सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"

चन्द्रशेखर तिवारी "आज़ाद"
(जन्म: 23 जुलाई 1906 - देहांत: 27 फ़रवरी 1931)
"पण्डितजी की मृत्यु मेरी निजी क्षति है। मैं इससे कभी उबर नहीं सकता।"~ महामना मदन मोहन मालवीय
आज़ाद मन्दिर
भगतसिंह के वरिष्ठ सहयोगी और अपने "आज़ाद" नाम को सार्थक करने वाले महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद" का जन्म 23 जुलाई 1906 को श्रीमती जगरानी देवी व पण्डित सीताराम तिवारी के यहाँ भाबरा (झाबुआ मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके हृदय में क्रांति की ज्वाला बहुत अल्पायु से ही ज्वलंत थी। वे पण्डित रामप्रसाद "बिस्मिल" की हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (HRA) में थे और उनकी मृत्यु के बाद नवनिर्मित हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी/ऐसोसियेशन (HSRA) के प्रमुख चुने गये थे। उनके प्रति उनके समकालीन क्रांतिकारियों के हृदय में कितना आदर रहा है उसकी एक झलक संलग्न चित्र में वर्णित आज़ाद मन्दिर से मिलती है। 1931 में छपे "आज़ाद मन्दिर" के इस चित्र में उनके शव के चित्र के साथ ही वे अपने मन्दिर में अपने क्रांतिकारी साथियों से घिरे हुए दिखाये गये हैं।

काकोरी काण्ड के बाद झांसी में
जननी, जन्मभूमि के प्रति आदरभाव से भरे "आज़ाद" को "बिस्मिल" से लेकर सरदार भगत सिंह तक उस दौर के लगभग सभी क्रांतिकारियों के साथ काम करने का अवसर मिला था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपनी जीविका के लिये नौकरी आरम्भ करने वाले आज़ाद ने 15 वर्ष की आयु में काशी जाकर शिक्षा फिर आरम्भ की और लगभग तभी सब कुछ त्यागकर गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। अपना नाम "आज़ाद" बताया, पुलिस के डण्डे खाये, और बाद में वयस्कों की भीड के सामने भारत माता को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य पर एक ओजस्वी भाषण दिया। काशी की जनता ने बाद में ज्ञानवापी में एक सभा बुलाकर इस बालक का सम्मान किया। सम्पूर्णानन्द के सम्पादन में छपने वाले "मर्यादा" पत्र में इस घटना की जानकारी के साथ उनका चित्र भी छपा। यही सम्पूर्णानन्द बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने।

"देश ने एक सच्चा सिपाही खो दिया।"~मोहम्मद अली जिन्ना
शहीदों के आदर्श आज़ाद
उसके बाद उन्होंने देश भर में अनेक क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया और अनेक अभियानों का प्लान, निर्देशन और संचालन किया। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के काकोरी कांड से लेकर शहीद भगत सिंह के सौंडर्स व संसद अभियान तक में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। काकोरी काण्ड, सौण्डर्स हत्याकाण्ड व बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह का असेम्बली बम काण्ड उनके कुछ प्रमुख अभियान रहे हैं। उनके आग्रह पर ही भगवतीचरण वोहरा ने "फ़िलॉसॉफ़ी ऑफ़ द बॉम" तैयार किया था। उनके सरल, सत्यवादी और धर्मात्मा स्वभाव और अपने साथियों के प्रति प्रेम और समर्पण के लिये वे सदा आदरणीय रहे। क्रांतिकारी ही नहीं कॉंग्रेसी भी उनका बहुत आदर करते थे। अचूक निशानेबाज़ आज़ाद का प्रण था कि वे अंग्रेज़ों की जेल में नहीं रहेंगे।

भगवतीचरण वोहरा
काकोरी काण्ड के बाद फ़रार आज़ाद ने पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल और साथियों की पैरवी और जीवन रक्षा के लिये बहुत प्रयत्न किये थे। सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह को बचाने के लिये उन्होंने जेल पर बम से हमले की योजना बनाई और उसके लिये नये और अधिक शक्तिशाली बमों पर काम किया। दुर्भाग्य से बमों की तैयारी और जाँच के दौरान बम विशेषज्ञ क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की मृत्यु हो गयी जिसने उन्हें शहीदत्रयी-बचाव कार्यक्रम की दिशा बदलने को मजबूर किया। वे विभिन्न कॉंग्रेसी नेताओं के अतिरिक्त उस समय जेल में बन्दी गणेश शंकर विद्यार्थी से भी मिले। दुर्गा भाभी को गांधी जी से मिलने भेजा। इलाहाबाद आकर वे नेहरूजी सहित कई बडे नेताओं से मिलकर भागदौड कर रहे थे। इलाहाबाद प्रवास के दौरान वे मोतीलाल नेहरू की शवयात्रा में भी शामिल हुए थे।

भैया सरल स्वभाव के थे। दाँव-पेंच और कपट की बातों से उनका दम घुटता था। उस समय पूरे देश में एक संगठन था और उसके केन्द्र थे "आज़ाद"  ~दुर्गा भाभी 

आज़ाद की पहली जीवनी क्रांतिकारी
विश्वनाथ वैशम्पायन ने लिखी थी
27 फ़रवरी 1931 को जब वे अपने साथी सरदार भगतसिंह की जान बचाने के लिये आनन्द भवन में नेहरू जी से मुलाकात करके निकले तब पुलिस ने उन्हें चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क (तब ऐल्फ़्रैड पार्क) में घेर लिया। पुलिस पर अपनी पिस्तौल से गोलियाँ चलाकर "आज़ाद" ने पहले अपने साथी सुखदेव राज को वहाँ से से सुरक्षित हटाया और अंत में एक गोली बचने पर अपनी कनपटी पर दाग़ ली और "आज़ाद" नाम सार्थक किया।

पुलिस ने बिना किसी सूचना के उनका अंतिम संस्कार कर दिया। बाद में पता लगने पर युवकों ने उनकी अस्थि-भस्म के साथ नगर में यात्रा निकाली। कहते हैं कि इलाहाबाद नगर ने वैसी भीड उससे पहले कभी नहीं देखी थी। यात्रा सम्पन्न होने पर प्रतिभा सान्याल, कमला नेहरू, पण्डित नेहरू, पुरुषोत्तम दास टण्डन सहित अनेक नेताओं ने इस महान क्रांतिकारी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी।
दल का संबंध मुझसे है, मेरे घर वालों से नहीं। मैं नहीं चाहता कि मेरी जीवनी लिखी जाए।
~चन्द्रशेखर तिवारी "आज़ाद"
संयोग की बात है कि महान राष्ट्रवादी नेता बाळ गंगाधर टिळक का जन्मदिन भी 23 जुलाई को ही पड़ता है। टिळक का जन्मदिन 23 जुलाई 1856 को है। उनके बारे में विस्तार से फिर कभी।

भारत माता के इन महान सपूतों को हमारा भी नमन!

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

संस्‍कृतजगत् पत्रिका के प्रथम संस्‍करण का प्रकाशन ।



      आदरणीय संस्‍कृतप्रेमी बन्‍धुओं ।
आप सभी को सूचित करते हुए अत्‍यधिक हर्ष का अनुभव हो रहा है कि संस्‍कृत भाषा के क्षेत्र में प्रथम ईपत्रिका का प्रकाशन नूतन भारतीयवर्ष के प्रारम्‍भ के अवसर पर किया जा रहा है ।  इस पत्रिका का मुख्‍य पृष्‍ठ प्रकाशित कर दिया गया है जो आपके सम्‍मुख सम्‍प्रति प्रस्‍तुत किया जा रहा है ।
     जो संस्‍कृतज्ञ बन्‍धु अपने संस्‍कृतलेख, काव्‍य, गीत, कथा, सामान्‍यज्ञान, चुटकुले आदि इस पत्रिका में प्रकाशित कराना चाहते हों वे कृपया मार्च मास के प्रथम सप्‍ताह तक अपने लेख 'pramukh@sanskritjagat.com' पर भेजें ।     कृपया एक बात का ध्‍यान अवश्‍य रखें, अपने अप्रकाशित लेख ही संस्‍कृतजगत् पत्रिका में प्रकाशित होने हेतु भेजें ।

धन्‍यवाद
संस्‍कृतजगत्

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

ताजमहल की असलियत ... एक शोध -- 7

०६ शाहजहाँ के फरमान

अब तक आपको भली-भाँति ज्ञात हो चुका है कि बादशाहनामा के अनुसार हिज़री १०४१ में सम्राज्ञी का शव बुरहानपुर से आगरा लाया गया था। उसी पुस्तक के अनुसार उसे अगले वर्ष हिजरी १०४२ तदनुसार सन्‌ १६३२ में मिर्जा राजा जयसिंह से प्राप्त हुए 'भवन' में दफन कर दिया गया था। इस भवन (ताजमहल) को पीटर मुण्डी ने २५/०/१६३३ को आगरा से प्रस्थान करने से पूर्व देखा था तथा आगरा के उस समय के दर्शनीय स्थलों यथा अकबर का मकबरा, किला आदि की श्रेणी में भी रखा था। मनरिक ने भी ताजमहल सन्‌ १६४० में देखा था तथा मजदूरों को सड़क बनाते, बाग में काम करते एवं स्वच्छ जल की व्यवस्था करते पाया था। परन्तु अधिक विश्वसनीय कहे जाने वाले टैवर्नियर ने सन्‌ १६४० में ताजमहल को पाया ही नहीं तथा सौभाग्य से उसके सामने ही इस भवन (ताजमहल) का बनना प्रारम्भ हुआ था।

टैवर्नियर अपनी छः यात्राओं में अन्तिम पाँच में भारत आया था। यह यात्राएँ उसने निम्न रूप में की थीं –
१. सन्‌ १६३१-३३ इस्पहान-बगदाद-सिकन्दरिया-माल्टा-इटली
२. सन्‌ १६३८-४३ अलेप्पो-परशिया-भारत (आगरा-गोलकुण्डा) (नवम्बर १६४० में आगरा आया)
३. सन्‌ १६४३-४९ भारत-जावा-केप आदि (आगरा नहीं आया)
४. सन्‌ १६५७-६२ भारत (आगरा नहीं आया)
५. सन्‌ १६६४-६८ भारत (नवम्बर १६६५ में आगरा आया)

उपरिलिखित आधार पर स्पष्ट है कि टैवर्नियर आगरा में सन्‌ १६४० में पहली बार तथा सन्‌ १६६५ में दूसरी बार आया था। यदि टैवर्नियर पर विश्वास करने वाले सत्य हैं तो ताजमहल के बनने का काल सन्‌ १६४० से सन्‌ १६६५ हुआ अर्थात्‌ २५ वर्ष। यदि यह काल सत्य हो तभी यह स्वीकार किया जा सकता है कि टैवर्नियर ने ताजमहल का बनना, प्रारम्भ होना तथा परिपूर्ण होना स्वयं देखा था। इसके लिये एक ही वाक्य कहना पर्याप्त होगा कि सन्‌ १६५८ में ही शाहजहाँ को उसके क्रूर पुत्र औरंगजे़ब ने बन्दी बना लिया था तथा वह सन्‌ १६६५ तक तो क्या अपनी मृत्यु-पर्यन्त कारागार में ही रहा था। अतः शाहजहाँ द्वारा सन्‌ १६६५ तक ताजमहल बनाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

शाहजहाँ द्वारा ताजमहल बनाये जाने के पक्ष में एक अन्य अत्यन्त पुष्ट प्रमाण दिया जाता है, उसके द्वारा जारी किये गये 'फरमान'। यह फरमान सम्राट्‌ शाहजहाँ ने मिर्जा राजा जयसिंह के नाम जारी किये थे तथा इन फरमानों की फोटोप्रति ताजमहल स्थित संग्रहालय (नक्कारखाना) में रखी हुई हैं। पुरातत्व विभाग के प्रकाश में इनका विस्तृत विवरण लिखा हुआ है।

शाहजहाँ द्वारा जारी किये गये मात्र चार फरमान आज उपलब्ध हैं (जिनमें से तीन का विवरण यहाँ पर दो अध्यायों में दिया जाएगा)। इन फरमानों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि यह फरमान अपने में परिपूर्ण हैं तथा इनके अतिरिक्त सम्भवतः कोई अन्य फरमान जारी नहीं किया गया था। वास्तवकिता यह है कि यदि शाहजहाँ ने स्वयं ताजमहल बनवाया होता जैसा कि कहा जाता है, उस दशा में शाहजहाँ द्वारा सैकड़ों फरमान जारी किये गये होते, यथा ताजमहल के लिये अभिकल्प मांगने के लिये, किसी एक अभिकल्प की स्वीकृति का, ताजमहल बनाने के लिये अधिकारी की नियुक्ति, अनेक देशों से बहुमूल्य रत्नों के आयात सम्बन्धी आदि-आदि। प्रतिदिन की क्रय की गई सामग्री का विवरण आदि अनेक पर्चियाँ जारी हुई होतीं तथा उनका विवरण तत्कालीन साहित्य में
मुल्ला अब्दुल हमीद लाहोरी,
मुहम्मद अमीना काजबिनी (पादशाह नामा),
मुहम्मद सलीह कम्बू (अमल-ए-सलीह)
इनायत खान (शाहजहाँनामा)
मुहम्मद वारिस (बादशाह नामा)
मुहम्मद सादिक (शाहजहाँनामा)
मुहम्मद शरीफ हनफी (मजलिस-उस-सुल्तान)
द्वारा अपने ग्रन्थों में अवश्य लिखा जाता। परन्तु सम्पूर्ण रूप से प्राप्त, विषय में परिपूर्ण इन फरमानों के अतिरिक्त कोई अन्य अभिलेख अथवा पुर्जा भी जारी न होना आश्चर्यजनक ही नहीं शाहजहाँ द्वारा ताजमहल का निर्माण न किये जाने के पक्ष में प्रबल प्रमाण है।

उपयुक्त तीन फरमान शाहजहाँ ने राजा जयसिंह, जो आमेर (आधुनिक जयपुर) के शासक थे तथा जिनके राज्य के अन्तर्गत मकराना नामक स्थान पर सफेद पत्थर (संगमरमर) की खाने हैं, के नाम जारी किये गये थे। इन तीनों का मूल विषय मकराना से ताजमहल के लिये संगमरमर भेजने की व्यवस्था करना है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि इस पूरे घटनाक्रम की तिथियों पर विद्वान एक मत नहीं है। यद्यपि तिथियों के व्यतिक्रम के कारण हमारे लेखन का विषय-वस्तु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना है, परन्तु इन फरमानों की तिथ्यिों की गड़बड़ी के कारण एक बहुत बड़ा भ्रम उत्पन्न हो गया। मुगल दरबार की परम्परा के अनुसार फरमानों पर तारीख मुसलमानी महीने तथा हिजरी दिये गये हैं। इन तारीखों का ईसवी महीना तथा सन्‌ इतिहासकारों ने गणना करके निकाला है। इस गणना में कहीं पर भारी भूल हुई जिसके कारण पहला फरमान दूसरा हो गया तथा दूसरा फरमान पहला स्वीकार कर लिया गया। यद्यपि दोनों दोनों फरमानों की भाषा लगभग एक ही है। इस कारण इस भूल से कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ना चाहिए था, परन्तु दूसरे फरमान में शाहजहाँ ने लिखा था, 'और इससे पूर्व भी एक प्रतिष्ठित एवं  कल्याणकारी राजकीय आदेश (शाही फरमान) जो समानों में श्रेष्ठ (राजा जयसिंह) के नाम इस सम्बन्ध में भेजा गया था।' इस प्रकार दूसरे फरमान को पहला मान लेने के कारण उपरोक्त भाषा इस तथाकथित पहले फरमान में होने के कारण यह मान लिया गया कि इन तीनों फरमानों से पहले भी शाहजहाँ द्वारा एक अन्य फरमान भी इस विषय पर राजा जयसिंह को भेजा गया था। पर्याप्त खोज के पश्चात्‌ भी जब चौथा (पहला) फरमान नहीं मिला तो उसे लुप्त हो गया मान लिया गया। जब मैंने इस विषय पर खोज की तो फारीस तारीखों के अनुसार यह सिद्ध हो गया कि वास्तव में दूसरा मान लिया  गया फरमान ही पहला है तथा पहला फरमान वास्तव में दूसरा है। इस प्रकार दूसरे फरमान में यह सत्य ही लिखा है कि इससे पूर्व भी आपको इस विषय पर लिखा जा चुका है। इस सत्य खोज के पश्चात्‌ हिन्दी में पहली बार इन फरमानों का अक्षरशः अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।

प्रथम फरमान
'..........ज्ञात हो कि हमने मुल्कशाह को नई खानों से सफेद संगमरमर लाने के लिये आम्बेर (आमेर) भेजा है। और हम एतद्‌ द्वारा आदेश देते हैं कि आवश्यक संख्या में पत्थर काटने वाले और किराये की गाड़ियाँ पत्थर लाने के लिये जिनकी उपरोक्त मुल्कशाह को आवश्यकता पड़े, को राजा उपलब्ध करायेगा। और पत्थर काटने वालों का वेतन तथा गाड़ियों के किराये की व्यवस्था वह राजकीय कोषागार की राशि से करेगा। यह आवश्यक है कि राजा मुल्कशाह को इस मामले में हर प्रकार से सहायता करे और वह इसे अति आवश्यक समझे तथा इस आदेश के परिपालन में भूल न करें।'
लिखा गया तारीख २८ शनिवार, इलाही वर्ष ५
४ रवि अल अव्वल १०४२ हिजरी. दि २० सितम्बर सन्‌ १६३२।

दूसरा फरमान
'.... ज्ञात हो कि अकबराबाद तक इमारतों के लिये सफेद संगमरमर लाने के लिए बड़ी संखया में गाड़ियों की आवश्यकता है, और इससे पूर्व भी एक प्रतिष्ठित एवं कल्याणकारी राजकीय आदेश ........................ .......... आपके नाम भेजा गया था; इस सम्बन्ध में, इस समय अधिक महत्व देने के लिये हमने सय्यद इलाहादाद को आमेर तथा अन्य स्थानों को जाने के लिये जिनका विवरण इसके पृष्ठ पर टिप्पणी में दिया है तथा आवश्यक संख्या में किराये पर गाड़ियाँ सूची में दिये प्रत्येक भवन के लिये नियोजित करने के लिये नियुक्त किया है, और राजा ने पहले जितनी गाड़ियों का उन स्थानों से सफेद संगमरमर मकराना की खानों से लाने के लिये प्रबन्ध किया हो, उनका पूर्ण योग में नियोजन कर शेष (गाड़ियों) को उपरोक्त (सय्यद इलाहादाद) को उपलब्ध करा दे जिनको वह मकराना खानों तक सुरक्षित ले जाएगा।

और यह अति आवश्यक है कि यदि किसी विषय पर उपरोक्त (सय्यद इलाहादाद) राजा के पास जाये तो राजा हर प्रकार की सहायता और सहयोग देते हुए, कठोर परिपालन दर्शाते हुए ओर इस विषय में सभी सम्भव सावधानी बरते और न तो इस आदेश की अवज्ञा करें और न भूल।'
लिखा गया १५ बहमन, इलाही वर्ष ५
२३ रजब १०४२ हिजरी दिनांक ३ फरवरी सन्‌ १६३३।

[इस दूसरे फरमान के पृष्ठ पर नौ प्रशासनिक जिलों यथा आमेर, मुइज्जाबाद, फगुई, झाग, नरैना, रोशनपुर जाबनेर, महरोत तथा परबतसर से २३० गाड़ियों की व्यवस्था का विवरण है। साथ ही दिये गये जिले राजा जयसिंह की जागीर के अतिरिक्त राजा भोजराज, राजा गिरधर दास, राजा बेंत मल, राजा चेत सिंह, राजा बेथलदास तथा राजा राजसिंह सुपुत्र बिहारी दास की जागीरों के हैं।]


तीसरा फरमान
'.......ज्ञात हो कि हमारे ध्यान में लाया गया है कि आपके कर्मचारी आमेर तथा राजनगर में पत्थर काटने वालों को एकत्र कर रहे हैं। फलस्वरूप मकराना में पत्थर काटने वाले नहीं पहुँच रहे हैं। फलतः वहाँ पर कम काम हो रहा है। अस्तु।

हम आदेश देते हैं कि आप अपने आदमियों पर कठोर प्रभाव डालें कि वे किसी प्रकार भी आमेर एवं राजनगर में पत्थर काटने वालों को एकत्र न करें और जो भी पत्थर काटने वाले उपलब्ध हों उन्हें राजकीय प्रतिनिधियों के पास मकराना भेज दें। ओर इस विषय में निश्चित कार्यवाही करें और इस आदेश की न अवज्ञा करें और न ही भूलें और इसे अपना दायित्व समझें।'
लिखा गया आज के दिन तीर के नवें महीने में, इलाही वर्ष १०
७वां दिन सफर मास का, इसकी समाप्ति सुन्दर ढंग से तथा विजय से हो-हिजरी १०४७ वर्ष। १ जुलाई सन्‌१६३७।

उपरोक्त फरमानों को पढ़कर मेरे वह पाठक मित्र अवश्य ही रोमांचित हो उठे होंगे जिनका अभी भी यह विश्वास है कि ताजमहल का निर्माता शाहजहाँ ही था। क्यों न हो ? इन फरमानों में मकराना की खानों से संगमरमर पत्थर लाने के लिये दो अधिकारियों की नामित नियुक्ति की बात कही गई है। ताजमहल संगमरमर से बना है, तथा इन फरमानों में संगमरमर को राजधानी अकबराबाद (आगरा) लाने की बात ही कही गई है।

आइये इन फरमानों की सूक्ष्म समीक्षा करें।
फरमानों की समीक्षा के लिए अगले अंक का इंतज़ार करिए....
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"ताजमहल की असलियत"  पोस्ट-माला की प्रकाशित पोस्टें --

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

आर्यावर्त को सादर प्रणाम !

"भा रत भारती वैभवं" के इस मंच से आर्यावर्त को सादर प्रणाम करने के सौभाग्य का अवसर प्राप्त हुआ इसके लिए इस अभियान के सूत्रधार का कृतज्ञ हूँ.

     जब सत्य के चारो पादों का क्षरण हो जाता है तो कलियुग का प्रारम्भ होता है.....एक ऐसे युग का... जिसका प्रधान लक्षण होता है प्रज्ञापराध....और कारण है आस्थाहीनता.
     समाज व्यवस्था में अपराधों के लिए उनकी श्रेणी और गंभीरता के आधार पर दंड, सुधारऔर क्षमा की परम्परा रही है किन्तु प्रज्ञापराध एक ऐसा अपराध है जिसके लिए केवल दंड का ही विधान है. ...फिर यह दंड किसी के भी द्वारा दिया जाय...किसी न्यायाधीश द्वारा या फिर प्रकृति के द्वारा.....दंड तो अपराधी को भोगना ही पड़ता है.
    कलियुग की एक विशेषता और है .....सुधार की प्रवृत्ति एवं प्रयास में न्यूनता. आज विश्वगुरु भारत के लोग अपनी पद मर्यादा से च्युत हो कर अपमान और दुःख को भोगने के लिए विवश हैं. क्या इसमें कभी परिवर्तन होगा ? क्या हमें परिवर्तन की प्रतीक्षा करनी चाहिए ? 
     चारो युग अपनी निर्धारित अवधि पूरी करते हुए एक काल चक्र बनाते हैं ......इससे हम आशा कर सकते हैं कि हमें हमारा पुराना वैभव पुनः प्राप्त होगा. किन्तु ....परिवर्तन तो अवश्यम्भावी है....यह सोचकर अकर्मण्य बन कर नहीं रहा जा सकता.
    समय कभी वापस नहीं आता....घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है किन्तु उसके लिए भी पर्याप्त कारण अपेक्षित होते हैं. समय तो किसी भी परिवर्तन के लिए एक अपरिहार्य घटक है......कारण स्वयं हमें ही बनना होगा.
    भारती के वैभव की स्तुति हमारे लिए एक लक्ष्य निर्धारित करती है ....वैभव की स्मृति हमारी प्रेरणा बनती है ...किन्तु सत्य निष्ठा के साथ हमें अपने कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ना होगा....निरंतर ...और निरंतर ......इस सावधानी के साथ कि हमें अपने आदर्शों से किसी भी स्थिति में समझौता नहीं करना है. 
    फेस बुक पर ब्राजील के कुछ लोग आपस में नमस्ते करते हैं ( हमारी तरह गुड मोर्निंग या गुड नाईट नहीं ) .....उनके पन्नों पर रवींद्र नाथ टैगोर की कविताओं के पुर्तगाली अनुवाद होते हैं.....साथ में होते हैं राधा-कृष्ण के चित्र या फिर भारतीय संस्कृति को दर्शाते कोई अन्य चित्र ....भारत के प्रति उनकी दीवानगी सहज दृष्टव्य है. हमें जगाने के लिए क्या यह एक कारण नहीं हो सकता ?
    सुबह रियो डी जेनेरो की एक छात्रा से चर्चा हुयी ...उसकी बहन भारत में है और भारत के बारे में उसकी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही है. उसने अंगरेजी में बात करने से मना कर दिया ...हिन्दी उसे आती नहीं ......मुझे पुर्तगाली में बात करनी पडी. मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि उसे अपनी भाषा के प्रति इतना प्रेम है. मैंने अन्य विदेशियों की तरह उसे भी बताया कि हमारे देश का नाम इंडिया नहीं है ...भारत है. मैं स्वयं को भारतीय कहता हूँ इन्डियन नहीं.  विश्व में बहुत कम लोग हैं जो मानचित्र में भारत को कहीं खोज पाते हैं ...उन्हें केवल इंडिया के बारे में पता है .....यदि हमारी सरकार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 'भारत' या 'आर्यावर्त' के नाम से अपने कर्त्तव्य संपादित नहीं कर सकती तो यह हमारा भी तो उत्तरदायित्व बनता है. मैं भारत पहले लिखता हूँ और फिर कोष्टक में इडिया ...ताकि पश्चिम के लोगों को भारत का पता चल सके.
आज इतनी चर्चा ही.
                                             जय भारत ! जय आर्यावर्त ! ! जय सनातन धर्म ! ! !              

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

ऋषभ कंद - ऋषभक का परिचय ।। वेद विशेष ।। --- 4

भारतीय  संस्कृति सदा से ही अहिंसा की पक्षधर रही है । अन्याय, अनाचार, हिंसा, परपीडन आदि समस्त आसुरी प्रवृतियों का निषेध सभी आर्ष ग्रंथों में किया गया है । भारत की पुण्य भूमि में उत्पन्न हर परंपरा में अहिंसा को ही परम धर्म बताते हुये "अहिंसा परमोधर्म" का पावन उद्घोष किया गया है ।  और यह उद्घोषणा सृष्टि के आदि मे प्रकाशित वेदों में सर्वप्रथम सुनाई दी थी, वेदों में सभी जीवों को अभय प्रदान करते हुये घोषित किया गया "मा हिंस्यात सर्व भूतानि "  और अहिंसा की यही धारा उपनिषदों, स्मृतियों, पुराणों, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी द्वारा संरक्षित होती हुयी आज तक अविरल बहती आ रही है ।

लेकिन निरामिष वृति का यह डिंडिम घोष कई तामस वृत्तियों के चित्त को उद्विग्न कर देता है जिससे वे अपनी प्रवृत्तियों के वशीभूत हो प्रचारित करना शुरू कर देते है कि यह पावन ध्वनि  "अहिंसा अहिंसा अहिंसा"   नहीं   "अहो हिंसा - अहो हिंसा" है ।

भारतीय संस्कृति का ही जिनको ज्ञान नहीं और जो भारत में जन्म लेकर भी भारतीय संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये वे दुर्बुद्धिगण भारती-संस्कृत से अनभिज्ञ होते हुये भी संस्कृत में लिखित आर्ष ग्रन्थों के अर्थ का अनर्थ करने पर आमादा है । ये रक्त-पिपासु इस रक्त से ना केवल भारतीय ज्ञान-गंगा बल्कि इस गंगा के उद्गम गंगोत्री स्वरूप पावन वेदों को भी भ्रष्ट करने का प्रयास करतें  है ।

जो साधारण संस्कृत नहीं जानते वे वेदों की क्लिष्ट संस्कृत के विद्वान बनते हुये अर्थ का अनर्थ करते है । शब्द तो काम धेनु है उनके अनेक लौकिक और पारलौकिक अर्थ निकलते है । अब किस शब्द  की जहाँ संगति बैठती है,  वही अर्थ ग्रहण किया जाये तो युक्तियुक्त होता है अन्यथा अनर्थकारी ।

ऐसे ही बहुत से शब्द वेदों मे प्राप्त होते है, जिनको संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति से हीन व्यक्ति अनर्गल अर्थ लेते हुये अर्थ का कुअर्थ करते हुये अहिंसा की गंगोत्री वेदों को हिंसक सिद्ध करने की भरसक कोशिश करते है ।  लेकिन ऐसे रक्त पिपासुओं के कुमत का खंडन सदा से होता आया है, और वर्तमान में  भी  अहिंसक भारतीयता  के साधकों द्वारा सभी जगह इन नर पिशाचों को सार्थक उत्तर दिया जा रहा है । इसी महान कार्य में अपनी आहुती निरामिष द्वारा भी निरंतर अर्पित की जा रही है, जहाँ शाकाहार के प्रचार के साथ आर्ष ग्रन्थों की पवित्रता को उजागर करते हुये लेख प्रकाशित किए जाते हैं । जिनके पठन और मनन से कई मांसाहारी भाई-बहन मांसाहार त्याग चुके है, जो निरामिष परिवार की महान सफलता है ।

लेकिन फिर भी कई  रक्त मांस लोलुप आसुरी वृतियों के स्वामी अपने  जड़-विहीन आग्रहों से ग्रसित हो मांसाहार का पक्ष लेने के लिए बालू की भींत सरीखे तर्क-वितर्क करते फिरते है । इसी क्रम में निरामिष के एक लेख जिसमें यज्ञ के वैदिक शब्दों के संगत अर्थ बताते हुये इनके प्रचार का भंडाफोड़ किया गया था ।  वहाँ इसी दुराग्रह का परिचय देते हुये ऋग्वेद का यह मंत्र ----------

अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान् पिबसि त्वमेषाम्.
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः .
-ऋग्वेद, 10, 28, 3

लिखते हुये इसमें प्रयुक्त "वृषभां"  का अर्थ बैल करते हुये कुअर्थी कहते हैं  की इसमें बैल पकाने की बात कही गयी है ।  जिसका उचित निराकरण करते हुये बताया गया की नहीं ये बैल नहीं है ; इसका अर्थ है ------
हे इंद्रदेव! आपके लिये जब यजमान जल्दी जल्दी पत्थर के टुकड़ों पर आनन्दप्रद सोमरस तैयार करते हैं तब आप उसे पीते हैं।
हे ऐश्वर्य-सम्पन्न इन्द्रदेव! जब यजमान हविष्य के अन्न से यज्ञ करते हुए शक्तिसम्पन्न हव्य को अग्नि में डालते हैं तब आप उसका सेवन करते हैं।

इसमे शक्तिसंपन्न हव्य को स्पष्ट करते हुये बताया गया की वह शक्तिसम्पन्न हव्य "वृषभां" - "बैल" नहीं बल्कि बलकारक  "ऋषभक" (ऋषभ कंद) नामक औषधि है ।

लेकिन दुर्बुद्धियों को यहाँ भी संतुष्टि नहीं और अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हुये पूछते है की ऋषभ कंद का "मार्केट रेट" क्या चल रहा है आजकल ?????

अब दुर्भावना प्रेरित कुप्रश्नों के उत्तर उनको तो क्या दिये जाये, लेकिन भारतीय संस्कृति में आस्था व  निरामिष के मत को पुष्ठ करने के लिए ऋषभ कंद -ऋषभक का थोड़ा सा प्राथमिक परिचय यहाँ दिया जा रहा है ----

आयुर्वेद में बल-पुष्टि कारक, काया कल्प करने की अद्भुत क्षमता रखने वाली  आठ महान औषधियों का वर्णन किया गया है, इन्हे संयुक्त रूप से "अष्टवर्ग" के नाम से भी जाना जाता है ।
अष्ट वर्ग में सम्मिलित आठ पौधों के नाम इस प्रकार हैं-
१॰   ऋद्धि
२॰   वृद्धि
३॰   जीवक
४॰   ऋषभक 
५॰   काकोली
६॰   क्षीरकाकोली
७॰   मेदा
८॰   महामेदा



ये
सभी आर्किड फैमिली के पादप होते हैं, जिन्हें दुर्लभ प्रजातियों की श्रेणी में रखा जाता है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता व दमखम बढ़ाने में काम आने वाली ये औषधिया सिर्फ अत्यधिक ठंडे इलाकों में पैदा होती हैं। इनके पौधे वातावरण में बदलाव सहन नहीं कर सकते ।

वन अनुसंधान संस्थान [एफआरआइ] और वनस्पति विज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक अष्ट वर्ग औषधियां बहुत कम बची हैं।  जीवक, ऋषभ व क्षीर काकोली  औषधियां नाममात्र की बची हैं। अन्य औषध पौधे भी विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं।

जिस औषधि की यहाँ चर्चा कर रहे है वह  ऋषभक नामक औषधी इस अष्ट वर्ग का महत्वपूर्ण घटक है । वैधकीय ग्रंथों में इसे - "बन्धुर , धीरा , दुर्धरा , गोपती .इंद्रक्सा , काकुदा , मातृका , विशानी , वृषा  और  वृषभा"  के नाम से भी पुकारा जाता है । आधुनिक वनस्पति शास्त्र में इसे Microstylis muscifera Ridley के नाम से जाना जाता है ।



ऋषभक और अष्ठवर्ग की अन्य औषधियों के विषय में विस्तृत जानकारी अगले लेख में दी जाएगी।
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शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

भोजन निजि पसंद ना पसंद का ही मसला नहीं……-निरामिष


अकसर कहा जाता है कि आहार व्यक्ति की व्यक्तिगत रुचि (चॉइस) की बात है। जिसका जो दिल करे खाए। हमारा आहार कोई अन्य उपदेशित या प्रबन्धित क्यों करे? क्या खाना क्या नहीं खाना यह हमारा अपना स्वतंत्र निर्णय है।

किन्तु यह सरासर एक संकीर्ण और स्वार्थी सोच है, विशेषकर तब जब उसके साथ हिंसा सलग्न हो। प्रथम दृष्टि में व्यक्तिगत सा लगने वाला यह आहार निर्णय, समग्र दृष्टि से पूरे विश्व के जन-जीवन को प्रभावित कर सकता है। मात्र आहार ही नहीं हमारा कोई भी कर्म यदि किसी दूसरे के जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा हो, उस दशा में तो और भी धीर-गम्भीर चिंतन और विवेकयुक्त निर्णय हमारा उत्तरदायित्व बन जाता है। यदि आपके किसी भी कृत्य से कोई दूसरा  (मनुष्य या प्राणी जो भी) प्रभावित होता है, समाज प्रभावित होता है, देश प्रभावित होता है विश्व प्रभावित होता है उस स्थिति में आपके आहार-निर्णय की एकांगी सोच या स्वछंद विचारधारा, कैसे मात्र व्यक्तिगत रह सकती है।

दूसरे जीवन का सवाल
आहत होती भावनाओं का सवाल
हिंसा को प्रोत्साहन का सवाल
वैश्विक मानव पोषण और स्वास्थ्यका सवाल
विश्व खाद्यसंकट का सवाल
विश्व पर्यावरण का सवाल

निरामिष पर है सभी जवाब
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