सोमवार, 25 जून 2012

ईशावास्योपनिषद् ....1

ईशावास्य उपनिषद्  में कुल 18 मंत्र हैं। उपनिषद् का अध्येता इन मंत्रों के साथ ज्ञान के अलौकिक सागर का दर्शन करता है । उपनिषद् का प्रारम्भ  "ॐ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ...." मंत्र से होता है। किंतु इससे पूर्व एक शांति मंत्र ......

"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ 

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥

आज हम अपनी चर्चा "ॐ" से प्रारम्भ करेंगे जो कि अपने आप में एक महामंत्र है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय की परम ऊर्जाओं को अपने में समाहित करने वाला यह मंत्र अद्भुत है। लोग इसका उच्चारण तीन प्रकार से करते हैं, क्रमशः  -   'औम्', 'ओउम्' और 'अउम्'। इसका सही उच्चारण है 'ओउम्' किंतु मंत्र के रूप में सिद्ध करने के लिये इसका सही उच्चारण है 'अउम्' ।

'अ' की ध्वनि ऊर्जा सृष्टि का, 'उ' की ध्वनि ऊर्जा सृष्टि की स्थिति का एवम् 'म्' (अनुस्वार) की ध्वनि ऊर्जा सृष्टि के विलय का प्रतिनिधित्व करती है। मंत्र सिद्धि के लिये सुखासन या पद्मासन में बैठकर शांतचित्त हो सुखश्वास के साथ "अउम्" का उच्चारण किया जाना चाहिये। यद्यपि यह उपनिषद ज्ञान का उपदेश देता है कर्मकाण्ड का नहीं तथापि शांतिमंत्र के प्रथम मंत्र  'ॐ' की सिद्धि की वैज्ञानिक दृष्ट्या चर्चा किया जाना अप्रासंगिक नहीं है। मंत्र विज्ञान शुद्ध ध्वनि विज्ञान है, अतः मंत्र सिद्धि के समय ध्वनियों की ऊर्जा को उपयुक्त स्थान पर अनुभव किया जाना चाहिये। यथा, 'अ' के उच्चारण के कम्पन को नाभि में, 'उ' के उच्चारण के कम्पन को कण्ठ में और अनुस्वार के उच्चारण के कम्पन को मूर्धा और ओष्ठ में अनुभव किया जाना चाहिये।

कम्पन 'ऊर्जा' का प्रकट स्वरूप है अतः  मात्र के चिंतन और उच्चारण से हम प्रकट ब्रह्माण्ड से अपना तादात्म्य बैठा पाने में सफल हो जाते हैं। प्रश्न उठ सकता है कि तादात्म्य की आवश्यकता क्यों है?

मनुष्य की सबसे बड़ी महात्वाकांक्षा प्रकृति का आद्योपांत रहस्योद्घाटन करने की रही है। वह अपने बारे में जानना चाहता है ...अपने चारो ओर के परिवेश के बारे में जानना चाहता है ...ब्रह्माण्ड के बारे जानना चाहता है।
जानने की समग्रता "उत्पत्ति, स्थिति और लय" को समझे बिना पूरी नहीं हो सकती।   के उच्चारण से निकलने वाली ध्वनि ऊर्जा इन तीनो स्थितियों का स्थूल कार्यरूप है। मंत्र की सिद्धि हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाती है...कार्यभाव से कारणभाव की ओर ले जाती है। इस कारणभाव को जानना ही तो प्रकृति का रहस्योद्घाटन है। और यह जानने के लिये आवश्यक है प्रकट ब्रह्माण्ड से अपना तादात्म्य बैठाना।

मंत्र के अंत में तीन बार शांति का उच्चारण किया गया है। यहाँ एक सहज जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि तीन बार क्यों?
ब्रह्माण्ड की तीन स्थितियाँ हो सकती हैं - उत्पत्ति, स्थिति और लय। तीनों स्थितियों में शांति अभिप्रेत है इसलिये तीन बार शांति का उच्चारण करने की परम्परा है। यह शांति स्वीकार की शांति है .....यथावत स्वीकार। ब्रह्माण्ड की हर स्थिति को निर्मलमन से स्वीकारने की आकांक्षा है। किंतु इतना सरल नहीं है हर स्थिति को स्वीकार कर लेना, बड़ी कठिन साधना है यह। इसलिये मन को प्रकृतिस्थ करने, स्वीकारयोग्य बनाने के लिये तीन बार शांति का उच्चारण किये जाने का विधान है।  

शेष चर्चा अगले अंक में ....    


शुक्रवार, 22 जून 2012

प्राचीन भारत में चिकित्सा का गौरव

मातृ एवम् शिशु के स्वास्थ्य की रक्षा विश्व के कई देशों में आज भी एक बड़ी समस्या है। इस सन्दर्भ में प्राचीन भारत का चिकित्सा साहित्य हमें गौरवान्वित करता है। महर्षि कष्यप ने शिशुओं के कुछ रोगों के लिये लेहन (चाट कर ग्रहण करने योग्य) औषधियों की व्यवस्था की है। उनके बताये योगों का उपयोग उन व्याधियों में भी है जो आधुनिक चिकित्सा विधा से असाध्य या कष्ट साध्य हैं। यहाँ हम कुछ योगों का उल्लेख कर रहे हैं-

1- इम्यूनिटी हेतु लेहनम् -

सुवर्णप्राशनं ह्येतेन्मेधाग्नि बलवर्धनम्।
आयुष्यं मंगलं पुण्यं वृष्यं वर्ण्यं ग्रहापहम् ॥

पुनः इसी सन्दर्भ में महर्षि सुश्रुत ने भी वर्णन किया है -

अथ कुमारं शीताभिरद्भिराश्वास्य जात कर्मणि कृते मधुसर्पिरनंतचूर्णमंगुल्याsनामिकया लेहयेत् ।
(सुवर्ण भस्म न केवल एण्टीबायटिक है अपितु रोगप्रतिरोधक्षमता को बढ़ाने वाली और मेध्य होने से वर्तमान टीकाकरण का एक निर्दोष विकल्प भी है।)

2- ब्रेन टॉनिक (मेधावर्धक लेहनम्) -

ब्राह्मीमण्डूकपर्णी च त्रिफला चित्रको वचा।
शतपुष्पाशतावर्यौ दंती नागबला त्रिवृत् ।।
एकैकं मधुसर्पिभ्यां मेधाजननमभ्यसेत् ।
कल्याणकं पंचगव्यं मेध्यं ब्राह्मीघृतं तथा॥

3- स्किन डिसीज़ हेतु लेहनम् -

समंगा(मंजिष्ठा) त्रिफला ब्राह्मी द्वे बले चित्रकस्तथा ।
मधु सर्पिरिति प्राश्यं मेधायुर्बलवृद्धये ॥

4- वाणी दोष हेतु लेहनम् -

कुष्ठ वटांकुरा गौरी पिप्पल्यस्त्रिफलावचा।
ससैन्धवैर्धृतम् पक्वं मेधाजननमुत्तमम् ।

5- ऑटोइम्म्यून डिसऑर्डर हेतु लेहनम् -

ब्राह्मी सिद्धार्थकाः कुष्ठं सैन्धवं सारिवावचा।
पिप्पल्यश्चेति तैः सिद्धं घृतं नाम्नाsभयं स्मृतम्।
...प्रबाधन्ते कुमारं तं यः प्राश्नीयादिदं घृतम्॥

6- डिसीज़ेज़ ऑफ़ अन्नोन इटियोलॉजी के लिये लेहनम् -

ब्राह्मी सिद्धार्थक वचा सारिवा कुष्ठ सैन्धवैः ।
सकणैः साधितं पीतं वांग्मेधा स्मृतिकृद् घृतम् ॥
आयुष्यं पापरक्षोघ्नं भूतोन्माद निवर्हणम्।
( यह योग अष्टांग हृदय संहिता का है)

7- व्याधिमुक्ति पश्चात् रीवाइटलाइजेशन हेतु लेहनम् - 

खदिरः पृश्निपर्णी च स्यतृ(न्दनः / अर्जुन) सैन्धवं बले।
केवुकेतिकषायः स्यात् पादशिष्टो जलाढ़के।
अर्धप्रस्थं पचेदत्र तुल्य क्षीरं घृतस्यतु ।
घृतं संवर्धनं नाम लेह्यं मधुयुतं सदा॥
निर्व्याधिर्वर्धते शीघ्रं संसर्पत्याशु गच्छति।
पंगुमूकाश्रुतिजड़ा युज्यंते चाशु कर्मभिः।  

ध्यान रहे घृत और मधु समान मात्रा में न मिलाकर विषम मात्रा में ही मिलाया जाय अन्यथा यह विषतुल्य प्रभाव देता है।  

मंगलवार, 19 जून 2012

बाध्यता - एक विमर्ष

प्रश्न है कि धर्म के नाम पर सुहाग के प्रतीकों को ढोने की बाध्यता स्त्री को ही क्यों ?

परिवर्तन से परिभाषित होता है समय और समय की धारा में बहता है समाज । 
हमारे चारो ओर होनेवाला परिवर्तन कैसा भी  हो, वह आकर्षित तो करता ही है हमें ।
यह आकर्षण कभी हर्षित करता है, कभी कुपित तो कभी दुखित भी । इस आकर्षण के प्रति हमारी सामूहिक प्रतिक्रिया हमारी दिशा तय करती है ।     
इस परिवर्तन से अमेरिका और योरोप में बसे प्रवासी भारतीयों की जीवन शैली प्रभावित हो रही है। यह प्रभाव वहाँ के समाज की परम्पराओं, आवश्यकताओं और नवीनता के प्रति मनुष्य के स्वाभाविक झुकाव का परिणाम है। यह परिणाम किसी को लुभाता है तो किसी को अपनी टूटती जड़ों की पीड़ा से दुखित करता है।
पल्लवी श्रीवास्तव को प्रवासी भारतीयों में हो रहे सांस्कृतिक-सामाजिक परिवर्तन की पीड़ा उद्वेलित करती है तो तृप्ति जी संस्कृति के नाम पर गलत बातें विरासत में दिये जाने के विरुद्ध हैं।
प्रसंग है प्रवासी भारतीय महिलाओं में सुहाग के प्रतीकों को अनिवार्य स्वीकार न करने की प्रवृत्ति। कुछ लोगों का तर्क है कि धर्म के नाम पर सुहागिन के प्रतीक चिन्हों को ढोने की बाध्यता केवल स्त्री को ही क्यों? पुरुषों के लिये ऐसी कोई बाध्यता क्यों नहीं है? उनके अनुसार यह एक पक्षीय बाध्यता स्त्री पर पुरुष के वर्चस्व और उस पर शासन करने की प्रवृत्ति का प्रतीक है। 
समानता की बात करते समय हम भूल जाते हैं कि शारीरिक संरचना और शरीर क्रियात्मक भिन्नता के कारण स्त्री-पुरुष की मानसिकता के स्वाभाविक अंतर की उपेक्षा नहीं की जा सकती। श्रंगार के प्रति जैसा स्वाभाविक झुकाव स्त्रियों में देखने को मिलता है वैसा पुरुषों में नहीं मिलता। कदाचित इसी कारण पुरुषों के वैवाहिक प्रतीक चिन्हों का पुरुष समाज में अभाव है।  
 तृप्ति जी 'संस्कृति' के नाम पर नयी पीढ़ी को चूड़ी, बिन्दी, बिछिया, सिन्दूर जैसी अनावश्यक, अव्यावहारिक और 'गलत' चीजों को अपनाने की स्वीकृति देने के पक्ष में नहीं हैं।
इस सम्बंध में मेरा विनम्र निवेदन है कि जो गलत है वह 'संस्कृति' नहीं है, और जो 'संस्कृति' है वह गलत नही हो सकती। 'संस्कृति' 'रूढ़ि' नहीं है, एक सार्थक परम्परा है, समाज के लिये हितकारी है ...उपादेय है।
'संस्कृति' हमारे सामूहिक विचारों और व्यवहारों का परिष्कृत रूप है। विचार हमारे अन्दर का बौद्धिक भाव है जो व्यवहार में प्रकट होता है किंतु यह किसी क्रिया के परिणामस्वरूप ही परिलक्षित और विज्ञापित हो पाता है। किंतु जब कोई क्रिया/घटना न हो रही हो तब ऐसी स्थिति में अपने विचारों की घोषणा करना मनुष्य का स्वभाव है जिसके लिये उसे कुछ प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है। विश्व की सभी सभ्यताओं में ऐसा किसी न किसी स्तर पर होता रहा है, आज भी हो रहा है ...कल भी होता रहेगा। इसलिये प्रतीकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
कल्पना कीजिये, सारे प्रतीकों को समाप्त कर दिया जाय तो जीवन कैसा होगा? मुद्रा (करेंसी) पर कितने सारे प्रतीक होते हैं !  राज्यों के विभिन्न विभागों के अलग प्रतीक है, बैंकों के अपने-अपने प्रतीक हैं, ध्वजों के अपने प्रतीक हैं .....प्रतीक विहीन है क्या? इन्हें समाप्त कर दिया जाय तो विश्व के सारे काम बहुत कठिन हो जायेंगे, बहुत अव्यवस्था उत्पन्न हो जायेगी।
तो हमारे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित किसी प्रतीक को अप्रासंगिक क्यों मान लिया जाय? यह बात अलग है कि ब्रिटेन के मौसम के अनुरूप भारतीय परिधान और प्रतीकों को अधिक व्यावहारिक न पाया जाता हो पर प्रतीकों को पूरी तरह महत्वहीन नहीं माना जा सकता। मौसम के अनुरूप उसमें कुछ पारिवर्तन किया जा सकता है ...ताकि सांस्कृतिक परम्परा बनी रहे। ध्यान रहे, संस्कृति और रूढ़ में अंतर है। जो परम्परा औचित्यहीन, अतार्किक और अनुपयोगी है वही रूढ़ है। जब तक उसमें औचित्य, तर्क और उपयोगिता के तत्व बने रहेंगे वह रूढ़ नहीं बल्कि संस्कृति कहलायेगी। जो निरंतर संस्कारित हो वही तो संस्कृति है।
किसी समाज के लोगों का परिधान उसकी सामाजिक और परिवेशजन्य आवश्यकताओं के अनुसार विकसित और निर्धारित होता है। यह एक सहज और विकासमान प्रक्रिया है इसलिये प्रवासियों के प्रसंग में नये समाज और परिवेश के अनुरूप परिवर्तन स्वाभाविक है। किंतु अपनी पृथक पहचान के लिये हमें अपनी मूल परम्पराओं को सहेजना भी उतना ही आवश्यक है अन्यथा तब हम इंग्लैण्ड जाकर अपनी भारतीय पहचान प्रदर्शित कैसे करेंगे? 
विमर्ष में एक तर्क यह भी दिया गया कि वैवाहिक प्रतीकों को अपनाना नितांत निजी विषय है।
कोई परम्परा नितांत निजी कैसे हो सकती है? परम्परा समूह का विषय है व्यक्ति विशेष का नहीं। व्यक्ति विशेष का निजी विषय उसका अपना अभ्यास(आदत) हो सकता है किंतु कोई परम्परा तो तभी बनती है जब किसी व्यवहार को समूह में अपना लिया जाय। हम निजता का सम्मान करते हैं पर निजता को भी अपनी मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिये।

मंगलवार, 5 जून 2012

धर्मचिंतन ...7

भोजन की समुचित आपूर्ति और प्राणसुरक्षा की सुनिश्चितता ...ये दो जीवन की अनिवार्य आवश्यकतायें हैं। इन आवश्यकताओं ने विभिन्न जीवों को संगठित होने और अपना-अपना समाज बनाने की बाध्यता उत्पन्न की। बौद्धिक दृष्टि से अधिक विकसित प्राणियों को इन दो अनिवार्य आवश्यकताओं के अतिरिक्त भी कुछ चाहिये।

यह जो "अतिरिक्त कुछ" है इसीने बर्बरता के पाश से मुक्त हो कुछ प्राणियों को सभ्यता के स्वाभाविक गुण की ओर निरंतर बढ़ते रहने को प्रेरित किया। हम अपने आसपास के कुछ प्राणियों की ओर दृष्टिपात करें तो हमें कई प्रजातियों में सभ्यता के कुछ न कुछ लक्षण मिल जाते हैं। मनुष्य इन सभी में विशिष्ट है, इसीलिये उससे अपेक्षाकृत अधिक सभ्य होने की अपेक्षा की जाती है।

जहाँ सभ्यता में हम अन्य प्राणियों की अपेक्षा शीर्ष पर हैं वहीं बर्बरता में हम अन्य हिंस्र प्राणियों से लेश भी कम नहीं हैं। बर्बरता हमें हिंस्र प्राणियों की श्रेणी में रखती है और सभ्यता हमें उनसे पृथक करती है।

हमारे अन्दर दोनो ही प्रकार की क्षमतायें हैं, दोनो परस्पर विपरीत क्षमताओं में निरंतर द्वन्द्व की स्थिति हमारे विवेकवान होने को प्रमाणित करती है।

बर्बरता हमारी विकृति है ...सभ्यता हमारी प्रकृति है। विवेक हमें प्रकृति की ओर प्रेरित करता है, विवेकहीनता हमें विकृति की ओर ढकेलती रहती है।

आज हम समाज की प्रकृति में पतन की स्थिति से चिंतित हो रहे हैं। इस अधोपतन के कारण ही मनुष्य समाज बिखराव की बढ़ रहा है। परस्पर आकर्षण की न्यूनता समाज की अनिवार्य अर्हताओं को शिथिल करती है, और संगठित करने वाले तत्व समाप्त होने लगते हैं। 

समाज में जो परस्पर आकर्षण होता है वह प्रेम, सहनशीलता, उदारता और सहकारिता आदि उदात्त गुणों से निर्मित होता है, मानसिक उच्छ्रंखलता इन गुणों की शत्रु है। 

आज हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता की ओर अन्धे होकर भाग रहे हैं। हर व्यक्ति को स्वतंत्रता चाहिये ...हर प्रकार के बन्धन से मुक्त हो अपने तरीके से जीवन जीने की स्वतंत्रता चाहिये, कुछ भी करते रहने की स्वतंत्रता चाहिये फिर भले ही उससे किसी अन्य की स्वतंत्रता का बलात अपहरण ही क्यों न हो रहा हो।   

हम स्वतंत्रता को समझने में भूल कर रहे हैं । एक आदर्श स्वतंत्रता भी किसी निश्चित बन्धन की अपेक्षा करती है, इस बन्धन(मर्यादा) के अभाव में हम स्वतंत्र नहीं उछ्रंखल होते हैं।

समाज का छोटा सा रूप है परिवार। परिवार के सदस्य भी मर्यादाहीन स्वतंत्रता के लिये विद्रोह पर उद्द्यत हो उठे हैं। पारिवारिक सम्बन्ध छिन्न-भिन्न हो रहे हैं। पिता-पुत्र-पुत्री के सम्बन्ध क्षीण होते जा रहे हैं। नयी पीढ़ी ने आनन्द के अपने पृथक साधन और मापदण्ड खोज लिये हैं। हर किसी को अपनी खोज पर गर्व है ..इस गर्व ने नयी पीढ़ी को और भी हठी बना दिया है।

प्राचीन भारतीय पारिवारिक मूल्यों,  समाज मूल्यों और राष्ट्रीय मूल्यों के नये मानक आ चुके हैं जिनका धर्म से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है।

धर्मनिरपेक्षता की नयी अवधारणा ने सामाजिक और व्यक्तिगत पतन की गति को तीव्र किया है। अब धर्म के बन्धन ..उसकी मर्यादायें ..उसके नियंत्रण, सभीके विरुद्ध विद्रोह की भावना उग्र होती जा रही है। जीवन से धर्म समाप्त हो गया, धर्म व्यापार का साधन बन गया है। 

जब तक व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, राजनीति, व्यापार आदि संस्थाओं पर धर्म का नियंत्रण रहा तब तक समाज निरंतर सुख की साधना करता रहा। हमारे चारो पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से अब धर्म का दूर दूर तक नाता नहीं रहा। धर्म न तो धर्म में रहा, न अर्थ में , न काम में  और न मोक्ष में। चारो पुरुषार्थ अनियंत्रित काम में समाहित हो चुके हैं।

आज हमारे कार्यालय के लेखापाल को मासिक बैठक में अधिकारी के समक्ष बुलाया गया। उत्कोच (रिश्वत) लेकर भी काम न करने के सामूहिक आरोप से आरोपित लेखापाल जी के चेहरे पर अद्भुत निष्काम भाव था, लज्जा का कहीं लेश भी नहीं। सभी चिकित्सकों के बीच लेखापाल महोदय ने उत्कोच लेना स्वीकार किया, एक चिकित्सक से कुछ ही देर पहले ली गयी सोलह सौ रुपये की रिश्वत वापस भी की परंतु इस उद्घोषणा के साथ कि अब "आज से आप लोग अपने कार्यालयीन कार्य अपने तरीके से करवाया करिये, हम किसी विलम्ब के लिये उत्तरदायी नहीं होंगे।"

लेखापाल जी इसे उत्कोच नहीं मानते, पारिश्रमिक मानते हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे अपनी"मेहनत" का पैसा माँगते हैं।

लगभग दो घण्टे के इस वाक्युद्ध में एक आदर्श श्रोता की भूमिका में रहे अधिकारी जी ने मात्र इतना ही कहा कि लेखापाल जी के द्वारा ली गयी रिश्वत में से उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ है। 

लेखापाल जी और अधिकारी जी दोनो ही स्वयं को अधार्मिक नहीं मानते और ईश्वर के भक्त हैं। लेखापाल जी ने धर्म की अपनी अलग परिभाषा लिख ली है और उन्हें इससे कोई लेना देना नहीं कि कोई उनकी लिखी परिभाषाओं से कितना सहमत है?     

   
हम धर्म की अपनी-अपनी परिभाषायें गढ़ने में सिद्ध हस्त हैं
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