मंगलवार, 13 सितंबर 2011

ताजमहल की असलियत ... एक शोध -- 1

पंडित कृष्ण कुमार पांडेय जी के इस अद्भुत शोध को प्रतुलजी ने काफी मेहनत से हम तक पहुँचाया है. और आप सभी सुधिजनो की सम्मति भी इस पर प्राप्त हुयी है . परन्तु ब्लॉग पर तकनीकी बदलाव करते समय पोस्ट विलुप्त हो जाने के कारण; इस पोस्ट को टिप्पणियों सहित पुनः प्रकाशित किया जा रहा है.
लेखक महोदय और समस्त सुधिजनो को होने वाली असुविधा के लिए खेद है.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
आगरा निवासी पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी जो अब ८० वर्ष से अधिक आयु के हैं... उनके 'ताजमहल' विषयक शोध को क्रमबार देने का मन हो आया जब उनके विचारों को पढ़ा. सोचता हूँ पहले उनके विचारों को ज्यों का त्यों रखूँ और फिर उनके जीवन पर भी कुछ प्रकाश डालूँ. जो हमारी सांस्कृतिक विरासत पर से मिथ्या इतिहास की परतों को फूँक मारकर दूर करने का प्रयास करते हैं प्रायः उनके प्रयास असफल हो जाया करते हैं. इसलिए सोचता हूँ उनकी फूँक को दमदार बनाया जाए और मिलकर उस समस्त झूठे आवरणों को हटा दिया जाए जो नव-पीढी के मन-मानस पर डालने के प्रयास होते रहे हैं. तो लीजिये प्रस्तुत है पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के शब्दों में ..... ताजमहल की असलियत ... एक शोध

भूमिका

मैं जब १० वर्ष का था (सन् १९४१ ई.) उस समय मेरी कक्षा छः की हिन्दी पुस्तक में एक पाठ ताजमहल पर था। जिस दिन वह पाठ पढ़ाया जाना था उस दिन कक्षा के सभी बालक अत्यधिक उल्लसित थे। उस पाठ में ताजमहल की भव्यता-शुभ्रता का वर्णन तो था ही, उससे अधिक उससे जुड़े मिथकों का वर्णन जिन्हें हमारे शिक्षक ने अतिरंजित रूप से बढ़ा दिया था। मेरे बाल मन पर यह बात पूर्णरूप से अंकित हो गई कि यह विश्वप्रसिद्ध ताज बीबा का रौजा (इस नाम से ही वह उन दिनों प्रसिद्ध था) मुगल सम्राट्‌ शाहजहाँ ने बनवाया था।

आठ वर्ष और बीत गये। सन्‌ १९४९ ई. में मैं अपने श्वसुर के साथ एक विशेष कार्य से जीवन में पहली बार आगरा आया। वह विशिष्ट कार्य हम दोनों के मन पर इतना अधिक प्रभावी था कि मार्ग में एक बार भी यह ध्यान नहीं आया कि इसी आगरा में विश्वप्रसिद्ध दर्शनीय ताजमहल है। कार्य हो जाने पर जब हम लोग बालूगंज से आगरा किला स्टेशन की ओर लौट रहे थे तो लम्बी ढलान के नीचे चौराहे से जो एकाएक दाहिनी ओर दृष्टि पड़ी तो सूर्य की आभा में ताजमहल हमारे सम्मुख अपनी पूर्ण भव्यता में खड़ा था। हम दोनों कुछ क्षण तो स्तब्ध से खड़े रह गये, तदुपरान्त किसी साइकिल वाले की घंटी सुनकर हम लोगों को चेत हुआ।

जहाँ पर हम लोग खड़े थे वहाँ पर चारों ओर की सड़कें चढ़ाई पर जाती थीं। ऐसा प्रतीत होता था कि दाहिनी ओर चढ़ाई समाप्त होते ही नीचे मैदान में थोड़ी दूर पर ही ताजमहल है, अतः हम लोग उसी ओर बढ़ लिये। ऊपर पहुँचकर यह तो आभास हुआ कि ताजमहल वहाँ से पर्याप्त दूर है, परन्तु गरीबी के दिन थे, अस्तु हम लोग पैदल ही दो मील से अधिक का मार्ग तय कर गये। उन दिनों ताजमहल दर्शन के लिये टिकट नहीं लेना पड़ता था। और गाइड करने का तो प्रश्न ही नहीं था, परन्तु जिन लोगों ने गाइड किये हुए थे लगभग उनके साथ चलते हुए हमने उनकी बकवास पर्याप्त सुनी जो उस दिन तो अच्छी ही लगी थी।

उस प्रथम दर्शन में ताजमहल मुझे अपनी कल्पना से भी अधिक भव्य तथा सुन्दर लगा था। उसकी पच्चीकारी तथा पत्थर पर खुदाई-कटाई का कार्य अद्‌भुत था, फिर भी मुझे एक-दो बातें कचौट गई थीं। बुर्जियों, छतरियों, मेहराबों में स्पष्ट हिन्दू-कला के दर्शन हो रहे थे। मुख्यद्वार के ऊपर की बनी बेल तथा कलाकृति उसी दिन मैं कई मकानों के द्वार पर आगरा में ही देख चुका था। मैंने अपने श्वसुर जी से अपनी शंका प्रकट की तो उन्होंने गाइडों की भाषा में ही शाहजहाँ के हिन्दू प्रिय होने की बात कहकर मेरा समाधान कर दिया, परन्तु मैं पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुआ एवं मेरे अन्तर्मन में कहीं पर यह सन्देह बहुत काल तक प्रच्छन्न रूप में घुसा रहा।

१८ मार्च सन्‌ १९५४ को मेरी नियुक्ति आगरा छावनी स्टेशन पर स्टेशन मास्टर श्रेणी में हुई । तब से आज तक मैं आगरा में हूँ, इस कारण ताजमहल को जानने, समझने में मुझे पर्याप्त सुविधा मिली।

आज से लगभग ३० वर्ष पूर्व समाचार-पत्रों में मैंने पढ़ा कि किसी लेखक (संभवतः श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक) ने ताजमहल को हिन्दू मन्दिर सिद्ध करने का प्रयास किया है। उक्त लेख में तथ्यों को तो दर्शया था, परन्तु उसमें प्रमाणों का अभाव था, अस्तु। उससे मुझे अधिक प्रेरणा नहीं मिल सकी। इसके कुछ वर्ष पश्चात्‌ एक दिन ज्ञात हुआ कि श्री ओक जी सायं ७ बजे स्थानीय इम्पीरियल होटल में प्रबुद्ध नागरिकों के सम्मुख ताजमहल पर वार्त्ता करेंगे। मैं उस दिन गया और श्री ओक को लगभग डेढ़ घण्टे बोलते सुना। उनके भाषण के पश्चात्‌ ऐसा प्रतीत हुआ कि ताजमहल जैसे यमुना नदी (उस समय नदी साफ़-सुथरी होती थी) से लेकर कलश तक मिथ्याचार के कलुष से निकल कर अपनी सम्पूर्ण कान्ति से देदीप्यमान हो उठा हो। भाषण के पश्चात्‌ मैं स्वयं श्री ओक जी से मिला तथा उन्हें ताजमहल की दो विसंगतियों से अवगत कराया। ओक जी मुझसे प्रभावित हुए तथा मेरा नाम पता लिख ले गये।

सन्‌ १९७५ ई. में एक दिन श्री ओक जी से पता लेकर इंग्लैंड से भारतीय मूल के अभियन्ता श्री वी. एस. गोडबोले तथा आई. आई. टी कानपुर के प्रवक्ता श्री अशोक आठवले आये। वे नई दिल्ली से पुरातत्त्व विभाग के महानिदेशक का अनुज्ञापत्र ले कर आये थे जिसके अनुसार विभाग को उन्हें वे सभी भाग खोल कर दिखाने थे जो साधारणतया सामान्य जनता के लिये बन्द रखे जाते हैं। श्री गोडबोले ने मुझसे भी ताजमहल देखने के लिये साथ चलने का आग्रह किया। मैंने दो दिन के लिये अवकाश ले लिया तथा अगले दिन उन दानों के साथ ताजमहल गया। कार्यालय में नई दिल्ली से लाया गया अनुज्ञापत्र देने पर वहां से एक कर्मचारी चाभियों का एक गुच्छा लेकर हमारे साथ कर दिया गया। उसके साथ हम लोगों ने पहले मुखय द्वारके ऊपर का भाग देखा। तत्पश्चात्‌ ताजमहल के ऊपर का कक्ष उसकी छत एवं गुम्बज के दोनों खण्डों को देखा। नीचे आकर ताजमहल के नीचे बने कमरों तथा पत्थर चूने से बन्द कर दिये गये मार्गों आदि को देख।ज्ञ एक स्थल तो ऐसा आया जहाँ पर यदि हम लोग अवरुद्ध मार्ग को फोड़ कर आगे बढ़ सकते तो कुछ गज ही आगे चलने पर नीचे वाली कब्र की छत के ठीक नीचे होते और उक्त कब्र हमारे सर से लगभग तीस फुट ऊपर होती, अर्थात्‌ कब्र के ऊपर भी पत्थर तथा कब्र के नीचे भी पत्थर। पत्थर के ऊपर भी कमरा तथा पत्थर के नीचे भी कमरा। है न चमत्कार। मात्र इतना सत्य ही संसार के समक्ष उद्‌घटि कर दिया जाए तो ताजमहल विश्व का आठवाँ आश्चर्य मान लिया जाए।तदुपरान्त हमें बावली के अन्दर के जल तक के सातों खण्ड दिखाये गये। मस्जिद एवं तथाकथित जबाव के ऊपर के भाग एवं उनके अन्दर के भाग, बुर्जियों के नीचे हाते हुए पिछली दीवार में बने दो द्वारों को खोल कर यमुना तक जाने का मार्ग हमें दिखाया गया।

यहाँ पर दो बातें स्पष्ट करना चाहूँगा

(१) शव को कब्र में दफन करने का मुखय उद्‌देश्य यह होता है कि मिट्‌टी के सम्पर्क में आकर शव स्वयं मिट्‌टी बन जाए। इसकी गति त्वरित करने के लिये उसपर पर्याप्त नमक भी डाला जाता है। यदि शव के नीचे तथा ऊपर दोनों ओर पत्थर होंगे तो वह विकृत हो सकता है, परन्तु मिट्‌टी नहीं बन सकता।

(२) यमुना तट पर स्थित उत्तरी दीवार के पूर्व तथा पश्चिमी सिरों के समीप लकड़ी के द्वार थे। इन्हीं द्वारों से होकर हम लोग अन्दर ही अन्दर चलकर ऊपर की बुर्जियों में से निकले थे। अर्थात्‌ भवन से यमुना तक जाने के लिए दो भूमिगत तथा पक्के मार्ग थे। इन्हीं द्वारा में से एक की चौखट का चाकू से छीलकर अमरीका भेजा गया था जहाँ पर उसका परीक्षण किया गया था। ६ फरवरी १९८४ को देश एवं संसार के सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि वह लकड़ी बाबर के इस देश में आने से कम से कम ८० वर्ष पूर्व की है। भरत सरकार ने इसे समाचार का न तो खण्ड ही किया और न ही कोई अन्य प्रतिक्रिया व्यक्त की, परन्तु शाहजहाँ के समान उसने एक कार्य त्वरित किया। उन दोनों लकड़ी के द्वारों को निकाल कर पता नहीं कहाँ छिपा दिया तथा उन भागों को पत्थर के टुकड़ों से समेंट द्वारा बन्द करा दिया।

ताजमहल परिसर के मध्य में स्थित फौआरे के ऊँचे चबूतरे के दाहिनी-बायें बने दोनों भवनों का नाम नक्कार खाना है, अर्थात्‌ वह स्थल जहाँ परवाद्य-यन्त्र रखे जाते हों अथवा गाय-वादन होता हो। इन भवनों पर 'नक्कार खाना' नाम की प्लेट भी लगी थी। जब हम लोगों ने इन बातों को उछाला कि गम के स्थान पर वाद्ययन्त्रों का क्या काम ? तो भारत सरकार ने उन प्लेटों को हटा कर दाहिनी ओर का भवन तो बन्द करवा दिया ताकि बाईं ओर के भवन में म्यूजियम बना दियज्ञ। इस म्यूजिम में हाथ से बने पर्याप्त पुराने चित्र प्रदर्शित हैं जो एक ही कलाकार ने यमुना नदी के पार बैठ कर बनाये हैं। इन चित्रों में नीचे यमुना नदी उसके ऊपर विशाल दीवार तथा उसके भी ऊपर मुखय भवन दिखाया गया है। इस दीवार के दोनों सिरों पर उपरोक्त द्वार स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। अभी तक मैं चुप रहा हूं, परन्तु यह लेख प्रकाशित होते ही भरत सरकार अतिशीघ्र उक्त दोनों चित्र म्यूजियम से हटा देगी।

दो दिनों तक हम लोगों ने ताजमहल का कोना-कोना छान मारा। हम लोग प्रातः सात बजे ताजमहल पहुँच जाते थे तथा रात्रि होने पर जब कुछ दिखाई नहीं पड़ता था तभी वापस आते थे। इस अभियान से मेरा पर्याप्त ज्ञानवर्धन हुआ तथा और जानने की जिज्ञासा प्रबल हुई। मैंने हर ओर प्रयास किया ओर जहाँ भी कोई सामग्री उपलब्ध हुई उसे प्राप्त करनेका प्रयास किया। माल रोड स्थित स्थानीय पुरातत्त्व कार्यालय के पुस्तकालय में मैं महीनों गया। बादशाहनामा मैंने वहीं पर देखा। उन्हीं दिनों मुझे महाभारत पढ़ते हुए पृष्ठ २६२ पर अष्टावक्र के यह शब्द मिले, 'सब यज्ञों में यज्ञ-स्तम्भ के कोण भी आठ ही कहे हैं।' इसको पढ़ते ही मेरी सारी भ्रान्तियाँ मिट गई एवं तथाकथित मीनारें जो स्पष्ट अष्टकोणीय हैं, मुझे यज्ञ-स्तम्भ लगने लगीं।

एक बार मुझे नासिक जाने का सुयोग मिला। वहाँ से समीप ही त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग है। मैं उस मन्दिर में भी दर्शन करने गया। वपस आते समय मेरी दृष्टि पीठ के किनारे पर अंकित चित्रकारी पर पड़ी। मैं विस्मित होकर उसे देखता ही रहा गया। मुझे ऐसा लग रहा था कि इस प्रकार की चित्रकारी मैंने कहीं देखी है, परन्तु बहुत ध्यान देने पर भी मुझे यह याद नहीं आया कि वैसी चित्रकारी मैंने कहां पर देखी है। दो दिन मैं अत्यधिक किवल रहा। तीसरे दिन पंजाब मेल से वापसी यात्रा के समय एकाएक मुझे ध्यान आया कि ऐसी ही चित्रकारी ताजमहल की वेदी के चारों ओर है। सायं साढ़े चार बजे घर पहुँचा और बिना हाथ-पैर धोये साईकिल उठा कर सीधा ताजमहल चला गया। वहाँ जाकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही किताजमहल के मुखय द्वार एवं तत्रयम्बकेश्वर मन्दिर की पीठ की चित्रकारी में अद्‌भुत साम्य था। कहना न होगा कि त्रयम्बकेश्वर का मन्दिर शाहजहाँ से बहुत पूव्र का है।

सन्‌ १९८१ में मुझे भुसावल स्थिल रेलवे स्कूल में कुछ दिन के लिय जहाना पड़ा। यहाँ से बुराहनुपर मात्र ५४ कि. मी. दूर है तथा अधिकांश गाड़ियाँ वहाँ पर रुकती हैं। एक रविवार को मैं वहाँ पर चला गया। स्टेशन से तांगे द्वारा ताप्ती तट पर जैनाबाद नामक स्थान पर मुमताजमहल की पहली कब्र मुझे अक्षुण्य अवस्था में मिली। वहाँ के रहने वाले मुसलमानों ने मुझे बताया कि शाहजहाँ की बेगम मुमताजमहल अपनी मृत्यु के समय से यहीं पर दफन है। उसकी कब्र कभी खोदी ही नहीं गई और खोद कर शव निकालने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, क्योंकि इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता। किसी-किसी ने दबी जबान से यह भी कहा कि वे यहाँ से मिट्‌टी (खाक) ले गये थे। सन्‌ १९८१ ई. तथा सन्‌ १९८६ ई. के मेरे भुसावल के शिक्षणकाल में मैंने सैकड़ों रेल कर्मियों को यह कब्र दिखाई थी। श्री हर्षराज आनन्द काले, नागपुर के पत्र दिनांक ०८/१०/१९९६ के अनुसार उनके पास तुरातत्व विभाग के भोपाल कार्यलय का पत्र है जिसके अनुसर बुरहानपुर स्थित मुमतालमहल की कब्र आज भी अक्षुण्या है अर्थात्‌ कभी खोदी ही नहीं गई।

पिछले २२ वर्ष से मैं ताजमहल पर शोधकार्य तथा इसके प्रचार-प्रसार की दृष्टि से जुड़ा रहा हूँ। इस पर मेरा कितना श्रम तथा धन व्यय हुआ इसका लेखा-जोखा मैंने नहीं रखा। इस बीच मुझे अनेक खट्‌टे-मीठे अनुभवों से दो-चार होना पड़ा है। उन सभी का वर्णन करना तो उचित नहीं है, परन्तु दो घटनाओं की चर्चा मैं यहाँ पर करना चाहूँगा। ...
जारी ...


~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
पूर्व 9 टिप्पणियाँ:
संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…
आज 11- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
११ सितम्बर २०११ ११:३६ पूर्वाह्न
_______________________________________________

Pankaj Singh ने कहा…

Pratul jee Behtrin Sodh karya hai ye ...
११ सितम्बर २०११ १२:३० अपराह्न
_______________________________________________

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…
पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी का 'ताजमहल' विषयक शोध ऐतिहासिक मूल्य रखता है...इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद.
११ सितम्बर २०११ १२:५२ अपराह्न
_______________________________________________

ZEAL ने कहा… 
इस अनमोल शोध से अवगत कराने के लिए आभार। आगे का इंतज़ार रहेगा।
११ सितम्बर २०११ ४:०० अपराह्न
_______________________________________________


vishwajeetsingh ने कहा…
तेजोमहालय ( ताजमहल ) के बारे में एक नये महत्वपूर्ण शौध से परिचय करवाने के लिए आपका हार्दिक आभार । आगामी अंक की प्रतिक्षा में ......
वन्दे मातरम्
११ सितम्बर २०११ ४:२१ अपराह्न

_______________________________________________
vishwajeetsingh ने कहा…
तेजोमहालय ( ताजमहल ) के बारे में एक नये महत्वपूर्ण शौध से परिचय करवाने के लिए आपका हार्दिक आभार । आगामी अंक की प्रतिक्षा में ......
वन्दे मातरम्
११ सितम्बर २०११ ४:२२ अपराह्न
_______________________________________________

रविकर ने कहा… 
आदरणीय पाण्डेय जी को सादर प्रणाम ||
तथ्यों सहित प्रस्तुति के लिए आभार ||
माननीय ओक जी की पुस्तक पढ़ी है --
आपके द्वारा प्रस्तुत तथ्य अकाट्य हैं ||
सादर नमन ||
११ सितम्बर २०११ ५:०७ अपराह्न
_______________________________________________

सुज्ञ ने कहा…
प्रतुल जी,
पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी की इस तथ्यपूर्ण शोध को प्रस्तुत करने का आभार। पंडित जी नें अपने बहुमूल्य वर्ष इस शोध को अर्पित किए है। तथ्यपूर्ण तर्कसंगत निष्कर्ष दर्शाए है। उत्सुकता से प्रतिक्षा रहेगी अगली कडी की। आभार
११ सितम्बर २०११ ५:३१ अपराह्न
_______________________________________________


संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…
। ६ फरवरी १९८४ को देश एवं संसार के सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि वह लकड़ी बाबर के इस देश में आने से कम से कम ८० वर्ष पूर्व की है। भरत सरकार ने इसे समाचार का न तो खण्ड ही किया और न ही कोई अन्य प्रतिक्रिया व्यक्त की, परन्तु शाहजहाँ के समान उसने एक कार्य त्वरित किया। उन दोनों लकड़ी के द्वारों को निकाल कर पता नहीं कहाँ छिपा दिया तथा उन भागों को पत्थर के टुकड़ों से समीमेंट द्वारा बन्द करा दिया।


यही हाल है हमारी सरकार का ..कोई सही तथ्य की जानकारी नहीं लेना चाहता ... यह शोध बहुत मूल्यवान है ..आगे का इंतज़ार रहेगा ..
११ सितम्बर २०११ १०:३४ अपराह्न
_______________________________________________

"ताजमहल की असलियत"  पोस्ट-माला की प्रकाशित पोस्टें --

6 टिप्‍पणियां:

  1. जी हाँ आप बिल्कुल ठीक बता रहे है। मुझे भी पता है इस सच का।

    जवाब देंहटाएं
  2. अमित जी, आपका आगमन किसी भी रूप में हो मुझे प्रसन्नता देता है.. मुझसे ऎसी तकनीकी त्रुटियाँ होती रहें... और आप सुधार के लिए उपस्थित होते रहें...
    मुझे तो विषयवस्तु और उनपर किये गए सुज्ञजी, संगीता जी, पंकज जी, दिव्या जी, विश्वजीत जी, डॉ. शरद सिंह जी, दिनेश गुप्त जी की टिप्पणियों पर ही नज़र रही..
    भई.. प्रस्तुति या परोसने का भी प्रभाव होता है.. एक प्रश्न हमेशा मन में उठता रहा है... किस व्यक्ति (इतिहासकार) ने मूल सत्य को बदलने का प्रयास किया? कौन दोषी है ताजमहल की असलियत को छिपाने का? इसके पीछे क्या मंशा रही? आजादी के बाद की सरकार और वर्तमान सरकार कितनी जिम्मेदार है झूठ को सच के रूप में पेश करने की?...... इन सभी के उत्तर आगे दिए जायेंगे.... पहले पंडित कृष्णकुमार पाण्डेय जी के पूरे शोध को प्रस्तुत करते हैं..

    जवाब देंहटाएं
  3. इस तथ्यपूर्ण शोध को प्रस्तुत करने का आभार....

    आगे का इंतज़ार रहेगा।

    जवाब देंहटाएं
  4. प्रतुल जी ! इस लेख को पढ़कर दुःख भी हुआ और गुस्सा भी. हमारी सरकार बड़ी ही निर्लज्जता पूर्वक भारतीयता/भारतीय गौरव के सारे प्रमाण नष्ट कर देना चाहती है. आगे भी जो प्रमाण मिलेंगे उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा. तथाकथित राष्ट्रवादी लोग ऐसे प्रकरणों पर मौन ही रहते हैं. भारतीय गौरव के प्रमाणों और भारत के सच्चे इतिहास को नष्ट करना स्पष्टतःदेशद्रोह का कृत्य है जोकि भारत की सरकार ने किया है. भारत सरकार चाहे तो इस आरोप के लिए मुझ पर न्यायालय में वाद प्रारम्भ कर सकती है. किन्तु यह मेरी स्पष्ट घोषणा है कि भारत सरकार भारत और भारत की जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं है और देशद्रोह के कार्य में लिप्त है. भारत का अहित विदेशियों से अधिक भारत के ही देशद्रोहियों ने किया है.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. @ कौशलेन्द्र जी, इस विषय पर आप पर कोई वाद चलाने की हिम्मत नहीं कर सकता क्योंकि जिसके पास साक्ष्य नहीं होते या साक्ष्य कमज़ोर होते हैं वे चुप रहने में ही भलाई समझते हैं। झूठ तब तक ही पाँव जमाये रहता है जब तक वह खामोश रहता है। उसके उछल-कूद मचाते ही उसके पाँव उखड़ जाते हैं।
      सच में इतिहास बदलने की यह कोशिश देशद्रोह ही है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में सोचने वाले शासक नहीं होंगे तब तक यह इतिहास सही नहीं किया जा सकता।

      हटाएं

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...