tag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post379313261899137546..comments2023-08-21T20:08:03.188+05:30Comments on ॥ भारत-भारती वैभवं ॥: धर्मचिंतन ...6Amit Sharmahttp://www.blogger.com/profile/15265175549736056144noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-8258179177599384302012-06-03T23:19:14.358+05:302012-06-03T23:19:14.358+05:30हम तो अनुकरणीय थे कभी, आज अनुकरण करने में माहिर हो...हम तो अनुकरणीय थे कभी, आज अनुकरण करने में माहिर हो गए हैं।मनोज कुमारhttps://www.blogger.com/profile/08566976083330111264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-44717378730161740862012-06-02T11:01:47.941+05:302012-06-02T11:01:47.941+05:30हम भी इस सत्संग का आनंद ले रहे हैं .. क्या कहा जाए...हम भी इस सत्संग का आनंद ले रहे हैं .. क्या कहा जाए इस श्रृंखला के लिए ? .. प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिलेंगे .. प्रतुल जी के साथ हो रही चर्चा ने आनंद को दोगुना बढ़ा दिया है ...<br /><br />आपका बहुत बहुत आभार कौशलेन्द्र जी |एक बेहद साधारण पाठकhttps://www.blogger.com/profile/14658675333407980521noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-24962002744168070752012-06-01T20:26:51.117+05:302012-06-01T20:26:51.117+05:30आपके पोस्ट पर पहली बार आया हूं । आना सार्थक हुआ । ...आपके पोस्ट पर पहली बार आया हूं । आना सार्थक हुआ । मेरी कामना है कि आप सदा सृजनरत रहें । मेरे नए पोस्ट "बिहार की स्थापना के 100 वर्ष" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।प्रेम सरोवरhttps://www.blogger.com/profile/17150324912108117630noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-37599590513865812832012-06-01T13:55:33.104+05:302012-06-01T13:55:33.104+05:30आशान्वित तो हम भी हैं। जो बनता है वह कभी बिगड़ता भी...आशान्वित तो हम भी हैं। जो बनता है वह कभी बिगड़ता भी है ..बिगड़कर पुनः बनता है। सनातन सत्य होने से भारतीय संस्कृति कहीं न कहीं बची अवश्य रहेगी किंतु आशा ही पर्याप्त नहीं है, कुछ करना भी होगा।बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-10777979670404084792012-06-01T13:50:44.798+05:302012-06-01T13:50:44.798+05:30वैचारिक श्रेष्ठता के अहम् के टकराव का परिणाम है यु...वैचारिक श्रेष्ठता के अहम् के टकराव का परिणाम है युद्ध। इतिहास हमें अपनी भूलों की पुनरावृत्ति के प्रति सचेत करता है...और जो कुछ अच्छा हुआ था उसके प्रति प्रेरणा उत्पन्न करने का कार्य करता है। हमारे अतीत की गाथायें आवश्यक होने पर तत्क्षण पथ निर्माण करने में समर्थ हैं .....पथिक भर तत्पर होना चाहिये।बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-2393215401622111452012-06-01T13:05:44.465+05:302012-06-01T13:05:44.465+05:30अनुकरण ही करना है तो पश्चिम् की राष्ट्रीय भावना और...अनुकरण ही करना है तो पश्चिम् की राष्ट्रीय भावना और जनसेवा भावना का अनुकरण क्यों न करें? <br /><br />@ समसामयिक प्रेरक कथन... जिसमें अंधअनुयायियों को उलाहना दिया गया है. जिसमें किंकर्तव्यविमूढों को कर्तव्य की दिशा दिखायी गयी है. जिसमें भारतीय शोधार्थियों में शोध के सनातन विषयों के प्रति अलख जगाने का प्रयास है. <br /><br />आचार्य जी, इस सत्संग का पूरा लाभ मिला है मुझे.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-13574025595616747272012-06-01T12:56:45.369+05:302012-06-01T12:56:45.369+05:30... समझ में नहीं आता कि जिन परम्पराओं के दुष्परिणा...... समझ में नहीं आता कि जिन परम्पराओं के दुष्परिणामों को भोग चुकने के पश्चात् पश्चिम तिलांजलि देना चाह रहा है उन्हें ही पूर्व क्यों अपनाना चाह रहा है? <br /><br />@ 'पश्चिम' जिनको दे रहा है तिलांजलि... उन्हें 'पूर्व' कई कारणों से स्वीकार रहा है...<br />— हज़ारों वर्षों की पराधीनता ने भारतीय रक्त में दास-वृत्ति के संस्कार समाविष्ट कर दिये हैं.<br />— जैसे गुलाम अपने मालिक या राजा की जूठन को उनकी कृपा मानकर उपभोग में लाता है और अपने मन में मालिक समान होने के भ्रम से अपनी प्रसन्नता स्थिर करता है. वैसे ही किसी का परित्यक्त, किसी का अवशिष्ट अथवा किसी का तिरस्कृत प्रायः नये उपभोक्ताओं के लिये वा अनजानों के लिये शुल्करहित होने से आकर्षण का कारण रहते हैं. <br />— जब एक वस्तु या सुविधा से काम चलता हो तब उसकी सहसा हुई वृष्टि में भीगने की इच्छा करना 'हवस' कहलाता है. और इस 'हवस' को 'मजहबी जामा' पहनाकर या 'आधुनिक सोच की आत्ममुग्धता' कारण से स्वीकार्य बना लेना चलन में आ गया है.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-9674716515558794782012-06-01T12:19:34.408+05:302012-06-01T12:19:34.408+05:30..... भारतीय समाज जब पूरी तरह पतन के गर्त में डूब ........ भारतीय समाज जब पूरी तरह पतन के गर्त में डूब जायेगा तब फिर कोई वैलेंटाइन जन्म लेगा और भारत के लोगों को विवाह के महत्व को समझायेगा। <br /><br />@ आपके द्वितीय अनुच्छेद में दूरदर्शिता पूर्ण चिंतन झलकता है.... लेकिन मैं इस बात से विश्वस्त हूँ कि भारतीय विद्वानों का एक बड़ा वर्ग सांस्कृतिक विरासत को बचाने में रात-दिन लगा हुआ है. देर-सवेर हमारी नयी पीढी के युवाओं को भारतीय नैतिक मूल्यों का बोध होगा.... वर्णाश्रम व्यवस्था की पुनर्स्थापना में ही सामाजिक उन्नति को स्वीकारा जायेगा. आज की कथित दलित, शूद्र, हरिजन, पिछड़ी और अल्पसंख्यक बिरादरियाँ के मन-मस्तिष्क में घुले विषाक्त पूर्वाग्रहों की कड़वाहटें विरेचित होंगी. <br /><br />मेरा यह भी सपना है कि एक दिन कर्म के आधार पर 'वर्ण' वितरित होगा. घर-परिवारों में पूरी आयु बिताने वाले वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम योग्य वृद्धों की आसक्ति कम होगी. उनका प्रकृति में बसेरा बनेगा. उनके अनुभवों से जिज्ञासुओं को लाभ मिलेगा. मेरे मन में निःशब्द गाना बज रहा है... "जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती हो बसेरा. वो भारत देश है मेरा. वो भारत देश है मेरा. जहाँ सत्य-अहिंसा और धर्म का. पग-पग लगता फेरा. वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा.... जय भारती, जय भारती." कृपया सभी सत्संगी इस गाने को जरूर सुनें. यह गाना हमें भरपूर आशावादी बनाता है.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-27030766527606800362012-06-01T11:54:10.743+05:302012-06-01T11:54:10.743+05:30इस तमस में धर्म और अधर्म के मध्य की विभाजक रेखा लु...इस तमस में धर्म और अधर्म के मध्य की विभाजक रेखा लुप्त होती जा रही है। .... <br />@ यह पीड़ा सचमुच चिंतनीय है.... अधर्म के पाले में खड़े हुए यह नहीं जानते कि वे कहाँ खड़े होकर 'धर्म का जयकारा लगा रहे हैं.' 'मिथ्या पर पोषित होने वाली पीढ़ी 'सत्य के उजाले का उपदेश' उलूकमतियों से सुनकर विश्वस्त है.' 'मात्र अपनी भौतिक उन्नति से संतुष्ट (अधर्मी) लोग धर्म की पताका फहरा रहे हैं.'प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-40184177584304301402012-06-01T11:52:35.491+05:302012-06-01T11:52:35.491+05:30आज हम विचारों के सन्धिकाल पर हैं। ... अज्ञान का तम...आज हम विचारों के सन्धिकाल पर हैं। ... अज्ञान का तमस घिरता आ रहा है...कुछ धुँधलका सा है ... मनुष्य के जीवन का यह संकट काल है..द्विविधाओं से भरा हुआ....विचलन की सम्भावनाओं को अपने में समेटे हुये।<br />@ क्या यह सच नहीं कि प्रत्येक युग में कोई-न-कोई द्विविधा बनी रही है.... सतयुग से लेकर कलयुग तक धर्म और अधर्म आमने सामने बने रहे हैं.<br />क्या देवासुर संग्राम, राम-रावण युद्ध, महाभारत नामक समर दो युगों के संधिकाल में आये व्यापक वैचारिक बदलाव का ही परिणाम नहीं थे? <br /><br />धर्म-ग्रंथों में उल्लिखित हम अपने इतिहास को संकुचित सोच के साथ ग्रहण करते हैं.... इसलिये तो पाश्चात्य मानसिकता से ग्रस्त आधुनिक इतिहासकार अपने धर्म-ग्रंथों के ऐतिहासिक कथानकों पर पुनर्चिन्तन करना बेकार की मगजमारी मानते हैं. आजकल एक मानसिकता तेज़ी से हावी होने के प्रयास में है वो ये कि 'जितनी भी भारतीय संस्कृति के अतीत की उज्ज्वल गाथाएँ हैं...वे मात्र कपोलकल्पित चित्रकथाएं हैं मतलब कि वे समय-समय पर भारतीय कवि-लेखकों के द्वारा मनोरंजनार्थ गढ़ी गई कोमिक्स भर हैं. <br /><br />फिर भी एक बात को विनम्रता के साथ स्वीकार करना बुरा नहीं माना जाना चाहिए, वो ये कि पौराणिक कथाओं में कल्पनाशीलता की ऊँची उड़ान है. वो जिन उद्देश्यों को लेकर लिखे गये हैं वे शोध का विषय बन सकते हैं. पौराणिक-चिंतन की समाज के उन्नयन के सन्दर्भ में प्रासंगिकता पर हमें फिर से सोचना होगा.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.com