अब तक कई विचारकों और बुद्धिजीवियों के विचार पढ़े. शायद ही किसी ने योग को वृहत रूप में समझा हो! पतंजलि के 'अष्टांग योग' में यदि वे योग के प्रारम्भिक दो भेदों पर दृष्टिपात करेंगे तो पायेंगे कि यम और नियम में ही 'सत्याग्रह' और 'भ्रष्टाचार-विरोध' का स्पष्ट उल्लेख है.
कभी आपने 'अहिंसा', 'सत्य', अस्तेय', 'अपरिग्रह', 'ब्रह्मचर्य', 'शौच', संतोष', 'तप', 'स्वाध्याय', ईश्वरप्रणिधान' के बारे में सुना है. यदि नहीं तो योग पर विस्तार से जानने के लिये आसन और प्राणायाम के दायरे से बाहर आइये. योग केवल आसन मात्र नहीं हैं और न ही प्राणायामों का प्रदर्शन निमित्त धरना है. "स्थिरसुखमासनम्" आसन तो कुछ देर स्थिरता से और सुखपूर्वक बैठने की स्थिति मात्र है जिससे ध्यानादि क्रियायें निर्विघ्न रूप से की जाती हैं और 'प्राणायाम' आसन के स्थिर हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकना ही तो है. दोनों ही साधन हैं कुछ 'विशेष' पाने के लिये. यह 'विशेष' कुछ भी हो सकता है चित्त को विषय-वासना से हटाना या परमात्मा का सानिध्य पाना.
अब यम और नियम तो अपने आगामी साधनों को पुष्ट ही करने के लिये बने हैं. जब तक यम और नियम के अंतर्गत आने वाले 'सामाजिक मूल्य' और 'वैयक्तिक मूल्य' जीवन का हिस्सा नहीं बनेगे तब तक योग के नाम पर की जाने वाली सभी क्रियायें नाटक ही मानी जानी चाहियें.
सभी 'यम' सामाजिक जीवन को व्यवस्थित रखने के लिये ही हैं —
१] अहिंसा : मन, वचन, कर्म से किसी भी प्राणी को पीड़ा न देना, सबसे वैरभाव त्यागना.
२] सत्य : जैसा देखा हो, जैसा सुना हो और जैसा अपने मन में हो उसको वैसा ही कहना और मानना, परन्तु वह सत्य मधुर तथा परोपकारक होना चाहिए.
३] अस्तेय : [चोरी न करना] मन, वचन, कर्म से चोरी का सर्वथा परित्याग; बिना आज्ञा किसी की वस्तु को न लेना.
४] ब्रह्मचर्य : उपस्थेन्द्रीय् का संयम, वीर्य का रक्षण करना. [विस्तार कभी किसी अन्य लेख में..."वर्तमान संदर्भ में ब्रह्मचर्य की प्रासंगिकता" ]
५} अपरिग्रह : [संग्रह न करना] बिना विशेष कारण के किसी भी तरह का संग्रह न करना. यदि संग्रह एक बड़े वर्ग [समाज, राष्ट्र] के लिये है तो वह कारण-विशेष से सही ठहराया जा सकता है अन्यथा संग्रहण वृत्ति से किसी के अधिकारों का हनन स्वतः ही हो जाता है.
इन सभी कसौटियों पर यदि 'योग शिविर' के बहाने किये गये 'सत्याग्रह को कसेंगे तो परिणाम सामने आयेगा. कुंद मति वाले जिस योग को केवल हाथ-पैरों की उलटी-सीधी स्थितियाँ बनाना ही मानते हैं, वे थोड़ी देर के लिये गहरी श्वास लें और छोड़ें, तब निश्चित ही मस्तिष्क में बने सभी पूर्वाग्रहों से मुक्ति मिलेगी.
इसके बाद 'नियम' में शामिल पाँच वैयक्तिक मूल्यों के बारे में भी जानें. व्यक्तिगत जीवन के लिये इनका पालन आवश्यक ठहराया गया है.
१] शौच : [बाह्य-आभ्यंतर शुद्धि] मृत्तिका जलादि से बाह्य शरीर तथा सात्विक भोजन, सत्य भाषण, ज्ञानादि से मन, बुद्धि को पवित्र रखना. [विस्तार ... प्रश्न करने पर ही किया जायेगा.]
२] संतोष : किये हुए पुरुषार्थ में ही संतुष्ट रहना.
३] तप : जिस प्रकार कुशल 'सारथी' घोड़ों को साधता है उसी प्रकार शरीर, प्राण, इन्द्रिय और मन को बाह्यविषयों से हटाकर योगमार्ग में प्रवृत्त करना. द्वन्द्वों को सहना. [प्रश्न आमंत्रित हैं]
४] स्वाध्याय : आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन और प्रणव का जप करना. [आधुनिक सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है..... जिज्ञासा पर ही विमर्श किया जायेगा.]
५] ईश्वरप्रणिधान : सर्वस्व ईश्वर के अर्पण कर देना. [ऎसी इच्छा विरलों में ही देखने को मिलती है, जो सचमुच आस्तिक हैं वे अपने भविष्य के अर्थाभाव से नहीं घबराते.]
इन सभी कसौटियों पर भी हम अपने नवोदित सन्त 'रामदेव बाबा' को आँक सकते हैं. और उनके 'अनशन' की पुनःसमीक्षा भी कर सकते हैं. 'अनशन' मन के संकल्प को दृढ करने के लिये एक अच्छा औजार है और साथ ही 'हठयोग' के अंतर्गत आता है... ऋषियों ने 'हठयोग' की स्वीकृति उसी स्थिति में दी है जब शरीर में रोग घर कर जाये. आलस्य और प्रमाद से इच्छाशक्ति शिथिल पड़ती हो.
उदाहरणार्थ : कोष्ठबद्धता हो जाने पर आप उपवास करते हैं या फिर उसके निवारण के लिये सामान्य से हटकर कुछ असामान्य खाते हैं. कुछ शारीरिक (विशेष) स्थितियाँ बनाते हैं. सभी आसन-प्राणायाम और यौगिक {कुंजल, नेति, बस्ति, नौली} क्रियायें हठयोग ही हैं.
तब क्या समाज या राष्ट्र के लिये किये गये प्रतीकात्मक 'आमरण अनशन' को योगी पुरुष का हठयोग नहीं कहा जाना चाहिए?
— क्या हमें 'आमरण अनशन' की सफलता किसी के जीवन समाप्ति से आंकनी चाहिए?
— यदि कोई प्राण का त्याग करे तभी क्या 'आमरण अनशन' सफल होगा? क्या साधनों के बीच रहकर भी विरक्ति भाव बरकरार नहीं रह सकता?
— जरूरी है कि मैं अपनी बात आज पर्चों के माध्यम से आप तक पहुँचाऊँ? नेट यूज़ न करूँ? क्या कम्प्यूटर और नेट का प्रयोग करने से मैंने अपनी आध्यात्मिक और नैतिक छवि को विकृत कर लिया है? क्या इन सब साधनों का उपयोग करते हुए मैं स्वदेशी की बात नहीं कर सकता?
— झूठ बोलने वाला यदि कहे कि "झूठ नहीं बोलना चाहिए", सिगरेट या शराब पीने वाला कहे कि "धूम्रपान करना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है" और "शराब पीने से बुद्धि भ्रष्ट होती है" तब क्या उनकी बात का प्रचार नहीं करना चाहिए?
एक बार की बात है मेरे एक साथी ने कोलिज का चुनाव लड़ा. मैंने कहा "मित्र, आप चुनाव को बिना धन की बरबादी किये लड़ें. मैं पोस्टर, पर्चे और बेनर के खिलाफ हूँ." लेकिन उसके लिये भी हमने एक परचा छपवाया उसपर स्लोगन दिया "पोस्टर बेनर पर्चे, बढ़ा देते हैं खर्चे". सीमित दायरे में प्रचार-प्रसार किया... हमारा उद्देश्य था सभी छात्रों को उस उम्मीदवार साथी का परिचय देना. कोलिज के प्रधानाचार्य ने पूछा "आप तो पोस्टर बेनर पर्चों के खिलाफ हैं.. तब क्यों पर्चे छपवाए हैं?" उन्हें उत्तर दिया गया "हम जिस बात का विरोध करना चाहते हैं उसकी भावना समझी जाये. बिना प्रचार माध्यमों के अपनी बात एक व्यापक समुदाय तक नहीं पहुँचायी जा सकती."
यदि मैं आज हर पोस्ट के लिये अलग-अलग ब्लॉग लोंच करता रहूँ या फिर मुफ्त में मिली सुविधा का दुरूपयोग करना शुरू कर दूँ तब क्या यह एक वृहत नज़रिए से 'परिग्रह' नहीं कहलायेगा जिसकी योग 'अपरिग्रह' कहकर मनाही करता है. एक प्रकार की हवस ही 'परिग्रह' है. अर्थात भंडारण का अतिरेक वर्तमान में अघोषित असीमित धन [काला धन] भी योग का विषय है. योग इसका भी निषेध करता है.