गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

पाँव की संख्या से निर्धारित तरह-तरह की वृत्तियाँ


विवाह से पूर्व व्यक्ति दो पाया होने से राक्षसी-वृत्ति का होता है. विवाह होने पर चौपाया होने से पाशविक-वृत्ति का हो जाता है. उसके पश्चात संतान होने पर पूर्णतः गृहस्थी हो जाने से छह पाया अर्थात लूतिका-वृत्ति का हो जाया करता है. वानप्रस्थ में आ जाने पर पुनः दो पाया अर्थात मनुष्य वृत्ति का कहलाता है और अंशतः परिपक्व अवस्था में आकर सर्वदाता होने से देववृत्ति का हो जाता है. 

राक्षसी वृत्ति — निरंतर विकास करने की वृत्ति [गुरु से गुरुतर हो जाने का स्वभाव] और अन्यों को पराजित करने की भावना. इसमें ईर्ष्या-द्वेष भी चरम सीमा पर (प्रायः) पाया जाता है. 

पशु वृत्ति — निरंतर भोगने की वृत्ति [तृप्ति के पश्चात भी अतृप्ति का भाव] और अन्यों का भाग भी पा लेने की भावना. इसमें मस्तिष्क की जड़ता और विवशता दोनों अवस्थाएँ पायी जाती हैं. 

लूतिका वृत्ति / पिपीलिका वृत्ति — निरंतर संग्रह करने की वृत्ति और सुखद भविष्य के लिये योजनायें (जाल) तैयार करना. अन्यों को अपने पोषण के लिये शिकार बनाने की भावना. इसमें छल-कपट भी चरम सीमा पर पाया जाता है. 

मनुष्य वृत्ति — निरंतर त्याग करने की वृत्ति और अन्यों का परोपकार करने की भावना. इसमें मात्र जीवन जीने का 'मोह' शेष रह जाता है और स्वार्थ रूप में मोक्ष-प्राप्ति की भावना ही बचती है अर्थात वह उत्तम देवता बनने की इच्छा रखता है. 

देव-वृत्ति — निरंतर देते जाने की वृत्ति, पर फिर भी वह रिक्त हस्त नहीं होता. इसमें स्वार्थ का पूर्णतः पराभाव होता है. 

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

मजहबी संस्कृति बनाम राष्ट्रीयता....

अमूमन जो व्यक्ति जिस घर,जिस कुटुम्ब, जिस कुल में जन्म लेता है, वह उस पर अपना स्वामित्व रखता है और अपने कुल की मर्यादा का ध्यान रखते हुए अपने पुरखों के संस्कार लेकर चलता है. परन्तु ऎसा भी होता है कि किसी दूसरे घर में पैदा हुए बच्चे को अगर कोई व्यक्ति 'गोद' ले लेता हैं,तो वह भी इस नये घर में आकर संतान होने के समस्त अधिकार स्वत: ही पा जाता है. गोद आए हुए बच्चे अर्थात दत्तक सन्तान को इस नये घर को ही 'अपना' घर समझना होता है. इसी घर के पुरखों को वह अपनाता है और इसी के आचार-विचार ग्रहण करता है. परन्तु उसके मन में कदाचित यह विचार भी आ सकता है----आना स्वाभाविक है---कि मैं इस घर में आ गया हूँ, पर मेरा असली घर तो वह है जहाँ से ये लोग मुझे लेकर आए हैं! यानि थोडी बहुत ममता उधर भी रहती है, रह सकती है. परन्तु इस गोद आए हुए बच्चे की भावी पीढियाँ 'उस' घर की ममता एकदम छोड देती है, जिस घर से उनका वह पूर्वज आया था. वे सुनी-सुनाई बातों से इतना जानते भर हो सकते हैं कि हमारा वो पूर्वज अमुक जगह से गोद लिया गया था. आगे चलकर वह स्मृति भी प्राय: नहीं रहती.
इसी तरह एक जाति किसी दूसरी जाति के घर में----उसके राष्ट्र में पहुँच जाती है. वहाँ पहुँच युद्ध आदि के द्वारा विजेता रूप में रहती है, तो कुछ दिन तक गुप्त-प्रकट संघर्ष रहता है और फिर आपस में उन जातियों का मेल हो जाता है. धीरे-धीरे यह नई आई हुई जाति उस नई जगह को अपना लेती है---उसी में घुलमिल जाती है और वह अनेकता पुन: एकता में परिणत हो जाती है. ऎसी स्थिति में "प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति"----बहुत्व के आधार पर नाम-रूप ग्रहण होता है. जो धारा पहले से प्रतिष्ठित है, जो आधिक्य से भी है, उस का नाम-रूप रहता है. दूसरी उसी में विलीन हो जाती है. ऎसा नहीं होता कि दो संस्कृतियों के इस 'संगम' के बाद 'मिश्रित' नाम की कोई नई ही संस्कृति बन जाए! गंगा में आरम्भ से लेकर समुद्र प्रयन्त हजारों नदी-नाले मिलते हैं, परन्तु सब की वह मिली-जुली धारा आखिर रहेगी "गंगा" ही.
इसी तरह भारतीय जाति----यानि "हिन्दुस्तान" में बाहर से आ-आकर शक, हूण, मंगोल, मुगल आदि न जाने कितनी धाराएं मिली और खप गई. सब के सब स्वत: भारतीय बन गए. यहाँ का रहन-सहन और आचार-विचार ग्रहण कर लिया और बस! मत-मजहब चाहे जो मानते रहो. एक जाति में सैकडों मत-मजहब रह सकते हैं. कोई ईश्वर को मानता है, कोई नहीं मानता; दोनों ही "भारतीय" हैं, यदि भारतीयता उनमें बरकरार है. जब तक कोई बाह्य संस्कृति के रंग में डूबा रहेगा, तब तक वह सच्चे रूप में "भारतीय जाति" का नहीं हो सकता. हो ही नहीं सकता, अब कहने को भले ही कोई कुछ भी कहता रहे, समझता रहे.
शक, हूण और मंगोल आदि जो जातियाँ कभी इस देश में आई होंगी, वे सब तो "भारतीय" बनकर इस समाज में मिल-खप गई; पर बाद में आगे आने वाले कईं जातियों के लोग----पूरी तरह से न मिल सके! मजहब की आड लेकर उन लोगों द्वारा एक पृथक संस्कृति के निर्माण के प्रयास किए जाते रहे, बल्कि एक तरह से कहें तो निर्माण कर ही लिया गया. अब एक ही राष्ट्र में दो संस्कृतियाँ जन्म ले चुकी हैं, तो दो जातियाँ बन ही गई. "संस्कृति" और "जातीयता" प्राय: एक ही चीज है. "हिन्दू" और "हिन्दू-संस्कृति" एक ही चीज समझिए. हिन्दू तो एक जाति, जिस में हजारों मत-मजहब और वर्ग या दल हैं. परन्तु इस्लाम एक मजहब है, जाति नहीं. दशकों से इस मजहब के आधार पर ही भारत में एक नईं संस्कृति का निर्माण किया जाता रहा है, जिसे सब लोग "मुस्लिम-संस्कृति" कहते हैं. एक राष्ट्रीय संस्कृति और दूसरी महजबी संस्कृति. तुर्क-संस्कृति, अरब-संस्कृति, ईरानी-संस्कृति, चीनी-संस्कृति आदि की तरह ही "हिन्दू-संस्कृति" है, राष्ट्रपरक न कि मत-परक. हिन्दू-संस्कृति और भारतीय-संस्कृति दोनों पर्य्याय-शब्द हैं. दूसरे लोग जब 'हिन्दू' को एक धर्म समझने लगे, तब 'भारतीय-संस्कृति' शब्द चला. परन्तु 'मुस्लिम-संस्कृति' के साथ-साथ 'हिन्दू-संस्कृति' शब्द भी चलता ही रहा, चल ही रहा है और आगे चलेगा भी. शब्द कहाँ तक छोडे जाएँगें. हिन्दू भी तो विदेशियों नें ही कहना शुरू किया था, जिसका सम्बन्ध सिन्धु से है; किसी मजहब से नहीं. इसलिए हमने----भारतीयों नें इसे ही ग्रहण कर लिया.
जब दो संस्कृतियाँ, तो दो जातियाँ-----उसी का परिणाम दो राष्ट्र ! इस बात को तो हर व्यक्ति जानता हैं कि भिन्न संस्कृति---"मुस्लिम-संस्कृति" के आधार पर ही कभी इस राष्ट्र के दो टुकडे किए गए थे. जहाँ-जहाँ 'मुस्लिम-संस्कृति' या इस्लाम की प्रधानता थी, सब को काट-जोडकर एक नया राष्ट्र बना-पाकिस्तान!
परन्तु बचे हुए शेष भारत में तो अब भी वह 'दूसरी' संस्कृति कायम है, उस संस्कृति के अभिमानी यहाँ कितने ही करोडों लोग हैं. सौ-पचास तो आपके यहाँ ब्लागजगत में ही मिल जाएँगें, जिन्हे आप सब बखूबी जानते हैं. इन लोगों का बस चले तो ये लोग राष्ट्रभाषा हिन्दी से बदलकर फारसी कर दें. संविधान को दरकिनार कर देश में शरियत ही लागू कर दें, वैश्चिक बैंकिंग प्रणाली को बन्द कर देशभर में सिर्फ इस्लामिक बैंकिंग प्रणाली ही लागू कर दी जाए. भिन्न संस्कृति के अनुरूप ये लोग सभी बातों में पूरी तरह से भिन्नता बनाए हुए हैं.
अभी बीते दो-चार दिनों की ही बात है, यहीं किसी ब्लाग पर, बनारस बम विस्फोट के सूत्रधार इण्डियन मुजाहिदीन नाम के किसी इस्लामिक आंतकवादी संगठन द्वारा मीडिया के नाम भेजे गए एक सन्देश को पढ रहा था. शायद आप लोगों नें भी पढा हो.यदि न पढ पायें हो तो जरा इस पंक्ति को पढ लीजिए....."इंडियन मुजाहिद्दीन,महमूद गजनी,मुहम्मद गोरी,कुतुबुद्दीन ऐबक,फिरोज शाह तुगलक और औरंगजेब (अल्लाह इनको अपनी कुदरत से नवाजे)के बेटों ने यह संकल्प लिया है.......". देखिये ये है "मजहबी संस्कृति" का दुष्परिणाम, जिसे ये राष्ट्र भोगने को विवश है.
अब जम्मू-कश्मीर को ही देख लीजिए. दशकों से वहाँ जो नारकीय हालात बने हुए हैं, वो भी किसी से छुपे हुए नहीं है. सारी दुनिया जानती है. विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए बहुत बार देखा/सुना/पढा है कि आए दिन इस्लामिक तत्वों द्वारा खुलेआम "पाकिस्तान जिन्दाबाद" के नारे लगा-लगाकर आसमान गुँजा दिया जाता है. अब इनसे कोई पूछे कि भला इस्लाम से और पाकिस्तान जिन्दाबाद से क्या सम्बन्ध? आप लोगों नें कभी कहीं पढा/सुना है कि खुद के ही देश में किसी अफगानी या ईरानी मुसलमान नें "पाकिस्तान-जिन्दाबाद" और "अफगान/ईरान मुर्दाबाद" के नारे लगाये हों? कभी सुना है कि चीन के मुसलमानों नें भी, वहाँ के बौद्धों या अन्य विधर्मियों से लडकर "पाकिस्तान जिन्दाबाद" या "अरब-जिन्दाबाद" के नारे लगाए हैं ? असम्भव!!! उन लोगों में राष्ट्रीयता है, जातीयता है और मजहब उस राष्ट्रीयता पर हावी नहीं हो सकता. राष्ट्रीयता ही आगे बढेगी. चीन बौद्ध देश है; बुद्ध की मान्यता वहाँ सर्वोपरि है. परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि बुद्ध की जन्मस्थली(भारत) के वे मानसिक गुलाम हों. वे सब चीनी पहले हैं; बौद्ध आदि बाद में. चीन तो बुद्ध की इस जन्मस्थली हिन्दुस्तान पर सैनिक आक्रमण तक कर चुका है. अब भी इस देश की हजारों मील भूमी पर कब्जा किए बैठा है. मतलब ये है कि मजहब से ऊँचा दर्जा राष्ट्रीयता का है, जातियता का है. अगर जाति ही नहीं, तो मजहब कहाँ रहेगा ?
आज इस युग का यह सबसे बडा एवं महत्वपूर्ण काम है कि हम लोग संस्कृति का सही रूप समझकर "मजहबी मिथ्याभिमान" छोडें. तभी सही रूप में "एक जाति" का निर्माण होगा-----एक जाति का महत्व समझ में आएगा----और वो जाति होगी "भारतीय". यदि ऎसा हो पाता है, तो ही ये राष्ट्र एक सूत्र में बँधकर तेजस्वी हो पायेगा.अन्यथा.......??? न जाने ये देश कब खंड......खंड.......हो जाये!!!
जी हाँ....खंड...खंड!!

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

{SANSKRITJAGAT} स्‍वागतम् ।।

प्रिय बान्‍धवा: स्‍वागतमस्ति अस्मिन् संस्‍कृतवर्गे भवतां सर्वेषाम्
प्रिय बन्‍धुओं स्‍वागत है इस संस्‍कृतवर्ग में आप सब का ।।

इत: परं वयं संस्‍कृतविषये बहुकिमपि चर्चयाम: ।।
अब हम लोग संस्‍कृत के विषय में बहुत कुछ चर्चा करेंगे ।।

चर्चाया: माध्‍यमं कापि भाषा भवितुम् अर्हति ।।
चर्चा का माध्‍यम कोई भी भाषा हो सकती है ।।

आग्‍लं भवतु वा, हिन्‍दी भवतु वा संस्‍कृतम् वा ।।
अंग्रजी हो, हिन्‍दी हो या संस्‍कृत हो ।

अस्‍माकं विषया: अपि केपि भवितुम् अर्हन्ति ।।
हमारे विषय भी कुछ भी हो सकते हैं ।।

वयं मिलित्‍वा सर्वेषां विषयानां पुनश्‍च समस्‍यानां समाधानं निराकरणं च
करिष्‍याम: ।।
हम सब मिलकर सभी विषयों और समस्‍याओं का समाधान और निराकरण करेंगे ।।

पठनं पाठनं चापि करिष्‍याम: ।।
पढें और पढायेंगे भी ।।

ग्रन्‍थानां आदान-प्रदानम् अपि करिष्‍याम: ।।
ग्रन्‍थों का आदान प्रदान भी करेंगे ।।

अनेन माध्‍यमेन एव सरलतया संस्‍कृतं अपि बोधयिष्‍याम: ।।
इसी माध्‍यम से ही सरल रूप से संस्‍कृत का ज्ञान भी करेंगे ।।


मया सह कृतसंकल्‍पा: भवन्‍तु सर्वे
मेरे साथ सभी कृतसंकल्‍प हों ।।


कृण्‍वतो विश्‍वमार्यम्
सम्‍पूर्ण विश्‍व को आर्य बनायें ।।

जयतु संस्‍कृतम्
भवदीय: - आनन्‍द:

--
भवान् एष: सन्‍देश: प्राप्‍तवान् यतोहि भवान् अस्‍य वर्गस्‍य एक: सदस्‍य: ।
एतस्‍मै वर्गाय सन्‍देशं दातुं sanskritjagat@googlegroups.com जालसंकेते जालसंदेशं करोतु ।
वर्गं त्‍यक्‍तुं sanskritjagat+unsubscribe@googlegroups.com उपरि जालसंदेशं प्रेषयतु ।
अधिकं ज्ञातुं http://groups.google.com/group/sanskritjagat?hl=en संकेतम् उद्घाटयतु ।।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

स्वार्थों के पुरातन गढ टूटकर रहेंगें.........

जो पुरातन है, वो केवल इसी कारण से अच्छा नहीं माना जा सकता कि वो हमारे पूर्वजों की देन है. और जो नया है, उसका भी तिरस्कार करना उचित नहीं.
बुद्धिमान व्यक्ति सदैव दोनों को कसौटी पर कसकर किसी एक को अपनाते हैं. जो मूढ हैं,   उन बेचारों के पास घर की बुद्धि का टोटा होने के कारण वे दूसरों के भुलावे में आ जाते हैं.
गुप्त युग के महान विद्वान श्री सिद्धसेन दिवाकर जी की एक बात मुझे स्मरण हो रही है.  उन्होने कहा है कि  " जो पुरातन काल था, वह मर चुका, वह दूसरों का था. आज का इन्सान यदि उसको पकडकर बैठेगा तो वह भी पुरातन की तरह ही मृत हो जाएगा.  पुराने समय के जो विचार हैं, वे तो अनेक प्रकार के हैं. कौन ऎसा है जो भली प्रकार उनकी परीक्षा किए बिना, अपने मन को उधर जाने देगा".
जो स्वयं विचार करने में आलसी है, वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता. जिसके मन मे सही निश्चय करने की बुद्धि है, उसी के विचार प्रसन्न और साफ सुथरे हो सकते हैं. जो यह सोचता है कि पहले के धर्माचार्य, धर्मगुरू, पीर-पैगम्बर जो कह गए, सब सच्चा है, उनकी सब बातें सफल हैं और हमारी बुद्धि तथा विचारशक्ति टटपूंजिया है, ऎसा "बाबा वाक्य प्रमाणं" के ढंग से सोचने वाले इन्सान केवल आत्महनन का मार्ग अपनाते है.


अवार्चीन विचारधारा मानव केन्द्रिक रही है अर्थात जीवन के प्रत्येक अनुष्ठान का मध्यवर्ती बिन्दु मनुष्य है. वही प्रयोग आज महत्वपूर्ण है, जिसका इष्टदेवता मनुष्य है. जिस कार्य का फल साक्षात इहलौकिक मानव-जीवन के लिए न हो, जो निरीह जीवों के वध में ही अपने ईश्वर/अल्लाह की खुशी देखता हो, जो मनुष्य की अपेक्षा स्वर्ग के देवताओं या जन्नत के फरिश्तों को श्रेष्ठ समझता हो----वह किसी भी रूप में आधुनिक जीवन पद्धति के अनुकूल नहीं है.
विज्ञान,कला,साहित्य इत्यादि विश्व के समस्त विषयों की उपयोगिता की एकमात्र कसौटी मनुष्य का प्रत्यक्ष लाभ और प्रत्यक्ष जीवन है.  प्रत्येक क्षेत्र में विचारों की हलचल मनुष्य के इसी रूप को पकडना चाहती है.
इस दृ्ष्टिकोण से आज जहाँ एक ओर मानव का मूल्य बढा है तो वहीं दूसरी ओर स्वर्ग-नरक, फरिश्तों, हूरों के ख्यालों में उडने वाले मानव के विचारों नें इस जीवन को सुन्दर बनाने का एक नया पाठ पढा है.
यह सच है कि अभी बहुत से क्षेत्रों में यह नया पाठ पूरी तरह से गले से नीचे नहीं उतर पाया है और स्वार्थों के पुराने गढ इसके विरोधी बने हुए हैं, पर निश्चित जानिए देर-सवेर ये गढ टूटकर रहेंगें......इन्हे टूटना ही होगा.  आज नहीं तो कल!!!
क्योंकि विश्व के विचारों का केन्द्रबिन्दु आज मानव के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है और न ही अब आगे भविष्य में कभी हो सकता है.......
(पं.डी.के.शर्मा "वत्स")

सोमवार, 29 नवंबर 2010

क्या धरा संतो से खाली हो गयी है?

क्या धरा संतो से खाली हो गयी है?
यदि नहीं तो आज सन्त कौन है या कौन हो सकता है?


अभी समय ऐसा हुआ जाता है कि हर मनुष्य तुरन्त परिणाम पाना चाहता है! उसे कैसे-क्या करना है इसका ज्ञान नहीं है!  फिर अध्यात्म या धर्म सम्बन्धी विषय की जानकारी भी उसे नहीं है, कम से कम जितनी होनी चाहिए उतनी तो है ही नहीं!  कही सुनी बातों पर ही वह भागा फिरता है!  उसके जीवन में परेशानिया जितनी है उस से भी अधिक उसकी जरूरते है,  जिनको पूरा करने के चक्कर में किसी ओर बात पर वो ध्यान नहीं दे पा रहा है!   वो चाहता है कि उसके जीवन की भौतिक जरूरते पूरी करने वाली दिनचर्या भी यथावत चलती रहे और आनन्-फानन में अध्यात्म की जानकारी भी ले ले,  या सीधे ही परमात्मा का साक्षात्कार भी कर ले,   क्योकि उसने सुना है कि यही परम अवस्था है,   यही हमारे होने का उद्देश्य है !


अब समस्या यह है कि उसे इस विषय के बारे में केवल सुना है,तेरे-मेरे के मुंह से,   जिन पर उसे इतना विश्वाश नहीं है!   ऐसे में उसे ध्यान आता है कि बिन गुरु भी निस्तार नहीं है!   वही उसे सच्चा ज्ञान देगा जो उसकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए परमात्मा-प्राप्ति का मार्ग पक्का करेगा !


यहाँ एक और भावना उभर कर आती है,  वो है "आस्था और श्रद्धा"  की! हमारी अपने गुरु में पूरी आस्था होनी चाहिए, कोई भी शंका हमारी श्रद्धा से ऊपर नहीं होनी चाहिए!    फिर गोबिंद से पहले गुरु-पूजन भी बताया है!    अब यदि कोई अपने माने हुए गुरु में अंध-विश्वाश भी कर ले तो उसकी कहाँ तक गलती है!   यदि विश्वाश ना करे तो उनकी परीक्षा लेना भी तो उचित नहीं लगता है !


हाँ!   विश्वाश करने,उसे अपना गुरु मानने से पूर्व हम उसकी जांच-परख कर सकते है!    लेकिन आज जनसँख्या ही इतनी हो गयी है कि बस अड्डा, अस्पताल, रेलवे स्टेशन और (यहाँ तक के) हर धर्म-स्टेशन  पर बहुत बड़ा जन समूह दिखाई देता है!   किसी पर भी विश्वाश कर लेने का एक बहुत बड़ा कारण ये देखा-देखी भी है!   सोचते है, अब इतने सारे लोग पागल तो ना होंगे!
उसके ऐसा होने के कारणों पर अलग से चर्चा चलनी चाहिए !


लेकिन असल प्रशन जो अभी चित में कुलाचे मार रहे है वो ये कि, माना पाखण्ड ने अपने पैर पूरी तरह से पसार रक्खे है, लेकिन  जब पहले भारतवर्ष में ऋषि-महर्षि हुए है और होते रहे है तो आज भी कोई ऋषि-महर्षि कहलाने के लायक  व्यक्तित्व अस्तित्व में है या नहीं?  क्या जो दिखता है वो सब पाखण्ड ही है?   और जो पाखंडी अभी धर्मगुरु बना फिर रहा है (चाहे वो कोई भी हो) क्या ये उस पर परमात्मा कृपा नहीं है,   और जो उसके बहकावे आ रहे है उन पर किस की कृपा हो रही है ?


कुंवर जी,

रविवार, 28 नवंबर 2010

जांके नख अरु जटा विशाला,सोई तापस प्रसिद्द कलिकाला

हिन्दू मन अभी भी उस मानसिकता से नहीं निकल पाया है जब मध्यकाल में उसके देश,धर्म,संस्कृति, सभी को तहस-नहस किया जा रहा था. तत्कालीन समाज इसका प्रतिकार नहीं कर पाया,और अपने को असहाय समझ निराशा के गर्त में डूब रहा था. 
तब संतो ने भक्ति में नाच -गान संकीर्तन,प्रवचन आदि से समाज के मन को दिलासा देते हुए उन्हें संभालने की सफल कोशिश की थी.

नहीं तो हिन्दू धर्म में तो कर्मवाद प्रधान है- "कर्म प्रधान विश्व करी राखा, जो जस कराइ तस फल चाखा"(तुलसीकृत रामायण).जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है.

जब सुख दुःख कर्मो के परिणाम है तो यह पाखंडी गुरु कैसे किसी को दुखो से छुटकारा दिला सकतें है . गुरु की आवश्यकता बताई गयी है, पर ज्ञान प्राप्ति के लिए.और ज्ञान पाने का उद्देश्य उस परमेश्वर की शरण प्राप्त करना है न की,तथाकथित कलयुगी भगवानो की. 
शास्त्रों में संतो के जो लक्षण बताये गएँ है - वह आज के इन पाखंडियों में कहाँ मिलते है. बाकी पाखंडियो के जो लक्षण तुलसीबाबा ने बतलाये है उन पे यह पूरे खरे उतरते है
तुलसीदास जी के शब्दों में -
"जांके नख अरु जटा विशाला,सोई तापस प्रसिद्द कलिकाला" -
जिसने लम्बी-लम्बी जटा और नाखून रखें हो(ढोंग रचा रखा हो) ऐसे पाखंडी ही कलियुग में बड़े तपस्वी कहलातें है.
"नारी मुई,गृह संपत्ति नाशी,मुंड मुंडाए भये सन्यासी "
जिसकी पत्नी मर गयी घर-बार संपत्ति का नाश हो गया है, ऐसे लोग सिर मुंडवा के सन्यासी का भेष धरे बैठ जाते है
 

हिन्दू समाज आज इन ढोंगियों के पाँव पड़ने में ही अपना कल्याण मान रहा है .

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

मैं किसी से कोई बदला नहीं चाहता — प्रो. बकरा हलाल







एक बकरे की आत्मकथा अब आगे ...............
धीरे-धीरे मेरी आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा व चेतना लुप्त होने लगी. शायद साँस चलना भी बंद हो गया था. मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे प्राण निकल चुके हैं और यमदूत मुझे आकाश में कहीं उडाये लिये जा रहे हों, किन्तु यह क्या? मेरा शरीर तो अभी भी वहीं कत्लखाने में पड़ा था और अब तो दो आदमी मेरे शरीर की खाल को भी मांस चरबी व हड्डियों से अलग कर रहे थे. उन्होंने मेरी सारी खाल अलग करके एक तरफ फैंक ड़ी व मांस एक तरफ. वहाँ एक आदमी ने छुरी से मेरे मांस के अनगिनत टुकडे कर करके उसका बिलकुल भुरता ही बना दिया. वह सब जुल्म भी शायद इस देवता स्वरुप इंसान के लिये कम था क्योंकि कटे पर नमक मिर्च लगाना जो इनकी पुश्तैनी आदत व शौक है. वह तो अभी बाक़ी था सो उसे यह मेरे लिये ही क्यों छोड़ते? अतः मेरे मांस का भुरता बनाने के बाद उसमें न केवल नमक मिर्च बल्कि कई अन्य मसाले डालकर व आग पर भूनकर पूरी तरह अपनी क्रूरता का परिचय दे दिया. अब इसके आगे क्या होगा मैं यह देख ही रहा था कि तभी एक आदमी ने मेरे मांस को एक प्लेट में सजाकर एक शानदार कमरे में बैठे एक नौजवान जोड़े के सामने ला कर रख दिया. आदमी ने तो बड़ी शान जताते हुए मुझे खाना शुरू कर दिया किन्तु उसके सामने बैठी औरत को मेरा मांस खाना शायद अच्छा नहीं लग रहा था और वह केवल अपने पति का साथ निभाती-सी प्रतीत हो रही थी. 

अब तक मैं धर्मराज के दरबार में पहुँच जीवात्माओं की लाइन में लग चुका था और चित्रगुप्त जी की आवाज़ ने जो सबका लेखा-जोखा बता रहे थे मेरा ध्यान अपनी ओर खेंच लिया. मेरी बारी बाने पर चित्रगुप्त जी ने बताया कि पिछले जन्म में मैंने एक बकरे का मांस खाया था जिसके परिणामस्वरूप मुझे इस जन्म में एक बकरा बनना पड़ा व अपना मांस दूसरों के भोजन के लिये देना पड़ा. उन्होंने यह भी बताया कि इस समय जो व्यक्ति होटल में बैठे तुम्हारा मांस खा रहे हैं वे तुम्हारे पूर्व जन्म की अपनी संतान ही हैं जिसके लिये तुमने उस जन्म में अपना पूरा जीवन दाँव पर लगाया था. अब ये इस जन्म में जो तुम्हारा मांस खा रहे हैं इसका दंड इन्हें अगले जन्म में भुगतना पड़ेगा. इतना सुनते ही मेरी आत्मा थरथरा उठी. मैं यह कैसे पसंद कर सकता था कि मेरी संतान को भी मेरी भाँति यंत्रणा सहनी पड़े. अतः मैंने धर्मराज जी से प्रार्थना की, कि इन सबको वे क्षमा कर दें क्योंकि मैंने भी इन सबको क्षमा कर दिया है, मैं किसी से कोई बदला नहीं चाहता. धर्मराज जी ने मुझ पर कृपा की और कहा कि चूँकि तुमने बकरे की योनि में केवल बेल पत्ते ही खाए हैं व किसी का अहित नहीं किया और अब सबको क्षमा कर दिया है अतएव अब तुम्हें मनुष्य योनि में भेजा जा रहा है और उन्होंने मेरी आत्मा को पुनः मनुष्य जन्म के लिये भेज दिया. 

दूसरे जन्म के लिये जाते हुए मैंने निश्चय किया कि अब मैं दया, सत्य व सदआचरण ही करूँगा और कभी भी किसी भी जीव की ह्त्या करना व उसका मांस खाना तो दूर किसी भी जीव को कोई कष्ट तक नहीं दूँगा और न ही किसी को कोई नुकसान पहुँचाऊँगा. मैं सदैव हर जीव की रक्षा करूँगा. इन्हीं विचारों के साथ मैं अपनी नहीं माँ की कोख में चला गया. 






मंगलवार, 23 नवंबर 2010

क्या यह वही इंसान है जो अपने को देवताओं व पीरों का वंशज बताता है और अहिंसा की रट लगाता है. नहीं, यह वह इंसान नहीं हो सकता. ऎसी सामूहिक हिंसा तो वे जंगली पशु भी नहीं करते जिनका भोजन सिर्फ दूसरे पशु ही हैं


एक बकरे की आत्मकथा
{गोपीनाथ अग्रवाल जी द्वारा लिखित 'शाकाहार या मांसाहार फैसला आप स्वयं करें' से साभार}

अन्य सभी जीवों की भाँति अनेक योनियों में भ्रमण करने के बाद जब मैं बकरी माँ के गर्भ में आया और पाँच महीने गर्भ की त्रास सहने के बाद जब मेरा जन्म हुआ तो एक बार मुझे यह दुनिया बहुत सुन्दर व प्यारी लगी. मनुष्य व बकरी माँ का दूध पीकर मैं शीघ्र बड़ा होने लगा. मेरी माँ का मालिक भी मुझे प्यार करता व अपने खेत पर ले जाता जहाँ मैं अपने आप हरी पत्तियाँ खाता. मेरे यहाँ गोबर कर देने पर व खेत में लोट-पोट कर खेलने पर भी मालिक कभी नाराज़ नहीं होता. जब मैंने अपनी माँ से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे गोबर से खाद बन जाती है व खेत में लेटने से धरती अधिक उपजाऊ बनती है जो मालिक के खेत की उपज बढाती है, इसलिये मालिक कुछ बुरा नहीं मानता. 

धीरे-धीरे समय बीतता गया और मैं अपने साथियों के साथ मस्त जीवन बिताता रहा. जब मैं करीब डेढ़ वर्ष का हुआ तो एक दिन यहाँ आदमी मेरे मालिक के पास आया, उसने मालिक से कुछ बात की और मालिक ने मुझे व मेरे अन्य चालीस-पचास साथियों को एक साथ खड़ा कर दिया. कुछ देर बाद वहाँ एक बड़ी-सी गाड़ी आयी और हम सबको उसमें जबरदस्ती ठूँस दिया गया. मैं माँ के पास जाना चाहता था किन्तु असमर्थ था जब मैंने माँ माँ पुकारा तो एक भद्दे से आदमी ने मुझे लकड़ी से मारा. लाचार हम गाड़ी में दुबक गये. गाड़ी में पिचपिच के कारण मेरा दिमाग चकराने लगा. मेरे अन्य साथियों का भी बुरा हाल था. सबके चेहरों की मायूसी व पीलापन देखकर एक ओर कुछ भय व आशंका हो रही थी तो दूसरी ओर कुछ भय व आशंका हो रही थी तो दूसरी ओर गाड़ी के झटकों से आपस में रगड़ते हुए हमारे बदन की खरोंचे कसक रही थीं. दिन बीता रात आयी, फिर दिन बीता रात आयी कुन्तु गाड़ी सफ़र करती ही जा रही थी. रास्ते में गाड़ी चलाने वाले के आदमी ने हमें दो बार कुछ खाना दिया लेकिन उससे तो हमारा आधा पेट भी नहीं भरा. जैसे-तैसे अगले दिन हमारी गाड़ी एक बड़े शहर में आकर रुकी. तभी गाड़ी के पास एक लम्बी दाढी मूँछ वाला आदमी आया उसने गाड़ी वाले को कुछ दिया और गाड़ी वाले ने हम सबको उसके हवाले कर दिया. नया मालिक हम सबको डंडे मारता हुआ एक मकान के पास लाया हमें धूप में खड़ा कर दिया. भूख-प्यास से व्याकुल, ऊपर से धूप व मालिक का डंडा, इससे अपने प्राण निकले जा रहे थे. 
काफी देर बाद हमें मकान के अन्दर ठेला गया वहाँ एक आदमी कान में कुछ नली-सी लगाकर हमारे जैसे अन्य साथियों को बारी-बारी देख रहा सा लगता था. तब हम लोगों की बारी आयी तो हमारे मालिक ने उसे कुछ दिया और उसने हमें बगैर देखे ही अन्दर भेज दिया. यह बात मैं कुछ समझ नहीं सका किन्तु मेरे एक बड़े साथी ने बताया कि यह डॉक्टर था जो हम सबकी जाँच करता था क्योंकि अब हम सबकी मौत नज़दीक है. यह सुनते ही मैं तो अधमरा हो गया, भय से भूख-प्यास सब गायब हो गई और जब एक बार हमें खाना व पानी दिया गया तो वह भी मुझसे खाया नहीं गया. पानी के लिये मुँह बढाया किन्तु भय से पानी हलक के लिये मुँह बढ़ाया किन्तु भय से पानी हलक में जा ही नहीं पाया. तभी एक दूसरे कमरे का दरवाजा खुला और वहाँ का दृश्य देखकर तो मेरी रूह कांपने लगी. आँखों के आगे अन्धेरा-सा छा गया. उस कमरे से भरे साथियों के रोने व चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं जिसे सुनकर मुझे भी रोना आ गया. मैंने चिल्लाने की कोशिश की किन्तु पता नहीं मेरी आवाज़ निकल ही नहीं पायी. बाहर भागने के लिये मैंने पीछे मुड़ने का प्रयत्न किया किन्तु तभी एक आदमी ने मेरी दोनों टांगों को पीछे से पकड़ कर उसी कमरे में धकेल दिया जहाँ एक डरावना राक्षस जैसा व्यक्ति हाथ में बड़ा-सा चाकू लिये मेरे साथियों को मौत के घात उतार रहा था.  अचानक एक विचार मेंरे दिमाग में कौंधा कि क्या यह वही इंसान है जो अपने को देवताओं व पीरों का वंशज बताता है और अहिंसा की रट लगाता है. नहीं, यह वह इंसान नहीं हो सकता. ऎसी सामूहिक हिंसा तो वे जंगली पशु भी नहीं करते जिनका भोजन सिर्फ दूसरे पशु ही हैं.............. मैं सोच ही रहा था कि एक आदमी मेरा कान खींचकर उस भयानक आदमी की ओर ले जाने लगा. मैंने अपना पूरा जोर लगाकर छोटना चाहा किन्तु कोई फल नहीं निकला, क्षोभ से मेरा खून खुलने लगा, मुँह से झाग आया, मल-मूत्र निकलने लगा किन्तु किसी को भी मेरी हालत पर तरस नहीं आया. उलटे दो और आदमियों ने आकर मुझे पकड़ लिया, एक ने मेरी टांगें पकड़ी व दूसरा मेरी गर्दन पर छुरी चलाने लगा. मेरी गर्दन से खून का फौव्वारा छूट गया और रोम-रोम पीड़ा से भर गया. अब मेरे पास कोई उपाय नहीं था और मैं यही चाह रहा था कि इस भाँति पीड़ा देने की बजाये मुझे ये फ़ौरन ही मार दें तो अच्छा हो; किन्तु नहीं, मुझे अभी और कष्ट उठाने थे और तडपना था क्योंकि सिर्फ आधी गर्दन कटी होने से मेरी मौत में विलम्ब हो रहा था. इस बेबसी व यातना का एक-एक क्षण मुझे एक वर्ष से भी बड़ा लग रहा था. कभी अपने भाग्य को कोसता हुआ व कभी भगवान को याद करता हुआ मैं बेसब्री से अपनी मौत की प्रतीक्षा कर रहा था. 


गुरुवार, 18 नवंबर 2010

सोमरस के विषय में कुछ प्रचलित विवादो का निराकरण – वेदरहस्‍यम्

सोमरस के विषय में कुछ प्रचलित विवादो का निराकरण  – वेदरहस्‍यम्


बहुत दिनों के पहले हमने सोमरस पर एक लेख लिखा था जिसमें कई वैदेशिक विद्वानों के मतों का उल्‍लेख तथा यथाशक्‍य उनका दुराग्रह खण्‍डन किया गया था  ।  किन्‍तु पर्याप्‍त अध्‍ययन के अभाव में लेख पूर्णता को प्राप्‍त नहीं हुआ  ।  किन्‍तु अब जब कि ईश्‍वर की कृपा से शोध के सन्‍दर्भ में वेद भगवान के अध्‍ययन का सौभाग्य प्राप्‍त हुआ तो कई बातें स्‍पष्‍ट होती जा रही हैं  ।
          इसी क्रम में सोम के विषय में प्रचलित कुछ अपवादों का निराकरण निम्‍नोक्‍त मन्‍त्रों के द्वारा करने का प्रयास कर रहा हूँ  ।

मन्‍त्र:-सुतपात्रे सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये । सोमासो दध्‍याशिर: ।। (ऋग्‍वेद-1/5/5)  

मन्‍त्रार्थ: -यह निचोडा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस , सोमपान की प्रबल इच्‍छा रखने वाले इन्‍द्र देव को प्राप्‍त हो  ।।



मन्‍त्र: - तीव्रा:सोमास आ गह्याशीर्वन्‍त:सुता इमे । वायो तान्‍प्रस्थितान्पिब ।। (ऋग्‍वेद-1/23/1)

मन्‍त्रार्थ: - हे वायुदव यह निचोडा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्‍ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है  ।  आइये और इसका पान कीजिये  ।।



मन्‍त्र: - शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्  ।  एदु निम्‍नं न रीयते  ।। (ऋग्‍वेद-1/30/2)


मन्‍त्रार्थ: नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकडो घडे सोमरस में मिले हुए हजारों घडे दुग्‍ध मिल करके इन्‍द्र देव को प्राप्‍त हों ।।

उपर्युक्‍त मन्‍त्रों में सोम में दधि और दुग्‍ध मिश्रण की बात कही गयी है  ।  आजतक मैने किसी भी व्‍यक्ति को शराब में दूध या दही मिलाते हुए नहीं देखा है अत: इस बात का तो सीधा निराकरण हो जाता है कि सोम शराब है  ।  कुछ विद्वानों ने सोम को एक विशेष प्रकार का कुकुरमुत्‍ता माना है  । किन्‍तु क्‍या आपने कुकुरमुत्‍ते की सब्‍जी में दूध या दही मिलाये जाते देखा है  ।  मैने तो नहीं देखा  ।  खैर कदाचित् ऐसा कहीं होता भी तो कुकुरमुत्‍ते की सब्‍जी तो सुनी थी पर किसी ने कुकुरमुत्‍ते को निचोड कर पिया हो ऐसा तो कभी नहीं सुना  है और उूपर साफ वर्णित है कि सोम को ताजा निचोडा जाता है  । 
          ऋग्‍वेद में आगे सोम का और भी वर्णन है , एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्‍धता और प्रचलन दिखाया गया है कि मनुष्‍यों के साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाये और पिलाये जाने की बात कही गई है  ।  कुकुरमुत्‍ता तो पशु खाते ही नहीं फिर तो समस्‍या स्‍वयं ही और भी निराकृत हो जाती है  ।
          विचार करने पर सोम आज के चाय की तरह ही कोई सामान्‍य प्रचलित पेय पदार्थ लगता है, जिसे सामान्‍य जन भी प्रतिदिन पान किया करते थे  ।।

क्रमश: ……….
भवदीय:- आनन्‍द:

सोमवार, 15 नवंबर 2010

यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। भाग -- २

इस संसार में अनेक प्रकार की प्रकृति के लोग है ; गीताजी में उनको दो भागों में विभक्त किया गया है ------ एक दैवी प्रकृति के तथा दूसरे आसुरी प्रकृति के मनुष्य----
     "द्वौ भूतसर्गौ लोकेsस्मिन दैव आसुर एव च"

इन दोनों प्रकार की प्रकृति के मनुष्यों के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है. फिर भी बिलकुल सूक्ष्म रूप से कहना चाहे तो कह सकते है की दैवी प्रकृति के लोग सात्विक जीवनचर्या का निर्वहन करते हुए परोपकार में निरत रहते है, जबकि आसुरी वृत्ति के मनुष्य दंभ,मान और मद में उन्मत्त हुए स्वेच्छाचार पूर्ण आचरण करते हुए पापमय जीवन जीते है.
बतलाने की आवश्यकता नहीं की प्राय ऐसे आसुरी लोग ही मांस-भक्षण और अश्लील सेवन की रूचि रखते है, और ऐसे कुक्करों ने ही अर्थ का अनर्थ करके वेद आदि शास्त्रों में मद्य मांस तथा मैथुन की आज्ञा सिद्ध करने की धृष्टता की है.


महाभारत में कहा गया है की प्राचीन काल से यज्ञ-याग आदि केवल अन्न से ही होते आये है. मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है. वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है------
१.  श्रूयते हि पुरा कल्पे  नृणां  विहिमयः  पशु: । 
    येनायजन्त  यज्वानः  पुण्यलोकपरायणाः ।।                  
२. सुरां मत्स्यान मधु मांसमासवं क्रसरौदनम । 
    धुर्ते:  प्रवर्तितं  ह्योतन्नैतद  वेदेषु कल्पितम ।।


असुर शब्द का अर्थ ही है --- "प्राण का पोषण करने वाला"  जो अपने सुख के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा करते है वे सभी असुर है. ये शास्त्र पड़ते हि इसलिए है की शास्त्र का मनमाना अर्थ करके येनकेन प्रकारेण शब्दों की व्युत्पत्ति करके खींचतान से चाहे जो अर्थ निकाल कर शास्त्रों की मर्यादा का नाश किया जा सके. इन कुकर्मियों द्वारा वेदों द्वारा यज्ञों में मद्य-मांस का विधान, पशुवध की रीति बतायी गयी है ऐसा कहा जाता है .


वेद साक्षात भगवान् की वाणी है, उनमें ऐसी कोई बात कभी नहीं हो सकती जो मनुष्य को अनर्गल विषयभोग और हिंसा की और जाने के लिए प्रोत्साहित करती हो. वेद भगवान् की तो स्पष्ट आज्ञा है ------------ "मा हिंस्यात सर्वा भूतानि" ( किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें ).
बल्कि यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम है उनसे ही यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक होते आये है.
"ध्वर" शब्द का अर्थ है हिंसा. जहाँ ध्वर अर्थात हिंसा ना हो उसी का नाम है "अध्वर" . यह "अध्वर" ही यज्ञ का पर्यायवाची नाम है . अतः हिंसात्मक कृत्य कभी भी वेद विहित यज्ञ नहीं माना जा सकता है.
"यज" धातु से "यज्ञ" बनता है. इसका अर्थ है----- देवपूजा,संगतिकरण और दान. इनमें से कोई से भी क्रिया हिंसा का संकेत नहीं करती है.


वैदिक यज्ञों में तो मांस का इतना विरोध है की मांस जलाने वाली आग को सर्वथा ताज्य घोषित किया गया है. प्राय: चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है. जहाँ अपनी मृत्यु से मरे हुए मनुष्यों के अंत्येष्टि-संस्कार में उपयोग की जाने वाली अग्नि का भी बहिष्कार है, वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठापित विशुद्ध अग्नि में अपने द्वारा मरे गए पशु के होम का विधान कैसे हो सकता है ?
आज भी जब वेदी पर अग्नि की स्थापना होती तो उसमें से अग्नि का थोडा सा अंश निकालकर बाहर रख दिया जाता है. इस भावना के साथ की कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली अग्नि ) के परमाणु ना मिले हो. अत: "क्रव्यादांशं त्यक्त्वा" (क्रव्याद का अंश निकालकर ही ) होम करने की विधि है.
ऋग्वेद का वचन है-------
     क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
       एहैवायमितरो जातवेदा  देवेभ्यो  हव्यं  वहतु  प्रजानन ।। 
                                                                                   ( ऋ ७।६।२१।९ )
"मैं  मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए. इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है."


ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहाँ गया है की जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गाय आदि पशुओं का मांस खाता हो तथा गाय के दूध को चुरा लेता हो, उसका मस्तक काट डालो --------
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्गक्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः ।
  यो  अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां  शीर्षाणि  हरसापि वृश्च ।। 
( ऋ ८।४।८।१६ )
 
अब प्रश्न होता है की वेदों में आदि मांस वाचक या हिंशा बोधक कोई शब्द ही प्रयुक्त न हुआ होता तो कोई उसका इस तरह का अर्थ कैसे निकाल सकता है ? 
इसका चिंतन करने योग्य सरल उत्तर यह है की प्रकृति स्वभावतः निम्न गामी होती है ; अतः प्रकृति के वश में रहने वाले मनुष्यों की प्रवृत्ति स्वभावतः विषयभोग की ओर जाती है. आसुरी स्वाभाव वाले विशेष रूप से निकृष्ट भोगों की तरफ जातें है. ओर उनकी प्राप्ति के साधन खोजतें है. इसी न्याय से इन आसुरी प्रकृति के लोगों ने वेद कथनों का मनमाना अर्थ लगा कर अपने कुकर्मों को वेद विहित कर्म घोषित कर दिया. 
महाभारत में प्रसंग आता है की एक बार ऋषियों और दूसरे लोगों में  "अज" शब्द के अर्थ पे विवाद हुआ. ऋषि पक्ष का कहना था की "अजेन यष्टव्यम" का अर्थ है  "अन्न से यज्ञ करना चाहिये. अज का अर्थ है उत्पत्ति रहित; अन्न का बीज ही अनादी परम्परा से चला आ रहा है; अतः वही  "अज" का मुख्य अर्थ है; इसकी उत्पत्ति का समय किसी को ज्ञात नहीं है; अतः वही अज है."
दूसरा पक्ष अज का अर्थ बकरा करता था. दोनों पक्ष निर्णय कराने के लिए राजा वसु के पास गए. वसु कई यज्ञ कर चुका था . उसके किसी भी यज्ञ में  मांस का प्रयोग नहीं हुआ था, पर उस समय तक वह मलेच्छों के संपर्क में आकर ऋषि द्वेषी बन गया था. ऋषि उसकी बदली मनोवृत्ति से अनजान उसी के पास न्याय करवाने पहुँच गए . उसने दोनों का पक्ष सुनकर ऋषियों के मत के विरुद्ध निर्णय देते हुए कहा " छागेनाजेन यष्टव्यम" . असुर तो यही चाहते थे. वे इस मत के प्रचारक बन गए; पर ऋषियों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि यह किसी भी हेतु से संगत नहीं बैठता था. 

संस्कृत-वांग्मय में अनेकार्थ शब्द बहुत है. "शब्दा: कामधेनव:" यह प्रसिद्द है. उनसे अनेक अर्थों का दोहन होता है. पर कौन सा अर्थ कहाँ लेना ठीक है यह विवेकशीलता का काम है. कोई यात्रा पर जा रहा हो और "सैन्धव"  लाने के लिए काहे तो उस समय "नमक" लाने वाला मुर्ख ही कहलायेगा, उस समय तो सिन्धु देशीय घोड़ा लाना ही उचित होगा. इसी तरह भोजन में सैन्धव डालने के लिए कहने पर नमक ही डाला जाएगा घोड़ा नहीं .
इसी तरह आयुर्वेद में कई दवाइयों में घृतकुमारी (ग्वारपाठा) का उपयोग होता है, तो जहां दवा बनाने की विधि में " प्रस्थं कुमारिकामांसम " लिखा गया है; वहाँ किलो भर घृतकुमारी/ग्वारपाठा/घीकुंवार का गूदा ही डाला जाएगा . कुँवारी-कन्या का एक किलो मांस डालने की बात तो कोई नरपिशाच ही सोच सकता है. 
(साभार कल्याण उपनिषद-अंक)
                                                                                             जारी..............

शनिवार, 13 नवंबर 2010

क्षुद्रता के विविध रूप


 क्षुद्रताओं को छिपाकर [दबाकर] रखना शिष्टता है, 
उन्हें उजागर न होने देना सभ्यता है और उन्हें भीतर ही भीतर समाप्त करते रहना संस्कृत होते जाना है. 

क्षुद्रताओं का छिपे रूप से पोषण करना वंचकता है, 
उन्हें वहीं सड़ते रहने देना व किसी अन्य की दृष्टि का भाजन बनना धूर्तता है और स्वयं स्पष्टीकरण करते हुए उनमें लिप्त रहना — उच्छृंखलता कहा जाएगा. 

क्षुद्रताओं की स्वयं द्वारा सहज स्वीकृति सज्जनता है, 
किन्तु परिमार्जन का भाव उसकी अनिवार्यता है अन्यथा वह यशलोलुपतापूर्ण स्पष्टवादिता कहलायेगी. 

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

घृत (घी) और सूर्य किरणों में में पुष्टिदायक तत्त्व- वेदों में विज्ञान !!



मूल  मन्त्र  यहाँ  देखें

विदित हो कि आज का विज्ञानं चिल्ला चिल्ला कर घी को और सूर्य कि किरणों को उर्जा का स्रोत कहता है !
और आज सभी लोग इस बात को स्वीकार करते भी हैं ! किन्तु लाखों वर्षों पहले यही तथ्य हमारे मनीषियों ने संपादित किया था क्या हम इस तथ्य को भी जानते हैं या जानने का प्रयास करते हैं क्या ?
ऋग्वेद का यह सूक्त आपको इस तथ्य से अवगत कराता है !

संकेत . -- मित्रं हुवे ............................................................ साधन्ता  ! (ऋग्वेद १/२/७)

भावार्थ . - घृत के समान पुष्ट, प्राणप्रद प्रकाशक हितैषी पवित्र सूर्य देवता और समर्थ वरुण देवता का आवाहन करता हूँ ! वे हमारी बुद्धि को उर्वरा बनाएं !!

टिप्पणी- उक्त मन्त्र में सूर्य को घृत के समान पुष्ट प्राणदायक पवित्र कहा गया है ! अब जरा दादी नानी के नुस्खे याद कीजिये ! जब आप की सेहत को देखते हुए आप के खाने में ढेर सारा घी डालते हुए वो कहा करती थी , बेटा खा ले, मोटा हो जाएगा !
आज का विज्ञान क्या कहता है ये तो आप सब को पता होगा ! घी की शक्ति का प्रमाण मिल जाने के बाद मन्त्र के आगे के भाग पर गौर करें तो देखते हैं कि घी के समान गुण वाला सूर्य को कहा गया है ! तात्पर्य यह है कि सूर्य कि ऊर्जा हमारे लिए उतनी ही लाभ दायक है जितनी कि घी ! अब विज्ञान की बातें याद करें तो वह भी यही कहता है कि सूर्य कि किरणों में फला- फला विटामिन होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अति लाभदायक होते हैं ! वरुण के लिए समर्थ शब्द का प्रयोग किया गया है ! क्यूंकि वरुण के मूर्त रूप जल के गुणों की आगे के मन्त्रों में चर्चा है ! किन्तु यदि वरुण के साथ भी उक्त विशेषण लगा दिए जाएँ तो भी कोई गलत नहीं होगा, क्यूंकि जल में भी कई गुण होते हैं जिनका वर्णन आगे के मंत्रो में प्राप्त भी होता है  ! ये स्पष्टीकरण इसलिए दे रहा हूँ कि हमारे कुछ भाई हैं जो तथ्यों से ज्यादा गलतियों पर ध्यान देते हैं ! अब वेद भगवान कि महिमा का ज्ञान अधिकाधिक जनों को हो इसके लिए इस लेख को जितना अधिक लोगों को भेज सकें उत्तम है !

क्रमशः ..................

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भवदीय: - आनन्‍द:

रविवार, 7 नवंबर 2010

यज्ञ हो तो हिंसा कैसे ।। वेद विशेष ।। भाग -- १


।। सम्‍पूर्ण मन्‍त्र यहाँ देखें ।।

संकेत - अग्‍ने यं ................................................................. इद्देवेषु गच्‍छति ।। (ऋग्‍वेद - 1/1/4)


भावार्थ - हे अग्निदेव । आप जिस हिंसा रहित यज्ञ को चारों ओर से आवृत किये रहते हैं , वही यज्ञ देवताओं तक पहुँचता है ।।

विशेष - पिछले कई सौ वर्षों में वैदिक यज्ञों पर कुछ विक्षिप्‍त मस्तिष्‍क वाले देशी-विदेशी विद्वानों के द्वारा  हिंसा का मिथ्‍या आरोप लगता रहा है । आश्‍चर्य यह होता है कि ये विद्वान पूरे ग्रन्थ का सम्‍यक अध्‍ययन करने के बाद भी ग्रन्‍थारम्‍भ में ही दत्‍त उपर्युक्‍त मन्त्र को अनदेखा करते रहे । ये सत्‍य है कि ग्रन्‍थ में कई द्वयार्थी शब्‍द मध्‍य में प्रयुक्‍त हुए हैं जिनका अज्ञानता वश हिंसा अर्थ कर लिया जाता है । यथा - मेध, आलभन, बलि, माँस इत्‍यादि किन्‍तु इनका दूसरा हिंसा जनित अर्थ करने की किसी भी आवश्‍यकता का निवारण उपर्युक्‍त मन्‍त्र ग्रन्थारम्‍भ में ही कर देता है । इस मन्‍त्र में स्‍पष्‍ट लिखा गया है कि जिस हिंसा रहित यज्ञ को आप चारो ओर आवृत किये रहते हैं वही देवों तक पहुँचता है । यज्ञों का आयोजन देवों को प्रसन्‍न करने हेतु किया जाता है, यज्ञभाग का देवों तक पहुँचने का माध्‍यम अग्नि देव हैं, और अग्निदेव को ही लक्षित करके यह मन्‍त्र हिंसा का निवारण करता है । इस तरह से ग्रन्‍थ के आरम्‍भ में ही हिंसा का विरोध किया गया है । भला कौन ऐसा यज्ञ करना चाहेगा जो देवों तक उसकी विनय को पहुँचाये ही न । 


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भवदीय: - आनन्‍द:

बुधवार, 3 नवंबर 2010

विश्‍व की प्रधानतम व प्राचीनतम खोज - वेदों में विज्ञान ।।


   आज के युग में भारतीय मेधा के प्रथम प्रदर्शन 'वेद' विद्या के प्रसार प्रचार की बहुत ही आवश्‍यकता है । वेदों के विषयों में पाश्‍चात्‍य व प्रार्च्‍य कतिपय विद्वानों द्वारा इतने भ्रामक तथ्‍य फैला दिये गये हैं कि समाज में वेदों के सम्‍यक प्रचार की पुन: आवश्‍यकता प्रतीत होती है, ये वेद प्राचीनकाल से आज तक के आविष्‍कारों व खोजों की सूची हैं । यदि हम ठीक से इन्‍हे पढें तो ये देखेंगे कि विश्‍व का सर्वप्रथम आविष्‍कार कब और कहाँ हुआ था ।
वेदों में वैज्ञानिक तथ्‍यों की भरमार है । मेरे स्‍वयं के अध्‍ययन से मैने ये पाया कि वस्‍तुत: वेद हमारे आस पास की वस्‍तुओं में ही निमीलित वैज्ञानिक तथ्‍यों का ही अध्‍ययन है ।
वेदों के मन्‍त्र बडे ही सांकेतिक है जिनमें ऐसी ऐसी बातों का वर्णन है जिसे आज का विज्ञान अब ढूढ पाया है । इन्‍ही सूक्ष्‍म वैज्ञानिक तथ्‍यों का खुलासा करने हेतु ही वेदों में विज्ञान की यह श्रृंखला प्रारम्‍भ की जा रही है । आज सर्वप्रथम ऋग्‍वेद के प्रथम सूक्‍त के प्रथम मन्‍त्र का वर्णन करता हूँ , जिसमें विश्‍व की सर्वप्रथम और महानतम खोज हुई थी ।।

संकेत - ॐ अग्निमीले पुरोहितं........................................ रत्‍नधातमम् ।। (ऋग्‍वेद-1/1/1)

अर्थ - हम अग्निदेव की स्‍तुति करते हैं जो यज्ञ के पुरोहित, देवता, ऋत्विज, होता और याजकों को रत्नों से विभूषित करने वाले हैं ।।

विशेष - अग्नि विश्‍व की सर्वप्रथम खोज है , ये विश्‍व की सबसे महानतम खोज कही जा सकती है । इस मन्‍त्र में अग्नि की महत्‍ता का वर्णन है । ऋग्‍वेद का प्रथम मन्‍त्र किसी विशिष्‍ट देव को ही समर्पित किया जाना चाहिये । विशिष्‍ट में भी देवराज इन्‍द्र प्रधान हैं किन्‍तु फिर भी प्रथम मन्‍त्र उनको समर्पित न‍हीं किया गया । देवगुरू वृहस्‍पति तो इन्‍द्र के भी मार्गदर्शनकर्ता हैं पर प्रथम मन्‍त्र उनको भी समर्पित न होकर अग्नि को समर्पित किया गया इससे यह पता चलता है कि वैदिक काल में ही अग्नि की महत्‍ता का पता चल गया था । अग्नि याजकादि को समृद्धि प्रदान करने वाले हैं इससे भी अग्नि की महत्‍ता की ओर संकेत किया गया है ।  आगे के मन्‍त्रों में अग्नि की उत्‍पत्ति का भी वर्णन दिया गया है और अग्नि का विशेष महत्‍व भी बताया गया है । जो क्रमश: प्रस्‍तुत किया जायेगा । 


मंगलवार, 2 नवंबर 2010

प्राचीन को बचाइये पहना नवीन आवरण

प्राचीन पर नवीन का हो गया है आक्रमण.
प्राचीन को बचाइये पहना नवीन आवरण.


भूत में सोचा भविष्य है बना हुआ नवीन
आज, कल नवीनता से वह भी होगा विहीन.


आज तुम नवीनता से होकर हर्षातिरेक
चमक को स्वीकारते  नकारते हो चिर विवेक.

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

हिंसामूल जगुप्साप्रेरक


हिंसामूलमध्यमास्पदमल ध्यानस्थ रौद्रस्य यदविभत्स,
रूधिराविल कृमिगृह दुर्गन्धिपूयदिकम्।
शुक्रास्रक्रप्रभव नितांतमलिनम् सदभि सदा निंदितम्,
को भुड्क्ते नरकाय राक्षससमो मासं तदात्मद्रुहम्॥
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अर्थार्त:
मांस हिंसा का मूल, हिंसा करने पर ही निष्पन्न होता है। अपवित्र है। और रौद्र (क्रूरता) का कारण है।देखने में विभत्स, रक्तसना होता है, कृमियों व सुक्षम जंतुओं का घर है। दुर्गंध युक्त मवाद वाला, शुक्र-शोणित से उत्पन्न, अत्यंत मलिन, सत्पुरुषों द्वारा निंदित है। कौन इसका भक्षण कर, राक्षस सम बन, नरक में जाना चाहेगा।

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बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

आदर्श


आचार्य प्लुष ने शास्त्री की परीक्षा के पश्चात अपने दो मेधावी शिष्यों से उनके जीवनादर्शों के विषय में पूछा. 

एक ने कहा — "गुरु ही हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है, मोक्ष का मार्ग दिखाता है और ईश्वर का दर्शन करवाता है, अतः गुरु की महत्ता सर्वमान्य है. मेरे आदर्श आप हैं." 

दूसरे ने अपनी वाणी में पहली बार उच्छृंखलता लाते हुए कहा — "समयानुकूल उचितानुचित कार्य करने की निर्णायक बुद्धि आपने ही हमें प्रदान की है गुरुदेव. इसलिये आप में भी छिद्रान्वेषण करना मेरा प्रथम कर्तव्य है. मैं अपना आदर्श स्वयं को मानता हूँ." 

गुरुदेव इस गर्वोक्ति को सुन कुपित हुए. उन्होंने दूसरे शिष्य को यह कहते हुए गुरुकुल से निकाल दिया — "जो गुरुओं में दोष ढूँढता है वह जीवन के किसी क्षेत्र में उन्नति नहीं कर सकता." 

जाते हुए शिष्यों का उसके प्रिय मित्रों तक ने अपमान किया. 

पाँच वर्ष बीत गये. हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी गुरुदेव अपने शिष्य कुञ्जदेव के साथ समस्त गुरुकुलों द्वारा आयोजित 'संस्कृत साहित्य सम्मेलन' में पधारे. कुञ्जदेव के पांडित्य ने सभी विद्वान् जनों का मन मोह लिया किन्तु महादेव के पांडित्य को देखकर गुरुदेव के हर्षातिरेक से आँसू बह निकले. उन्हें कुछ आत्मग्लानि हुई. महादेव ने आकर जब गुरुदेव के चरण-स्पर्श किये तो वे गदगद कंठ से पूछ बैठे — "तुम्हारी उस कथनी और इस कथनी में अंतर पा रहा हूँ." 

महादेव ने संतुष्टि के भाव से कहा — "गुरुदेव! आप द्वारा दी गयी शिक्षा से ही 'शत्रुता लेकर भी परहित साधने का भाव' मेरा स्वभाव बन गया है. शास्त्री से पूर्व ही कुञ्जदेव के मन में मेरे प्रति ईर्ष्या थी, जो एक प्रतिभावान छात्र की उन्नति में अवरोध बँटी. इसलिये मैंने गुरु के ह्रदय और गुरुकुल दोनों से निकल जाना ही उचित समझा." 

गुरुदेव की आँखें मुस्कुराहट के साथ चमक उठीं. मानो उनकी खोजी दृष्टि ने कुछ अनमोल वस्तु ढूँढ निकाली हो. 

आचार्य प्लुष ने गुरुकुल में आकर अपने समस्त शिष्यों के समक्ष पुनः आदर्श को परिभाषित किया — "जीवन के वे मूल्य या सिद्धांत जो हमें हमेशा ऊर्ध्वगामी दिशा दें, पतन अर्थात नीचे गिरने से बचावें या कभी-कभी विषम परिस्थितियों में भी जिन्हें पकड़कर हम अघ के महागर्त में गिरने से बच जाया करते हैं, आदर्श कहते हैं." 

किसी व्यक्ति को इस कसौटी पर रखकर ही अपना आदर्श बनाना चाहिए. समय के साथ आदर्श भी यदि विचलित होवें तो उन्हें भी बदल देना श्रेयस्कर है. 

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

वसुधैव कुटुम्बकम्


अय निजः परोवेति, गणना लघुचेत साम्।
उदार चरितानाम् तु, वसुधैव कुटुम्बकम्॥



अर्थात्:

यह मेरा और यह पराया है, ऐसा विचार भी तुच्छ बुद्धि वालों का होता है। श्रेष्ट जन तो सारे संसार को अपना कुटुम्ब मानते है।
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सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

वैचारिक दक्षता का अहंकार विद्वान को ले डूबता है।


परोपदेशवेलायां, शिष्ट सर्वे भवन्ति वै।
विस्मरंति हि शिष्टत्वं, स्वकार्ये समुपस्थिते॥
                                                       -मानव धर्मशास्त्र
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अर्थार्त:

"दूसरो को उपदेश देने में कुशल, उस समय तो सभी शिष्ट व्यवहार करते है, किंतु जब स्वयं के अनुपालन का समय आता है, शिष्टता भुला दी जाती है।"
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सार:
वैचारिक दक्षता का अहंकार विद्वान को ले डूबता है।
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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

तृष्णा न होती जीर्ण


भोगा न भुक्ता  वयमेव  भुक्ता, तपो न तप्तं  वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव यता, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥

                                                                                               -भृतहरि

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अर्थार्त:

हमने भोग नहिं भोगे बल्कि भोगों ने ही हमें भोग लिया। हम तपस्या से नहिं तपे किन्तु दु:ख-ताप से हम स्वयं संतप्त हो गये। समय नहिं बीता पर हम स्वयं ही बीत गये। हमारी तृष्णा तो किंचित भी जीर्ण(न्यून) न हुई, हम जीर्ण (बुढ्ढे) हो गये।

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भोगवादीयों, प्रकृतिशोषकों, परिग्रहियों रूप मनमौजीयों (जो स्वार्थवश मन तरंग से भोग-उपभोग करते है) के लिये इससे श्रेष्ठ क्या उदाहरण होगा।
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पंकजसिंह राजपूत की टिप्पणी से…

यदि भोगों में सांसारिक वस्तुओं में सुख होता तो वे उन्हें कभी न छोड़ते, परन्तु भोगो में संसार की वस्तुओं में सुख नहीं है, यह क्षणिक सुख है, जो अंत में दुःख रूप ही है, केवल आरम्भ में ही सुखमूलक लगता है !!!
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गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

गर्व रहित ज्ञान


दानं प्रियवाक्सहितं, ज्ञानमगर्व क्षमान्वितं शौर्यम्।
वित्तं त्यागनियुक्तं, दुर्लभमेतच्च्तुष्ट्यं लोके॥
--विष्णुश्रम
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अर्थ:
 
प्रियवचन सहित दान, गर्व रहित ज्ञान, क्षमा युक्त शौर्य, त्याग सहित धन। लोक में यह चार बातें बडी दुर्लभ है।
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शास्त्र-विवेचन

1-शास्त्रों का अध्यन, शास्त्र के मूल आशय को समझने के लिये निराग्रह मनस्थिति होनी चाहिए।

2-शास्त्रकारों का अभिप्राय समझकर, उसी दृष्टि से अर्थ और भावार्थ करना चाहिए।

3-जो विषय बुद्धिग्राह्य न हो, उसे सही परिपेक्ष में समझने का प्रयास होना चाहिए, व्यर्थ उपहास नहिं करना चाहिए।

विचार विमर्श, चर्चा आदि तो धर्म-शास्त्रार्थ के ही अंग है, संशय-समाधान दर्शन-मंथन में आवश्यक तत्व है।
बिना जाने ही तथ्य खारिज करना मिथ्यात्व का लक्षण है। और यहां मिथ्यात्वी ही पाखण्डी
माना गया है।

धर्म-तत्व में मूढता, संसार तर्क में शूर।
कर्म-बंध के कारकों पर, गारव और गरूर?

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