ईशावास्य उपनिषद् में कुल 18 मंत्र हैं। उपनिषद् का अध्येता इन मंत्रों के साथ ज्ञान के अलौकिक सागर का दर्शन करता है । उपनिषद् का प्रारम्भ "ॐ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ...." मंत्र से होता है। किंतु इससे पूर्व एक शांति मंत्र ......
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
आज हम अपनी चर्चा "ॐ" से प्रारम्भ करेंगे जो कि अपने आप में एक महामंत्र है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय की परम ऊर्जाओं को अपने में समाहित करने वाला यह मंत्र अद्भुत है। लोग इसका उच्चारण तीन प्रकार से करते हैं, क्रमशः - 'औम्', 'ओउम्' और 'अउम्'। इसका सही उच्चारण है 'ओउम्' किंतु मंत्र के रूप में सिद्ध करने के लिये इसका सही उच्चारण है 'अउम्' ।
'अ' की ध्वनि ऊर्जा सृष्टि का, 'उ' की ध्वनि ऊर्जा सृष्टि की स्थिति का एवम् 'म्' (अनुस्वार) की ध्वनि ऊर्जा सृष्टि के विलय का प्रतिनिधित्व करती है। मंत्र सिद्धि के लिये सुखासन या पद्मासन में बैठकर शांतचित्त हो सुखश्वास के साथ "अउम्" का उच्चारण किया जाना चाहिये। यद्यपि यह उपनिषद ज्ञान का उपदेश देता है कर्मकाण्ड का नहीं तथापि शांतिमंत्र के प्रथम मंत्र 'ॐ' की सिद्धि की वैज्ञानिक दृष्ट्या चर्चा किया जाना अप्रासंगिक नहीं है। मंत्र विज्ञान शुद्ध ध्वनि विज्ञान है, अतः मंत्र सिद्धि के समय ध्वनियों की ऊर्जा को उपयुक्त स्थान पर अनुभव किया जाना चाहिये। यथा, 'अ' के उच्चारण के कम्पन को नाभि में, 'उ' के उच्चारण के कम्पन को कण्ठ में और अनुस्वार के उच्चारण के कम्पन को मूर्धा और ओष्ठ में अनुभव किया जाना चाहिये।
कम्पन 'ऊर्जा' का प्रकट स्वरूप है अतः ॐ मात्र के चिंतन और उच्चारण से हम प्रकट ब्रह्माण्ड से अपना तादात्म्य बैठा पाने में सफल हो जाते हैं। प्रश्न उठ सकता है कि तादात्म्य की आवश्यकता क्यों है?
मनुष्य की सबसे बड़ी महात्वाकांक्षा प्रकृति का आद्योपांत रहस्योद्घाटन करने की रही है। वह अपने बारे में जानना चाहता है ...अपने चारो ओर के परिवेश के बारे में जानना चाहता है ...ब्रह्माण्ड के बारे जानना चाहता है।
जानने की समग्रता "उत्पत्ति, स्थिति और लय" को समझे बिना पूरी नहीं हो सकती। ॐ के उच्चारण से निकलने वाली ध्वनि ऊर्जा इन तीनो स्थितियों का स्थूल कार्यरूप है। मंत्र की सिद्धि हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाती है...कार्यभाव से कारणभाव की ओर ले जाती है। इस कारणभाव को जानना ही तो प्रकृति का रहस्योद्घाटन है। और यह जानने के लिये आवश्यक है प्रकट ब्रह्माण्ड से अपना तादात्म्य बैठाना।
मंत्र के अंत में तीन बार शांति का उच्चारण किया गया है। यहाँ एक सहज जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि तीन बार क्यों?
ब्रह्माण्ड की तीन स्थितियाँ हो सकती हैं - उत्पत्ति, स्थिति और लय। तीनों स्थितियों में शांति अभिप्रेत है इसलिये तीन बार शांति का उच्चारण करने की परम्परा है। यह शांति स्वीकार की शांति है .....यथावत स्वीकार। ब्रह्माण्ड की हर स्थिति को निर्मलमन से स्वीकारने की आकांक्षा है। किंतु इतना सरल नहीं है हर स्थिति को स्वीकार कर लेना, बड़ी कठिन साधना है यह। इसलिये मन को प्रकृतिस्थ करने, स्वीकारयोग्य बनाने के लिये तीन बार शांति का उच्चारण किये जाने का विधान है।
शेष चर्चा अगले अंक में ....