सोमवार, 30 जनवरी 2012

हृदय में दया भाव का वैभव और उसका संरक्षक शाकाहार

दिलों में दया भाव का संरक्षक शाकाहार



॥ हिंसक पशु का भी अभयदान॥
"जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों"। यह वाक्य बडी सहजता से कह दिया जाता है। और ऐसा कहना इसलिए भी आसान है क्योंकि मानव व्यवहार और उसकी सम्वेदनाओं को समझ पाना बड़ा कठिन है। निश्चित ही मानव स्वभाव को एक साधारण नियम में नहीं बांधा जा सकता। यह बिलकुल जरूरी नहीं है कि सभी मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हो, पर यह भी सच्चाई है कि माँसाहारियों के साथ कोमल भावनाओं के नष्ट होने की संभावनाएं अत्यधिक ही होती है। सम्भावनाएँ देखकर यह सावधानी जरूरी है कि घटित होने के पूर्व ही सम्भावनाओं पर लगाम लगा दी जाय। विवेकवान व्यक्ति परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने का उद्यम करता है। हिंसा के प्रति जगुप्सा के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती। हमें अगर सरल और शान्तिपूर्ण जीवन शैली अपनानी है तो हमारी करूण और दयायुक्त सम्वेदनाओं का रक्षण करना ही होगा। क्योंकि यह भावनाएँ, हमें सहिष्णु और सम्वेदनशील बनाए रखती है।

बिना किसी जीव की हत्या के मांस प्राप्त करना असम्भव है, भोजन तो प्रतिदिन करना पड़ता है। प्रत्येक भोजन के साथ उसके उत्पादन और स्रोत पर चिंतन हो जाना स्वभाविक है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न माँस, हिंसक विचारों को जन्म देता है। ऐसे विचारों का बार बार चिंतवन, अन्ततः परपीड़ा की सम्वेदनाओं को निष्ठुरता के साथ ही नासूर भी बना देता है।

दया भाव  पर यह पूरा आलेख पढ़ें निरामिष पर…………

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

शाकाहार से कई रोगों की सम्भावना कम

माँसाहार : रोग सम्भावना

आहार ही औषध
दुनिया के आहार विशेषज्ञों ने प्रमाणित कर दिया है कि शाकाहारी मनुष्य अपेक्षाकृत दीर्घजीवी होते है। विविध शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि मांसाहार मानवीय स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। यह अनेक व्याधियों का जन्मदाता है। जहाँ शाकाहार अनेक कष्टदायक रोगों से बचाता है वहीं मांसाहारी लोग शाकाहारियों की तुलना में अधिक बीमार पड़ते हैं। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने यह भी स्वीकार किया है कि शाकाहारी लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक मजबूत होती है।

अलज़ाइमर

मांसाहार से प्राप्त प्रोटीन एक समस्या नहीं, बल्कि समस्याओं की कतार ही खड़ी कर देता है। प्राणीजन्य प्रोटीन, पूर्वसक्रिय और सेच्युरेटेड होता है, जिसके सेवन से मस्तिष्क में बीटा-अमाइलायड (Beta-Amyloid) नामक प्रोटीन संचित होता है, जो अल्जाईमर रोग के लिए जिम्मेदार होता है। इसके उलट फल और सब्जियों में पॉलीफिनाल पाया जाता है, जो इस हानिकर प्रोटीन को जमने से रोकता है। गॉलब्लैडर की पथरी और गुर्दे की पथरी नामक व्याधियों का कारण यह प्रोटीन, न केवल कैल्शियम के संचित कोष को खाली करता है, अपितु वृक्क (किडनी, गुर्दे) से अनावश्यक और अत्यधिक श्रम लेकर, उसे बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर देता है।

 कारण सहित सभी सम्भावित रोगों के बारे में जानकारी……निरामिष  पर

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

सभ्य आहार और स्वादलोलुपों की बहानेबाज़ी !!


भ्रम # 1- आदिमानव माँसाहारी था।



भ्रम # 2- विश्व में अधिकतर आबादी माँसाहारी है इसलिए माँसाहार सही है



भ्रम # 3- वनस्पति अभाव वाले बर्फ़ीले प्रदेश व रेगिस्तान के लोग क्या खाएंगे?



भ्रम # 4- सभी शाकाहारी हो जाय तो इतना अनाज कहां से आएगा ? पूरा विश्व  शाकाहारी हो जाय तो पूरे विश्व की जनता को खिलाने लायक अनाज का उत्पादन करने के लिए हमें ऐसी चार और पृथ्वियों की आवश्यकता होगी।



भ्रम # 5- प्रोटीन की प्रतिपूर्ति माँसाहार से ही सम्भव है:



भ्रम # 6- संतुलित आहार के लिए, शाकाहार में मांसाहार का समन्वय जरूरी है:



भ्रम # 7- हिंसा तो वनस्पति आहार में भी है:



* विषय सम्बन्धित कुछ अन्य कड़ियाँ * 
शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल !!!(पूर्वार्ध)
शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!!! (उतरार्ध)

भ्रम-खण्ड़न का यह विशेष अध्याय पढ़ें निरामिष पर

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

निरामिष वैभव, शाकाहार पहेली

निरामिष के सभी पाठकों व हितैषियों को नववर्ष 2012 की शुभकामनायें! पता ही नहीं चला कि आपसे बात करते-करते कब एक वर्ष बीत गया। शाकाहार, करुणा, और जीवदया मे आपकी रुचि के कारण ही इस अल्पकाल में निरामिष ब्लॉग ने इतनी प्रगति की। एक वर्ष के अंतराल में ही हमारे नियमित पाठकों की संख्या हमारे अनुमान से कहीं अधिक हो गयी है और लगातार बढती जा रही है। इस ब्लॉग पर हम शाकाहार के सभी पक्षों को वैज्ञानिक, स्वास्थ सम्बन्धी, धार्मिक, मानवीय विश्लेषण करके तथ्यों के प्रकाश में सामने रखते हैं ताकि ज्ञानी पाठक अपने विवेक का प्रयोग करके शाकाहार का निष्पाप मार्ग चुनकर संतुष्ट हों।

हमारे पाठक ब्लॉगर श्री सतीश सक्सेना जी, डॉ रूपचन्द शास्त्री जी, राकेश कुमार जी, रेखा जी, वाणी गीत जी, मदन शर्मा जी, तरूण भारतीय जी, सवाईसिंह जी, पटाली द विलेज, संदीप पंवार जी, कुमार राधारमण जी का प्रोत्साहन के लिए आभार व्यक्त करते है।

हमारे सुदृढ़ स्तम्भ, विशेषकर सर्वश्री विरेन्द्र सिंह चौहान, गौरव अग्रवाल, डॉ मोनिका शर्मा, शिल्पा मेहता, आलोक मोहन, प्रश्नवादी  जैसे समर्थकों का विशेषरूप से आभार व्यक्त करना चाहते हैं जिन्होंने लेखकमण्डल से बाहर रहते हुए भी हमें भरपूर समर्थन दिया है। हमारे एक जोशीले पाठक ने निरामिष ब्लॉग के सामने शाकाहार के विरोध में कई भ्रांतियाँ और चुनौतियाँ रखीं। डॉ. अनवर जमाल द्वारा पोषण, शाकाहार, और भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के सम्बन्ध में प्रस्तुत प्रश्नों ने हमें प्रचलित बहुत सी भ्रांतियों को दूर करने का अवसर प्रदान किया। मांसाहार की बुराइयों को उद्घाटित करने और उनके मन में पल रहे भ्रम के बारे में जानने के कारण हमें शाकाहार सम्बन्धी विषयों की वैज्ञानिक और तथ्यात्मक जानकारी प्रस्तुत करने में अपनी प्राथमिकतायें चुनने में आसानी हुई। आशा है कि वे हमें भविष्य में भी झूठे प्रचार की कलई खोलने के अवसर इसी प्रकार प्रदान करते रहेंगे।

पहेली की ओर आगे बढने से पहले हम अभिनन्दन करना चाहते हैं उन सभी महानुभावों का जिन्होने गतवर्ष शाकाहार अपनाकर हमारे प्रयास को बल दिया:
* दीप पांडेय
* इम्तियाज़ हुसैन
* कुमार राधारमण
* शिल्पा मेहता


अपनी पहली वर्षगांठ के अवसर पर आज हम आपका आभार व्यक्त करना चाहते हैं, एक छोटे से आयोजन के साथ। आइये, हल करते हैं आज की निरामिष पहेली अपने निराले शाकाहारी, सात्विक अन्दाज़ में। केवल कुछ सरल प्रश्न और बहुत से पुरस्कार। हमारा प्रयास है कि इस प्रतियोगिता में सम्मिलित प्रश्नों के उत्तर या उनके संकेत आपको निरामिष ब्लॉग की पिछली प्रविष्टियों व टिप्पणियों में मिल जायें।

प्रथम निरामिष शाकाहार पहेली "निरामिष" ब्लॉग पर

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

हिंसा की सम्भावनाओं पर माँसाहार और शाकाहार का तुलनात्मक अध्ययन

हिंसा की तुलना, माँसाहार बनाम शाकाहार 

इस लेख के पूर्वार्ध "शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल" में आपने पढा- माँसाहार समर्थकों का यह कुतर्क,कि वनस्पति में भी जीवन होता है, उन्हें आहार बनाने पर हिंसा होती है। यह तर्क उनके दिलों में सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह तो क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है। फिर भी सच्चाई तो यह है कि पौधे मृत्यु पूर्व आतंक महसुस नहीं करते, ही उनमें मरणांतक दारूण वेदना महसुस करने लायक, सम्वेदी तंत्रिका तंत्र होता है। ऐसे में विचारणीय प्रश्न, उस हत्या से भी कहीं अधिक हमारे करूण भावों के संरक्षण का  होता है। क्रूर निष्ठुर भावों से दूरी आवश्यक है। हमारा मानवीय विवेक, हमें अहिंसक या अल्पहिंसक आहार विकल्प का ही आग्रह करता है।

उसी परिपेक्ष्य में अब देखते है पशु एवं पौधों में तुलनात्मक भिन्नता……
पेड-पौधों से फल पक कर स्वतः ही अलग होकर गिर पडते है। वृक्षों की टहनियां पत्ते आदि कटने पर पुनः उग आते है। कईं पौधों की कलमें लगाई जा सकती है। एक जगह से पूरा वृक्ष ही उखाड़ कर पुनः रोपा जा सकता है। किन्तु पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनका कोई भी अंग भंग कर दिया जाय तो वे सदैव के लिए विकलांग, मरणासन्न या मर भी जाते हैं। सभी जीव अपने अपने दैहिक अंगों से पेट भरने के लिये भोजन जुटाने की चेष्टा करते हैं जबकि वनस्पतियां चेष्टा रहित है और स्थिर रहती हैं। उनको पानी तथा खाद के लिये प्रकृति या दूसरे जीवों पर आश्रित रहना पड़ता है। पेड-पौधो के किसी भी अंग को विलग किया जाय तो वह पुनः पनप जाता है। एक नया अंग विकसित हो जाता है। यहां तक कि पतझड में उजड कर ठूँठ बना वृक्ष फिर से हरा-भरा हो जाता है। उनके अंग नैसर्गिक/स्वाभाविक रूप से पुनर्विकास में सक्षम होते है। वनस्पति के विपरीत पशुओं में कोई ऐसा अंग नही है जो उसे पुनः समर्थ बना सके, जैसे आंख चली जाय तो पुनः नहीं आती वह देख नहीं सकता, कान नाक या मुंह चला जाय तो वह अपना भोजन प्राप्त नहीं कर सकता। पर पेड की कोई शाखा टहनी अलग भी हो जाय पुनः विकसित हो जाती है। वृक्ष को इससे अंतर नहीं पड़ता और न उन्हें पीड़ा होती है। इसीलिए कहा गया है कि पशुपक्षियों का जीवन अमूल्य है, वह इसी अर्थ में कि मनुष्य इन्हें  पौधों की भांति धरती से उत्पन्न नहीं कर सकता।
निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।

पूरा आलेख पढ़ें निरामिष पर

सूचना:
निरामिष का करूणामय एक वर्ष पूर्ण हुआ। यह निरामिष ब्लॉग के द्वितीय वर्ष में प्रवेश का गौरवशाली अवसर है इसी प्रसंग पर अगली पोस्ट विशेषांक की तरह होगी।
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