गुरुवार, 30 दिसंबर 2010
पाँव की संख्या से निर्धारित तरह-तरह की वृत्तियाँ
शनिवार, 18 दिसंबर 2010
मजहबी संस्कृति बनाम राष्ट्रीयता....
इसी तरह एक जाति किसी दूसरी जाति के घर में----उसके राष्ट्र में पहुँच जाती है. वहाँ पहुँच युद्ध आदि के द्वारा विजेता रूप में रहती है, तो कुछ दिन तक गुप्त-प्रकट संघर्ष रहता है और फिर आपस में उन जातियों का मेल हो जाता है. धीरे-धीरे यह नई आई हुई जाति उस नई जगह को अपना लेती है---उसी में घुलमिल जाती है और वह अनेकता पुन: एकता में परिणत हो जाती है. ऎसी स्थिति में "प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति"----बहुत्व के आधार पर नाम-रूप ग्रहण होता है. जो धारा पहले से प्रतिष्ठित है, जो आधिक्य से भी है, उस का नाम-रूप रहता है. दूसरी उसी में विलीन हो जाती है. ऎसा नहीं होता कि दो संस्कृतियों के इस 'संगम' के बाद 'मिश्रित' नाम की कोई नई ही संस्कृति बन जाए! गंगा में आरम्भ से लेकर समुद्र प्रयन्त हजारों नदी-नाले मिलते हैं, परन्तु सब की वह मिली-जुली धारा आखिर रहेगी "गंगा" ही.
इसी तरह भारतीय जाति----यानि "हिन्दुस्तान" में बाहर से आ-आकर शक, हूण, मंगोल, मुगल आदि न जाने कितनी धाराएं मिली और खप गई. सब के सब स्वत: भारतीय बन गए. यहाँ का रहन-सहन और आचार-विचार ग्रहण कर लिया और बस! मत-मजहब चाहे जो मानते रहो. एक जाति में सैकडों मत-मजहब रह सकते हैं. कोई ईश्वर को मानता है, कोई नहीं मानता; दोनों ही "भारतीय" हैं, यदि भारतीयता उनमें बरकरार है. जब तक कोई बाह्य संस्कृति के रंग में डूबा रहेगा, तब तक वह सच्चे रूप में "भारतीय जाति" का नहीं हो सकता. हो ही नहीं सकता, अब कहने को भले ही कोई कुछ भी कहता रहे, समझता रहे.
शक, हूण और मंगोल आदि जो जातियाँ कभी इस देश में आई होंगी, वे सब तो "भारतीय" बनकर इस समाज में मिल-खप गई; पर बाद में आगे आने वाले कईं जातियों के लोग----पूरी तरह से न मिल सके! मजहब की आड लेकर उन लोगों द्वारा एक पृथक संस्कृति के निर्माण के प्रयास किए जाते रहे, बल्कि एक तरह से कहें तो निर्माण कर ही लिया गया. अब एक ही राष्ट्र में दो संस्कृतियाँ जन्म ले चुकी हैं, तो दो जातियाँ बन ही गई. "संस्कृति" और "जातीयता" प्राय: एक ही चीज है. "हिन्दू" और "हिन्दू-संस्कृति" एक ही चीज समझिए. हिन्दू तो एक जाति, जिस में हजारों मत-मजहब और वर्ग या दल हैं. परन्तु इस्लाम एक मजहब है, जाति नहीं. दशकों से इस मजहब के आधार पर ही भारत में एक नईं संस्कृति का निर्माण किया जाता रहा है, जिसे सब लोग "मुस्लिम-संस्कृति" कहते हैं. एक राष्ट्रीय संस्कृति और दूसरी महजबी संस्कृति. तुर्क-संस्कृति, अरब-संस्कृति, ईरानी-संस्कृति, चीनी-संस्कृति आदि की तरह ही "हिन्दू-संस्कृति" है, राष्ट्रपरक न कि मत-परक. हिन्दू-संस्कृति और भारतीय-संस्कृति दोनों पर्य्याय-शब्द हैं. दूसरे लोग जब 'हिन्दू' को एक धर्म समझने लगे, तब 'भारतीय-संस्कृति' शब्द चला. परन्तु 'मुस्लिम-संस्कृति' के साथ-साथ 'हिन्दू-संस्कृति' शब्द भी चलता ही रहा, चल ही रहा है और आगे चलेगा भी. शब्द कहाँ तक छोडे जाएँगें. हिन्दू भी तो विदेशियों नें ही कहना शुरू किया था, जिसका सम्बन्ध सिन्धु से है; किसी मजहब से नहीं. इसलिए हमने----भारतीयों नें इसे ही ग्रहण कर लिया.
जब दो संस्कृतियाँ, तो दो जातियाँ-----उसी का परिणाम दो राष्ट्र ! इस बात को तो हर व्यक्ति जानता हैं कि भिन्न संस्कृति---"मुस्लिम-संस्कृति" के आधार पर ही कभी इस राष्ट्र के दो टुकडे किए गए थे. जहाँ-जहाँ 'मुस्लिम-संस्कृति' या इस्लाम की प्रधानता थी, सब को काट-जोडकर एक नया राष्ट्र बना-पाकिस्तान!
परन्तु बचे हुए शेष भारत में तो अब भी वह 'दूसरी' संस्कृति कायम है, उस संस्कृति के अभिमानी यहाँ कितने ही करोडों लोग हैं. सौ-पचास तो आपके यहाँ ब्लागजगत में ही मिल जाएँगें, जिन्हे आप सब बखूबी जानते हैं. इन लोगों का बस चले तो ये लोग राष्ट्रभाषा हिन्दी से बदलकर फारसी कर दें. संविधान को दरकिनार कर देश में शरियत ही लागू कर दें, वैश्चिक बैंकिंग प्रणाली को बन्द कर देशभर में सिर्फ इस्लामिक बैंकिंग प्रणाली ही लागू कर दी जाए. भिन्न संस्कृति के अनुरूप ये लोग सभी बातों में पूरी तरह से भिन्नता बनाए हुए हैं.
अभी बीते दो-चार दिनों की ही बात है, यहीं किसी ब्लाग पर, बनारस बम विस्फोट के सूत्रधार इण्डियन मुजाहिदीन नाम के किसी इस्लामिक आंतकवादी संगठन द्वारा मीडिया के नाम भेजे गए एक सन्देश को पढ रहा था. शायद आप लोगों नें भी पढा हो.यदि न पढ पायें हो तो जरा इस पंक्ति को पढ लीजिए....."इंडियन मुजाहिद्दीन,महमूद गजनी,मुहम्मद गोरी,कुतुबुद्दीन ऐबक,फिरोज शाह तुगलक और औरंगजेब (अल्लाह इनको अपनी कुदरत से नवाजे)के बेटों ने यह संकल्प लिया है.......". देखिये ये है "मजहबी संस्कृति" का दुष्परिणाम, जिसे ये राष्ट्र भोगने को विवश है.
अब जम्मू-कश्मीर को ही देख लीजिए. दशकों से वहाँ जो नारकीय हालात बने हुए हैं, वो भी किसी से छुपे हुए नहीं है. सारी दुनिया जानती है. विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए बहुत बार देखा/सुना/पढा है कि आए दिन इस्लामिक तत्वों द्वारा खुलेआम "पाकिस्तान जिन्दाबाद" के नारे लगा-लगाकर आसमान गुँजा दिया जाता है. अब इनसे कोई पूछे कि भला इस्लाम से और पाकिस्तान जिन्दाबाद से क्या सम्बन्ध? आप लोगों नें कभी कहीं पढा/सुना है कि खुद के ही देश में किसी अफगानी या ईरानी मुसलमान नें "पाकिस्तान-जिन्दाबाद" और "अफगान/ईरान मुर्दाबाद" के नारे लगाये हों? कभी सुना है कि चीन के मुसलमानों नें भी, वहाँ के बौद्धों या अन्य विधर्मियों से लडकर "पाकिस्तान जिन्दाबाद" या "अरब-जिन्दाबाद" के नारे लगाए हैं ? असम्भव!!! उन लोगों में राष्ट्रीयता है, जातीयता है और मजहब उस राष्ट्रीयता पर हावी नहीं हो सकता. राष्ट्रीयता ही आगे बढेगी. चीन बौद्ध देश है; बुद्ध की मान्यता वहाँ सर्वोपरि है. परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि बुद्ध की जन्मस्थली(भारत) के वे मानसिक गुलाम हों. वे सब चीनी पहले हैं; बौद्ध आदि बाद में. चीन तो बुद्ध की इस जन्मस्थली हिन्दुस्तान पर सैनिक आक्रमण तक कर चुका है. अब भी इस देश की हजारों मील भूमी पर कब्जा किए बैठा है. मतलब ये है कि मजहब से ऊँचा दर्जा राष्ट्रीयता का है, जातियता का है. अगर जाति ही नहीं, तो मजहब कहाँ रहेगा ?
आज इस युग का यह सबसे बडा एवं महत्वपूर्ण काम है कि हम लोग संस्कृति का सही रूप समझकर "मजहबी मिथ्याभिमान" छोडें. तभी सही रूप में "एक जाति" का निर्माण होगा-----एक जाति का महत्व समझ में आएगा----और वो जाति होगी "भारतीय". यदि ऎसा हो पाता है, तो ही ये राष्ट्र एक सूत्र में बँधकर तेजस्वी हो पायेगा.अन्यथा.......??? न जाने ये देश कब खंड......खंड.......हो जाये!!!
जी हाँ....खंड...खंड!!
शनिवार, 11 दिसंबर 2010
{SANSKRITJAGAT} स्वागतम् ।।
प्रिय बन्धुओं स्वागत है इस संस्कृतवर्ग में आप सब का ।।
इत: परं वयं संस्कृतविषये बहुकिमपि चर्चयाम: ।।
अब हम लोग संस्कृत के विषय में बहुत कुछ चर्चा करेंगे ।।
चर्चाया: माध्यमं कापि भाषा भवितुम् अर्हति ।।
चर्चा का माध्यम कोई भी भाषा हो सकती है ।।
आग्लं भवतु वा, हिन्दी भवतु वा संस्कृतम् वा ।।
अंग्रजी हो, हिन्दी हो या संस्कृत हो ।
।
अस्माकं विषया: अपि केपि भवितुम् अर्हन्ति ।।
हमारे विषय भी कुछ भी हो सकते हैं ।।
वयं मिलित्वा सर्वेषां विषयानां पुनश्च समस्यानां समाधानं निराकरणं च
करिष्याम: ।।
हम सब मिलकर सभी विषयों और समस्याओं का समाधान और निराकरण करेंगे ।।
पठनं पाठनं चापि करिष्याम: ।।
पढें और पढायेंगे भी ।।
ग्रन्थानां आदान-प्रदानम् अपि करिष्याम: ।।
ग्रन्थों का आदान प्रदान भी करेंगे ।।
अनेन माध्यमेन एव सरलतया संस्कृतं अपि बोधयिष्याम: ।।
इसी माध्यम से ही सरल रूप से संस्कृत का ज्ञान भी करेंगे ।।
मया सह कृतसंकल्पा: भवन्तु सर्वे
मेरे साथ सभी कृतसंकल्प हों ।।
कृण्वतो विश्वमार्यम्
सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनायें ।।
जयतु संस्कृतम्
भवदीय: - आनन्द:
--
भवान् एष: सन्देश: प्राप्तवान् यतोहि भवान् अस्य वर्गस्य एक: सदस्य: ।
एतस्मै वर्गाय सन्देशं दातुं sanskritjagat@googlegroups.com जालसंकेते जालसंदेशं करोतु ।
वर्गं त्यक्तुं sanskritjagat+unsubscribe@googlegroups.com उपरि जालसंदेशं प्रेषयतु ।
अधिकं ज्ञातुं http://groups.google.com/group/sanskritjagat?hl=en संकेतम् उद्घाटयतु ।।
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
स्वार्थों के पुरातन गढ टूटकर रहेंगें.........
बुद्धिमान व्यक्ति सदैव दोनों को कसौटी पर कसकर किसी एक को अपनाते हैं. जो मूढ हैं, उन बेचारों के पास घर की बुद्धि का टोटा होने के कारण वे दूसरों के भुलावे में आ जाते हैं.
गुप्त युग के महान विद्वान श्री सिद्धसेन दिवाकर जी की एक बात मुझे स्मरण हो रही है. उन्होने कहा है कि " जो पुरातन काल था, वह मर चुका, वह दूसरों का था. आज का इन्सान यदि उसको पकडकर बैठेगा तो वह भी पुरातन की तरह ही मृत हो जाएगा. पुराने समय के जो विचार हैं, वे तो अनेक प्रकार के हैं. कौन ऎसा है जो भली प्रकार उनकी परीक्षा किए बिना, अपने मन को उधर जाने देगा".
जो स्वयं विचार करने में आलसी है, वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता. जिसके मन मे सही निश्चय करने की बुद्धि है, उसी के विचार प्रसन्न और साफ सुथरे हो सकते हैं. जो यह सोचता है कि पहले के धर्माचार्य, धर्मगुरू, पीर-पैगम्बर जो कह गए, सब सच्चा है, उनकी सब बातें सफल हैं और हमारी बुद्धि तथा विचारशक्ति टटपूंजिया है, ऎसा "बाबा वाक्य प्रमाणं" के ढंग से सोचने वाले इन्सान केवल आत्महनन का मार्ग अपनाते है.
अवार्चीन विचारधारा मानव केन्द्रिक रही है अर्थात जीवन के प्रत्येक अनुष्ठान का मध्यवर्ती बिन्दु मनुष्य है. वही प्रयोग आज महत्वपूर्ण है, जिसका इष्टदेवता मनुष्य है. जिस कार्य का फल साक्षात इहलौकिक मानव-जीवन के लिए न हो, जो निरीह जीवों के वध में ही अपने ईश्वर/अल्लाह की खुशी देखता हो, जो मनुष्य की अपेक्षा स्वर्ग के देवताओं या जन्नत के फरिश्तों को श्रेष्ठ समझता हो----वह किसी भी रूप में आधुनिक जीवन पद्धति के अनुकूल नहीं है.
विज्ञान,कला,साहित्य इत्यादि विश्व के समस्त विषयों की उपयोगिता की एकमात्र कसौटी मनुष्य का प्रत्यक्ष लाभ और प्रत्यक्ष जीवन है. प्रत्येक क्षेत्र में विचारों की हलचल मनुष्य के इसी रूप को पकडना चाहती है.
इस दृ्ष्टिकोण से आज जहाँ एक ओर मानव का मूल्य बढा है तो वहीं दूसरी ओर स्वर्ग-नरक, फरिश्तों, हूरों के ख्यालों में उडने वाले मानव के विचारों नें इस जीवन को सुन्दर बनाने का एक नया पाठ पढा है.
यह सच है कि अभी बहुत से क्षेत्रों में यह नया पाठ पूरी तरह से गले से नीचे नहीं उतर पाया है और स्वार्थों के पुराने गढ इसके विरोधी बने हुए हैं, पर निश्चित जानिए देर-सवेर ये गढ टूटकर रहेंगें......इन्हे टूटना ही होगा. आज नहीं तो कल!!!
क्योंकि विश्व के विचारों का केन्द्रबिन्दु आज मानव के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है और न ही अब आगे भविष्य में कभी हो सकता है.......
(पं.डी.के.शर्मा "वत्स")
सोमवार, 29 नवंबर 2010
क्या धरा संतो से खाली हो गयी है?
यदि नहीं तो आज सन्त कौन है या कौन हो सकता है?
अभी समय ऐसा हुआ जाता है कि हर मनुष्य तुरन्त परिणाम पाना चाहता है! उसे कैसे-क्या करना है इसका ज्ञान नहीं है! फिर अध्यात्म या धर्म सम्बन्धी विषय की जानकारी भी उसे नहीं है, कम से कम जितनी होनी चाहिए उतनी तो है ही नहीं! कही सुनी बातों पर ही वह भागा फिरता है! उसके जीवन में परेशानिया जितनी है उस से भी अधिक उसकी जरूरते है, जिनको पूरा करने के चक्कर में किसी ओर बात पर वो ध्यान नहीं दे पा रहा है! वो चाहता है कि उसके जीवन की भौतिक जरूरते पूरी करने वाली दिनचर्या भी यथावत चलती रहे और आनन्-फानन में अध्यात्म की जानकारी भी ले ले, या सीधे ही परमात्मा का साक्षात्कार भी कर ले, क्योकि उसने सुना है कि यही परम अवस्था है, यही हमारे होने का उद्देश्य है !
अब समस्या यह है कि उसे इस विषय के बारे में केवल सुना है,तेरे-मेरे के मुंह से, जिन पर उसे इतना विश्वाश नहीं है! ऐसे में उसे ध्यान आता है कि बिन गुरु भी निस्तार नहीं है! वही उसे सच्चा ज्ञान देगा जो उसकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए परमात्मा-प्राप्ति का मार्ग पक्का करेगा !
यहाँ एक और भावना उभर कर आती है, वो है "आस्था और श्रद्धा" की! हमारी अपने गुरु में पूरी आस्था होनी चाहिए, कोई भी शंका हमारी श्रद्धा से ऊपर नहीं होनी चाहिए! फिर गोबिंद से पहले गुरु-पूजन भी बताया है! अब यदि कोई अपने माने हुए गुरु में अंध-विश्वाश भी कर ले तो उसकी कहाँ तक गलती है! यदि विश्वाश ना करे तो उनकी परीक्षा लेना भी तो उचित नहीं लगता है !
हाँ! विश्वाश करने,उसे अपना गुरु मानने से पूर्व हम उसकी जांच-परख कर सकते है! लेकिन आज जनसँख्या ही इतनी हो गयी है कि बस अड्डा, अस्पताल, रेलवे स्टेशन और (यहाँ तक के) हर धर्म-स्टेशन पर बहुत बड़ा जन समूह दिखाई देता है! किसी पर भी विश्वाश कर लेने का एक बहुत बड़ा कारण ये देखा-देखी भी है! सोचते है, अब इतने सारे लोग पागल तो ना होंगे!
उसके ऐसा होने के कारणों पर अलग से चर्चा चलनी चाहिए !
लेकिन असल प्रशन जो अभी चित में कुलाचे मार रहे है वो ये कि, माना पाखण्ड ने अपने पैर पूरी तरह से पसार रक्खे है, लेकिन जब पहले भारतवर्ष में ऋषि-महर्षि हुए है और होते रहे है तो आज भी कोई ऋषि-महर्षि कहलाने के लायक व्यक्तित्व अस्तित्व में है या नहीं? क्या जो दिखता है वो सब पाखण्ड ही है? और जो पाखंडी अभी धर्मगुरु बना फिर रहा है (चाहे वो कोई भी हो) क्या ये उस पर परमात्मा कृपा नहीं है, और जो उसके बहकावे आ रहे है उन पर किस की कृपा हो रही है ?
कुंवर जी,
रविवार, 28 नवंबर 2010
जांके नख अरु जटा विशाला,सोई तापस प्रसिद्द कलिकाला
तब संतो ने भक्ति में नाच -गान संकीर्तन,प्रवचन आदि से समाज के मन को दिलासा देते हुए उन्हें संभालने की सफल कोशिश की थी.
नहीं तो हिन्दू धर्म में तो कर्मवाद प्रधान है- "कर्म प्रधान विश्व करी राखा, जो जस कराइ तस फल चाखा"(तुलसीकृत रामायण).जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है.
जब सुख दुःख कर्मो के परिणाम है तो यह पाखंडी गुरु कैसे किसी को दुखो से छुटकारा दिला सकतें है . गुरु की आवश्यकता बताई गयी है, पर ज्ञान प्राप्ति के लिए.और ज्ञान पाने का उद्देश्य उस परमेश्वर की शरण प्राप्त करना है न की,तथाकथित कलयुगी भगवानो की.
शास्त्रों में संतो के जो लक्षण बताये गएँ है - वह आज के इन पाखंडियों में कहाँ मिलते है. बाकी पाखंडियो के जो लक्षण तुलसीबाबा ने बतलाये है उन पे यह पूरे खरे उतरते है
तुलसीदास जी के शब्दों में -
"जांके नख अरु जटा विशाला,सोई तापस प्रसिद्द कलिकाला" -
जिसने लम्बी-लम्बी जटा और नाखून रखें हो(ढोंग रचा रखा हो) ऐसे पाखंडी ही कलियुग में बड़े तपस्वी कहलातें है.
"नारी मुई,गृह संपत्ति नाशी,मुंड मुंडाए भये सन्यासी "
जिसकी पत्नी मर गयी घर-बार संपत्ति का नाश हो गया है, ऐसे लोग सिर मुंडवा के सन्यासी का भेष धरे बैठ जाते है
हिन्दू समाज आज इन ढोंगियों के पाँव पड़ने में ही अपना कल्याण मान रहा है .
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
मैं किसी से कोई बदला नहीं चाहता — प्रो. बकरा हलाल
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
क्या यह वही इंसान है जो अपने को देवताओं व पीरों का वंशज बताता है और अहिंसा की रट लगाता है. नहीं, यह वह इंसान नहीं हो सकता. ऎसी सामूहिक हिंसा तो वे जंगली पशु भी नहीं करते जिनका भोजन सिर्फ दूसरे पशु ही हैं
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
सोमरस के विषय में कुछ प्रचलित विवादो का निराकरण – वेदरहस्यम्
मन्त्र: - तीव्रा:सोमास आ गह्याशीर्वन्त:सुता इमे । वायो तान्प्रस्थितान्पिब ।। (ऋग्वेद-1/23/1)
मन्त्र: - शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् । एदु निम्नं न रीयते ।। (ऋग्वेद-1/30/2)
मन्त्रार्थ: - नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकडो घडे सोमरस में मिले हुए हजारों घडे दुग्ध मिल करके इन्द्र देव को प्राप्त हों ।।
सोमवार, 15 नवंबर 2010
यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। भाग -- २
इन दोनों प्रकार की प्रकृति के मनुष्यों के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है. फिर भी बिलकुल सूक्ष्म रूप से कहना चाहे तो कह सकते है की दैवी प्रकृति के लोग सात्विक जीवनचर्या का निर्वहन करते हुए परोपकार में निरत रहते है, जबकि आसुरी वृत्ति के मनुष्य दंभ,मान और मद में उन्मत्त हुए स्वेच्छाचार पूर्ण आचरण करते हुए पापमय जीवन जीते है.
बतलाने की आवश्यकता नहीं की प्राय ऐसे आसुरी लोग ही मांस-भक्षण और अश्लील सेवन की रूचि रखते है, और ऐसे कुक्करों ने ही अर्थ का अनर्थ करके वेद आदि शास्त्रों में मद्य मांस तथा मैथुन की आज्ञा सिद्ध करने की धृष्टता की है.
महाभारत में कहा गया है की प्राचीन काल से यज्ञ-याग आदि केवल अन्न से ही होते आये है. मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है. वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है------
असुर शब्द का अर्थ ही है --- "प्राण का पोषण करने वाला" जो अपने सुख के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा करते है वे सभी असुर है. ये शास्त्र पड़ते हि इसलिए है की शास्त्र का मनमाना अर्थ करके येनकेन प्रकारेण शब्दों की व्युत्पत्ति करके खींचतान से चाहे जो अर्थ निकाल कर शास्त्रों की मर्यादा का नाश किया जा सके. इन कुकर्मियों द्वारा वेदों द्वारा यज्ञों में मद्य-मांस का विधान, पशुवध की रीति बतायी गयी है ऐसा कहा जाता है .
वेद साक्षात भगवान् की वाणी है, उनमें ऐसी कोई बात कभी नहीं हो सकती जो मनुष्य को अनर्गल विषयभोग और हिंसा की और जाने के लिए प्रोत्साहित करती हो. वेद भगवान् की तो स्पष्ट आज्ञा है ------------ "मा हिंस्यात सर्वा भूतानि" ( किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें ).
बल्कि यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम है उनसे ही यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक होते आये है.
"ध्वर" शब्द का अर्थ है हिंसा. जहाँ ध्वर अर्थात हिंसा ना हो उसी का नाम है "अध्वर" . यह "अध्वर" ही यज्ञ का पर्यायवाची नाम है . अतः हिंसात्मक कृत्य कभी भी वेद विहित यज्ञ नहीं माना जा सकता है.
"यज" धातु से "यज्ञ" बनता है. इसका अर्थ है----- देवपूजा,संगतिकरण और दान. इनमें से कोई से भी क्रिया हिंसा का संकेत नहीं करती है.
वैदिक यज्ञों में तो मांस का इतना विरोध है की मांस जलाने वाली आग को सर्वथा ताज्य घोषित किया गया है. प्राय: चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है. जहाँ अपनी मृत्यु से मरे हुए मनुष्यों के अंत्येष्टि-संस्कार में उपयोग की जाने वाली अग्नि का भी बहिष्कार है, वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठापित विशुद्ध अग्नि में अपने द्वारा मरे गए पशु के होम का विधान कैसे हो सकता है ?
आज भी जब वेदी पर अग्नि की स्थापना होती तो उसमें से अग्नि का थोडा सा अंश निकालकर बाहर रख दिया जाता है. इस भावना के साथ की कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली अग्नि ) के परमाणु ना मिले हो. अत: "क्रव्यादांशं त्यक्त्वा" (क्रव्याद का अंश निकालकर ही ) होम करने की विधि है.
ऋग्वेद का वचन है-------
ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहाँ गया है की जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गाय आदि पशुओं का मांस खाता हो तथा गाय के दूध को चुरा लेता हो, उसका मस्तक काट डालो --------
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ।।
शनिवार, 13 नवंबर 2010
क्षुद्रता के विविध रूप
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
घृत (घी) और सूर्य किरणों में में पुष्टिदायक तत्त्व- वेदों में विज्ञान !!
विदित हो कि आज का विज्ञानं चिल्ला चिल्ला कर घी को और सूर्य कि किरणों को उर्जा का स्रोत कहता है !
और आज सभी लोग इस बात को स्वीकार करते भी हैं ! किन्तु लाखों वर्षों पहले यही तथ्य हमारे मनीषियों ने संपादित किया था क्या हम इस तथ्य को भी जानते हैं या जानने का प्रयास करते हैं क्या ?
ऋग्वेद का यह सूक्त आपको इस तथ्य से अवगत कराता है !
संकेत . -- मित्रं हुवे ............................................................ साधन्ता ! (ऋग्वेद १/२/७)
भावार्थ . - घृत के समान पुष्ट, प्राणप्रद प्रकाशक हितैषी पवित्र सूर्य देवता और समर्थ वरुण देवता का आवाहन करता हूँ ! वे हमारी बुद्धि को उर्वरा बनाएं !!
टिप्पणी- उक्त मन्त्र में सूर्य को घृत के समान पुष्ट प्राणदायक पवित्र कहा गया है ! अब जरा दादी नानी के नुस्खे याद कीजिये ! जब आप की सेहत को देखते हुए आप के खाने में ढेर सारा घी डालते हुए वो कहा करती थी , बेटा खा ले, मोटा हो जाएगा !
आज का विज्ञान क्या कहता है ये तो आप सब को पता होगा ! घी की शक्ति का प्रमाण मिल जाने के बाद मन्त्र के आगे के भाग पर गौर करें तो देखते हैं कि घी के समान गुण वाला सूर्य को कहा गया है ! तात्पर्य यह है कि सूर्य कि ऊर्जा हमारे लिए उतनी ही लाभ दायक है जितनी कि घी ! अब विज्ञान की बातें याद करें तो वह भी यही कहता है कि सूर्य कि किरणों में फला- फला विटामिन होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अति लाभदायक होते हैं ! वरुण के लिए समर्थ शब्द का प्रयोग किया गया है ! क्यूंकि वरुण के मूर्त रूप जल के गुणों की आगे के मन्त्रों में चर्चा है ! किन्तु यदि वरुण के साथ भी उक्त विशेषण लगा दिए जाएँ तो भी कोई गलत नहीं होगा, क्यूंकि जल में भी कई गुण होते हैं जिनका वर्णन आगे के मंत्रो में प्राप्त भी होता है ! ये स्पष्टीकरण इसलिए दे रहा हूँ कि हमारे कुछ भाई हैं जो तथ्यों से ज्यादा गलतियों पर ध्यान देते हैं ! अब वेद भगवान कि महिमा का ज्ञान अधिकाधिक जनों को हो इसके लिए इस लेख को जितना अधिक लोगों को भेज सकें उत्तम है !
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रविवार, 7 नवंबर 2010
यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। भाग -- १
संकेत - अग्ने यं ................................................................. इद्देवेषु गच्छति ।। (ऋग्वेद - 1/1/4)
भवदीय: - आनन्द:
बुधवार, 3 नवंबर 2010
विश्व की प्रधानतम व प्राचीनतम खोज - वेदों में विज्ञान ।।
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
प्राचीन को बचाइये पहना नवीन आवरण
प्राचीन को बचाइये पहना नवीन आवरण.
भूत में सोचा भविष्य है बना हुआ नवीन
आज, कल नवीनता से वह भी होगा विहीन.
आज तुम नवीनता से होकर हर्षातिरेक
चमक को स्वीकारते नकारते हो चिर विवेक.
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
हिंसामूल जगुप्साप्रेरक
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
आदर्श
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
सोमवार, 25 अक्टूबर 2010
वैचारिक दक्षता का अहंकार विद्वान को ले डूबता है।
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
तृष्णा न होती जीर्ण
-भृतहरि
यदि भोगों में सांसारिक वस्तुओं में सुख होता तो वे उन्हें कभी न छोड़ते, परन्तु भोगो में संसार की वस्तुओं में सुख नहीं है, यह क्षणिक सुख है, जो अंत में दुःख रूप ही है, केवल आरम्भ में ही सुखमूलक लगता है !!!
गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010
गर्व रहित ज्ञान
बिना जाने ही तथ्य खारिज करना मिथ्यात्व का लक्षण है। और यहां मिथ्यात्वी ही पाखण्डी माना गया है।“