यह बात अज्ञात है कि बहुमुखी प्रतिभा के
धनी रावण के हाथ में कितनी ब्रेन लाइंस थीं..... कम से कम दो तो रही ही होंगी या
फिर हो सकता है कि दो से भी अधिक रही हों। किंतु इतना तो तय है कि उसे दशानन की
उपाधि यूँ ही नहीं दे दी गयी थी। ज्ञान और कला के समस्त विषयों में उसकी प्रवीणता जहाँ
उसे दशानन की अद्भुत...अपूर्व उपाधि से विभूषित किये जाने का कारण बनी तो वहीं अपनी
प्रतिभा के अन्धप्रयोग और जुनून ने उसे युद्ध में अकाल मृत्यु का श्राप भी दे दिया
था।
रावण की शिवभक्ति जगत प्रसिद्ध थी। सच्ची
भक्ति उसी में होती है जिसमें हमारा दृढ़विश्वास होता है। रावण को शिव और पार्वती
में अगाध श्रद्धा थी। शिव और पार्वती के प्रति श्रद्धा तो राम को भी बहुत थी किंतु
उनकी यह श्रद्धा अपने आराध्य के अलौकिक स्वरूप में थी जबकि रावण की श्रद्धा अपने
आराध्य के लौकिक स्वरूप में थी। अपने लौकिक स्वरूप में शिव न केवल टॉक्जिकोलॉजी अपितु केमिस्ट्री के भी
प्रतीक थे। यही कारण है कि गुरुकुल में अन्य 'राजार्ह ' विषयों के अध्ययन के साथ-साथ
चिकित्साशास्त्र के अध्ययन में, और उसमें भी जेनेटिक्स, फ़ॉर्मेको-जेनेटिक्स और
फ़ॉर्मेको-डायनामिक्स में रावण की विशेष रुचि थी। यह जनश्रुति थी कि लंकेश ने शिव
के वीर्य और पार्वती के रज को बड़ी कठिन साधना से सिद्ध कर लिया है। यह साधना
रस-साधना की प्रारम्भिक किंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धि मानी जाती है। उस समय के
बड़े-बड़े रसशास्त्रज्ञ भी शिववीर्य के तेज के आगे अपनी पराजय स्वीकार कर चुके थे।
काल की माँग होने से आगे की कथा कहने से
पूर्व एक तकनीकी पट को अनावृत कर देना आवश्यक है। त्रेता युग में प्रचलित
वैज्ञानिक शब्दावली आज रूढ़ हो चुकी है इसलिये उसे लेकर कलियुग में अर्थ का अनर्थ
होने की पूरी-पूरी सम्भावना है। तो लीजिये, पट का अनावरण कर रहा हूँ, परिचित होइये त्रेतायुगीन तकनीकी शब्दावली से। उस काल की
टर्मिनोलॉजी के अनुसार तब मर्करी को शिव का वीर्य कहा जाता था और पार्वती के रज को
गन्धक।
पारद के चंचल स्वभाव और तेज से उस समय के
सभी फ़ॉर्मेकोलॉजिस्ट परिचित थे। पारद से स्वर्ण और जीवन रक्षक औषधियाँ बनाने के लिये
सभी तत्कालीन वैज्ञानिक दिन-रात एक किये दे रहे थे। स्वर्ण तो रावण भी नहीं बना
सका किंतु पारद सिद्धि से उसे जो “रस“ प्राप्त हुआ उसने लंका के लिये द्वीप-द्वीपांतरों से फ़ॉरेन करेंसी के रूप में स्वर्ण की बरसात कर दी थी। रावण द्वारा प्राप्त
“रस” के विज्ञान को ही बाद में “रस कल्पना” या “रसशास्त्र” के नाम से जगत में
प्रसिद्धि प्राप्त हुयी।
उत्कृष्ट वनौषधियों की उपलब्धता के कारण
आर्यावर्त के दक्षिण भाग में स्थित अपने कुछ उपनिवेशों में रावण ने अपनी प्रसिद्ध रसशालायें
स्थापित कर रखी थीं। अनवरत साधना के पश्चात पारद के चांचल्य पर रावण को अंततः विजय
प्राप्त हुयी। रावण ने अपने प्रयोगों के अध्ययन से पाया कि वनौषधियों के स्वरस से शोधित
पारद में एक निश्चित मात्रा में गन्धक मिला कर मर्दन करते रहने से पारद का बन्धन
सम्भव है। जिस प्रकार वीर्य में रहने वाले शुक्राणु की चंचलता डिम्ब से संयोग होते
ही समाप्त हो जाती है उसी तरह पारद की चंचलता गन्धक के संयोग से समाप्त हो जाती
है। तुल्य गुणधर्मी होने के कारण गन्धक को पार्वती के रज की संज्ञा इसीलिये
प्राप्त हुयी.....अन्यथा देवों, मनुष्यों और राक्षसों के आराध्य शिव और पार्वती तो
निर्गुण, निराकार, अनादि और अनंत हैं। वहाँ इहलोक के अर्थ वाले कहाँ वीर्य और कहाँ
रज? किंतु प्राच्य भारतीय वैज्ञानिक शब्दावली तो आध्यात्मिकता से प्रभावित थी
......ऐसा नामकरण तो होना ही था।
पारद और गन्धक के रासायनिक संयोग से
प्राप्त केमिकल कम्पाउण्ड को “रस” की संज्ञा दी गयी। इस रस और वनस्पतियों के संयोग
से निर्मित आयुर्वेदिक औषधियों को इस कलियुग में भी रस ही कहा जाता है। रावण का ऐसा विश्वास था कि इस रस से निर्मित
औषधियों के युक्तियुक्त प्रयोग से मनुष्य के “बीजभाग अवयव”, जिसे कलियुग की
म्लेच्छ भाषा में “जींस” की संज्ञा दी गयी है, की प्रकृति में परिवर्तन सम्भव है।
जींस की प्रकृति में इच्छानुरूप परिवर्तन जेनेटिक इंजीनियरिंग का मूल उद्देश्य है।
कलियुग के वैज्ञानिकों की तरह ही रावण भी प्रकृति से छेड़छाड़ का प्रेमी था। प्रकृति
की शक्तियों पर विजय प्राप्त करना रावण की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी। वह अपनी
इच्छा और आवश्यकता के अनुरूप मनुष्य संतति में विशेष गुणाधान कर मनुष्य की विशेष
प्रजाति उत्पन्न करना चाहता था जिसमें बलिष्ठता, निरोगता, चिरयौवन, आधानित गुण
सम्पन्नता अर्थात जेनेटिकली मोडीफ़ाइड ट्रेट्स और इच्छामृत्यु के गुण होते।
रावण का अपने भौतिक प्रयोगों की एकांगी
सोच के कारण आर्यावर्त के ऋषियों की आध्यात्म साधना से गम्भीर विरोध था। उसके
अनुसार अध्यात्मिक साधना व्यष्टिगत लाभ के लिये तो ठीक है किंतु बहुसंख्य आमजनता
के लिये उसकी कोई समष्टिगत उपादेयता नहीं है। वह व्यक्तिगत प्रतिभाओं की सार्वजनिक
उपादेयता का प्रबल पक्षधर था और वैज्ञानिक उपलब्धियों एवं प्रकृति में उपलब्ध
भौतिक संसाधनों के उपयोग से अपने राज्य की उन्नति के साथ-साथ प्राकृतिक या कृत्रिम
आपदाओं से जनता की रक्षा करने के लिये कटिबद्ध था। अपने वैज्ञानिक व्यवहारवाद को
रावण ने “रक्ष” संस्कृति का नाम दिया जिसके कारण वह राक्षस कहलाया।
लंकाधिपति रावण प्रकृति की शक्तियों को
जीतने के लिये आजीवन संघर्ष करता रहा किंतु वह लंका के उष्ण और ह्यूमिड वातावरण को जीत न सका। उसके सारे
उपाय निष्फल होते जा रहे थे। उसे जेनेटिक़ इंजीनियरिंग और फ़ॉर्मेको-जेनेटिक्स के
अनुसन्धान के लिये आर्यावर्त के अपेक्षाकृत शीतल वातावरण में अपनी प्रयोगशालायें
स्थापित करने की महती आवश्यकता थी। अपने उत्कृष्ट प्राकृतिक संसाधनों की सर्व सुलभता के कारण आर्यावर्त वैज्ञानिक प्रयोगों के लिये एक आदर्श स्थान के रूप में मान्य था।
उधर हिमालय की ओर, आर्यावर्त के उत्तरी
भाग के ऋषियों ने स्वस्थ्य रहने के लिये आत्मसंयम, प्रकृति अनुकूल जीवनवृत्ति,
आचरण की शुद्धता आदि स्वस्थ्यवृत्त के नियमों पर अधिक बल दिया। तथापि, वहाँ रुग्ण
होने पर वानस्पतिक औषधियों के प्रयोग का प्रचलन भी वर्ज्य नहीं था।
त्रेता युग में
बौद्धिक सम्पदा के पेटेंट का विचार तक किसी के मन में नहीं था। आर्यावर्त के
उत्तरी भाग में रावण ने न केवल “रस” निर्मित रसौषधियों का प्रचार किया अपितु मुक्त
हृदय से अपनी वैज्ञानिक तकनीकों एवम उपलब्धियों को भी सर्वसुलभ करवाया। अपने इस
योगदान के प्रतिफल में वह आर्यावर्त के शीतल भागों में अपनी इनविवो फ़र्टीलाइजेशन
और जेनेटिक इंजीनियरिंग की प्रयोगशालायें स्थापित करना चाहता था जहाँ वह अपने
सर्वाधिक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर कार्य कर पाता।
यद्यपि मिथिलाधिपति विदेहराज
जनक ने उसे अपने राज्य में उपलब्ध संसाधनों के प्रयोग की अनुमति प्रदान कर दी
किंतु प्रकृति की व्यवस्था कुछ ऐसी है कि जब उसके रहस्यों की गोपनीयता एक सीमा से
अधिक भंग होने लगती है और उसके नियंत्रण को अन्य शक्तियाँ अपने हाथ में लेने का
प्रयास करने लगती हैं तो अन्य शक्तियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और
प्रकृति के अति गोपन रहस्य सुरक्षित बने रहते हैं।
रावण के साथ भी ऐसा ही हुआ। मन्दोदरी के
लाख अनुनय विनय करने पर भी वह जेनेटिकली मोडीफ़ाय़ड मनुष्य उत्पन्न करने के
प्रोजेक्ट की पूर्ति के लिये दशरथ की कुलवधू,
अपनी प्रथम टेस्ट ट्यूब बेबी सीता का छलपूर्वक अपहरण कर लाया और उसके लिये
युद्ध तक के लिये तैयार हो गया।
मनुष्य समाज में पत्नी का अपहरण अत्यंत
दुःख और लज्जा का विषय माना जाता है। राम के लिये तो यह और भी दुःखदायी था क्योंकि
जो सीता राम की दृष्टि में एक सर्वगुण सम्पन्न अर्धांगिनी थी वही सीता रावण की
दृष्टि में थी मात्र एक गिनी पिग।
राम ने अपने परम भक्त हनुमान को सीता का
पता लगाने के लिये लंका भेजने का निश्चय किया। राम को यद्यपि यह तो पता चल गया था
कि रावण ने सीता को लंका में ही कहीं रखा है किसी अन्य द्वीप में नहीं पर वे स्थान
और स्थिति को सुनिश्चित कर लेना चाहते थे। हनुमान ने अशोक वाटिका स्थित राजकीय
अतिथि गृह में नज़रबन्द रखी गयी सीता से चर्चा की। सीता के मुँह से यह सुनकर कि वे
रावण के प्रोजेक्ट में प्रयोग की वस्तु बनने की अपेक्षा सुसाइड कर लेना पसन्द
करेंगी, हनुमान अत्यंत प्रसन्न हुये। उन्हें विश्वास हो गया कि सीता ने अभी तक
रावण को अपनी कंसेंट नहीं दी है। उन्होंने सीता को सहानुभूतिपूर्वक विश्वास दिलाया
कि महाबली बालि पर विजय प्राप्त कर चुके राम के लिये रावण की क्या बिसात!
महाकूटनीतिज्ञ राम ऐनकेन प्रकारेण सीता को मुक्त करा ही लेंगे अतः उन्हें सुसाइड
के बारे में तो सोचना भी नहीं चाहिये।
एक जासूस के रूप में हनुमान बहुत अच्छे
प्रमाणित हुये। उन्होंने सीता का पता तो लगाया ही, जानबूझ कर कुछ गड़बड़ियाँ भी कर दीं
जिसके कारण वे रावण के सैनिकों द्वारा न केवल पकड़े गये अपितु अपने अपराध के लिये
दण्डित भी किये गये। दण्ड पाने के बाद अपनी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार चतुर
हनुमान ने पूरी लंका में घूम-घूम कर अंतर्राष्ट्रीय नियमों की दुहाई देते हुये
स्वयं को दण्डित किये जाने का प्रचार किया और राम के प्रति लंकावासियों की
सहानुभूति पाने की रणनीतिक सफलता अर्जित कर ली।
शीघ्र ही पूरी लंका में यह सूचना आग की
तरह फैल गयी कि रावण ने अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करते हुये आर्यावर्त के
जासूस को दण्डित किया है। पूरी लंका में रावणराज के विरुद्ध आग फैल गयी। अब सोने की लंका
को राख होने से कोई नहीं बचा सकता था। उसके संपूर्ण भौतिक संसाधन और धनसम्पदा युद्ध की भेंट चढ़ने की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।
सीता के बारे में सुनिश्चित हो जाने और
राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की अनुशंसा मिल जाने पर राम ने अंगद को रावण के पास कम्प्रोमाइज़ के
लिये भेजा। अंगद ने रावण के दरबार में जाकर तर्क दिया कि सीता को मानवीय आधार पर
निःशर्त मुक्त कर दिया जाना चाहिये, सीता को गिनी पिग की तरह प्रयोगों के लिये
प्रयुक्त करना मानवीय संवेदनाओं की हत्या करना है।
रावण के सिर पर तो जेनेटिक्स का भूत सवार
था, उसने तर्क दिया कि मानवीय संवेदनाओं की दुहाई के आधार पर तो वह कभी भी इस
प्रयोग को कर ही नहीं पायेगा।
अंगद ने प्रतिवाद किया था कि आवश्यकता ही
क्या है? ऐसे ऊटपटाँग प्रयोगों से वह किसका भला करना चाहता है?
रावण की निष्ठा मानवीय संवेदनाओं से अधिक
अपने ड्रीम प्रोज़ेक्ट के प्रति थी। उसने कहा कि वह मानवीय संवेदनाओं का सम्मान
करता है और सीता के साथ बिना उनकी लिखित कंसेंट के कोई प्रयोग नहीं करेगा। इतना ही
नहीं अपितु रावण ने तो उल्टे अंगद को ही यह सलाह दे डाली कि अंगद स्वयं भी सीता को
इस प्रोजेक्ट में सहयोग के लिये तैयार करने में रावण का सहयोग करे।
रावण के लिये उसका वैज्ञानिक प्रोजेक्ट
मूल्यवान था जब कि अंगद के लिये मूल्यवान था राम के साथ किया गया अपना राजनीतिक अनुबन्ध।
कोई भी अपने मूल्यों को त्यागने के लिये तैयार न था। क्रोधित अंगद ने शक्ति
परीक्षण हेतु रावण को वहीं उसके दरबार में चेलेंज कर दिया जो कि उस समय के
अंतर्राष्ट्रीय दूत नियमों के विरुद्ध था।
रावण अपने वैज्ञानिक प्रयोगों की
व्यस्तता के कारण अपनी जनता से दूर होता चला गया था। अंगद ने उत्तर कोशल की लोकलुभावन लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वप्न
दिखाकर रावण के कठोर अनुशासन से त्रस्त लंकावासियों को युद्ध के समय राम का साथ
देने के लिये तैयार कर लिया। अंगद की सबसे बड़ी सफलता थी रावण के भाई विभीषण को राम
के पक्ष में कर लेना।
अंगद वापस राम के बेस कैम्प में पहुँचे,
और अपनी कूटनीतिक सफलता का समाचार दिया। पूरी सेना हर्षोल्लास से जय-जयकार करने
लगी।
देखते ही देखते युद्ध की तैयारियाँ
प्रारम्भ हो गयीं। हृदय की कोमल संवेदनाओं और मस्तिष्क की निष्ठुर प्रखरता के बीच
का वैचारिक युद्ध रक्त युद्ध में बदलने जा रहा था।
राम नें लंका पर चढ़ाई कर दी। रावण को
पराजित कर पाना आसान नहीं था किंतु शीघ्र ही राम की कूटनीति के परिणाम सामने आने
प्रारम्भ हो गये। रावण की रणनीति के सारे भेद राम को पहले ही ज्ञात हो जाते थे।
रावण की यह सबसे बड़ी रणनीतिक दुर्बलता थी जिसका लाभ राम को मिला।
महाबली, महापराक्रमी, अद्भुत प्रतिभाओं का
धनी रावण अपनी अतृप्त ऐषणाओं के साथ ही राम के साथ युद्ध करते हुये पंचत्व में लीन
हुआ। और इसके साथ ही त्रेतायुग के एक महान वैज्ञानिक अध्याय का भी अंत हो गया।
मरते समय रावण ने राम को श्राप देते हुये कहा कि “हे राम! तुमने मेरे वैज्ञानिक
प्रयोगों में बाधा पहुँचायी और छलपूर्वक मेरी हत्या की है इसलिये मैं तुम्हें
श्राप देता हूँ कि कलियुग में तुम्हारे वंशजों को सामूहिक रूप से मल्टीनेशनल
कम्पनीज के प्रयोगों के लिये गिनी पिग बनना पड़ेगा।“
आज म्लेच्छ देशों के लिये भारत एक जीवित
प्रयोगशाला है जिसमें जीवित मनुष्यों पर विभिन्न औषधियों के प्रयोग किये जाते हैं।
तब त्रेता में केवल एक सीता को गिनी पिग बनाये जाने के कारण भयानक युद्ध हुआ था किंतु
कलियुग में रावण के श्राप के कारण पूरे भारत की कोटि-कोटि निरीह जनता गिनी पिग बनने
को विवश हो गयी।
प्रकृति का अनावरण एक सीमा तक तो क्षम्य है किंतु उसके बाद कदापि नहीं। राम वैज्ञानिक प्रयोगों के कट्टर विरोधी नहीं थे किंतु जिस तरह रावण अपने जेनेटिक प्रयोगों द्वारा प्रकृति की क्रियेटिव शक्ति को अपने नियंत्रण में लेना चाह रहा था वह भविष्य के लिये अशुभ था। ऐसी उपलब्धियों के सदुपयोग के स्थान पर दुरुपयोग की सम्भावनायें ही अधिक प्रबल हुआ करती हैं। राम अपनी इसी दूरदर्शिता के कारण आर्यावर्त में एक लम्बे समय तक आध्यात्मिक वातावरण बनाये रख सकने में सफल रहे थे।
अब पुनः, कलियुग के इस काल खण्ड में वैज्ञानिकों की अभिरुचि जेनेटिक इंजीनियरिंग की ओर बढ़ती जा रही है। भिण्डी, टमाटर, बैंगन आदि वनस्पतियों में मेढक, छिपकली आदि प्राणियों के बीजभाग अवयव के प्रत्यारोपण द्वारा वनस्पति और प्राणियों के बीच की प्राकृतिक सीमा रेखा का उल्लंघन कर चुके कलियुगी वैज्ञानिक रावण की महत्वाकांक्षी योजना को पुनर्जीवित करने में लगे हुये हैं। रावण की आत्मा इतने युगों बाद पुनः अपने अस्तित्व में आ रही है।
सनातन धर्म की जय हो!!!
कथायें अपने साथ कुछ सन्देश लेकर आती हैं।
कहा नहीं जा सकता कि कलियुग के वैज्ञानिक इस कथा से कितना और क्या सन्देश ग्रहण कर सकेंगे।