांस और अश्लीलता के सेवक होते है. और अधिकांशतया ऐसे ही लोगों ने अर्थ का अनर्थ करके वेदों के विषय में अपने सत्यानाशी मत का प्रचलन किया है.

यहाँ  यह भी उतना ही सत्य है कि कुछ परम आदरणीय आचार्यों और महानुभावों ने भी किन्ही किन्ही शब्दों का मांस-परक अर्थ किया है. इसका सबसे प्रधान कारण यह है कि उनमें से अधिकाँश परमार्थवादी साधक थे. गूढ़ आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विषयों पर विशेष द्रष्टि रखकर उनका विषद अर्थ करने पर उनका जितना ध्यान था, उतना लौकिक विषयों पर नहीं था. इसलिए उन्होंने ऐसे विषयों का वही अर्थ लिख दिया है जो देश कि परिस्थितिविशेष में उस समय अधिकाँश में प्रचलित था.

लेकिन इसका मतलब बिलकुल भी यह नहीं है कि वेद में यह अनाचार निर्दिष्ट है. कारण वही कि वेद साक्षात ब्रह्म का  स्वरुप होने से पूर्ण है तथा उनको समझने का प्रयत्न करने वाला जीव अपूर्ण तथा अल्पज्ञ .

वेद कि पूर्णता का ज्ञान इस हानिकर तथ्य से भी होता है कि असुर प्रकृति के वैचारिक भी अपने मत के स्थापन के लिए वेद को ही प्रमाण बतलातें है और प्रथम द्रष्टतया यह प्रमाणिक भी भासता है.

पर ऋषियों ने वेदार्थ को समझने के लिए कुछ पदत्तियाँ निश्चित की हैं; उन्हीके हिसाब से चलकर ही हमें श्रद्धापूर्वक  वेदार्थ को समझने की साधना करनी चाहिये 

देवसंस्कृति के मर्मज्ञ ऋषियों ने इसी कारण से वेदाध्ययन करने वालों के लिए दो तत्व अनिवार्य बताए हैंश्रद्धा एवं साधना. श्रद्धा की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आलंकारिक भाषा में कहे गए रूपकों के प्रतिमानशाश्वत सत्यों को पढ़कर बुद्धि भ्रमित न हो जाय. साधना इस कारण आवश्यक है कि श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परिधि से भू ऊपर उठकर मन ‘‘अनन्तं निर्विकल्पम्’’ की विकसित स्थिति में जाकर इन सत्यों का स्वयं साक्षात्कार कर सके.  मंत्रों का गुह्यार्थ तभी जाना जा सकता है.

ऋग्वेद में लिखा है -- ' यज्ञेन वाचं पदवीयमानम्' अर्थात समस्त वेदवाणी यज्ञ के  द्वारा ही स्थान पाती है.  अतः वेद का जो भी अर्थ किया जाये, वह यज्ञ में कहीं-न-कहीं अवश्य उपयुक्त होता हो- यह ध्यान रखना आवश्यक है.  वेदार्थ के औचित्यकी दूसरी कसौटी है 

--- बुद्धिपूर्वा वाक्प्रकृतिर्वेदे' (वैशेषिकदर्शन) 

अर्थात वेदवाणी की प्रकृति बुद्धिपूर्वक है. वेदमंत्र का अपना किया हुआ अर्थ बुद्धिके विपरीत न हो - बुद्धि में बैठने योग्य हो, इस बात पर भी ध्यान रखने की जरुरत है.

साथ ही यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है की हमने जो अर्थ किया है, वह तर्क से सिद्ध होता है या नहीं.  स्म्रतिकार भी कहतें है - ''यस्तर्केणानुसन्ध्त्ते स धर्मं वेद नापरः'
' जो तर्क से वेदार्थ का अनुसंधान करता है, वही धर्म को जानता है, दूसरा नहीं' अतः समुचित तर्क से समीक्षा करना वेदार्थ के परिक्षण का तीसरा मार्ग है.

चौथी रीति यह है कि इस बात पर नज़र रखी जाए कि हमारा किया हुआ अर्थ शब्द के मूलधातु के उलट तो नहीं है; क्योंकि निरुक्तकार ने धातुज अर्थ को ही ग्रहण किया है . इन चारों हेतुओं को सामने रखकर यदि वेदार्थ पर विचार किया जाये तो भ्रम कि संभावना नहीं रहती है ऐसा महापुरषों ने निर्देशित किया है.

संस्कृत भाषा कि वैदिक और लौकिक इन दो शाखाओं में से वेदकी भाषा प्रथम शाखा के अंतर्गत है.
वेद कि भाषा अलौकिक है और इसके शब्दरूपों में लौकिक संस्कृत से पर्याप्त अंतर है. इसलिए वेदों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ में अनेक भ्रांतियां भी है.
वैदिक शब्दों के गूढ़ अर्थों के स्पस्थिकरण के लिए 'निघंटु' नाम के वैदिक भाषा के शब्दकोष की रचना हुई तथा अनेक ऋषियों ने 'निरुक्त' नाम से उसके व्याख्या-ग्रन्थ लिखे.
महर्षि यास्क ने अपने निरुक्त में अट्ठारह निरुक्तों के उद्धरण दियें है. इससे पता चलता है कि गूढ़ वैदिक शब्दों कि अर्थाभिव्यक्ति के लिए अट्ठारह से ज्यादा निरुक्त-ग्रंथों कि रचना हो चुकी थी.
वेदार्थ निर्णय में महर्षि यास्क ने अर्थगूढ़  वैदिक शब्दों का अर्थ प्रकृति-प्रत्यय-विभाग कि पद्दति से स्पष्ट किया है.
इस पद्दति से अर्थ के स्पष्ठीकरण में यह सिद्ध करने का उनका प्रयास रहा है कि वेदों में भिन्नार्थक शब्दों के योग से यदि मिश्रित अर्थ कि अभिव्यक्ति होती है तो गुण-धर्म के आधार पर एक ही शब्द विभिन्न  सन्दर्भों में विभिन्न  अर्थों का द्योतन करता है.
उदहारण के लिए निरुक्त के पंचम अध्याय के प्रथम पाद में 'वराह' शब्द का निर्वचन दृष्टव्य  है.

संस्कृत में 'वराह' शब्द शूकर के अर्थ में ही प्रयुक्त हैपर वेदों में यह शब्द कई भिन्न अर्थों में भी प्रयुक्त है. जैसे --
१. 'वराहो मेघो भवति वराहार:' 
    ----- मेघ उत्तम या अभीष्ट आहार देने वाला होता है, इसीलिए इसका नाम 'वराह' है.

२. 'अयाम्पीतरो वराह एतस्मादेव। वृहति मूलानि। वरं वरं मूलं वृह्तीति वा।' 'वराहमिन्द्र एमुषम्'
 ----- उत्तम-उत्तम फल, मूल आदि आहार प्रदान करने वाला होने के कारण पर्वत को भी 'वराह' कहतें है.

३.  ' वरं वरं वृहती मूलानी'
 ----- उत्तम-उत्तम जड़ों या औषधियों  को खोदकर खाने के कारण शूकर  'वराह' कहलाता है.

हिंदी में  'गो' शब्द गाय के अर्थ में ही प्रयुक्त है पर संस्कृत में गाय और इन्द्रिय के अर्थ में प्रयुक्त है.  वही वेदों में 'गो' गाय तथा इन्द्रिय के अर्थ में तो है ही, महर्षि यास्क के अनुसार 'गौर्यवस्तिलो वत्सः' अर्थात गो  'यव' के और तिल 'वत्सः' के अर्थ में भी प्रयुक्त है.

सभी जानतें है, की लगभग सभी भाषाओँ में अनेकार्थी शब्द होतें है.  काव्य में उनका अलंकारिक प्रयोग भी किया जाता है और सहज रूप से भी वे भाषा में प्रयुक्त होते रहतें है. उनका सन्दर्भ के अनुरूप कोई एक अर्थ ही निकाला जाता है. दूसरा अर्थ निकालना अपने अज्ञान या भाषा के प्रति अन्याय का ही प्रमाण होता है.

तर्क और बुद्धि  से भी यही बात मालूम होती है की वेद हिंसात्मक या अनाचारात्मक कार्यों के लिए आदेश नहीं दे सकतें है. यदि कहीं कोई ऐसी बात मिलती भी है तो वह अर्थ  करने वालों की ही भूल है .
प्राय यज्ञ में पशुवध की बात बड़े जोर शोर से उठायी जाती है. पर यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम मिलतें है, उनसे यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक ही होते आयें है. 
निघंटु में यज्ञ के १५ नाम दियें है -
१. यज्ञ --- यह यज् घातु से बना है. यज् देवपूजा-संगतिकरण-दानेषु- यह सूत्र है.  देवों का पूजन अर्थात श्रेष्ठ प्रवृति वालों का सम्मान अनुसरण करना ,  प्रेमपूर्वक हिलमिल कर सहकारिता से रहना यज्ञ है.

२. वेनः --- वें-गति-ज्ञान-चिंता-निशामन वादित्र- ग्रहणेषु  अर्थात गति देने, जानने, चिंतन करने, देखने, वाध्य बजाने तथा ग्रहण करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है.

३. अध्वर: --- 'ध्वरति वधकर्मा '  'नध्वर:'  इति  अध्वर'   - अर्थात  हिंसा  का  निषेध  करने  वाला . इस  संबोधन  से  भी  स्पष्ट  होता है की हिंसा का निषेध करने वाले कर्म के किसी अन्य नाम का अर्थ भी हिन्सापरक नहीं हो सकता है.  सभी जानतें है की यज्ञ कर्म में भूल से भी कोई कर्मी-कीट अग्नि से मर ना जाये इसके लिए  अनेक सावधानियां बरती जाती है. वेदी पर जब अग्नि की स्थापना होती है तो उसमें से थोड़ी सी आग निकालकर बाहर रख दी जाती है की कहीं उसमें 'क्रव्याद' (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली आग ) के परमाणु न मिल गएँ हो, इसके लिए 'क्रव्यादांशं त्यक्त्वा' होम की विधि है.

४.  मेध: --- मेधृ- मेधा, हिंसनयो:  संगमे  च ---  मेधा(बुद्धि) का संवर्धन, हिंसा और संगतिकरण इसके अर्थ है. अब जब यह यज्ञ अर्थात  अध्वर: का पर्यायवाची संबोधन है तो यज्ञीय सन्दर्भ में इसका अर्थ हिंसापरक लेना सुसंगत किस तरह होगा ?

५. विदध् -- विद ज्ञाने सत्तायाम, लाभे, विचारणे, चेतना-आख्यान-निवासेषु।
६. नार्यः  ---  नारी 'नृ -नये' मनुष्यों के नेतृत्व के लिए, उन्हें श्रेष्ठ मार्ग पर चलने के अर्थ में प्रयुक्त होता है.
७. सवनम् --- सु-प्रसवे-एश्वर्यो: ---- प्रेरणा देन, उत्पन्न कर्ण और प्रभुत्व  प्राप्त करना.
८. होत्रा---      हु-दान-आदानयो:, अदने -- सहायता देना, आदान-प्रदान करना एवं भोजन करना इसके भाव है.
९. इष्टि , १०. मख: , ११. देव-ताता , १२. विष्णु , १३. इंदु , १४. प्रजापति , १५. घर्म: 
उक्त सभी संबोधनों के अर्थ देखने से भी यही निष्कर्ष निकलता है की यज्ञ में हिंसक कर्मों का समावेश नहीं है.  एक सिर्फ मेध शब्द का एक अर्थ हिंसापरक है लेकिन यज्ञीय सन्दर्भ में उसकी संगती अन्य पर्यायवाची  शब्दों के अनुसार ही होगी ना की अनर्थकारी असंगत हत्या के अर्थ में.

यहाँ थोडा विचार आलभन और बलि शब्दों पर भी कर लेना चाहिये.

आलभन का अर्थ स्पर्श, प्राप्त करना तथा वध करना होता है. पर वैदिक सन्दर्भ में इसका अर्थ वध के सन्दर्भ में असंगत बैठेगा जैसे की --- 
  'ब्राह्मणे ब्राह्मणं आलभेत'
  ' क्षत्राय राजन्यं आलभेत
इसका सीधा अर्थ होता है ' ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण को प्राप्त करें, उसकी संगती करें और शौर्य के लिए  क्षत्रिय को प्राप्त करें उसकी संगती करें. 

पर  यदि आलभेत का अर्थ  वध लिया जाये तो बेतुका अर्थ बनता है, ' ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण तथा शौर्य के लिए क्षत्रिय का वध करें

बलि --- इस शब्द का अर्थ भी वध के अर्थ में निकाला जाने लगा है , जबकि वास्तव में सूत्र है -- बलि-बल्+इन्  , अर्थात आहुति,भेंट, चढ़ावा तथा भोज्य पदार्थ अर्पित करना.
हिन्दू  ग्राहस्थ के नित्यकर्मों में 'बलि वैश्व देवयज्ञ' का विधान है. इसमें भोजन का एक अंश निकालकर उसे अग्नि को अर्पित किया जाता है, कुछ अंश निकालकर पशुपक्षियों व चींटियों के लिए डाला जाता है . बलि कहलाने वाली इस क्रिया में किसी जीव का वध दिखाई देता है या दुर्बल जीवों को भोजन द्वारा बल-पोषण देना दिखाई देता है ?
स्पष्ट है 'बलि' बलिवैश्व के रूप में अर्पित अन्नादि ही है. बलि का अर्थ 'कर-टैक्स' भी होता है.

रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप की शाशन व्यवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है ----
 
प्रजानेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत
सहस्रगुणमुत्स्रष्ठुम  आदत्ते हि रसं रवि:

यहाँ भी बलि का प्रचलित अर्थ किया जाय को कैसा रहेगा ?????

श्राद्ध कर्म में गोबली, कुक्कुर बलि, काकबलि, पिपिलिकादी बलि, का विधान है उसमें गौ, कुत्ता, कौआ और चींटी के लिए श्रद्धापूर्वक भोज्यपदार्थ अर्पित किया जाता है ना की उनके वध किया जाता है.

वृहत्पारा
र में  कहा गया है की श्राद्ध में मांस देने वाला व्यक्ति मानो चन्दन की लकड़ी  जलाकर उसका कोयला बेचता है. वह तो वैसा ही मूर्ख है जैसे कोई बालक अगाध कुँए में अपनी वस्तु डालकर उसे वापस पाने की इच्छा करता है.

श्रीमद्भागवत में कहा गया है की न तो कभी मांस खाना चहिये, न श्राद्ध में ही देना चहिये.

वेदों की तो यह स्पष्ट आज्ञा है कि---
"मा हिंस्यात सर्व भूतानि "  (किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे).

जारी .......
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