शनिवार, 21 अप्रैल 2012

अहिंसा की गंगोत्री : ॥वेद विशेष॥ - 5



अक्सर दुर्भावनाओं से हिन्दुत्व पर हिंसक और माँसाहारी होने के आरोपण किए जाते है किन्तु हिन्दुत्व प्रारम्भ से ही अहिंसा प्रधान धर्म रहा है। काल-क्रम से कुछ विकृतियों का आ जाना सम्भव है, गंगा भी अपने उद्भव पर शुद्ध रहते हुए मार्ग में अस्वच्छ हो जाती है। पर इस जल में पावनता की शक्ति है। उसी तरह सत्य सिद्धान्त उसके मूल उपदेशों में ग्रंथित है। अहिंसा परमो धर्मः ही वह परम् उपदेश है यही वेदों से निकली गंगोत्री है। देखें वेदों से निकलती अहिंसा की गंगोत्री……

अहिंसा को पुष्ठ करते मंत्र :-----

ऋग्वेद- 

 अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि स इद देवेषु गच्छति (ऋग्वेद- 1:1:4)

 -हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त ‘हिंसा रहित’ यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है |

ऋग्वेद संहिता के पहले ही मण्डल के प्रथम सुक्त के चौथे ही मंत्र में यह साफ साफ कह दिया गया है कि यज्ञ हिंसा रहित ही हों। ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेदों में भी अहिंसा वर्णित हैं | फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?

अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय (ऋग्वेद- 1:164:26)

 -अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |

सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम 
अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती (ऋग्वेद 1:164:40)

-अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ रहें जिससे कि हम उत्तम सद् गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों।

सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्य: (ऋग्वेद- 5:83:8)

-अघ्न्या गौ के लिए शुद्ध जल अति उत्तमता से उपलब्ध हो |

क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः । 
एहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन ।। (ऋग्वेद- 7:6:21:9)

-"मैं मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए. इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस शक्तिशाली हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है."

आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु (ऋग्वेद 7:56:17)

-ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है |

वैदिक कोष निघण्टु में गौ या गाय के पर्यायवाची शब्दों में अघ्न्या, अहि- और अदिति का भी समावेश है। निघण्टु के भाष्यकार यास्क इनकी व्याख्या में कहते हैं -अघ्न्या – जिसे कभी न मारना चाहिए। अहि – जिसका कदापि वध नहीं होना चाहिए | अदिति – जिसके खंड नहीं करने चाहिए। इन तीन शब्दों से यह भलीभांति विदित होता है कि गाय को किसी भी प्रकार से पीड़ित नहीं करना चाहिए । प्राय: वेदों में गाय इन्हीं नामों से पुकारी गई है।

घृतं वा यदि वा तैलं, विप्रोनाद्यान्नखस्थितम ! 
यमस्तदशुचि प्राह, तुल्यं गोमासभक्षण: !! 
माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि: ! 
प्र नु वोचं चिकितुपे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट !! (ऋग्वेद- 8:101:15)

अर्थात- रूद्र ब्रह्मचारियों की माता, वसु ब्रह्मचारियों के लिए दुहिता के समान प्रिय, आदित्य ब्रह्मचारियों के लिए बहिन के समान स्नेहशील, दुग्धरूप अमृत के केन्द्र इस (अनागम) निर्दोष (अदितिम) अखंडनीया (गाम) गौ को (मा वधिष्ट) कभी मत मार. ऎसा मैं (चिकितेषु जनाय) प्रत्येक विचारशील मनुष्य के लिए (प्रनुवोचम) उपदेश करता हूँ.

यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः 
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च (ऋग्वेद-10:87:16)

-मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए |

ऋग्वेद के ६ वें मंडल का सम्पूर्ण २८ वां सूक्त गाय की महिमा बखान रहा है –

१.आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु

-प्रत्येक जन यह सुनिश्चित करें कि गौएँ यातनाओं से दूर तथा स्वस्थ रहें |

२.भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने

-गाय की देख-भाल करने वाले को ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है |

३.न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति

-गाय पर शत्रु भी शस्त्र का प्रयोग न करें |

४. न ता अर्वा रेनुककाटो अश्नुते न संस्कृत्रमुप यन्ति ता अभि

-कोइ भी गाय का वध न करे |

५.गावो भगो गाव इन्द्रो मे अच्छन्

-गाय बल और समृद्धि लातीं हैं |

६. यूयं गावो मेदयथा

-गाय यदि स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगी तो पुरुष और स्त्रियाँ भी निरोग और समृद्ध होंगे |

७. मा वः स्तेन ईशत माघशंस:

-गाय हरी घास और शुद्ध जल क सेवन करें | वे मारी न जाएं और हमारे लिए समृद्धि लायें |

अथर्ववेद-

वत्सं जातमिवाघ्न्या (अथर्ववेद- 3:30:1)

-आपस में उसी प्रकार प्रेम करो, जैसे अघ्न्या – कभी न मारने योग्य गाय – अपने बछड़े से करती है |

ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो निहितो 
रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च (अथर्ववेद- 6:140:2)

-हे दंतपंक्तियों! चावल, जौ, उड़द और तिल खाओ। यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं| उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं|

शिवौ ते स्तां ब्रीहीयवावबलासावदोमधौ ! 
एतौ यक्ष्मं विबाधेते एतौ मुण्चतौ अंहस: !! (अथर्ववेद- 8:2:18)

-हे मनुष्य ! तेरे लिए चावल, जौं आदि धान्य कल्याणकारी हैं. ये रोगों को दूर करते हैं और सात्विक होने के कारण पाप वासना से दूर रखते हैं.

य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: ! 
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)

-जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !

अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः (अथर्ववेद-10:1:29)

-निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है | हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार |

धेनुं सदनं रयीणाम् (अथर्ववेद- 11:1:4)

-गाय सभी ऐश्वर्यों का उद्गम है |

"मा हिंस्यात सर्व भूतानि "

-किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे.

पुष्टिं पशुनां परिजग्रभाहं चतुष्पदां द्विपदां यच्च धान्यम ! 
पय: पशुनां रसमोषधीनां बृहस्पति: सविता मे नियच्छात !! (अथर्ववेद- 19:31:5)

इस मन्त्र में भी यही कहा है कि- मैं पशुओं की पुष्टि वा शक्ति को अपने अन्दर ग्रहण करता हूं और धान्य का सेवन करता हूँ. सर्वोत्पादक ज्ञानदायक परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बनाया है कि (पशुनां पय:) गौ, बकरी आदि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण किया जाये न कि मांस तथा औषधियों के रस का आरोग्य के लिए सेवन किया जाए. यहां भी "पशुनां पयइति बृहस्पति: मे नियच्छात:" अर्थात- ज्ञानप्रद परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बना दिया है कि मैं गवादि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण करूँ, स्पष्टतया मांसनिषेधक है !

यजुर्वेद-

अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद-1:1)

-हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |

पशूंस्त्रायेथां (यजुर्वेद- 6:11)

-पशुओं का पालन करो |

ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे (यजुर्वेद-11:83)

-सभी दो पाए और चौपाए प्राणियों को बल और पोषण प्राप्त हो |

विमुच्यध्वमघ्न्या देवयाना अगन्म (यजुर्वेद-12:73)

-अघ्न्या गाय और बैल तुम्हें समृद्धि प्रदान करते हैं |

घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने मा हिंसी: (यजुर्वेद-13:49)

-सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |

द्विपादव चतुष्पात् पाहि (यजुर्वेद-14:8)

-हे मनुष्य ! दो पैर वाले की रक्षा कर और चार पैर वाले की भी रक्षा कर |

अन्तकाय गोघातं (यजुर्वेद-30:18)

-गौ हत्यारों का अंत हो |

यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: 
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: (यजुर्वेद- 40:7)

-जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |

वेदों में पशुओं की हत्या का विरोध तो है ही बल्कि गौ- हत्या पर तो तीव्र आपत्ति करते हुए उसे निषिद्ध माना गया है | यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है |

महाभारत ---

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व- 11:13)

-किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।

प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम । 
अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥ (कर्णपर्व-69:23)

-मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ । झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे ।

सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् । 
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9)

-सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।

मनुस्मृति में माँसाहार निषेध-

यद्ध्यायति यतकुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च ।
तद्वाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन ॥ (मनुस्मृति- 5:47)

-ऐसा व्यक्ति जो किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह जो चिंतन या कर्म करता है तथा जिसमें एकाग्र होकर ध्यान करता है वह उसको बिना किसी प्रयत्न के प्राप्त हो जाता है

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित ।
न च प्राणिवशः स्वर्ग् यस्तस्मान्मांसं क्विर्जयेत् ॥ (मनुस्मृति- 5:48)

-किसी दूसरे जीव का वध किया जाये तभी मांस की प्राप्ति होती है इसलिए यह निश्चित है कि जीव हिंसा से कभी स्वर्ग नही मिलता, इसलिए सुख तथा स्वर्ग को पाने की कामना रखने वाले लोगों को मांस भक्षण वर्जित करना चाहिए।

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । 
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)

अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं

मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद् म्यहम्। 
एतत्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः॥ (मनुस्मृति- 5:55)

अर्थ – जिस प्राणी को हे मनुष्य तूं इस जीवन में खायेगा, अगामी जीवन मे वह प्राणी तुझे खायेगा।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

भारत की संत परम्परा

तुम तो ठहरे बाबा-बैरागी, तुम्हें सांसारिकता से क्या प्रयोजन? जाओ, माला जपो और ईश्वर का ध्यान करो। अन्याय,शोषण और अत्याचार से तुम्हें क्या?
........ सत्ता ने सत्य को घुड़की दी।
...जैसे कि ईश्वर का ध्यान केवल बैरागी को ही करना है, अन्य किसी को नहीं।
....और यह भी कि बैरागी को संसार के सामूहिक कष्टों से कभी कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिये।
निरंकुश सत्ताओं के इस युग में एक प्रश्न विचारणीय है कि तब अन्याय, शोषण और अत्याचार के उन्मूलन का प्रयोजन यदि संत को नहीं तो और किसे होना चाहिये?
क्या असंत के कुकृत्यों का विरोध किसी असंत ने किया है कभी?
क्या संतों के कर्तव्य असंतों द्वारा निर्धारित किय जायेंगे अब? क्या संत के कर्तव्यों की असंतों द्वारा खींची गयी सीमा रेखा असंतों की निरंकुश भावना का प्रमाण नहीं?
मनुष्य पर मनुष्य का अत्याचार करते रहने की यह कैसी अदम्य लालसा है मनुष्य की?
न केवल मनुष्य अपितु.....प्राणिमात्र...प्रकृतिमात्र पर अत्याचार करते रहने की अदम्य लालसा है यह।
हमें परिभाषाओं पर चढ़ी धूल झाड़कर उनका परिमार्जन करना होगा, वैराग्य को एक बार पुनः समझना होगा।
कष्टों के अन्धकूप में पड़े लोगों से पूछता हूँ मैं, राग से वैराग्य तक की कठिन साधना के पश्चात....पोखर से समुद्र तक की यात्रा के पश्चात ....क्या किसी विरागी को संवेदनहीन हो जाना चाहिये?
सृष्टिकर्ता की आराधना की उस स्थिति में पहुँचकर क्या संवेदनहीन हुआ जा सकता है?
संवेदनहीन तो वह है जो एकांगी राग के पंक में आकंठ डूबा हुआ है....
......यह राग एकांगी और मोहावृत है, व्यापक और विशिष्ट नहीं। विशिष्ट राग तो किसी वैरागी का ही विषय हो सकता है।
मोहावृत राग के पंक से निकलकर करुणा और प्रेम के विशिष्ट राग की यात्रा तो कोई वैरागी ही कर सकेगा...और उसी वैरागी के लिये इतनी लांछना कि समष्टि से प्रेम न करे! समष्टि की पीड़ा से पीड़ित न हो ....निर्विकार बना रहे... नेत्र मूँद ले अपने पीड़ितों को देखकर ..... कान बन्द कर ले अपने धरती की चीत्कार सुनकर!
नहीं....परिभाषाओं को अपने स्वार्थ के साँचे में ढ़ालकर विकृत करने की स्वतंत्रता किसी को नहीं दी जा सकती।
संत तो व्यष्टिगत प्रेम के छुद्र पोखर से निकलकर समष्टिगत प्रेम के महासमुद्र की ओर यात्रा करता है।
लोग कहते हैं कि प्रेम तो सांसारिकों का विषय है, संतों का नहीं। मैं कहता हूँ कि प्रेम जब व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर व्यापक हो जाता है तब वह संत का विषय हो जाता है।
प्रेम को सतही समझना भूल होगी, वह समाप्त नहीं होता कभी .....विस्तृत होता है ...व्याप्त होता है।
वैरागी व्यक्ति अन्य सांसारिकों की अपेक्षा अधिक प्रेमी होता है....करुणा और संवेदना से भरा हुआ। उसका प्रेम विशिष्ट प्रेम है ..इसलिये वह विरागी है अरागी नहीं।
उसका राग सृष्टि मात्र के प्रति करुणा से भरा हुआ है तब वह जीवमात्र के कष्टों से निस्पृह कैसे रह सकता है भला?

भारत के विभिन्न संतों ने प्राणिमात्र के प्रेम में विह्वल होकर अपने-अपने तरीकों से सत्यम-शिवम-सुन्दरम की आराधना करते हुये जगत के कल्याण के लिये वैचारिक क्रांतियाँ की हैं। जो क्रांतिकारी नहीं वह संत कैसा?...हमें क्रांति की इस संत परम्परा को आगे बढ़ाना ही होगा।
हरि ओम तत्सत!

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

सूरज को दिया दिखाने की जिद।


मैंने देखी है कुछ लोगों की इस दुनिया में, 
      मांसाहार को शाकाहार से श्रेष्ठ बतलाने की जिद। 
जगमगाते सूर्यदेव को अंधियारा बतलाकर, 
      जुगनू की टिमटिमाहट को रौशन कहवाने की जिद। 

हलाल होते हुए तड़पते जीव को "दर्द नहीं है" कह कर, 
      अन्नाहार में भ्रूण हत्या साबित कराने की जिद। 
"गौ शुद्ध मानी गयी है" का मुखौटा ओढ़ कर, 
      गौमाता को वैदिक यज्ञों में बलि चढ़वाने की जिद। 

गोरक्षक इन्द्रदेव को ऋषभ कंद की आहुति, 
      वृषभों की बलि की सीख बनाने की जिद। 
कहीं और के लाये संस्कृत शब्दों को, 
      वेदवाणी बना कर पेश कराने की जिद। 

पोषण की झूठी, घुमावदार बातों के झांसों में, 
      उच्चाहारियों को निम्न भोज्य पर खींच लाने की जिद। 
भारत की महान संस्कृति को लीप पोतकर, 
      अहिंसा के आदेश को हिंसात्मक जतलाने की जिद। 

शाक फलों को ग्रहण करने में पादप हिंसा ढूंढ कर, 
      पशु काटने को प्रभु आज्ञा साबित कराने की जिद। 
टमाटर जैसे पौधे को मांसाहारी कह कर, 
      मछली को आलू सा शाकाहार कहलवाने की जिद। 

वैदिक संस्कृत पर अपने अधूरे अर्थ थोप कर, 
      वेदों को पशु हिंसापूर्ण जतलाने की जिद। 
बाहर की संस्कृतियों के निचोड़ों को ला ला कर, 
      भारतीय संस्कृति पर पानी चढाने की जिद। 

किसी महापुरुष के प्रिय पुत्र कुर्बान करने को,
      बकरों की कटवाई की आज्ञा बनाने की जिद। 
जीभ के स्वाद के क्रूर आनंद की पूर्ति के लिए, 
      परमपिता को ही क्रूर साबित कराने की जिद। 

जिस धर्म की आज्ञा है कि प्रतीकों को न पकड़ो, 
      उसी धर्म को पुरजोर प्रतीकात्मक बनाने की जिद। 
गलत परम्पराओं के विरोध में खड़े ज्ञानी पुरुषों को, 
      स्वयं एक परंपरा भर में बदलवाने की जिद। 

जुगनुओं की टिमटिमाती रौशनियों में, 
      खलिहान में सुई खोज लाने की जिद। 
कबसे देख रही हूँ बारम्बार दुनिया में , 

रविवार, 1 अप्रैल 2012

प्राचीन भारतीय शोध परम्परा और विकास की अवधारणा

वेद भारतीय ज्ञान के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं जिनमें शोधकर्ताओं के ज्ञान को सूत्र रूप में संगृहीत किया गया है। प्रकृति में व्याप्त शक्तियों का प्राणिमात्र के कल्याणार्थ उपयोग तथा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए उपयुक्त मार्ग का सन्देश देने वाले वेद, आज जबकि हम विकास की सही दिशा से विचलित हो चुके हैं और भी अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।
वैज्ञानिक समाधानों के युग में हमारे समक्ष कुछ ज्वलंत प्रश्न हैं जिनका वैज्ञानिक उत्तर हमें खोजना ही होगा।

१- इतने तथाकथित विकास के बाद भी दुर्भिक्ष और दरिद्रता अभी तक हमारे लिए अभिषाप बने हुए हैं।
२- शारीरिक व्याधियाँ अपने नए स्वरूपों में प्रकट हो रही हैं।
३- नवीन औषधियाँ फलप्रद नहीं हो पा रही हैं।
४- रोगाणुओं के नए-नए अवतरण (NEW STRAINS) चिकित्सा जगत के समक्ष एक गंभीर चुनौती बन गए हैं।
५- मनुष्य का नैतिक पतन अपनी पराकाष्ठा की ओर तीव्र गति से बढ़ रहा है।
६- पारस्परिक संवेदनायें समाप्त होती जा रही हैं।
७- हिंसा हमारे आचरण का भाग बनती जा रही है।
८- जीवन से सुख और शान्ति का सम्बन्ध समाप्त होता जा रहा है।
९- हम विनाश की ओर शनैः शनैः आगे बढ़ते जा रहे हैं।

   इस सबके बाद भी हमारी सांख्यिकीय गणनाएं समाज के विकास को प्रदर्शित करती हैं जो निश्चित ही एक राजनैतिक छलावा है। जब हम बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को आत्महत्या करते हुए या नैतिक पतन के आरोपों में घिरा पाते हैं तो स्वयं को एक ऐसे रथ पर आरूढ़ पाते हैं जो सारथी रहित तो है ही दिशाहीन भी है। हमें यह विचार करना होगा कि हम त्रुटि कर कहाँ रहे हैं ? तनिक कल्पना कीजिये कि शोधकर्ता महर्षियों को यदि आज के वैज्ञानिकों की स्थिति से जूझना पड़ा होता तो क्या वे इतने निर्दुष्ट अनुसंधान कर पाते?
मनुष्य जीवन के सन्दर्भ में भारतीय चिंतन चार पुरुषार्थों "धर्मार्थकाममोक्षाणाम...." को केन्द्रित कर अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है जिसका सबसे बड़ा टूल है सत्य। आधुनिक वैज्ञानिक भी सत्यानुसन्धान में लगे हैं किंतु शाश्वत चिंतन के अभाव में उनका मार्ग निर्दुष्ट नहीं हो सका। वे आंशिक सत्य तक ही सीमित हो कर रह गये, परिणामतः उनके शोध की दिशा ही एक अन्धकूप की ओर हो गयी है। मुझे यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण लगती है, जिन शोधकार्यों के लिये हमारी प्रतिभायें अपना जीवन खपा देती हैं, जिनके लिये आम जनता की कमाई का एक बड़ा हिस्सा होम कर दिया जाता है वे शोध हमें केवल काला ज़ादू भर दिखा पाते हैं। जिन शोधकार्यों और अपनी उपलब्धियों पर हम गर्व से फूले नहीं समाते वे सत्य के कितने समीप हैं यह विचारणीय है।
   इस जगत के बारे में हम जितना जो कुछ जानते हैं सत्य उतना ही नहीं है। वस्तुतः हम केवल आंशिक सत्य ही जान पाते हैं, उतना ही जितना हमारी भौतिक इन्द्रियों के समक्ष प्रकाशित हो पाता है। जो अप्रकाशित रह जाता है वह गुप्त बना रहता है...रहस्यमय। कई बार रहस्यों के अत्याल्पांशों की एक झलक मात्र ही देख पाते हैं हम। हमारे देखने की क्षमतासीमा और प्रक्रिया अत्यंत सीमित होने से विश्लेषणात्मक ज्ञान के प्रति दोषपूर्ण है। हम गति को उसके पूर्णरूप में नहीं देख पाते ....आभास भर होता है उसका। देख उसी को पाते हैं जो अपेक्षाकृत बहुत स्थिर है। इसीलिये जीवन के वाहक सूक्ष्मांशों की एक झलक मात्र पाने के लिये जीवित कोशिकाओं की killing, fixation, dehydration, embedding, sectioning, staining और mounting जैसी अप्राकृतिक क्रियायें हमारी शोध प्रक्रिया की अनिवार्य विवशतायें हैं। जीवित कोशिका के मौलिक स्वरूप को नष्ट कर उसके बारे में प्राप्त एक झलक भर ही हमारे शरीर के भौतिक ज्ञान का आधार बन पाती है। हम जानना तो चाहते हैं जीवन को किंतु अध्ययन कर पाते हैं मृत कोशिका का। मृत्यु से जीवन को कितना जाना जा सकेगा? कोशिका के मृत्यु के समय... उसके नैनो सेकेण्ड्स के जीवन की एक हलचल भर जान पाते हैं हम, उसके आगे या पीछे क्या रहा होगा इसका अनुमान ही हमारे अगले ज्ञान का साधन है। और फिर यह भी क्या निश्चित है कि मृत्यु के समय वह कोशिका पीड़ा से तड़प नहीं रही होगी...तो हमने पीड़ा के नैनो सेकेण्ड्स का दर्शन किया इससे पैथोलॉजी तो समझी जा सकती है कुछ ...पर फ़िजियोलॉजी कैसे समझी जा सकेगी? प्रश्न यह भी है कि स्वस्थ्य रहने के लिये क्या यह सब जानना इतना आवश्यक है? अब से हज़ारों वर्ष पूर्व ...जब ऐसा विघटनकेन्द्रित ज्ञान नहीं था हमारे पास तब हमारी चिकित्सा का आधार क्या था? जटिल शल्य क्रियायें तो तब भी होती थीं।
  अपनी सीमित इन्द्रिय शक्तियों के कारण हमारा ज्ञान आंशिक ही है। प्रकृति की अपार शक्तियों के आगे इसीलिये नतमस्तक होना पड़ता है हमें। इन शक्तियों की एक आश्चर्यजनक किंतु स्वाभाविक व्यवस्था है जो हमें इसके नियंता के अस्तित्व को स्वीकारने विवश करती है। प्रकृति की इस अत्यंत जटिल किंतु सुव्यवस्थित प्रणाली ने हमें एक सर्वशक्तिमान नियंता के अस्तित्व की ओर स्पष्ट संकेत कर दिया है। इस अनादि-अखण्ड-अदृष्य किंतु सर्वशक्तिमान की सूक्ष्मता में समाहित विराटता ने बार-बार चमत्कृत किया है मानव बुद्धि को।
हमारा स्पष्ट मत है कि आज की भौतिक शोधप्रणाली दोषपूर्ण है जिसके कारण हम अपनी दिशा से भटक गए हैं। शोध की दो प्रणालियाँ हैं, एक रचनात्मक और दूसरी विघटनात्मक। रचनात्मक प्रणाली में हम किसी भौतिक वस्तु का स्वरूप विकृत किये बिना ही अन्यान्य विधियों से उसके बारे में सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, भारतीय ऋषियों की यही शोध परम्परा थी। जबकि विघटानात्मक प्रणाली में हम उस वस्तु का मौलिक स्वरूप ही विकृत कर देते हैं जिसके बारे में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। संश्लेषण और विश्लेषण के स्वरूप को समझे बिना अपनाई गयी वर्त्तमान शोध प्रक्रियाएं कभी भी अंतिम सत्य तक नहीं पहुँच सकतीं। संभवतः, सम्यक सत्यान्वेषण इनका उद्देश्य है भी नहीं। राज्य और व्यापारियों की आवश्यकताएं आज के शोध की दिशा तय कर रही हैं। प्राणिमात्र के हित के लिए पवित्र भाव से शोध करना कलियुग की परम्परा नहीं है। किन्तु हमें यह परम्परा तोड़नी होगी।

  वैदिक युग में भी शोधकार्य ज्ञान प्राप्ति के साधन हुआ करते थे।  किंतु तब के और अब के ज्ञान की परिभाषायें भिन्न हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा में ज्ञान तो वह है जो सत्य हो, सनातन हो, सार्वकालिक हो, सार्वभौमिक हो। पुनः, सुखी और निरामय जीवन के लिये, विश्वशांति के लिये, पृथिवी की रक्षा के लिये और सार्वभौमिक कल्याण के लिये हमें अपने वैज्ञानिक साधनों की सीमाओं, उनके औचित्य और अपने अनुसन्धान की दिशा की गम्भीर समीक्षा करनी होगी।

(एक छोटे से प्रवास के लिये कुछ दिनों तक आप सबसे दूर जा रहा हूँ, पुनः भेंट होगी...तब तक के लिये नमस्कार! शुभकामनायें !!)
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...