tag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post6452746609552337305..comments2023-08-21T20:08:03.188+05:30Comments on ॥ भारत-भारती वैभवं ॥: बाध्यता - एक विमर्षAmit Sharmahttp://www.blogger.com/profile/15265175549736056144noreply@blogger.comBlogger60125tag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-7378530173509541432012-07-07T19:42:10.427+05:302012-07-07T19:42:10.427+05:30आदरणीय प्रतुल जी,
आपने ठीक कहा| इस चर्चा पर मेरी द...आदरणीय प्रतुल जी,<br />आपने ठीक कहा| इस चर्चा पर मेरी दृष्टि है , मैं उपस्थित हूँ लेकिन मौन धारण किये हुए हूँ (कुछ समय पहले तक ये धैर्य मुझमें नहीं था)<br />संभव है ...इस विषय से सम्बंधित काफी नयी जानकारियाँ मेरे पास हों ..... लेकिन फिर भी मौन क्यों ? कोई कारण तो होगा ही |<br />आप गुरुजन हैं आप ही पहचानिए की मैं तो ब्लॉग प्रबंधक भी नहीं हूँ मुझे किस चिंता ने रोका हुआ है ?एक बेहद साधारण पाठकhttps://www.blogger.com/profile/14658675333407980521noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-68902353862068480662012-07-07T16:55:49.988+05:302012-07-07T16:55:49.988+05:30रूस में समाजवाद की एक विचारधारा बही ... जिसे '...रूस में समाजवाद की एक विचारधारा बही ... जिसे 'आदर्शवादी' कहा गया... जिसे सभी ने सराहा... <br /><br />सभी को समान अवसर मिलने चाहिए... बिना भेदभाव के. <br /><br />सभी को कार्य के समान घंटों तक श्रम करना होगा.... सभी को समान शिक्षा, सभी को प्रत्येक कार्य का समान वेतन.... सभी परिवारों के बच्चों की समान परवरिश ... <br /><br />किसी के पास व्यक्तिगत संपदा कुछ नहीं होगी... सभी कुछ राष्ट्र का होगा. मूलभूत आवश्कताओं के अलावा आप कोई संग्रह नहीं कर सकेंगे.... न जाने कितनी ही कल्पनाएँ थीं समानता की.... फिर भी वह व्यवहारिक नहीं था. <br /><br />असमान योग्यताओं की, असमान समझ वाली, असमान रुचियों के लोगों की आवश्यकतायें भिन्न-भिन्न होती हैं.... इसी कारण मतभेद बना रहता है. <br /><br />गौरव जी, <br /><br />— बहुत कुछ मन को अच्छा लगता है फिर भी हम उसे अपने शब्दों में कहकर संतुष्ट होते हैं. <br /><br />— 'अंतिम सत्य' पाने के बाद भी यात्रा का अंत नहीं हो जाता. व्यक्ति के जीवन उपरान्त भी पुनर्जन्म माध्यम से यात्रा आरम्भ ही रहती है.<br /><br />— जब सभा में 'अमृत' बँटता है... तब सभी पीने वाले अपने-अपने पात्रों में उसे लेते हैं. चुप्पी-साध लेने से सभा समाप्त समझी जाती है. <br /><br />.... चर्चा यदि 'विमर्श' पर बल देती है तो उसे चलते रहना चाहिए... और यदि 'विषवमन' वाली हो जाती है तो उसका अंत मान लेना चाहिए..... मुझे नहीं लगता कि ब्लॉग-लेखक परिवार के सदस्य संकीर्ण सोच वाले हैं.... विषय पर 'विमर्श' केवल इसलिये हो रहा है कि वे परस्पर सुलझना चाहते हैं. इस सभा के सभी सभासद भिन्न-भिन्न क्षमताओं वाले हैं... सभी आदरणीय हैं. यहाँ किसी विधेयक को पास-फेल कराने जैसी स्थिति नहीं है. किसी की दृष्टि में मैं पुराने खयालात का हो सकता हूँ और वह मेरी दृष्टि में नये ज़माने में रचा-बसा. किसी की दृष्टि में 'कौशलेन्द्र जी' पूर्वाग्रही हो सकते हैं..... तो मेरी दृष्टि में 'सुलझी सोच के'. <br /><br /><br />जहाँ तक 'अमित जी' की सारगर्भित टिप्पणी का प्रश्न है.... वे 'भारत भारती वैभवं' के उद्देश्यों के भटकने की चिंता से ग्रस्त हैं... प्रबंधक के नाते उनकी चिंता उचित भी है. <br /><br />भारतीय समाज में हर वर्ग के लिये न जाने कितनी ही बाध्यताएं मौजूद हैं... लेकिन यहाँ विचारों को न रखने जैसी कोई बाध्यता नहीं है. <br /><br />'बाध्यता' वहाँ हो जहाँ कुछ अनुचित हो रहा हो, विचार-विमर्श में दूसरे का पक्ष अपने अनुसार न पाकर कष्ट कैसा.... चर्चा तभी तो गति पकड़ती है जब कुछ विरोध का आभास होता है.<br /><br /><br />मित्र, <br /><br />आपकी इस चर्चा पर अभी भी दृष्टि है... मतलब ये कि आप सभा में उपस्थित हैं.... और सभा विग्रहित नहीं हुई. :)प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-31909051651417245372012-07-07T11:49:23.148+05:302012-07-07T11:49:23.148+05:30सबको अमित भाई की बात पसंद आयी और समझ में भी आयी| फ...सबको अमित भाई की बात पसंद आयी और समझ में भी आयी| फिर भी कमेन्ट जारी रहे .. सोच रहा हूँ ऐसा क्यों हुआ होगा ? क्या चर्चा अमित भाई के कमेन्ट पर चर्चा का बंद हो जाना इस चर्चा का सुखद समापन नहीं होता ?एक बेहद साधारण पाठकhttps://www.blogger.com/profile/14658675333407980521noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-97285572980599332012-07-03T15:40:16.655+05:302012-07-03T15:40:16.655+05:30* लेने का = देने का* लेने का = देने काप्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-8447933134222818042012-07-03T15:38:17.199+05:302012-07-03T15:38:17.199+05:30कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता ल...कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी की, टाई लगाने वाले दाढी की, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।<br /><br />@@ युगों से परिधानों की दौड़ हो रही है .... <br /><br />— धोती पहनने वालों ने अपनी अगली पीढी को पाजामा पहनाकर दौडाया... और पाजामा पहनने वालों ने अपनी आगामी पीढ़ी को पतलून (पेंट) पहनाकर दौड़ाया लेकिन अब वो पतलून उतरने का नाम ही नहीं ले रही है. <br /><br />— साड़ी पहने वालों ने अपनी अगली पीढ़ी को सूट-सलवार पहनाकर दौड़ाया.... और सूट-सलवार पहनने वालों ने अपनी अगली पीढ़ी को मनचाहे सुविधापरक वस्त्रों में दौड़ाया... लेकिन अब अगली पीढी का मन उन वस्त्रों से भी भर गया है... शायद वे अब आउट ऑफ़ डेट माने जाने लगे हैं. बदलाव की दौड़ का मतलब ये नहीं कि पुनः वहीं ना आया जाये. <br /><br />....... स्टेडियम में होने वाली लम्बी दौड़ के धावक-धाविकायें वापस भी लौटते हैं. <br /><br /><br />[इस पोस्ट पर इस प्रतिक्रिया को देने का तात्पर्य ये है कि जहाँ प्रतिक्रिया (बात) 'व्यक्तिगत रुचि' धर्म के नाते दबा दी जाये, वहाँ प्रतिक्रिया लेने का कोई लाभ नहीं.]प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-69026305380626528412012-07-03T14:52:22.635+05:302012-07-03T14:52:22.635+05:30सभी के विचार पढ़ रहा हूँ... किसी दृष्टि से बिलकुल स...सभी के विचार पढ़ रहा हूँ... किसी दृष्टि से बिलकुल सही प्रतीत होते हैं और फिर कोई-न-कोई बात गले नहीं उतरती.... <br /><br />अमित जी के विचारों में गजब का संतुलन दिखा... ठीक एक पुरोहित सरीखा. <br /><br />सभी विदूषी और विद्वान् अपना-अपना सौ प्रतिशत दे रहे हैं... चर्चा का सुख तभी मिलता है जब कुछ बचाकर नहीं रखा जाता.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-41553626922638567632012-07-03T14:46:08.608+05:302012-07-03T14:46:08.608+05:30@ यदि इस पोस्ट के पाठक पंडित वत्स जी और संगीता पुर...@ यदि इस पोस्ट के पाठक पंडित वत्स जी और संगीता पुरी जी होते तो विमर्श 'सामुद्रिक शास्त्र' की दिशा ले लेता. <br />और यदि स्वर्णकार जी और अविनाश चंद्रा जी होते तो विमर्श 'काव्य शास्त्र' की दिशा ले लेता.<br />और यदि कुछ अन्य प्रतिष्ठित महानुभाव होते तो विमर्श 'काम शास्त्र' की दिशा ले लेता.<br /><br />....... मुझे लगता है जो जिस खेमे का होता है चर्चा को उसी और धकियाता है.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-32516565590497287792012-07-03T14:37:04.028+05:302012-07-03T14:37:04.028+05:30रचना जी,
मैं जानना चाहता हूँ... कि आपकी दृष्टि म...रचना जी, <br /><br />मैं जानना चाहता हूँ... कि आपकी दृष्टि में कौन-कौन से महापुरुष और कौन-कौन-सी स्त्रियाँ (देवियाँ) अनुकरणीय हैं? <br /><br />स्वदेशी हों अथवा विदेशी, जैसी भी हों .... कृपया उल्लेख करें.... फिर मैं भी जानना चाहूँगा कि उन्होंने अपने समय में पुरुष समाज से कैसे-कैसे लोहा लिया?प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-70404833445075062382012-07-03T14:15:26.201+05:302012-07-03T14:15:26.201+05:30हम प्रचलित धर्म-कथाओं और महापुरुषों व देवियों की च...हम प्रचलित धर्म-कथाओं और महापुरुषों व देवियों की चरित्र गाथाओं से सीखते रहे हैं... मनमानी कभी नहीं करते...<br />हमने कथाओं में अब तक देखा है...<br />— दशरथ के स्वर्गवास पर रानियों ने शृंगार त्यागकर श्वेत वसन पहने.<br />— कुंती को सादगी अपनाए.<br />— अभिमन्यु की वधु 'उत्तरा' को अलंकार का त्याग किये.<br />ऐसे तमाम उदाहरण मिल जायेंगे जब पुरुषों की मृत्यु पर उनकी स्त्रियों ने शृंगार त्यागा.<br />और साथ ही ऐसे भी उदाहरण हैं... जब पत्नी की मृत्यु पर पति शोकाकुल होकर सामाजिक वयवहार भूल गया. महाकवि कालिदास ने इसका उल्लेख कई नाटकों में किया भी है. <br />यक्ष का वियोग, इंदुमती की मृत्यु पर अज का वियोग आदि.<br />यदि दो-एक नवीनतम उदाहरण भी आज ऐसे होते जो वर्तमान समाज के लिये प्रेरणा-स्रोत का कार्य करते तो समाज उन्हें ही अपना लेता. <br />अब ब्रिटेन की राजकुमारी 'डायना' तो हमारी आदर्श नहीं हो सकती न?प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-28008593376888054422012-07-03T13:53:51.294+05:302012-07-03T13:53:51.294+05:30@ हम सभी (स्त्री-पुरुष) की पहनावे संबंधी पसंद-नापस...@ हम सभी (स्त्री-पुरुष) की पहनावे संबंधी पसंद-नापसंद उत्पादक वर्ग द्वारा चलाये चलन पर आधारित होती जा रही है... जिसमें फिल्म जगत सहयोग कर रहा है. जो बाज़ार में सहजता से उपलब्ध होगा वही खरीदा जायेगा. <br /><br />धोती का प्रचार होगा तो धोती ही बिकेगी पेंट नहीं. पेंट-शर्ट-बनियान चलन में इसलिये आ गया है कि वह बाज़ार में उपलब्ध है...<br /><br />कुछ वर्षों पहले गुरुकुल झज्जर में रहा तो वहाँ की ही पोशाक मेरे स्वतः पहनावे में आ गयी.... मतलब लंगोट, धोती और कुर्ता. <br /><br />हाँ, बंडी अब नहीं मिलती इसलिये उसका नवीनतम रूप बनियान ही पहनते थे. <br /><br />इसी प्रकार स्त्री सम्बन्धी पौशाकों का वर्तमान में अभाव हो गया है क्या? साड़ी से सूट, सूट से जींस, और अब जींस की यात्रा किस दिशा में जाने की है? <br /><br />जो बाजारवाद यात्रा करवाना चाहता है क्या हम उसकी इच्छा से यात्रा तो नहीं कर रहे? हमारी अपनी इच्छा क्या है आज़? ... शायद हमें इसका खुद पता नहीं?प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-22100372049864316822012-07-03T13:38:39.881+05:302012-07-03T13:38:39.881+05:30@ जो व्यवस्था बनाता है, जो नीति-निर्धारण करता है, ...@ जो व्यवस्था बनाता है, जो नीति-निर्धारण करता है, जो संविधान निर्माण में योगदान देता है... वह कुछ हद तक पक्षपात तो करता ही है... <br />भीमराव ने ... 'वर्षों से दमित वर्ग' का बहाना लेकर एक वर्ग विशेष को अधिक महत्व दिया.<br />भीमराव ने ... 'अल्पसंख्यक वर्ग' का बहाना लेकर एक वर्ग विशेष को एक राज्य में 'विशेषाधिकार' दिया.<br />कुलमिलाकर 'राष्ट्र की सर्वोपरि आचार-सहिंता' में भेदभाव किया. <br /><br />यदि 'सामाजिक आचार सहिंताओं' के निर्माण में नारियों का हाथ होता (शायद हो भी) तो पुरुषों और नारियों के परिधान और रिवाजों के संबंध में क्या-क्या नवीनतम बातें होतीं? कृपया कल्पना करें.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-57185032600972834352012-07-03T13:28:40.848+05:302012-07-03T13:28:40.848+05:30@ सामाजिक संस्कार पड़ने से पूर्व जिसकी जैसी आदत पड़ ...@ सामाजिक संस्कार पड़ने से पूर्व जिसकी जैसी आदत पड़ जाये उसे वही सुहाता है. जंगल में भेड़ियों के बीच पली-बढी एक लड़की को जब मनुष्य समाज में लाया गया और उसे जबरन वस्त्र पहनाये गये तो उसने वह सब पसंद नहीं किया उअर वस्त्र फाड़ लिये. उसे वस्त्र पहनाना मनुष्य समाज का अत्याचार ही तो है.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-36056536347957443242012-07-03T13:21:00.312+05:302012-07-03T13:21:00.312+05:30मेरा मानना है कि स्त्री-पुरुषों के लिये जितने भी श...मेरा मानना है कि स्त्री-पुरुषों के लिये जितने भी शृंगार रूप में प्रतीक रहे हैं ... उन सभी के उद्देश्यों में बदलाव आने के कारण से वे रुचि-अरुचि का कारण हो गये हैं अन्यथा वे सर्व-स्वीकृत बने रहते.<br /><br /><br /><br />पुरुषों का प्रतीकात्मक शृंगार रहा है : शिखा, तिलक, कुंडल, माला आदि. <br /><br />[कुछ 'आभूषण' मात्र सौन्दर्य बढ़ाने के लिये नहीं थे... वे एक प्रकार से उस समय के 'एटीएम्/डेबिट' कार्ड थे.]<br /><br />प्रतीक धारण करने के कई उद्देश्य हो सकते हैं :<br /><br />१] स्वास्थ्य के लिये ... <br /><br />२] सौन्दर्य के लिये ...<br /><br />३] समृद्धि दर्शाने के लिये .... <br /><br />४] वर्तमान स्थिति दर्शाने के लिये.... <br /><br /><br /><br /><br /><br />मेरे पिछले कार्यालय में कुछ साथियों का विवाह हुआ... उनमें एक कन्या ऎसी थी जिसे हर किसी को बताने की जरूरत नहीं पड़ी कि उसका विवाह हो गया है क्योंकि उसका शृंगार ही बता रहा था. लेकिन एक दूसरी नये खयालातों की युवती को हर किसी को बताना पड़ा कि उसका विवाह अमुक तारीख को हो गया है.. और अब हाथ मिलाने वाले थोड़ा शालीन तरीके से हाथ मिलायें.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-84766727885077931522012-07-03T13:17:22.898+05:302012-07-03T13:17:22.898+05:30@ एक समय बाद... 'फौजी' की चाहना होती है कि...@ एक समय बाद... 'फौजी' की चाहना होती है कि समाज के हर व्यक्ति को अनुशासन में रहने के लिये कदम-से-कदम मिलाकर चलना चाहिए. कोई नहीं चले तो उसका 'कोर्ट मार्शल' हो ... मतलब... समाज से बहिष्कृत.<br /><br />एक समय बाद.... 'विरक्त जीवन बिताने वाले' संन्यासी की चाहना होती है कि समाज के हर व्यक्ति में 'कुछ त्याग' (मोह आदि का) जरूर होना चाहिए.<br /><br />एक समय बाद.... 'ब्रह्माकुमारियों के उपदेशों से पकी (प्रभावित) सत्संगी महिलाओं की चाहना होती है कि 'भाई-बहिन' संबंध ही एकमात्र संबंध है.. अन्य सब मिथ्या... इसलिये परिवार का मोह न्यूनतर करते चलो.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-88115739281158838732012-07-03T13:15:17.698+05:302012-07-03T13:15:17.698+05:30@@ विवाह से पहले विद्यार्थी जीवन में मेरे पास बहुत...@@ विवाह से पहले विद्यार्थी जीवन में मेरे पास बहुत से छोटे बच्चे इसलिये आते थे कि मेरे पास उनके लिये एकाधिक गतिविधियाँ थीं करवाने को और मैं उनसे मिलने को लालायित भी रहता था. मतलब कि बच्चों का मुझसे लगाव और मेरा उनके प्रति आकर्षण परस्पर का व्यवहार बना. समय बीता, बच्चों को व्यस्त रहने के कई विकल्प आ गये... मेरी बच्चों में रुचि भी घट गयी... हुआ ये कि परस्पर का व्यवहार समाप्त हो गया. <br /><br />नयी पीढ़ी के बच्चों में यही स्वभाव (इच्छा पर छोड़ देने वाली रुचि) भरपूर मात्रा में देखता हूँ. मैंने भी सोच लिया है कि अब बच्चे मन आये सो करें...मुझे क्या पड़ी है... मैं कोई ठेकेदार हूँ 'बाल-व्यवहार सुरक्षित रखने का'. <br /><br />सभी कुछ सब लोगों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए.... सही अर्थों में यही तो स्वतंत्रता है... अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए... साथ ही अपनी इच्छा अनुरूप बदलाव लाने की भी स्वतंत्रता होनी ही चाहिए. जो भी इसका विरोध करे वो 'कुएँ का मेढक'.... अब 'कुएँ के मेढकों' को भी कुआँ छोड़कर 'नलकूपों' की शरण लेनी चाहिए...कुएँ समाप्त जो हो चुके हैं. <br /><br />साथ ही... संस्कृति के मेढकों को अपनी टरटर से 'खुले नलकूपों' की चेतावनी देते रहना चाहिए.... नलकूप' खुले रह जाने से गिरने का भय बना रहता है.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-68518275601677079162012-07-02T18:11:44.492+05:302012-07-02T18:11:44.492+05:30@सांस्कृतिक पुनर्विकास समग्रता से अर्थात् धनी-निर्...@सांस्कृतिक पुनर्विकास समग्रता से अर्थात् धनी-निर्धन, बाल-युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष में भेदभाव अथवा पक्षपात रहित होना चाहिए।<br /><br />- सहमत हूँ। निष्पक्ष दृष्टिकोण ही वरेण्य है लेकिन विषय के सभी पक्षों की अधिकाधिक जानकारी और समझ के बिना निष्पक्ष हो सकना भी कठिन है। इसी विषय पर मेरे व्यक्तिगत विचार "<a href="http://pittpat.blogspot.com/2012/07/indian-tradition-of-individual-freedom.html" rel="nofollow">चुटकी भर सिन्दूर</a>" पर हैं। टिप्पणी बॉक्स की शब्दसीमा के कारण यहाँ नहीं लिख सका।Smart Indianhttps://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-54585157439829501332012-07-02T11:07:56.925+05:302012-07-02T11:07:56.925+05:30@ किंतु यदि केवल विरोध करने के कारण ही विरोध हो तो...@ किंतु यदि केवल विरोध करने के कारण ही विरोध हो तो ऐसे पूर्वाग्रहीविरोध की उपेक्षा करना ही शास्त्रसम्मत है।<br />@ इसे विद्वानों ने निकृष्ट कहा है। <br />@ इनका सिद्धांत था -"न शुणुतव्यं न मंतव्यं वक्तव्यं तु पुनः पुनः "<br />@ आपके तो सभी प्रश्नों के यथा सम्भव उत्तर देने के प्रयास किये गये हैं न! :) <br />@ रचना जी माने या ना माने मैं तो मानता हूँ की आपने सभी प्रश्नों के यथा सम्भव उत्तर देने का प्रयास किया है <br />@ व्यक्तिगत आक्षेप या आरोप-प्रत्यारोप का माध्यम ....<br />.... <br /><br />रचना जी, गौरव जी, यहाँ बात एक ही टिप्पणीकार के प्रश्नों की की जा रही थी, उपेक्षा भी उस एक ही व्यक्ति के सवालों की की जा रही थी, और पूर्वाग्रही भी उसे ही कहा जा रहा था | "आदरणीय रचना जी !सादर नमस्कार !" की पूर्व उद्घोषणा के साथ , "आपके" प्रश्नों के उत्तर देने के प्रयास तो किये ही गए | तो आप तो आदरणीय हैं, वह "निकृष्ट पूर्वाग्रही" आप तो नहीं ही हैं :) | "निकृष्ट" वह व्यक्ति हैं जिसे और भी कहीं निकृष्ट कहा जा रहा है और यहाँ वही बात प्रतिध्वनित हो रही है :) | और हाँ - मुझे इन्ही ज्ञानी वचनों की अपेक्षा थी | ऐसा नहीं है की मैं समझ नहीं रही थी की क्या किया जा रहा है - और इसी अपमान के प्रयास के चलते धर्मचिन्तन पर रावण स्तुति के बाद से मैं इस ब्लॉग पर चुप ही रही, परन्तु यह विषय ऐसा था की मैं चुप नहीं रह सकती थी, और न व्यक्तिगत अपशब्दों के डर से भविष्य में रहूंगी | यह व्यक्तिगत व्यंग्य और अपमान सत्य को बहुत समय तक नहीं दबा सकते - चाहे साथी "team" लेखक इसका विरोध करें, या न करें | <br /><br />विधवा स्त्री से "जबरदस्ती" ये चिन्ह उतरवाने का विरोध करते हुए भी यह "अपेक्षा" तो की ही जा रही है अब भी की वह "स्वेच्छा से" इनको त्याग दे | वहीँ "सुहागिन" से यह अपेक्षा की जा रही है कि वह "स्वेच्छा से" इन्हें धारण करे | यानी कि यही इंगित है कि यह, ऐसे करना ही उत्तम है, अब वह इतनी "निकृष्ट" हो कि वह ऐसा न करना चाहे - तो यह उसकी मर्जी | <br /><br />अमित जी - क्षमा चाहती हूँ - आपके इतने स्वागत योग्य उदघोषण के बाद भी यह टिपण्णी कर रही हूँ, किन्तु क्या करूँ - यह "निकृष्ट" आदि शब्द बड़े खलते हैं एक ऐसे ब्लॉग के लेखक द्वारा एक टिप्पणीकर्ता के लिए , जो ब्लॉग अपने आप को भारत के वैभव से जुड़ा कहता हो |Shilpa Mehta : शिल्पा मेहताhttps://www.blogger.com/profile/17400896960704879428noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-10952517844694660242012-07-02T08:28:02.647+05:302012-07-02T08:28:02.647+05:30@ जब हम सांस्कृतिक गौरव के पुनर्स्थापन की बात करत...@ जब हम सांस्कृतिक गौरव के पुनर्स्थापन की बात करते है तो सांस्कृतिक पुनर्विकास समग्रता से अर्थात् धनी-निर्धन, बाल-युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष में भेदभाव अथवा पक्षपात रहित होना चाहिए।<br /><br />साधुवाद अमित जी | इस वाक्य से आपने इस ब्लॉग का उद्देश्य पुनर्स्थापित कर दिया | आभार आपका |Shilpa Mehta : शिल्पा मेहताhttps://www.blogger.com/profile/17400896960704879428noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-39246274612052335742012-07-01T19:17:03.413+05:302012-07-01T19:17:03.413+05:30@ ".......उन्हें यहाँ प्रकाशित एक कमेन्ट से म...@ ".......उन्हें यहाँ प्रकाशित एक कमेन्ट से महत्ती वेदना पहुंची है ।" <br /><br />अज्ञात पाठिका जी को जिसकी भी टिप्पणी से वेदना पहुँची हो, हम क्षमाप्रार्थी हैं....किसी की भावनाओं को आहत करना हमारा उद्देश्य नहीं है। मैने पहले भी कहा है कि हम परम्पराओं के निरंतर परिमार्जन को ही संस्कृति मानते हैं। परिवर्तन अपेक्षित हैं, किंतु हमारे आर्ष आदर्श को पैरामीटर बनाये रखने से भटकने की सम्भावनायें न्यून हो जाती हैं। प्राचीन भारतीय परम्परा में तो स्त्री को स्वयम्वर का भी अधिकार था। आज बालविवाह को कोई भी सहमति नहीं देगा, वहीं विधवा विवाह को सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी है। भारतीयता जहाँ आहत न हो ऐसे परिवर्तन सदा स्वीकार्य होंगे। ये हमारी प्राचीन सामाजिक-पारिवारिक परम्परायें ही थीं जिनके कारण परिवार और समाज में भावनात्मक संतुलन बना रहता था। आज नयी रोशनी में ऐसे भावनात्मक संतुलन का अभाव सा प्रतीत होता है। भारतीय विवाह परम्परा एक ऐसी पवित्र संस्था है जो भावनाओं से जितनी गहरी जुड़ी है विश्व की अन्य कोई विवाह परम्परा इतनी गहराई से जुड़ नहीं सकी। ऐसी परम्परा के प्रतीक आज प्रश्नों के घेरे में हैं। भारत के विवाह और यहाँ की परम्परायें आज भी पश्चिम को आकर्षित करती हैं...कुछ तो ऐसा होगा आकर्षण ...हमें यह समझने की आवश्यकता है। जहां तक श्रृंगार की बात है तो यह पुरुष की दासता का प्रतीक नहीं कलात्मक अभिरुचि का प्रतीक है, पहले तो पुरुष भी श्रृंगार करते थे। आज फिर से कान में हीर की लौंग पहनने का प्रचलन प्रारम्भ हो गया है। तो यह रुचि की बात है। <br />अमित जी! मेरा भी एक विनम्र निवेदन है कि चर्चा या विमर्ष स्वस्थ्य भाव से होना चाहिये। इसे व्यक्तिगत आक्षेप या आरोप-प्रत्यारोप का माध्यम नहीं बनाया जाना चाहिये..अन्यथा विमर्ष के तत्व छिन्न-भिन्न होने लगते हैं।बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-66514897412044821502012-07-01T19:11:01.591+05:302012-07-01T19:11:01.591+05:30is kament ko padh kar vishvaas hogyaa ki raasta au...is kament ko padh kar vishvaas hogyaa ki raasta aur manjil dur nahin haen <br /><br />bahut bahut shubhkamana aur badhaaii is kament kae liyae maere yogya koi bhi kaam ho nishankoch keh dae agar laskhya<br /><br />अर्थात् धनी-निर्धन, बाल-युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष में भेदभाव अथवा पक्षपात रहित होना चाहिए। <br /><br />yae haen <br /><br />nisendhae itna sundar kament manaen ab tak nahin padhaa haen hindi blog par kahii bhi jahaan maenae stri purush samantaa par baat ki haen / behas ki haenरचनाhttps://www.blogger.com/profile/03821156352572929481noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-27104979337987379032012-07-01T17:54:53.701+05:302012-07-01T17:54:53.701+05:30ब्लॉग से जुड़े लेखकों और पाठकों से निवेदन है की ब्ल...ब्लॉग से जुड़े लेखकों और पाठकों से निवेदन है की ब्लॉग का उद्देश्य भारत-भारती का वैभव पुनर्स्थापित करने वाले तथ्यों का प्रसार करना है, इसलिये आलेख या टिप्पणियों में कोई वाक्य लिखने से पहले देखें कि कहीं वह विभाजनकारी वा वेदनाकारक तो नहीं।<br />मुझे अभी मेल से ज्ञात हुआ की हमारी एक अज्ञात पाठक जिन्होंने कमेन्ट आदि से अपनी उपस्थिति कभी दर्ज नहीं करवाई परन्तु भारत-भारती के लेखों को उत्साह से पढ़ती रहीं है, उन्हें यहाँ प्रकाशित एक कमेन्ट से महत्ती वेदना पहुंची है ।<br />मैं यहाँ ब्लॉग प्रबंधक के रूप में यह स्पष्ट करना चाहूँगा की विवाह द्वारा हम जिसके साथ जिंदगी बिताने के मधुरतम स्वप्न संजोते हैं, उनमें से किसी एक के अचानक चले जाने पर दूसरे साथी को जो दुःख होता है उसका निस्तार नहीं है । पत्नी की मृत्यु होने पर पति अपने बच्चों के पालन के नाम पर अथवा किसी अन्य कारण से दूसरा विवाह करते है या अविवाहित रहने पर भी अपनी वेश-भूषा में कोई परिवर्तन नहीं लातें है, तो यह वर्जना सिर्फ नारी के लिए ही क्यों ? जबकि वर्तमान परिवेश में जहाँ स्त्री को विशेषकर अपने जीवन साथी से बिछड़ने पर बच्चों को पलने के लिए नौकरी आदि करनी पड़ती है, अपनी बच्चों में उत्साह का प्रवाह बनाये रखना होता है वहाँ उससे आशा करना की वह अपने दैनिक बहरी जीवन में अवसरानुकूल वेश ना पहने अथवा दूसरा विवाह ना करें ।<br /><br />हमारे मनीषियों ने जो भी नियम इत्यादि बनाएं है, उसका मूल आधार सदाचरण रहा है। सारे के सारे नियम-उपनियम(रिवाज) सदाचरण के पोषण के लिए है।<br />विधुर पुरुष को पुनर्विवाह की आज्ञा और विधवा स्त्री को निषेध का कारण विधि निर्माताओं की यही सदाचारी दृष्ठी थी, जिसके पीछे का तत्कालीन सदाचारी पवित्र जीवन था।<br /><br />आयुर्वेद में शरीर की सात धातुएं "रस (बाइल ऐंड प्लाज्मा), रक्त, मांस, मेद (फ़ैट), अस्थि, मज्जा (बोन मैरो) और शुक्र (सीमेन)" मानी गयी है । पुरुष में वीर्य सप्तम एवं अंतिम धातु है। इसकी दो गति है एक अधोगामी दूसरी उर्ध्वगामी। ज्ञानी पुरुष अपनी साधना और अभ्यास से इसे उर्ध्वगामी बनाकर संयम द्वारा साधतें है, लेकिन ऐसे संयमी कुछ ही लोग होते है अन्यथा तो सभी निम्नगामी धातु के वेग को थमने में असमर्थ ही है। स्पष्ट है की वीर्य का वेग अपने काम रुपी प्रचंड साथी का हाथ थामे रहता है। जिसकी परिणिति विधिसम्मत ना होने पर व्यभिचार का ही प्रचार होता है, इसलिए इस व्यभिचार रुपी अनाचरण का निरोध करने के लिए महापुरषों ने पुरुष के पुनर्विवाह की सम्मति दी है .<br />जबकि स्त्री का रज उसकी द्वितीय धातु रक्त के बाद की स्थिति है, जिसके बाद उसे अन्य धातुओं के रूप में परिणीत होना शेष रहता है। अतः आत्मसंयम की संभावना पुरुष की अपेक्षा अत्यधिक रहती है. अतः विधवा स्त्री के शरीर धर्म से -जो की तत्कालीन समाज के आचरण से प्रभावित मन-बुद्धि द्वारा निर्देशित थे - व्यभिचार की संभावना नगण्य थी. इसलिए विधवा स्त्री के पुनर्विवाह को मनीषियों ने संगत नहीं माना।<br /><br /><br />लेकिन आज के समाज में जहाँ सारी की सारी ही वर्जनाएं टूट रही है, सदाचरण का नाम ही शेष नहीं है, वहाँ सदाचरण की पुनर्स्थापना के अन्य उपाय किये बिना केवल एक स्त्री को वर्तमान सामाजिक परिवेश में जहाँ उसे अकेले ही अपने तथा अपनी संतान का पालन करना पड़ता हो वहाँ पुनर्विवाह से रोकना अथवा उसके वेश/परिधान को ही उसकी अनैतिकता मानना मेरे अनुसार अनुचित हैं ।<br />मैं पुनः आग्रह करना चाहुंगा की संस्कृति संस्कार सम्बन्धी चर्चा में सर्वपक्षी वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये । अनवरत सांस्कृतिक यात्रा में कईं विकृतियों और अशुद्धताओं का आना अवश्यंभावी है। यदि गौरवमय शुद्ध संस्कृति लक्ष्य है तो विकृतियों और अशुद्धताओं का मण्डन नहीं खण्डन करना होगा । चूँकि पुरुष एवं प्रकृति ही समस्त जगत व्यवहार के मूल हैं इसलिए संस्कार आदि के क्षरण-पोषण के लिए समान उत्तरदायी हैं। अतः किसी एक पक्ष को एकपक्षीय जिम्मेदार ठहराए जाने वाले दुराग्रहों से बचा जाना चाहिये। जब हम सांस्कृतिक गौरव के पुनर्स्थापन की बात करते है तो सांस्कृतिक पुनर्विकास समग्रता से अर्थात् धनी-निर्धन, बाल-युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष में भेदभाव अथवा पक्षपात रहित होना चाहिए।<br />--Amit Sharmahttps://www.blogger.com/profile/15265175549736056144noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-52992312383026565352012-07-01T17:43:40.256+05:302012-07-01T17:43:40.256+05:30गम्भीर चिन्तन को समेटे हुए इस वार्ता के लिये आप ...गम्भीर चिन्तन को समेटे हुए इस वार्ता के लिये आप लोगों का आभार <br /><br />किन्तु मुझे यहाँ कुछ कहना अवश्य है, <br />कौन कहता है कि समाज किसी पर किसी प्रतीक विशेष को लाद रहा है, और यदि लाद रहा है तो वह स्त्री पुरुष दोनों पर बराबर है, यदि स्त्री के लिये सिन्दूर लगाना आवश्यक है तो पुरुष को भी चन्दन लगाना आवश्यक है, पर आजकल हमने ऐसे पचासों स्त्रियों और पुरुषेां को देखा है जो सिन्दूर व चन्दन का प्रयोग सर्वथा नहीं करते हैं, <br /><br />द्विजाति पुरुषों के लिये क्रमश: 8, 12 व 14 वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत धारण करना अनिवार्य है, किन्तु शायद ही आपने किसी को इन उम्रों में यज्ञोपवीत पहनते देखा हो, बल्कि अब यज्ञोपवीत धारण करना ही नहीं चाहते लोग, ठीक उसी प्रकार महिलाओं में विवाह के पश्चात् घूँघट निकालना नितान्त अनिवार्य था, खासकर अपने ज्येष्ठों के सम्मुख, पर मुझे नहीं लगता कि युवा पीढी में कोई भी औरत अब ऐसा करती है, कुछ करते भी होंगे पर अधिकतम तो नहीं ही करते हैं । <br /><br />फिर ऐसे भ्रामक तथ्यों की कोई आवश्यकता लगती है मुझे ऐसा नहीं लगता, आधुनिक युग अर्थप्रधान है, यहाँ धन के लिये पति अपना अमर प्रेम व पत्नी अपने प्राणपरमेश्वर को भी बेंच लेते हैं, फिर प्रतीक चिह्नों की बात ही क्या, ये तो मात्र प्राचीन भारतीय परम्पराओं के प्रतिनिधि हैं, आज जब भारत ही पाश्चात्य मानसिकता का गुलाम हो बैठा है तो बेहतर है ये प्रतीक अपनी स्थिति को समझते हुए रामराज्य आने की प्रतीक्षा करें ।SANSKRITJAGAThttps://www.blogger.com/profile/12337323262720898734noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-75351316007366980982012-07-01T12:51:35.941+05:302012-07-01T12:51:35.941+05:30ह्म्म्म अभी आपका कमेन्ट पढ़ कर मुझे एहसास हो रहा है...ह्म्म्म अभी आपका कमेन्ट पढ़ कर मुझे एहसास हो रहा है की ये लेख और ये चर्चा इस ग्रुप ब्लॉग की जगह व्यक्तिगत ब्लॉग पर हो तो ज्यादा बेहतर रहेगा | <br /><br />कृपया ये न सोचें की मैं बचने की कोशिश कर रहा हूँ , ना तो ये प्रश्न / विरोध ही नया है और ना ही ऐसा है की मुझे इसका सही उत्तर (स्वीकार किया गया) पता ना हो|<br /><br />मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ ये जानने के लिए ये लिंक देखें :<br /><br />http://bharatbhartivaibhavam.blogspot.in/2010/09/blog-post.htmlएक बेहद साधारण पाठकhttps://www.blogger.com/profile/14658675333407980521noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-49088239405831661572012-07-01T12:47:47.251+05:302012-07-01T12:47:47.251+05:30@ "kyaa jahaan islaam dharm hotaa haen wahaan...@ "kyaa jahaan islaam dharm hotaa haen wahaan aurto ko baechaa kharida nahin jaataa haen" <br /><br />मैने अवलोकन कर लिया है रचना जी। स्त्री को उपभोग की वस्तु समझना और उसे धार्मिक चोले में आवेष्टित कर अपने कुकृत्य को स्वीकार्य बनाने के प्रयास पूरे विश्व में होते रहे हैं। अकेला जी के लेख में देवदासी प्रथा के बारे में लिखा गया है जो मृतसर्प को पीटने जैसा है क्योंकि भारत में देवदासी की प्रथा समाप्त हो चुकी है। <br />तथापि बेड़िया जनजाति में लड़कियों को उनके स्वजनों द्वारा ही बेचने की परम्परा आज भी चल रही है। यद्यपि बेड़ियों में भी अब शिक्षा के प्रति रुझान देखा जा रहा है किंतु वह नगण्य है। जहाँ तक मुस्लिम देशों में लड़कियों की ख़रीद-फरोख़्त की बात है तो मेरी जानकारी के अनुसार कुछ मुस्लिम देशों में "निकाह-अल-हमात" की परम्परा है जिसमें लड़कियों को बिना निकाह किये केवल अनुबन्ध के आधार पर आधा घंटे से लेकर कुछ दिनों/कुछ सप्ताहों/ कुछ महीनों या कुछ वर्षों तक गिफ़्ट देने वाले मुस्लिम पुरुष के साथ रहना पड़ता है। यद्यपि हमातनामा की कार्यवाही किसी काज़ी की उपस्थिति में होती है पर यह स्त्री शोषण का महज़ एक छलभरा तरीका भर है जिसे धर्म् की आड़ में स्वीकार्य बना दिया गया है। फ़िलहाल हमें दूसरे देशों के बारे में नहीं, अपने देश में चल रही कुप्रथाओं के बारे में ही चिंतन करना हैबस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1075080103501088483.post-55163781409969330742012-07-01T11:25:41.898+05:302012-07-01T11:25:41.898+05:30साधारण पाठक गौरव जी, कौशलेन्द्र जी -
१. मैं और र...साधारण पाठक गौरव जी, कौशलेन्द्र जी - <br /><br />१. मैं और रचना यहाँ गहनों / या सिन्दूर / या किसी अन्य "सुहाग चिन्ह" की उपयोगिता / निरुपयोगिता पर नहीं, फायदे / नुक्सान पर नहीं, बल्कि उसके "सुहागन" "कुंवारी" और "विधवा"होने से जोड़े जाने का विरोध कर रहे हैं | यदि ये चीज़ें फायदेमंद हैं - तो सबके लिए , सिर्फ "सुहागिन" के लिए ही नहीं | और हर व्यक्ति को अपना फायदा नुकसान खुद निश्चित करने का अधिकार है | <br /><br />२. इस लेख का नाम है "बाध्यता : एक विमर्श" हम दोनों उस बाध्यता का विरोध कर रहे हैं | आप सब पुरुष हैं - हम स्त्री हैं - और यह "बाध्यता" आपके लेख के ही अनुसार "स्त्रियों" पर है, पुरुषों पर नहीं |<br /><br />३. संविधान कहता है कि जेंडर के अनुसार कोई भेदभाव करना गलत है - और मैं इस बात के साथ हूँ | और यह लेख इस भेदभाव को ही बढ़ावा दे रहा है | <br /><br />४. साधारण पाठक जी ने कहा कि लेखक ने प्रश्नों के उत्तर देने का पूरा "प्रयास" किया है | ऐसे प्रयास वे लोग भी करते हैं जो बालविवाह को सही या विधवा के आजीवन पति के नाम पर सफ़ेद सदी लपेटे रहने का पक्ष कहते हैं | "प्रयास" करने से उत्तर या बात सही होना सिद्ध नहीं होता | यदि हज़ार लोग भी कोई बात कह दें - तो भी गलत सही नहीं होता | <br /><br />५. बाध्यता / गुलामी हंमेशा गलत है - और गलत रहेगी | जब एक मनुष्य (या पूरे स्त्री समाज) के निजी पहनावे तक को दूसरे मनुष्य निर्धारित करने का प्रयास करते हैं, तो यह परिष्कृत रूप में गुलामी ही है, चाहे आप लोग इसे "संस्कृति" का नाम देते रहने के "प्रयास" करें |<br /> <br />आभार |Shilpa Mehta : शिल्पा मेहताhttps://www.blogger.com/profile/17400896960704879428noreply@blogger.com