गुरुवार, 31 मई 2012

धर्मचिंतन ...6

 

आज हम विचारों के सन्धिकाल पर हैं। वैदिक युग का प्रकाश ढ़ल चुका है, अज्ञान का तमस घिरता आ रहा है...अभी पूरी तरह घिर नहीं पाया। कुछ धुँधलका सा है जिसमें दिख तो सब कुछ रहा है पर स्पष्ट कुछ भी नहीं है। मनुष्य के जीवन का यह संकट काल है..द्विविधाओं से भरा हुआ....विचलन की सम्भावनाओं को अपने में समेटे हुये।

इस तमस में धर्म और अधर्म के मध्य की विभाजक रेखा लुप्त होती जा रही है। कल किसी ने बताया कि अब भारत में भी अविवाहित युगलों को एक साथ रहने के विधिक अधिकार मिलने वाले हैं। यदि ऐसा होता है तो यह भारतीय परिवार, समाज और सनातन धर्म को और भी छिन्न-भिन्न करने का एक बड़ा कारण बनेगा। भारतीय समाज व्यवस्था में अविवाहित युगलों को एक साथ रहने की अनुमति कभी नहीं रही। कामेच्छा के तीव्र प्रवाह को सही दिशा में ले जाने की अपेक्षा अन्धकूप की ओर ले जाने का प्रयास है यह। 

चिंतनीय है ....हमारे चार प्रशस्त आश्रमों का क्या होगा तब? इन आश्रमों की पारस्परिक सीमा रेखायें क्या होंगी? धर्मानुशीलन के चार अनिवार्य अवसरों को समाप्त कर देने से धर्मानुशीलन का अवसर कैसे मिल सकेगा?  

चारो आश्रमों में श्रेष्ठ गृहस्थ आश्रम का तो लोप ही हो जायेगा। ऐसे युगलों से उत्पन्न संतानों को पश्चिम की परम्परा के अनुसार माता-पिता का नहीं अपितु शासन का उत्तरदायित्व माना जायेगा। चर्चों  के पादरी उनके पिता होंगे। पारिवारिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जायेगा।  भारतीय समाज जब पूरी तरह पतन के गर्त में डूब जायेगा तब फिर कोई वैलेंटाइन जन्म लेगा और भारत के लोगों को विवाह के महत्व को समझायेगा। 

नवीनता प्रकृति का नियम है ...अवश्यम्भावी है पर इस नवीनता के व्यामोह में हम जिधर बढ़ते जा रहे हैं वह समाज के विकास की नहीं ..पतन की दिशा है। समझ में नहीं आता कि जिन परम्पराओं के दुष्परिणामों को  भोग चुकने के पश्चात् पश्चिम तिलांजलि देना चाह रहा है उन्हें ही पूर्व क्यों अपनाना चाह रहा है? 

हमें विचार करना होगा कि भारतीय समाज की रूप-रेखा धर्म के अनुकूल कैसे बनायी जाय। पारिवारिक जीवन में एक सुव्यवस्था, दृढ़ता और प्रेममय सम्बन्धों की ऊर्जा प्रवाहित करने के लिये  हमें शीघ्र ही कोई निर्णय लेना होगा। विनम्र आग्रह है उन नवयुगलों से जो पश्चिम की इस परम्परा को भारत में पोषित करना चाह्ते हैं कि वे इस पथ के दुष्परिणामों के बारे में पहले गम्भीरता से चिंतन अवश्य करें। क्या वे अपने बच्चों के प्रति अपने पवित्र उत्तरदायित्वों से मुँह मोड़ना चाह्ते हैं? क्या वे चाहते हैं कि उनके रक्तांशों का पालन पोषण शासन के कर्मचारी करें या फिर वे मातृ-पितृ विहीन हो पशुओं की भाँति स्वतंत्र रूप से जीवन संघर्ष में अपने भाग्य का निर्माण करें ?

ध्यान रखना होगा ...मानव सभ्यता की सबसे बड़ी पूँजी है प्रेम ......हम उसे ही खोने का उपक्रम कर रहे हैं। मैं पश्चिम की परम्पराओं का विरोध नहीं कर रहा किंतु जो परम्परायें दोषपूर्ण प्रमाणित हो चुकी हैं उनकी ओर हमारा आकर्षण क्यों होना चाहिये? अनुकरण ही करना है तो पश्चिम् की राष्ट्रीय भावना और जनसेवा भावना का अनुकरण क्यों न करें?  

क्रमशः ......

   


सोमवार, 28 मई 2012

धर्मचिंतन .....5

व्यष्टि से समष्टि तक के कल्याण की भावना से ऋषिप्रणीत आचरण ही तो मानव मात्र का धर्म है। इस आचरण को किसी नाम विशेष या वर्ग विशेष से बांधा नहीं जा सकता, यह तो सभी मनुष्यों के लिये अनुकरणीय है ...इसीलिये सनातन है।

इस प्रशस्त आचरण के सम्यक पालन के लिये ऋषियों ने वर्णाश्रम व्यवस्था की रचना की। व्यक्तिगत क्षमताओं के समाज हित में सम्यक सदुपयोग हेतु वर्ण व्यवस्था और प्रत्येक वर्ण के लिये अपने लिये निर्धारित कार्य के सम्यक सम्पादन हेतु जीवन के चार कालों में बटी आश्रम व्यवस्था।

व्यक्ति और समूह के लिये ये सर्वोत्तम व्यवस्थायें हैं....सहज और वैज्ञानिक भी।

भारत की वर्ण व्यवस्था एक वैज्ञानिक व्यवस्था होते हुये भी कालांतर में हुयी रूढ़ियों के कारण आज विवादास्पद हो गयी है। दोष वर्ण व्यवस्था का नहीं अपितु वर्ण व्यवस्था पर सक्षम लोगों द्वारा आधिपत्य कर लेने वालों का है जिसके कारण उत्पन्न हुये अवरोधों ने समाज के वर्ण प्रवाह को रोक दिया। वर्ण की तरलता समाप्त कर दी गयी ...उसके स्थान पर आयी कठोरता ने लोगों के विकास के मार्गों को अवरुद्ध कर समाज की सहज गति को बाधित कर दिया। क्षमतायें कुण्ठित होने लगीं ...अक्षम अधिकार सम्पन्न होने लगे। समाज में विषमता को गति मिली।

आज जो सात्विक चिंतक है ....जो नवपथ निर्माता है उसे हम ब्राह्मण नहीं स्वीकारते, जो प्रशासनिक और रक्षा क्षमताओं से युक्त हैं उन्हें हम क्षत्रिय नहीं स्वीकारते, जो समाजव्यवस्था के सुचारु संचालन के लिये वित्त एवम्  संसाधनोत्पादक क्षमतायुक्त हैं उन्हें हम वैश्य नहीं स्वीकारते, और जो अपने शारीरिक बल से अन्य सभी वर्णों का पोषण कर सकने में सक्षम हैं उन्हें हम शूद्र नहीं स्वीकारते। इन क्षमता समूहों से इतर और क्या क्षमतायें हो सकती हैं?

भारत की आर्षपरम्परा में चारों वर्णों में क्षमतावर्धन की सुविधाओं के साथ वर्ण रूपांतरण की तरलता ने व्यक्ति और समाज के गुणात्मक विकास का यशस्वी मार्ग प्रशस्त किया था।
नव विकृतपरम्परा में भी वर्ण रूपांतरण हो रहा है, लोग बिना क्षमता उन्नयन के स्वयं को ब्राह्मण या क्षत्रिय घोषित कर रहे हैं। यह एक छद्म रूपांतरण है ..गुणात्मक नहीं।

रूढ़ियों को तोड़ने के प्रयास में हमने नयी रूढ़ियों की सर्जना कर दी है। जातियों को समाप्त करने की उद्घोषणा के साथ नव प्रचलित आरक्षण व्यवस्था ने जाति भेद को और भी दृढ़्ता प्रदान कर दी है।

हमने अपनी नयी समाजव्यवस्था में अनोखे परिवर्तन किये हैं। जिसकी जो क्षमता है हम उसके अनुरूप उसे कार्य नहीं करने दे रहे। लोग स्वक्षमता के अनुरूप समाज के विकास में अपनी सहभागिता सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें ऐसे कार्य करने के बाध्य किया जा रहा  है जिनके लिये वे सक्षम, समर्थ और कुशल नहीं हैं। एक अकुशल व्यक्ति से यह अपेक्षा की जा रही है कि वह अपने कार्य से समाज के विकास में अपना योगदान दे।

यह जनसाधारण को समझना होगा कि क्या वास्तव में राजसत्तायें समाज को विकसित करना चाहती हैं  या फिर यह उनका राजनीतिक षड्यंत्र है? सत्तायें यदि वास्तव में समाज का विकास चाहती हैं तो उन्हें पूर्व से प्रशस्त रहे अनुभवी मार्गों का अनुसरण क्यों नहीं करना चाहिये? समाजव्यवस्था के नये प्रयोगों की आवश्यकता क्यों है उन्हें?   

भारत में सत्तालोलुपता की आड़ में सामाजिक परिवर्तन की एक क्षुद्र तरंग ने कभी एक गीत गाया था-"तिलक तराजू और तलवार। इनको मारो जूते चार"। ये तीन वर्ण जूते से पीटने योग्य सुनिश्चित किये गये ...पीटने वाला था तीसरा वर्ण जिसके लिये किसी संज्ञा या विशेषण का प्रयोग नहीं किया गया किंतु वह कौन है यह स्पष्ट था।  इस तरंग ने समाज का कितना भला किया यह भारत के समाज को तय करना होगा।

'ब्राह्मण' आज सर्वाधिक विवादास्पद संज्ञा है। जो कभी मस्तिष्क हुआ करता था समाज का वही विवादास्पद हो गया है। विचार करना होगा कि विवादास्पद केवल संज्ञा भर हुयी है या संज्ञा का पदार्थ(sense of the word) भी ? इस विवाद का कारण भी खोजना होगा।

जिस किसी के पास वैचारिक सहिष्णुता, सरलता, तरलता,  उदारता, साहस, त्याग, नवप्रयोग क्षमता, दूरदृष्टि जैसे वैज्ञानिक गुण और वसुधैव कुटुम्बकम् जैसा सात्विक भाव है क्यों उसे हम ब्राह्मण स्वीकारने से इंकार करें?  ब्राह्मण वही है जो एक कागज़ भरते ही दूसरा कोरा कागज उत्पन्न करने की क्षमता से युक्त है। उसके पास हर किसी के लिये एक कोरा कागज सदैव रहता है।

यह तय है कि श्रेष्ठ बनने के लिये भारतीय समाज के पुनर्गठन की...नव रूपांतरण की आवश्यकता है। ...और तय यह भी है कि यह कार्य, जो किसी क्रांति से कम नहीं, समाज को स्वयं ही करना होगा।


शनिवार, 26 मई 2012

धर्म चिन्तन ...4

सहिष्णुता और प्राणीमात्रके प्रति प्रेम के कारण भारत के लोगों ने वसुधैव 
कुटुम्बकम का उद्घोष किया था। यह एक आदर्श विराटपरिवार की कल्पना थी। किन्तु जैसा कि प्रायः होता आया है व्यावहारिकता के धरातल तक आते-आते आदर्श बिखरने और टूटने लगते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम का आदर्श भी बिखरने लगा। कुटुम्ब के ही कुछ लोग कुटुम्ब पर आघात करते रहे और अंततः भारत को पराधीन होना पड़ा। भारत का स्वाभिमान आहत हुआ, आदर्शों पर प्रश्न चिन्ह लगे और हमें विपन्न हो जाना पड़ा। 

यह विपन्नता केवल आर्थिक ही नहीं थी अपितु सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, राजनैतिक....सभी प्रकार की विपन्नता थी। 

नहीं ...हमारा आदर्श दोषयुक्त नहीं था ...आदर्श दोषयुक्त हो ही नहीं सकता। तब क्यों हुआ यह सब? 
यह विचारणीय है। इस विषय पर चिंतन किये जाने की आवश्यकता है।

संभवतः हमने समाज के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर अधिक ध्यान नहीं दिया और आदर्श के आकाश में उड़ते रहे....धरातल छूट गया....धरातल की सारी चीजें छूट गयीं। समाज की इकाई छिन्न-भिन्न हो गयी। 
...और समाज का मनोवैज्ञानिक पक्ष यह है कि वह सशक्त होना चाहता है ...अपने ही एक अंग पर प्रभुत्व बनाना चाहता है। समाज स्वयं के ही अंग के शोषण से पोषित होता है। सामाजिक विषमता का सूत्रपात यहीं से होता है। 

आज विदेशी दासता से मुक्त होने के पश्चात् भी हम अपने स्वाभिमान को पुनः प्राप्त नहीं कर सके हैं। अपने प्राचीन भारतीय गौरव को स्पर्श तक नहीं कर सके हैं। आंग्ल शासन के विदा होने के पश्चात् भी हम अपने तंत्र को नहीं ला पाये ...उस तंत्र को नहीं ला पाये जिस तंत्र के कारण हम पूरे विश्व में जाने जाते थे।

आयातित संविधान, आयातित विचार, आयातित संस्कृति, आयातित भाषा, आयातित व्यापार तंत्र, आयातित उपभोग वस्तुयें....हम स्व के अधीन हो ही कहाँ सके? 
हमारा तंत्र  "स्व-तंत्र" होना चाहिये ..पूरी तरह भारतीय होना चाहिये .....भारत की माटी की सुगन्ध की तरह ..पूर्ण स्वदेशी। तभी हमें राष्ट्रधर्म के दर्शन हो सकेंगे.....अभी तो राष्ट्रधर्म कहीं दिखायी तक नहीं देता। 

मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों हुआ ...कैसे हुआ ...कि हमने वसुधैव कुटुम्बकम् की पताका तो फहराई पर काल विशेष में समाज के दो अत्यंत महत्वपूर्ण अंगों, स्त्रियों और सवर्णेतर वर्ग की घोर उपेक्षा की। उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से वंचित रखा, उनका शोषण किया ...अमानवीयता की सीमा तक। 
बाद के कालखण्ड में सवर्णेतर वर्ग की उपेक्षा बन्द हुयी ...शनैःशनैः वे समाज की मुख्यधारा में आने लगे ...किंतु इस बीच बहुत बड़ी क्षति हो चुकी थी ....वह क्षति अभी भी हो रही है .....धर्मांतरण की क्षति। भारत के एक वर्ग का बड़ी तीव्रता के साथ धर्मांतरण हुआ....अभी भी हो रहा है ....यह प्रक्रिया किंचित कम अवश्य हुयी है पर पूर्ण विराम नहीं हो सका अभी तक। यद्यपि इस धर्मांतरण से कोई विशेष लाभ हुआ हो उन्हें ..ऐसा भी कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता।

धर्म की अवधारणा को समझे बिना देशज धर्म का परित्याग कर आयातित धर्म का धारण भारतीय समाज और भारत की धरती को खण्डित करने का एक बार पुनः कारण बन सकता है। 

मैं धर्मांतरण को देशद्रोह के रूप में देखता हूँ। यह महान सनातनधर्म के प्रति अविश्वास का प्रतीक और उसकी व्यर्थता की उद्घोषणा है। यह धर्म के मर्म को न समझने का हठ है। यह भारत को खण्डित करने का वंचनापूर्ण आन्दोलन है। 

काल विशेष में स्त्रियों और शूद्रों को लेकर उपेक्षा, शोषण और उनके घोर अपमान का जो षड्यंत्र भारत में चला वह घोर ग्लानि का कारण है....उसके कारण अब हम अपनी परम्पराओं पर गर्व करने योग्य नहीं रह गये। भारतीय समाज के पतन का एक बहुत बड़ा कारण यह भी रहा है।

स्त्रियों और शूद्रों के लिये अपमानजनक उद्घोषणायें करने वाले लोग निन्दा के पात्र हैं। मैं ऐसी हर उस उद्घोषणा और साहित्यिक रचना की भर्त्सना करता हूँ जो उन्हें सहज मानवीय अधिकार से वंचित कर अपमानित करती है। 

क्रमशः ...         
    

गुरुवार, 24 मई 2012

धर्म चिंतन ...3

आचरण में वैयक्तिक होते हुए भी प्रभाव में व्यापक होता है धर्म। यह वैयक्तिक आचरण ही आत्मानुशासित समाज का प्राण है।


समाज की इकाई होने के कारण मनुष्यके लिए धर्म को अपने आचरण में लाना आवश्यक होता है। इसीलिए सुसमाज के लिए यह एक आवश्यक घटक है। समाज का उत्थान और पतन ही मापदंड है सद्धर्म के अनुशीलन का। समाज की नीव पारस्परिक प्रेम की सुदृढ़ शिलाओं से निर्मित होती है। किन्तु हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं....अभिकेंद्रण की इस प्रक्रिया ने हमें स्वार्थी और असंवेदनशील बना दिया है।


महानगरों के लोग चिंतित हैं कि समाज बिखर रहा है। पारस्परिक प्रेम और सहयोग का अभाव होता जा रहा है। पश्चिमी देशों के समाज की संरचना और उसके तत्व हमारे यहाँ से भिन्न हैं। भारत का समाज इतना दुर्बल और खोखला कभी नहीं रहा जितना कि आज है।


क्या कारण हैं इस खोखलेपन के ..?


यह ज्वलंत प्रश्न है ...इसका समाधान खोजना होगा हमें।


पिछली बार के चिंतन में एक प्रश्न यह भी उठा था कि लोगों में पारस्परिक प्रेम उत्पन्न कैसे किया जाय ? प्रेम तो सहज मन की उदार और व्यापक अनुभूति है। यह किसी दबाव में आकर नहीं हो सकता। इसके लिये हमें भारतीय समाज की प्राचीन संरचना और आश्रम व्यवस्था की ओर एक बार फिर देखनाहोगा। मानव जीवन की कुल जीवन अवधि में उसके कर्तव्यों का सुनिश्चित विभाजन ही इसका रहस्य है। हमारे उत्तरदायित्व तय थे,कर्तव्यों के सुनिश्चित विभाजन ने समाज को कर्मण्य बना दिया था।


बहुत से कार्य जो आज शासन के उत्तरदायित्व हैं ... तब समाज के उत्तरदायित्व थे ... जिनमें विशेष कार्य थे शिक्षा, पर्यावरणीय सुरक्षा और अशक्तों का स्वैच्छिक उत्तरदायित्व। समाज के ये उत्तरदायित्व अब शासन के उत्तरदायित्व हैं इसीलिए संस्कार बोध और धर्माचरण जैसे जीवन के आवश्यक तत्व लुप्त होते चले गए। तब कार्य श्रेष्ठ था ...अब विभिन्न पदों में बटे समाज को शासन प्रदत्त सुविधाएं श्रेष्ठ हो गयी हैं....कई स्तर पर होने वाले चुनाव ने पारस्परिक प्रेम को आग लगा दी। समाज की इकाई आत्माभिमुख हो स्वार्थ में लिप्त हो गयी है।


तो प्रेम उत्पन्न करने का उपाय है समाज की संरचना और व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किया जाना। गृहस्थाश्रम के पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति उपरांत वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति समाज के लिए ही समर्पित होता था। यह व्यवस्था पुनः जीवित किये बिना हम भारत को उसका प्राचीन गौरव कदाचित ही दिला सकें।


भौतिक विकास और यांत्रिक सुविधाओं ने जीवन की कठिनाइयों में कमी की है किन्तु इस विकास ने जीवन से संतोष, निष्ठा, प्रेम और सुख के महाकोष को लूट कर रिक्त कर दिया है। आश्रम व्यवस्था को पुनर्जीवित करने का उत्तरदायित्व समाज का है शासन का नहीं। समाज को एक समानांतर व्यवस्था बनानी होगी ..एक ऐसी व्यवस्था जिससे शासन पर निर्भरता कम से कम होती चली जाय। भारतीय समाज सशक्त तभी बन सकेगा।


क्रमशः ......

मंगलवार, 22 मई 2012

धर्म चिंतन -2

  जीवन की सार्थकता के लिए हमें एक साथ कई धर्मों का पालन करने की आवश्यकता होती है। यह अलग बात है कि हम प्रतिबद्ध नहीं हो पाते उन सब के लिए....विशेषकर समाजधर्म के पालन के लिए, जो कि सबसे प्रमुख धर्म है ....प्रमुख भी और जटिल भी।
जटिल क्यों ? क्या कारण है इसका?
मानव प्रकृति की विविधताओं और स्वयं की पृथक पहचान की तीव्र अभिलाषा ने ही इसे इतना अधिक जटिल बना दिया है।
 मानव "मैं" की अपेक्षा करता है ...
और मानवसमाज "हम" की अपेक्षा करता है।
"हम" के बिना समाज उद्देश्यहीन है, "मैं "के बिना व्यक्ति अपनी पहचान के लिए विकल है। सारा संकट इसी असामंजस्य को लेकर है।
इस असामंजस्य के कारण धर्म गौण होता चला गया है। आज लोग बात तो 'हम' की करते हैं किन्तु अपने 'मैं' को शीर्ष पर रखकर। इसकी निष्पत्ति पाखण्ड में होती है।
प्रेम और आनंद ही लक्ष्य है मानव जीवन का ...किन्तु उसके अन्वेषण की दिशा से भटक गए हैं हम। हमारी सारी उठापटक ...सारा जीवन व्यापार इस आनंद की प्राप्ति के लिए ही है।
पर हम लोभी हो गए हैं आनंद को स्वयं तक ही सीमित रखना चाहते हैं, यह भूल गए हैं कि आनंद का तो यह स्वभाव ही नहीं है ....वह बंदी हो कर नहीं ठहर सकता ....व्यापक होना चाहता है। व्यापक होकर फ़ैल जाना चाहता है प्राणी मात्र में।
हम किसी प्राणी को पीड़ा से तड़पते हुए देखते हैं तो दुखी होते हैं, किसी गाय के छौने को उछलते-कूदते देखते हैं तो मन में प्रसन्नता की लहर उत्पन्न होती है। यह सहज स्वभाव है जो हमारे आचरण से अब च्युत होता जा रहा है। अब हम दूसरों की पीड़ा में अपने आनंद को खोजने लगे हैं ...”समाज” की अवधारणा की तो हत्या कर डाली हमने, धर्म ठहरेगा कहाँ?
हम विस्मृत करते जा रहे हैं कि आनंद तो बाटने की चीज़ है ...जितना बाटते हैं उतना ही बढ़ता है।
आनंद को बाटने के लिए प्रेम चाहिए ...प्रेम के लिए उदारता चाहिए ....उदारता के लिए सहनशीलता और ...सहनशीलता के लिए वैचारिक शुद्धता चाहिए। यही तो हैं वे उदात्त मानवीय गुण जो धर्म को स्वरूप प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त धर्म और क्या हो सकता है भला ?
धर्म को ग्रंथों की सीमा में बन्दी नहीं बनाया जा सकता, न वहाँ रहकर फलीभूत हो पाता है वह। ऐसा हो पाता तो धर्म का साम्राज्य स्थापित हो गया होता अब तक।
ग्रंथ को पढ़कर उसकी विषय वस्तु की व्याख्या हो सकती है पर जीवन में लाने के लिये तो कुछ अन्य उपाय ही करना पड़ेगा। आज सभी धर्मों के ग्रंथ उपलब्ध हैं ...उनकी व्याख्यायें भी उपलब्ध हैं ...उनके श्रोता भी हैं ...पर धर्म को जीने वालों का अभाव हो गया है।
हम चर्चा कितनी भी करलें धर्म की.........पारायण कितना भी करलें ग्रंथों का किंतु जब तक प्रेम करना नहीं सीखेंगे तब तक धर्म की अवधारणा को जी नहीं सकेंगे।
 प्रेम! किससे करना है प्रेम?
 समाज के हर व्यक्ति को प्रेम चाहिये ....पर वह दूसरों से नहीं करना चाहता। प्रेम लेना तो चाहता है सबसे....  पर देना नहीं चाहता है किसी को भी। लेना ही लेना व्यक्ति का कार्य है ....लेना और देना समाज का कार्य है। उन्मुक्त भाव से होना चाहिये यह लेनदेन ......स्वार्थ से परे .....निरपेक्ष भाव से ....और प्रसन्नतापूर्वक भी। देते समय कष्ट है मन में ...या अपेक्षा है प्रतिदान की तो यह स्वस्थ्य लेन-देन नहीं हुआ, पाखण्ड हुआ यह। और जहाँ पाखण्ड है वहाँ धर्म ठहरता ही नहीं पल को भी।यह प्रेम ही है जो हमें समाज में एक दूसरे से बाँधकर रखता है। प्रेम नहीं तो समाज नहीं ...भीड़ है वह ....संवेदनहीन लोगों की भीड़।
किंतु यह प्रेम किया कैसे जाय ...? इस पर चर्चा अगली बार ..
क्रमशः .......

सोमवार, 21 मई 2012

धर्म चिंतन ....1

बड़ा ही गूढ़ विषय है धर्म.... गूढ़ भी और मननीय भी।

गूढ़ इसलिये क्योंकि इस विषय पर न जाने कितना चिंतन हुआ है अभी तक ...न जाने कितना हो रहा है ...न जाने कितना होता रहेगा। मननीय इसलिये क्योंकि मानव सभ्यता के लिये एक सदा सर्वदा चिंतनीय- मननीय विषय रहा है यह। 

किंतु ऐसा क्या है इसमें कि इतने चिंतन-मनन की आवश्यकता पड़ रही है.....और पड़ ही नहीं रही अपितु निरंतर बढ़ती ही जा रही है यह आवश्यकता?
आज के चिंतन का यही प्रतिपाद्य विषय है।  

किंतु इससे पूर्व तनिक इस पर भी विचार कर लिया जाय कि क्या मानवेतर प्राणियों को भी आवश्यकता होती है धर्म की? 

उत्तर है- हाँ। ....और केवल मानवेतर प्राणियों को ही नहीं अपितु वनस्पतियों और जड़ जगत को भी आवश्यकता होती है धर्म की। 

अर्थात् जड़-चेतन सहित सम्पूर्ण चराचर जगत को आवश्यकता होती है धर्म की।

भौतिकवादियों के एक पंथ ने कहा कि धर्म तो अहिफेन (अफ़ीम) है मानव मस्तिष्क के लिये ....मानव समाज के लिये। 

यह तो विवाद की बात हो गयी। मनुष्यों का एक समूह कहता है कि धर्म सम्पूर्ण चराचर जगत के लिये आवश्यक है ....और दूसरा समूह कहता है कि यह तो अहिफेन है। 

जो इसे अहिफेन मानते हैं वे अपने जीवन में किसी धर्म को नहीं अपनाते वे धर्म से निस्पृह हैं .....ऐसा उनका कहना है। पर यह सच नहीं है...धर्म के बिना तो जड़ या चेतन किसी के भी अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।
धर्म तो अपरिहार्य है इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये .....उसके अस्तित्व के लिये।
लोकरीति में एक भ्रामक शब्द प्रचलित है "धर्म-निरपेक्ष"। जबकि सब कुछ ....हर कोई धर्म सापेक्ष हैं ....धर्म निरपेक्ष कुछ नहीं ...कोई नहीं होता।  
ये जो कहते हैं कि उनके जीवन में किसी धर्म का कोई अस्तित्व नहीं वे वस्तुतः धर्म के वैज्ञानिक स्वरूप को पहचान ही नहीं पा रहे हैं। वे साँस तो ले रहे हैं पर यह नहीं जानते कि जिस वायु को वे अपनी नासिका से अन्दर खीचते हैं उसमें और कितनी गैसों का मिश्रण है ...और किस अनुपात में है। वे यह भी स्वीकारने को तैयार नहीं कि श्वास-प्रश्वास की यह क्रिया उनके शरीर की प्रत्येक कोशिका के अन्दर निरंतर होती रहती है। 
धर्म का यह जो स्वरूप है जिसे मैंने जड़-चेतन सभी के लिये अपरिहार्य बताया वह अलिखित है .....और परमेश्वर के द्वारा सुनिर्धारित किया गया है। यह अपरिवर्तनीय भी है ...इसके पालन में कोई भी शिथिलता स्वीकार नहीं होती यहाँ। 
जहाँ-जहाँ इनर्जी है ......जहाँ -जहाँ मैटर है, वहाँ-वहाँ इस धर्म का अनिवार्य पालन सुनिश्चित है।

इस प्राकृतिक धर्म का पालन तो स्वस्फूर्त गति से होता रहता है ...अहर्निश। किंतु इसके अतिरिक्त भी हमें कुछ और भी धर्मों की आवश्यकता पड़ती है। 

तो क्या हम एक साथ कई धर्मों का पालन करते हैं?
सत्य तो यही है।

हमें व्यक्तिगतधर्म, परिवारधर्म, पिताधर्म, पुत्रधर्म, पत्नीधर्म, समाजधर्म,राष्ट्रधर्म, और विश्वधर्म का भी पालन करना पड़ता है। ...ये धर्म अपेक्षित हैं किंतु स्वस्फूर्त नहीं होते ....करना पड़ता है।

यह स्वभाव है मनुष्य का कि उसे जो प्रयास पूर्वक करना पड़ता है ...त्रुटियाँ और शिथिलतायें वहीं होती हैं। ....और यही कारण है कि धर्म के इस स्वरूप पर न जाने कितना चिंतन और विवाद होता रहा है।

इस  चिंतन और विवाद का कारण प्रारम्भ होता है हमारे समूह में रहने और परस्पर अन्योन्याश्रित होने से।

व्यक्तिगत धर्म अलग है और समूह का अलग....दोनो में सामंजस्य अपेक्षित है। यह सामंजस्य ही समाज के उत्थान और सुखमय जीवन की कुंजी है .......जो कि खो गयी है कहीं ...मिल नहीं पा रही।

मनुष्येतरप्राणी भी रहते हैं समूह में ....इसलिये उनके भी समाज हैं। समाज हैं उनके .....इसलिये धर्म वहाँ भी अपेक्षित है। 

उनके पास कोई धर्माचार्य नहीं है, कोई लिखित धर्मग्रंथ नहीं हैं ...उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ती इसकी ...किंतु पालन होता है धर्म का। 

हमारे पास अनेक धर्माचार्य हैं.....कई लिखित धर्मग्रंथ हैं ...किंतु पालन नहीं होता उनका।   

मनुष्येतर प्राणी धर्म से बंधे हुये हैं ....हम धर्मग्रंथों से बंधे हुये हैं। इसीलिये वहाँ धर्म को लेकर इतनी उठा-पटक नहीं होती। जो थोड़ी बहुत होती भी है वह आपस में सुलझा ली जाती है। हम आपस में सुलझा नहीं पाते ...युद्ध करके भी नहीं। 
तो हमें चिंतन करना होगा कि सभी प्राणियों में मनुष्य की श्रेष्ठता को बनाये रखने के लिये हमें और क्या करना है?   

क्रमशः ...
          

शुक्रवार, 18 मई 2012

श्रद्धा का मूल्यांकन

आज मैं इस लेख का पूरा श्रेय अभियांत्रिकी विज्ञान से जुड़ीं शिल्पा जी को दे रहा हूँ क्योंकि इस लेख की प्रेरणास्रोत वे ही हैं। उनका एक प्रश्न है ...

प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है - क्या प्रेम, भक्ति और श्रद्धा का मूल्यांकन किया जाना चाहिये ?

इसके प्रतिप्रश्न में एक प्रश्न यह भी उठता हैकि इनका मूल्यांकन क्यों नहीं किया जाना चाहिये?

चलिये, हम प्रेम से ही प्रारम्भ करते हैं। प्रेम करने वाले के हृदय में यदि अपने प्रेमी से प्रतिदान पाने की चाह है तो यह प्रेम "प्रेम" रहा ही कहाँ ...व्यापार की श्रेणी में आ गया वह तो। हीर-राँझा, लैला-मजनू वाला प्रेम नहीं हुआ वह। 
व्यापार का मुख्य घटक है लाभ-हानि जोकि आदान-प्रदान के एक निर्धारित संतुलन पर निर्भर करता है। इस आदान-प्रदान वाले प्रेम में जब प्रतिदान नहीं मिलता तो हम अपने प्रेमी को गम्भीर क्षति पहुँचाने का भरपूर प्रयास करते हैं। ऐसी घटनायें अनोखी नहीं रह गयीं अब।  

प्रेम तो एक ऐसी दीवानगी भरी स्थिति है जिसमें क्रोध नहीं होता ...तिरस्कार नहीं होता। किंतु हमारे आसपास यह हो रहा है, इसलिये प्रेम के इस स्वरूप की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसका मूल्यांकन करना पड़ेगा।

प्रेम करने वाला यदि देता ही जाय...देता ही जाय ...तो ही प्रेम की सार्थकता है। प्रेम की यही दीवानगी प्रेम करने वाले को वैचारिक शीर्ष तक पहुँचा पाती है ......अन्यथा प्रेम कुछ समय बाद बिखरने लगता है। इसलिये प्रेम का मूल्यांकन उसकी पवित्रता और उत्कृष्टता के आधार पर किया ही जाना चाहिये।

हम देशप्रेम की बातें करते तो हैं पर उसके लिये अपने निजी हितों का लेश भी त्याग करने के लिये तैयार नहीं हैं। यह कैसा देशप्रेम हुआ?

हम प्रेम तो करते हैं पर जीव मात्र से नहीं कर पाते ...एकांगी प्रेम को लेकर चलते हैं।

हमारा प्रेम आपेक्षिक हो गया है ...एकांगी हो गया है इसलिये हम अपनी पत्नी, बच्चों और सम्पत्ति से ही प्रेम कर पाते हैं ...प्रेम इससे आगे बढ़ ही नहीं पाता।

प्रेम आगे नहीं बढ़ पाता इसलिये हमें दूसरों को धोखा देने में पीड़ा नहीं होती। कपट में पीड़ा नहीं होती।

मैं पूछता हूँ, यह कैसा प्रेम है जो हमें कुन्दन नहीं बना पाता? ऐसा कुन्दन जो हर किसी के लिये सदैव कुन्दन ही हो। जो हर... जगह हर स्थिति में अपनी आभा बिखेरता रहे।  

शुद्ध अंतःकरण की पवित्रभावना की समर्पण प्रक्रिया का नाम है भक्ति। इस प्रक्रिया का एक अपरिहार्य तत्व है श्रद्धा।

मैने  पवित्रभावना की बात कही, इस पर विचार करना होगा। क्या है यह पवित्रभावना?

यह है मानव मन की वह सकारात्मक ऊर्जा जो अभाव में से प्रकट होती है...और निःशर्त होती है।

अभाव ही जब विराट होता है तब भाव हो जाता है। व्यक्तिगत स्तर पर यह परम तत्व की स्वीकार्यता है बिना किसी तर्क के।
भावना में पवित्रता आवश्यक है। भावना पावित्र है तो भक्ति है ....भक्ति है तो भाव का प्रकटीकरण है।

यह प्रकटीकरण चमत्कार है ..किंतु लौकिक स्तर पर नहीं ...आध्यात्मिक स्तर पर ...।

कई बार हम प्रवचन से प्रभावित होकर या किसी लौकिक पीड़ा से मुक्ति पाने के लिये भक्ति करना तो चाहते हैं पर हो नहीं पाती ...यह इतना सरल नहीं है। दिखता है ...पर है नहीं। इसलिये नहीं है क्योंकि भक्ति शुद्धज्ञान की अगली प्रक्रिया है। शुद्धज्ञान के लिये तप करना पड़ता है.... चाहे इस जन्म में चाहे पिछले जन्म में। यदि पूर्व जन्म में हम शुद्धज्ञान के लिये तप कर चुके हैं तो इस जन्म में भक्ति सरल हो जाती है।   

श्रद्धा हमें अभेद तक ले जाती है, ऐसी जगह ले जाती है जहाँ कोई द्वैत नहीं है। सम्पूर्ण चराचर जगत एक ही शक्ति का रूपांतरण लगने लगता है।

'श्रद्धा' भक्त को अभेद तक ले जाती है ...किंतु लोक व्यवहार में क्या स्वरूप है इसका ? अभेद तक नहीं पहुँच रहे हैं हम। भेद में पड़े हुये हैं.....

ईश्वर के प्रति श्रद्धा तो बहुत है .....उसे स्मरण भी करते हैं पर ऑफ़िस पहुँचते ही भूल जाते हैं सब। तब हम हर गलत काम करने लगते हैं । तब भूल जाते हैंकि जिससे रिश्वत ले रहे हैं हम ...वह भी अभेद है। यह कैसी श्रद्धा है?

किसी आर्थिक अपराध में बन्दी होते ही परिवार के लोग ईश्वर की भक्ति में डूबने लगते हैं....मन्नतें मानी जाने लगती हैं। एक शर्त रख दी जाती है ईश्वर के सामने कि यदि वे जेल से छूट गये तो मन्दिर में 'ये' या 'वो' चढ़ावा चढ़ा देंगे। यह श्रद्धा है या निराकर को रिश्वत देने का दुस्साहस?

कितने लोग हैं भारत में जो नास्तिक हैं? ...कदाचित हर कोई स्वयं को आस्तिक ही कहलाना चाहेगा।  और कितने लोग हैं ऐसे जो लोककल्याण के लिये जी पाते हैं? हम मन्दिर भी जाते हैं ...श्रद्धा से नमन करते हैं अपने आराध्य के चरणों में और ढेरों गलत काम भी करते हैं। इतने गलत काम करते हैं कि दुनिया में कुख्यात हो गये। यह कैसी श्रद्धा है?

हम श्रद्धापूर्वक शपथ लेकर सदन में बैठते हैं और किसी घोटाले में कुछ ही दिन बाद बन्दी बना लिये जाते हैं। ऐसी श्रद्धा का क्या अर्थ है ...यह पूरा देश जानना चाहता है।

यह देश यह भी जानना चाहता हैकि मन्दिर में अलग-अलग धनराशि देने वालों के लिये गर्भगृह तक जाने के अलग-अलग रास्ते क्यों हैं ?

यह देश ईश्वरभक्तों और श्रद्धालुओं का देश है और हम जानना चाहते हैं कि वे कौन लोग हैं जो भ्रूण हत्यायें करते हैं ?

कन्या को देवी का स्वरूप मानने वाले लोगों के देश में स्त्री के साथ बलात्कार करने वाले कौन लोग हैं ? सामने अपराध होता हुआ देखकर भी गवाही देने से कतराने वाले लोग कौन हैं ? क्या ये सब नास्तिक हैं? क्या इनके मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं है? यदि इनमें श्रद्धा नहीं है तो श्रद्धालु कहाँ हैं ...किस कन्दरा में छिपे हुये हैं ?

मेरा सीधा सा प्रश्न है कि घोटाले करते समय, रिश्वत लेते समय, दूध में पानी मिलाते समय, बलात्कार करते समय, भ्रूण हत्या करते समय हमारी श्रद्धा कहाँ होती है? क्या इस श्रद्धा का कोई मूल्यांकन नहीं होना चाहिये ?

हमने मूल्यांकन करना छोड़ दिया, श्रद्धा को लोकाचार से अलग कर दिया...जीवन से शुचिता को अलग कर दिया...अपने पाप धोते रहे...धोते रहे ..इतने धोये कि गंगा को अपवित्र कर दिया। पाप हम अभी भी धो ही रहे हैं ....क्योंकि पाप करना बन्द नहीं किया हमने।

यह श्रद्धा है कैसी जो हमारे आचरण में दृष्टिगोचर नहीं होती कहीं ?

जो निराकार, निर्गुण, अनादि, अनंत और अखण्ड है उसे साकार, सगुण, जन्म-मृत्यु वाला और खण्डित देखने लगे हैं हम ....अपनी स्थूल आँखों से देखने लगे हैं। उसे चलते-फिरते, हँसते-रोते, युद्ध करते देखते हैं हम। और उससे कुछ चमत्कार की आशा करने लगे हैं ...बिना कोई कर्म किये "कृपा" चाहने लगे हैं हम। यह कैसी श्रद्धा है जिसने हमें भिखारी बना दिया है?  

हमारी आँखों के सामने से रोज़ न जाने कितने दुखी-पीड़ित आते-जाते रहते हैं हमारी दृष्टि उन्हें क्यों नहीं देख पाती? क्यों हमारी इतनी श्रद्धा के बाद भी धर्म की हानि होती रहती है और धर्म संस्थापनार्थाय ईश्वर को अवतार लेने के लिये विवश होना पड़ता है?

हम नटराज को नृत्य करते देखते हैं ...डॉक्टर फ़्र्ट्ज़ ऑफ़ काप्रा नटराज की उन्हीं मुद्राओं में ब्राउनियन मूवमेंट देखते हैं। यह दृष्टि हमारे पास क्यों नहीं है ? हम जीवन को केवल चमत्कारों से क्यों भर देना चाहते हैं ?

यह सब इसलिये है क्योंकि हमने अपनी श्रद्धा का मूल्यांकन नहीं किया...करना चाहते भी नहीं। ऐसी मूल्यांकन रहित श्रद्धा ने ही हमें अकर्मण्य और भ्रष्ट बना दिया है।

एक सत्य घटना बता रहा हूँ - कुछ वर्ष पूर्व यहाँ (बस्तर में) एक बाबा आया था ...एक सिद्ध पुरुष के रूप में शीघ्र ही उसने ख्याति अर्जित कर ली। वह हर प्रकार के रोगों की चिकित्सा लात मारकर करता था...और इसके बदले में किसी से कुछ लेता नहीं था। केवल एक नारियल और अगरबत्ती चढ़ानी पड़ती थी। लोगों में उसके प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ी। कई रोगी वहाँ गये और तुरंत लाभांवित होकर आ गये। एक इंजीनियर साहब कटिशूल से पीड़ित थे और मेरी चिकित्सा में थे...पूछा मुझसे कि वे भी लाभांवित होना चाहते हैं ..चले जायें क्या? मैने कहा कि यह निर्णय उन्हें ही करना है, मैं तो केवल इतना ही बता सकता हूँ कि लात मारकर चिकित्सा करने की कोई बात मेरी समझ से परे है। वे गये ...लौटकर आकर बताया कि वे ठीक हो गये हैं और अब उन्हें कोई औषधि लेने की आवश्यकता नहीं है। सप्ताह भर बाद वे फिर आये, बोले कि पीड़ा फिर शुरू हो गयी है ...एक बार फिर जाना पड़ेगा बाबा के पास ...शायद ढ़ंग से लात लग नहीं पायी होगी। वे पुनः गये ....किंतु शायद लात मारने में फिर कुछ गड़बड़ हो गयी होगी। बाद में उन्होंने फिर से औषधि लेना शुरू किया।

कुछ समय तक चमत्कार दिखाने के बाद बाबा जी चले गये। बाद में पता चला कि बाबा के पास प्रतिदिन सुबह से रात तक सैकड़ों नारियल चढ़ावे में आ जाते थे। कुछ नारियल प्रसाद में बट जाने के बाद शेष अगले दिन उन्हीं दूकानदारों के पास फिर पहुँच जाते थे। बदले में बाबा को मिलती थी दूकानदारों से प्रतिदिन एक मोटी रकम। यह कैसी श्रद्धा है?  क्या इस श्रद्धा पर चर्चा नहीं होनी चाहिये?

आश्चर्य तो यह हैकि इन श्रद्धालुओं में उच्च शिक्षित वर्ग के लोग भी हैं। ....और हम फिर भी श्रद्धा का मूल्यांकन करने के लिये तैयार नहीं हैं क्योंकि हमने उसे भावनाओं और आस्था के आहत हो जाने से जोड़ दिया है। ईश्वर के प्रति हमारी आस्था इतनी नाज़ुक क्यों हैकि वह तर्क की बात आते ही आहत होने लगती है?

आस्था में यदि गहराई है ....ज्ञान का सुदृढ़ आधार है तो वह कभी आहत नहीं हो सकती। ..और जो आहत हो जाती है वह आस्था है ही नहीं पाखण्ड है।   

गुरुवार, 17 मई 2012

धार्मिक गाथाओं के स्वरूप

आर्यावर्त के आप्त पुरुषों द्वारा प्रकृति और उसकी नियंत्रक शक्तियों के बारे में जो ज्ञान अर्जित किया गया उसमें क्रमशः वृद्धि होती रही। यह ज्ञान तब की श्रुत परम्परा के अनुसार पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा। पाप की निरंतर वृद्धि, सत्य के निरंतर क्षरण और सत्यज्ञान के प्रति लोगों की विमुखता के कारण वेदोत्तर काल में वैदिक ज्ञान को बोधगम्य बनाने की दृष्टि से वैदिक सूत्रों की समय-समय पर व्याख्या की जाती रही है। परिणाम स्वरूप आरण्यक, पुराण, ब्राह्मण ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ आदि अस्तित्व में आये। पुनश्च, कलियुग में अनेक लोगों ने उसी ज्ञान को अपने-अपने तरीके से अभिव्यक्त किया...उसकी व्याख्यायें कीं। यहाँ तक कि बाद में आचरण के दिशानिर्देश के लिये पंचतंत्र जैसी कथायें भी अस्तित्व में आयीं। प्रश्न यह उठ सकता है कि जब वेद अपने आप में ज्ञान के लिये पूर्ण हैं तब अन्य ग्रंथों की भी आवश्यकता क्यों पड़ी? यह एक महत्वपूर्ण विषय है। 

ज्ञान एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। निरंतर नये रहस्यों के अनावरण होते रहने की प्रक्रिया है। इसमें जड़ता का कहीं कोई स्थान नहीं। सतत अनुसन्धान, परिमार्जन, समावेशीकरण और ज्ञान की सतत तृषा ने सनातन धर्म और भारतीय ज्ञान की निरंतर वृद्धि की है। यह धर्म तभी समृद्ध हो पाया है। सनातन धर्म विश्व का सर्वाधिक प्राचीन और सहिष्णुधर्म है। सहिष्णु इस अर्थ में कि इस धर्म में लोगों को आध्यात्मिक साधना के लिये पूर्ण स्वतंत्रता दी गयी है। यहाँ कोई पूर्व निर्धारित बन्धनकारी जड़त्व नियम नहीं है। जहाँ पूर्व निर्धारित लकीरें हैं ....परिमार्जन और समृद्धिकरण के लिये कोई स्थान ही नहीं है.....वहाँ विवाद हुये हैं और ऐसे धर्म अस्तित्व में आते और जाते रहे हैं। भारत की महानता इसीलिये है क्योंकि यहाँ चार्वाक को भी सुनने वाले हैं, कणाद को भी और जेमिनी को भी। "ग्रंथ" विचारों और लेखन को विस्तार देते हैं ...नयी दिशा देते हैं। आयुर्वेद जोकि एक चिकित्सा शास्त्र है, का मूलाधार अथर्व वेद है। यदि प्राचीन ग्रंथों में हम वैज्ञानिक तत्वों को नहीं देखेंगे ....उनपर विमर्ष नहीं करेंगे तो भारत के प्राचीन वैभव को जान कैसे पायेंगे? यह कितने लोगों को ज्ञात हैकि भारतीय पशुचिकित्सा (हस्ति आयुर्वेद) और वनस्पति चिकित्सा ( वृक्ष आयुर्वेद) जैसे आधुनिक विषय पश्चिम की नहीं भारत की देन हैं और उनके आधार हैं वेद। यह कितने लोगों को पता है कि जब लोगों को कृत्रिम बर्फ़ बनाना नहीं आता था तब भारत के लोग बर्फ़ बनाने में कुशल थे। कृषि में उपयुक्त होने वाले हल के बारे में भारत को पराधीन बनाने वाले अंग्रेजों ने ही पश्चिम को प्रथम बार जानकारी दी। हमें क्यों अपने प्राचीन ग्रंथों में छिपे वैज्ञानिक तत्वों की अनदेखी कर देनी चाहिये ? या क्यों हमें भिन्न दृष्टि से अपने प्राचीन ग्रंथों को देखने पर आपत्ति होनी चाहिये ?

लीक से इधर-उधर न हटने का आग्रह भारतीय ज्ञान परम्परा के लिये आत्मघाती होगा। त्रेतायुग और द्वापर युग के नायकों की गाथायें कलियुग में लिपिबद्ध की गयीं। तथ्यों को रोचक, बोधगम्य और प्रभावी बनाने के लिये कल्पना का सहारा लिया गया। इसीलिये रामचरित पर लिखे गये ग्रंथों में विभिन्नतायें देखने को मिलती हैं...पूरी तरह एकरूपता नहीं है। एक बात यह भी उठती हैकि इन गाथाओं की आवश्यकता क्यों है?

कई कारण हैं इसके; कोई मनोरंजन के लिये इन्हें सुनना चाहता है, कोई ज्ञान प्राप्ति के लिये, कोई अपने आराध्य की भक्ति के लिये, कोई अनुसन्धान के लिये, कोई सामाजिक दिशा निर्देश पाने के लिये .....और भी बहुत से कारण हो सकते हैं। किसी के शोधपत्र का विषय था-" रामचरित मानस में जड़ीबूटियों का उल्लेख"।

त्रेता युग में न तो वाल्मीकि जी थे और न तुलसीदास जी। इन्होंने कैसे लिखा राम के बारे में? क्या था आधार? दो थे आधार- श्रुत और कल्पना। लोकरंजन हेतु सामाजिक विषयों पर लिखने के लिये हम जिस कल्पना का सहारा लेते हैं उसे फ़िक्शन कहते हैं आप। और वैज्ञानिक कल्पनाओं को कहते हैं हाइपोथीसिस। बिना हाइपोथीसिस के विज्ञान उड़ान भरेगा कैसे?

वाल्मीकि जी और तुलसी दास जी साहित्यकार थे वैज्ञानिक नहीं । उनके प्रति हमारी श्रद्धा हो सकती है , भारत के राष्ट्रापति के प्रति हमारी श्रद्धा हो सकती है ...और भी कइयों के प्रति हमारी श्रद्धा हो सकती है। किंतु श्रद्धा होना और भगवान का प्रतिरूप मान लेना या अवतारी घोषित कर देना अलग बात है। अब्दुल कलाम जी के प्रति हमारी श्रद्धा है पर जब वे बाहर जाते हैं तो वहाँ वे अपने प्रति लोगों का भिन्न आचरण पाते हैं। हम इस बारे में कोई सर्वमान्य बाध्यकारी नियम नहीं बना सकते।

भारत की संस्कृति को जीवित रखना है तो निरंतर परिमार्जन करना पड़ेगा। हम ऐसा नहींकर पाते इसीलिये रूढ़ियों में जकड़े हुये हैं। धार्मिक गाथाओं को या किसी भी गाथा को किसी एक ही फ़्रेम में बाँधकर रखना घातक होगा। फ़्रेम में बाँध देने से आम जनता चमत्कार की आभासी दुनिया से आगे नहीं बढ सकेगी।

सोमवार, 14 मई 2012

शिवभक्त दशानन की रस साधना

  ह बात अज्ञात है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी रावण के हाथ में कितनी ब्रेन लाइंस थीं..... कम से कम दो तो रही ही होंगी या फिर हो सकता है कि दो से भी अधिक रही हों। किंतु इतना तो तय है कि उसे दशानन की उपाधि यूँ ही नहीं दे दी गयी थी। ज्ञान और कला के समस्त विषयों में उसकी प्रवीणता जहाँ उसे दशानन की अद्भुत...अपूर्व उपाधि से विभूषित किये जाने का कारण बनी तो वहीं अपनी प्रतिभा के अन्धप्रयोग और जुनून ने उसे युद्ध में अकाल मृत्यु का श्राप भी दे दिया था।
  रावण की शिवभक्ति जगत प्रसिद्ध थी। सच्ची भक्ति उसी में होती है जिसमें हमारा दृढ़विश्वास होता है। रावण को शिव और पार्वती में अगाध श्रद्धा थी। शिव और पार्वती के प्रति श्रद्धा तो राम को भी बहुत थी किंतु उनकी यह श्रद्धा अपने आराध्य के अलौकिक स्वरूप में थी जबकि रावण की श्रद्धा अपने आराध्य के लौकिक स्वरूप में थी। अपने लौकिक स्वरूप में शिव न केवल टॉक्जिकोलॉजी अपितु केमिस्ट्री के भी प्रतीक थे। यही कारण है कि गुरुकुल में अन्य 'राजार्ह ' विषयों के अध्ययन के साथ-साथ चिकित्साशास्त्र के अध्ययन में, और उसमें भी जेनेटिक्स, फ़ॉर्मेको-जेनेटिक्स और फ़ॉर्मेको-डायनामिक्स में रावण की विशेष रुचि थी। यह जनश्रुति थी कि लंकेश ने शिव के वीर्य और पार्वती के रज को बड़ी कठिन साधना से सिद्ध कर लिया है। यह साधना रस-साधना की प्रारम्भिक किंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धि मानी जाती है। उस समय के बड़े-बड़े रसशास्त्रज्ञ भी शिववीर्य के तेज के आगे अपनी पराजय स्वीकार कर चुके थे।
   काल की माँग होने से आगे की कथा कहने से पूर्व एक तकनीकी पट को अनावृत कर देना आवश्यक है। त्रेता युग में प्रचलित वैज्ञानिक शब्दावली आज रूढ़ हो चुकी है इसलिये उसे लेकर कलियुग में अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी सम्भावना है। तो लीजिये, पट का अनावरण कर रहा हूँ, परिचित होइये त्रेतायुगीन तकनीकी शब्दावली से। उस काल की टर्मिनोलॉजी के अनुसार तब मर्करी को शिव का वीर्य कहा जाता था और पार्वती के रज को गन्धक।
   पारद के चंचल स्वभाव और तेज से उस समय के सभी फ़ॉर्मेकोलॉजिस्ट परिचित थे। पारद से स्वर्ण और जीवन रक्षक औषधियाँ बनाने के लिये सभी तत्कालीन वैज्ञानिक दिन-रात एक किये दे रहे थे। स्वर्ण तो रावण भी नहीं बना सका किंतु पारद सिद्धि से उसे जो “रस“ प्राप्त हुआ उसने लंका के लिये द्वीप-द्वीपांतरों से फ़ॉरेन करेंसी के रूप में स्वर्ण की बरसात कर दी थी। रावण द्वारा प्राप्त “रस” के विज्ञान को ही बाद में “रस कल्पना” या “रसशास्त्र” के नाम से जगत में प्रसिद्धि प्राप्त हुयी।
   उत्कृष्ट वनौषधियों की उपलब्धता के कारण आर्यावर्त के दक्षिण भाग में स्थित अपने कुछ उपनिवेशों में रावण ने अपनी प्रसिद्ध रसशालायें स्थापित कर रखी थीं। अनवरत साधना के पश्चात पारद के चांचल्य पर रावण को अंततः विजय प्राप्त हुयी। रावण ने अपने प्रयोगों के अध्ययन से पाया कि वनौषधियों के स्वरस से शोधित पारद में एक निश्चित मात्रा में गन्धक मिला कर मर्दन करते रहने से पारद का बन्धन सम्भव है। जिस प्रकार वीर्य में रहने वाले शुक्राणु की चंचलता डिम्ब से संयोग होते ही समाप्त हो जाती है उसी तरह पारद की चंचलता गन्धक के संयोग से समाप्त हो जाती है। तुल्य गुणधर्मी होने के कारण गन्धक को पार्वती के रज की संज्ञा इसीलिये प्राप्त हुयी.....अन्यथा देवों, मनुष्यों और राक्षसों के आराध्य शिव और पार्वती तो निर्गुण, निराकार, अनादि और अनंत हैं। वहाँ इहलोक के अर्थ वाले कहाँ वीर्य और कहाँ रज? किंतु प्राच्य भारतीय वैज्ञानिक शब्दावली तो आध्यात्मिकता से प्रभावित थी ......ऐसा नामकरण तो होना ही था।
   पारद और गन्धक के रासायनिक संयोग से प्राप्त केमिकल कम्पाउण्ड को “रस” की संज्ञा दी गयी। इस रस और वनस्पतियों के संयोग से निर्मित आयुर्वेदिक औषधियों को इस कलियुग में भी रस ही कहा जाता है। रावण का ऐसा विश्वास था कि इस रस से निर्मित औषधियों के युक्तियुक्त प्रयोग से मनुष्य के “बीजभाग अवयव”, जिसे कलियुग की म्लेच्छ भाषा में “जींस” की संज्ञा दी गयी है, की प्रकृति में परिवर्तन सम्भव है। जींस की प्रकृति में इच्छानुरूप परिवर्तन जेनेटिक इंजीनियरिंग का मूल उद्देश्य है। कलियुग के वैज्ञानिकों की तरह ही रावण भी प्रकृति से छेड़छाड़ का प्रेमी था। प्रकृति की शक्तियों पर विजय प्राप्त करना रावण की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी। वह अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुरूप मनुष्य संतति में विशेष गुणाधान कर मनुष्य की विशेष प्रजाति उत्पन्न करना चाहता था जिसमें बलिष्ठता, निरोगता, चिरयौवन, आधानित गुण सम्पन्नता अर्थात जेनेटिकली मोडीफ़ाइड ट्रेट्स और इच्छामृत्यु के गुण होते।
  रावण का अपने भौतिक प्रयोगों की एकांगी सोच के कारण आर्यावर्त के ऋषियों की आध्यात्म साधना से गम्भीर विरोध था। उसके अनुसार अध्यात्मिक साधना व्यष्टिगत लाभ के लिये तो ठीक है किंतु बहुसंख्य आमजनता के लिये उसकी कोई समष्टिगत उपादेयता नहीं है। वह व्यक्तिगत प्रतिभाओं की सार्वजनिक उपादेयता का प्रबल पक्षधर था और वैज्ञानिक उपलब्धियों एवं प्रकृति में उपलब्ध भौतिक संसाधनों के उपयोग से अपने राज्य की उन्नति के साथ-साथ प्राकृतिक या कृत्रिम आपदाओं से जनता की रक्षा करने के लिये कटिबद्ध था। अपने वैज्ञानिक व्यवहारवाद को रावण ने “रक्ष” संस्कृति का नाम दिया जिसके कारण वह राक्षस कहलाया। 
  लंकाधिपति रावण प्रकृति की शक्तियों को जीतने के लिये आजीवन संघर्ष करता रहा किंतु वह लंका के उष्ण  और ह्यूमिड वातावरण को जीत न सका। उसके सारे उपाय निष्फल होते जा रहे थे। उसे जेनेटिक़ इंजीनियरिंग और फ़ॉर्मेको-जेनेटिक्स के अनुसन्धान के लिये आर्यावर्त के अपेक्षाकृत शीतल वातावरण में अपनी प्रयोगशालायें स्थापित करने की महती आवश्यकता थी। अपने उत्कृष्ट प्राकृतिक संसाधनों की सर्व सुलभता के कारण आर्यावर्त वैज्ञानिक प्रयोगों के लिये एक आदर्श स्थान के रूप में मान्य था।
   उधर हिमालय की ओर, आर्यावर्त के उत्तरी भाग के ऋषियों ने स्वस्थ्य रहने के लिये आत्मसंयम, प्रकृति अनुकूल जीवनवृत्ति, आचरण की शुद्धता आदि स्वस्थ्यवृत्त के नियमों पर अधिक बल दिया। तथापि, वहाँ रुग्ण होने पर वानस्पतिक औषधियों के प्रयोग का प्रचलन भी वर्ज्य नहीं था।
  त्रेता युग में बौद्धिक सम्पदा के पेटेंट का विचार तक किसी के मन में नहीं था। आर्यावर्त के उत्तरी भाग में रावण ने न केवल “रस” निर्मित रसौषधियों का प्रचार किया अपितु मुक्त हृदय से अपनी वैज्ञानिक तकनीकों एवम उपलब्धियों को भी सर्वसुलभ करवाया। अपने इस योगदान के प्रतिफल में वह आर्यावर्त के शीतल भागों में अपनी इनविवो फ़र्टीलाइजेशन और जेनेटिक इंजीनियरिंग की प्रयोगशालायें स्थापित करना चाहता था जहाँ वह अपने सर्वाधिक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर कार्य कर पाता।
   यद्यपि मिथिलाधिपति विदेहराज जनक ने उसे अपने राज्य में उपलब्ध संसाधनों के प्रयोग की अनुमति प्रदान कर दी किंतु प्रकृति की व्यवस्था कुछ ऐसी है कि जब उसके रहस्यों की गोपनीयता एक सीमा से अधिक भंग होने लगती है और उसके नियंत्रण को अन्य शक्तियाँ अपने हाथ में लेने का प्रयास करने लगती हैं तो अन्य शक्तियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और प्रकृति के अति गोपन रहस्य सुरक्षित बने रहते हैं।
   रावण के साथ भी ऐसा ही हुआ। मन्दोदरी के लाख अनुनय विनय करने पर भी वह जेनेटिकली मोडीफ़ाय़ड मनुष्य उत्पन्न करने के प्रोजेक्ट की पूर्ति के लिये दशरथ की कुलवधू,  अपनी प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी सीता का छलपूर्वक अपहरण कर लाया और उसके लिये युद्ध तक के लिये तैयार हो गया।
   मनुष्य समाज में पत्नी का अपहरण अत्यंत दुःख और लज्जा का विषय माना जाता है। राम के लिये तो यह और भी दुःखदायी था क्योंकि जो सीता राम की दृष्टि में एक सर्वगुण सम्पन्न अर्धांगिनी थी वही सीता रावण की दृष्टि में थी मात्र एक गिनी पिग।
   राम ने अपने परम भक्त हनुमान को सीता का पता लगाने के लिये लंका भेजने का निश्चय किया। राम को यद्यपि यह तो पता चल गया था कि रावण ने सीता को लंका में ही कहीं रखा है किसी अन्य द्वीप में नहीं पर वे स्थान और स्थिति को सुनिश्चित कर लेना चाहते थे। हनुमान ने अशोक वाटिका स्थित राजकीय अतिथि गृह में नज़रबन्द रखी गयी सीता से चर्चा की। सीता के मुँह से यह सुनकर कि वे रावण के प्रोजेक्ट में प्रयोग की वस्तु बनने की अपेक्षा सुसाइड कर लेना पसन्द करेंगी, हनुमान अत्यंत प्रसन्न हुये। उन्हें विश्वास हो गया कि सीता ने अभी तक रावण को अपनी कंसेंट नहीं दी है। उन्होंने सीता को सहानुभूतिपूर्वक विश्वास दिलाया कि महाबली बालि पर विजय प्राप्त कर चुके राम के लिये रावण की क्या बिसात! महाकूटनीतिज्ञ राम ऐनकेन प्रकारेण सीता को मुक्त करा ही लेंगे अतः उन्हें सुसाइड के बारे में तो सोचना भी नहीं चाहिये।
   एक जासूस के रूप में हनुमान बहुत अच्छे प्रमाणित हुये। उन्होंने सीता का पता तो लगाया ही, जानबूझ कर कुछ गड़बड़ियाँ भी कर दीं जिसके कारण वे रावण के सैनिकों द्वारा न केवल पकड़े गये अपितु अपने अपराध के लिये दण्डित भी किये गये। दण्ड पाने के बाद अपनी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार चतुर हनुमान ने पूरी लंका में घूम-घूम कर अंतर्राष्ट्रीय नियमों की दुहाई देते हुये स्वयं को दण्डित किये जाने का प्रचार किया और राम के प्रति लंकावासियों की सहानुभूति पाने की रणनीतिक सफलता अर्जित कर ली।
   शीघ्र ही पूरी लंका में यह सूचना आग की तरह फैल गयी कि रावण ने अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करते हुये आर्यावर्त के जासूस को दण्डित किया है। पूरी लंका में रावणराज के विरुद्ध आग फैल गयी। अब सोने की लंका को राख होने से कोई नहीं बचा सकता था। उसके संपूर्ण भौतिक संसाधन और धनसम्पदा युद्ध की भेंट चढ़ने की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।
   सीता के बारे में सुनिश्चित हो जाने और राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की अनुशंसा मिल जाने पर राम ने अंगद को रावण के पास कम्प्रोमाइज़ के लिये भेजा। अंगद ने रावण के दरबार में जाकर तर्क दिया कि सीता को मानवीय आधार पर निःशर्त मुक्त कर दिया जाना चाहिये, सीता को गिनी पिग की तरह प्रयोगों के लिये प्रयुक्त करना मानवीय संवेदनाओं की हत्या करना है।
   रावण के सिर पर तो जेनेटिक्स का भूत सवार था, उसने तर्क दिया कि मानवीय संवेदनाओं की दुहाई के आधार पर तो वह कभी भी इस प्रयोग को कर ही नहीं पायेगा।
   अंगद ने प्रतिवाद किया था कि आवश्यकता ही क्या है? ऐसे ऊटपटाँग प्रयोगों से वह किसका भला करना चाहता है?
   रावण की निष्ठा मानवीय संवेदनाओं से अधिक अपने ड्रीम प्रोज़ेक्ट के प्रति थी। उसने कहा कि वह मानवीय संवेदनाओं का सम्मान करता है और सीता के साथ बिना उनकी लिखित कंसेंट के कोई प्रयोग नहीं करेगा। इतना ही नहीं अपितु रावण ने तो उल्टे अंगद को ही यह सलाह दे डाली कि अंगद स्वयं भी सीता को इस प्रोजेक्ट में सहयोग के लिये तैयार करने में रावण का सहयोग करे।
   रावण के लिये उसका वैज्ञानिक प्रोजेक्ट मूल्यवान था जब कि अंगद के लिये मूल्यवान था राम के साथ किया गया अपना राजनीतिक अनुबन्ध। कोई भी अपने मूल्यों को त्यागने के लिये तैयार न था। क्रोधित अंगद ने शक्ति परीक्षण हेतु रावण को वहीं उसके दरबार में चेलेंज कर दिया जो कि उस समय के अंतर्राष्ट्रीय दूत नियमों के विरुद्ध था।
  रावण अपने वैज्ञानिक प्रयोगों की व्यस्तता के कारण अपनी जनता से दूर होता चला गया था। अंगद ने उत्तर कोशल की  लोकलुभावन लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वप्न दिखाकर रावण के कठोर अनुशासन से त्रस्त लंकावासियों को युद्ध के समय राम का साथ देने के लिये तैयार कर लिया। अंगद की सबसे बड़ी सफलता थी रावण के भाई विभीषण को राम के पक्ष में कर लेना।
 
 अंगद वापस राम के बेस कैम्प में पहुँचे, और अपनी कूटनीतिक सफलता का समाचार दिया। पूरी सेना हर्षोल्लास से जय-जयकार करने लगी।
   देखते ही देखते युद्ध की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गयीं। हृदय की कोमल संवेदनाओं और मस्तिष्क की निष्ठुर प्रखरता के बीच का वैचारिक युद्ध रक्त युद्ध में बदलने जा रहा था।
  राम नें लंका पर चढ़ाई कर दी। रावण को पराजित कर पाना आसान नहीं था किंतु शीघ्र ही राम की कूटनीति के परिणाम सामने आने प्रारम्भ हो गये। रावण की रणनीति के सारे भेद राम को पहले ही ज्ञात हो जाते थे। रावण की यह सबसे बड़ी रणनीतिक दुर्बलता थी जिसका लाभ राम को मिला।         
  महाबली, महापराक्रमी, अद्भुत प्रतिभाओं का धनी रावण अपनी अतृप्त ऐषणाओं के साथ ही राम के साथ युद्ध करते हुये पंचत्व में लीन हुआ। और इसके साथ ही त्रेतायुग के एक महान वैज्ञानिक अध्याय का भी अंत हो गया।   
  मरते समय रावण ने राम को श्राप देते हुये कहा कि “हे राम! तुमने मेरे वैज्ञानिक प्रयोगों में बाधा पहुँचायी और छलपूर्वक मेरी हत्या की है इसलिये मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि कलियुग में तुम्हारे वंशजों को सामूहिक रूप से मल्टीनेशनल कम्पनीज के प्रयोगों के लिये गिनी पिग बनना पड़ेगा।“
   आज म्लेच्छ देशों के लिये भारत एक जीवित प्रयोगशाला है जिसमें जीवित मनुष्यों पर विभिन्न औषधियों के प्रयोग किये जाते हैं। तब त्रेता में केवल एक सीता को गिनी पिग बनाये जाने के कारण भयानक युद्ध हुआ था किंतु कलियुग में रावण के श्राप के कारण पूरे भारत की कोटि-कोटि निरीह जनता गिनी पिग बनने को विवश हो गयी।  
  प्रकृति का अनावरण एक सीमा तक तो क्षम्य है किंतु उसके बाद कदापि नहीं। राम वैज्ञानिक प्रयोगों के कट्टर विरोधी नहीं थे किंतु जिस तरह रावण अपने जेनेटिक प्रयोगों द्वारा प्रकृति की क्रियेटिव शक्ति को अपने नियंत्रण में लेना चाह रहा था वह भविष्य के लिये अशुभ था। ऐसी उपलब्धियों के सदुपयोग के स्थान पर दुरुपयोग की सम्भावनायें ही अधिक प्रबल हुआ करती हैं। राम अपनी इसी दूरदर्शिता के कारण आर्यावर्त में एक लम्बे समय तक आध्यात्मिक वातावरण बनाये रख सकने में सफल रहे थे। 
  अब पुनः, कलियुग के इस काल खण्ड में वैज्ञानिकों की अभिरुचि जेनेटिक इंजीनियरिंग की ओर बढ़ती जा रही है। भिण्डी, टमाटर, बैंगन आदि वनस्पतियों में मेढक, छिपकली आदि प्राणियों के बीजभाग अवयव के प्रत्यारोपण द्वारा वनस्पति और प्राणियों के बीच की प्राकृतिक सीमा रेखा का उल्लंघन कर चुके कलियुगी वैज्ञानिक रावण की महत्वाकांक्षी योजना को पुनर्जीवित करने में लगे हुये हैं। रावण की आत्मा इतने युगों बाद पुनः अपने अस्तित्व में आ रही है।      
सनातन धर्म की जय हो!!!

कथायें अपने साथ कुछ सन्देश लेकर आती हैं। कहा नहीं जा सकता कि कलियुग के वैज्ञानिक इस कथा से कितना और क्या सन्देश ग्रहण कर सकेंगे। 

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