रविवार, 21 अगस्त 2011

क्रान्ति कैसी हो ........ 'प्राण सुरक्षित' गारंटी देने वाली अथवा 'बलिदानी' इच्छा वाली?

जब-जब हम किसी घटना को घटित होते देखते हैं तब-तब अपनी समझ और स्वभाव अनुसार उसका आकलन करते हैं. बहुत से प्रश्न उस घटना को घेरते दिखायी देते हैं और बहुत से तर्क उस घटना की प्रासंगिकता के चक्कर लगाने लगते हैं. 

राम-रावण युद्ध हुआ. क्यों हुआ? क्या सीता-हरण ही इसका मुख्य कारण था? या फिर, नैतिक-मूल्य स्थापना के लिये अथवा राजनीतिक सामाजिक दबाव के चलते यह घटना घटित हुई? 

महाभारत हुआ. क्यों हुआ? क्या द्रोपदी का अपमान ही इसका तात्कालिक कारण था? या फिर, अतीत के कई अन्य कारणों ने मिलकर उसकी पृष्ठभूमि तैयार की थी?

१८५७ का प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम हुआ. क्यों हुआ? क्या सुअर और गाय की चरबी वाले कारतूसों से धर्म-भ्रष्ट हुए भारतीय सैनिकों का आक्रोश ही इसका कारण था? या फिर, बिखरी हुई इस क्रान्ति के पीछे कुछ दूसरे भी कारण थे?

१९४७ को भारत ब्रिटिश दासता से मुक्त हुआ. कैसे हुआ? क्या मोहनदास करमचंद गांधी का अहिंसक आन्दोलन (अनशन और सत्याग्रह) ही इस श्रेय का अधिकारी है? या फिर, स्व-प्राण की चिंता से मुक्त रहने वाले वीर बलिदानियों के सतत भय ने ही ब्रिटिशों को घर का रास्ता दिखाया?

आज एक नयी ब्रांड की सफ़ेद गांधी टोपी फिर बलिदानी इच्छा वाले 'बसंती चोले' से दूरी बनाए खड़ी है... बहुत से राष्ट्रवादियों के मन में संशय होने लगा है कि 'ये कैसा राष्ट्र-यज्ञ है जिसमें आहुति देने वालों से भेद-भाव किया जा रहा है? क्या यह 'यज्ञ' प्रायोजित है जो फिर से किसी 'छली' (नेहरू) की बाट जोह रहा है? 'पटेल' के प्रयासों का श्रेय अकेले ही ले लेना चाहता है? 'सुभाष' को बेमौत मार देना चाहता है?

मन में एक 'प्रश्न' सीनातान बार-बार खड़ा होता है .. 'क्रान्ति' क्या है ?
— जो 'क्रिया' तीव्रता से गतिशील हो जाये वह क्रान्ति है?
— जो 'विचार' तीव्रता से प्रसारित हो जाये वह क्रान्ति है?
— जो 'सुविधा' अधिक से अधिक हाथों में पहुँच जाये वह क्रान्ति है?
अथवा, जिस क्रिया, विचार, सुविधा के पीछे जनबल खड़ा हो जाये वह क्रान्ति है? 

कोई क्रान्ति होती है तो मेरे निजी कारण मुझे उकसाते हैं कि क्रान्ति में शामिल हो जाओ. और ऐसे में भी मैं उसी क्रान्ति का चयन करता हूँ जिसमें गारंटी हो कि प्राण पर संकट नहीं होगा... इसलिये अहिंसक और शांतिवादी (गांधीवादी) क्रान्ति का चयन करता हूँ. वहाँ जाकर एक ही स्थान पर पूरी ऊर्जा नष्ट कर आता हूँ.  वहाँ जाकर अत्याचारियों को हृदय-परिवर्तन की छूट देता हूँ. मतलब भेड़ियों से कहता हूँ कि 'भेड़ बन जाओ, भेड़ बन जाओ, वरना हम तुम्हें जीने नहीं देंगे.' भेड़िये चालाक हैं - वे भेड़ बनने को तैयार हो जाते हैं और कहते हैं अब से हम भेड़ बनकर घास ही खाया करेंगे. और इस प्रकार 'अहिंसक क्रान्ति' सफल समझ ली जाती है. इतिहास में, साहित्य में इन अहिंसा के पुजारियों का गुणगान गाया जाने लगता है. क्या भेड़िये किसी भेड़-प्रिय चरवाहे [जन लोकपाल] से नियंत्रित हो सकते हैं?

देश में मीडिया संचालित अन्ना-क्रान्ति को हम आजकल देख रहे हैं उस क्रान्ति का वास्तविक स्वरूप क्या है? इसके क्या परिणाम निकलेंगे? क्या बिना विकल्प सोचे लड़ाई लड़ी जानी चाहिए? यदि आज किसी भी राष्ट्र-प्रेमी के पास इन प्रश्नों का निराकरण हो तो अवश्य करे?







क्रान्ति कैसी हो ........ 'प्राण सुरक्षित' गारंटी देने वाली अथवा 'बलिदानी' इच्छा वाली?
हम जानते हैं कि 'जैसा बीज बोया जायेगा वैसा ही पेड़ आगे आयेगा.'

12 टिप्‍पणियां:

  1. मोहक अंधी क्रान्ति के बीच विवेक का दीया प्रज्वलित करता हुआ प्रश्न है आपका।

    क्या निश्चित परिणामों के लिए ही हम सब इस होम में होमे जा रहे है। आम जनता का समय और विश्वास देना भी बलिदान है। क्या बार बार छले जाना ही हमारी नियति है। और अन्ततः छलियों को ही पूजने को अभिश्प्त है।

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  2. आदरणीय प्रतुल भाई साहब, साधुवाद...मेरे मन की पीड़ा आपने यहाँ लिख दी| इसी पीड़ा से पीड़ित होकर मैंने आज आधी रात में बैठकर एक पोस्ट लिखी थी|

    आज एक नयी ब्रांड की सफ़ेद गांधी टोपी फिर बलिदानी इच्छा वाले 'बसंती चोले' से दूरी बनाए खड़ी है...

    बिलकुल यही हो रहा है| लोग क्रान्ति की कीमत बहुत सस्ती समझ रहे हैं|

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  3. आज एक नयी ब्रांड की सफ़ेद गांधी टोपी फिर बलिदानी इच्छा वाले 'बसंती चोले' से दूरी बनाए खड़ी है...

    खबर : अन्ना टीम नें आज सैयद सहाबुद्दीन के साथ मंच शेयर किया।

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  4. कभी-कभी छूटे शब्द या छोड़े हुए शब्द सुज्ञ जी द्वारा प्रयोग कर लिये जाते हैं.. इससे यह प्रतीत होता है कि मेरी सोच सुज्ञ जी की सोच के बहुत समीप है.
    मैं इस पोस्ट का शीर्षक 'आकर्षक अंधी क्रान्ति' देना चाहता था लेकिन उसे छोड़ दिया ... जब पहली ही टिप्पणी में सुज्ञ जी द्वारा 'मोहक अंधी क्रान्ति' का प्रयोग हुआ तो अचंभित हुआ...
    दूसरी 'दिवसीय' टिप्पणी में जो विचार मैंने काफी मंथन के बाद रखे वे उनके जैसे ही राष्ट्रवादी सोच के व्यक्तियों के हैं ... इसकी स्वीकृति भी दिवस जी ने दे ही दी... अब मुझे इस पीड़ा को व्यक्तिगत प्रयासों से अपने संपर्क में प्रसारित करना है.

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  5. सुज्ञ जी,
    अभी तो और भी सौहार्दपूर्ण खबरें सुनने को मिलेंगी.

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  6. प्रतुलजी, दशकों से मनमानी करते आ रहे तथाकथित नेताओं के विरुद्ध आवाज उठी है। हजारों लाखों लोगों के मन में घुमड़ते आक्रोश को जाहिर होने का मौका मिला है। सवाल तो राम पर भी उठाए गये थे, बाली वध पर। कृष्ण को भी कलंकित करने का मौका नहीं गंवाया है हमीं लोगों ने। 1857 की क्रांति को भी धर्म से जोड़ कर उसकी अहमियत कम करने की बहूतेरी कोशिशें की गयीं। गांधी को तो लोगों ने खलनायक ही बना ड़ाला। आज भी 'फ़ेस बुक' पर अन्ना के कदम का मखौल उड़ाते 'कमेंट' मिल जाएंगे। सवाल तो उठ जाता है पर उसका हल भी होना चाहिए। चालीस साल के उपर हो गये झुनझुने की आवाज और लालीपाप की मिठास चाटते, क्या हुआ? आज यदि आंधी चली है तो आंधी को ही क्यों कोसना, हो सकता है सड़े-गले, सूखे-कंटीले पेड़ हट ही जाएं।

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  7. आदरणीय गगन जी,
    जब भी अन्ना जी को शिवाजी का नाम लेते सुनता हूँ तो लगता है कि ये आसानी से इस्तेमाल होने वाले गांधी नहीं हो सकते.
    जब भी अन्ना जी को किसी न किसी रूप में रामदेव' जी का नाम लेते सुनता हूँ तो लगता है कि ये क्रान्ति सही दिशा में हैं....
    आज ही एक कविता 'दिगंबर नासवा' जी की पढी ... सही कहा उन्होंने ... जो भी महत्वपूर्ण क्रांतियों में तटस्थ रहेगा वह भी इतिहास में कम दोषी नहीं समझा जायेगा.
    मेरे पिछले कुछ दिन सोच में काफी उतार-चढ़ाव भरे रहे .... क्योंकि जहाँ राष्ट्र के साथ इतने विश्वासघात हुए हों ... वहाँ यदि कोई ईमानदारी और निष्ठा से भी क्रान्ति मशाल जला ले तो उसपर भी देर से विश्वास जम पाता है.... भारी जनबल के समर्थन के कारण मेरा मन भी अन्ना-पक्ष में जड़ें जमाने लगता है... आज उनके उदबोधन में देश के लिये मुझे निष्कपट तड़प दिखी.... दृष्टांत लाजवाब थे...
    अंत में एक ही बात ...हमारी अब तक की बातों से आपने मेरा और मेरे मित्रों का आकलन किया होगा कि हम बेवजह संशय नहीं पालते... हाँ ये हमारा दोष है कि अत्यंत जागृतावस्था में कभी-कभी हम अपने साये को देखकर ही ठिठक जाते हैं और उसे शत्रु मान बार-बार चौंकते हैं.

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  8. चालीस साल के उपर हो गये झुनझुने की आवाज और लालीपाप की मिठास चाटते, क्या हुआ?

    आदरणीय गगन जी,

    भ्रष्टाचार निर्मूलन के इमानदार उद्देश्य को हमारा पूरा समर्थन है। इस आन्दोलन के सार्थक परिणाम आते है तो एक महान क्रांति होगी।

    पर हम भेड़-बकरी की तरह व्यवहार नहीं कर सकते। जैसा आप ने जिक्र किया लालीपाप का। बस हमारा विवेक यह सोचने को कहता है अब दूबारा लालीपाप नए रेपर में तो नहीं है। संशय जाग्रति की अवस्था है। अंधभक्ति अज्ञानता का प्रतीक। दूरगामी मंशाएं भांप लेने में हर्ज़ ही क्या है। भले इतिहास लिख ले उस समय हमारे संशय थे, पर इतिहास यह भी लिखेगा कि कुछ लोग थे जो मदहोशी में नहीं थे। यदि वे हमारे संशयों से कुशलक्षेम पार उतर गये तो भी उनका इमानदार व्यक्तित्व मुखर करने का श्रेय तो मिलेगा।

    प्रभु करे दूरगामी दुष्टमंशा वाले तत्व इस महान आन्दोलन में न हों। और यह छलावा साबित न हों यही प्रार्थना॥

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  9. आज बाबा रामदेव जी ने अन्ना जी से भेंट किया , अनशन मंच पर आधे घंटे तक उनसे बात-चीत की |
    तत्पश्चात मंच से अपने संबोधन में अन्ना के स्वास्थ्य के बारे में चिंता जाहिर करते हुए उनके शीघ्र स्वस्थ होने और जन लोकपाल बिल पास होने की अपनी हार्दिक इच्छा को जाहिर करते हुए ईश्वर से प्रार्थना की |
    भ्रष्टाचार- विनाश और सम्पूर्ण क्रान्ति की आगे की लड़ाई साथ-साथ लड़ने की बात कही |
    उपस्थित अनशनकारियों और अन्नाटीम के सदस्यों की प्रशंसा करते हुए उनका अभिनन्दन किया |

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  10. इस क्रांति की पृष्ठ भूमि शायद हद से ज्यादा भ्रष्टाचार ..आम आदमी की परेशानियां .. सच तो यह है कि हर बार इतने धोखे मिले हैं कि मन में संशय का उठना स्वाभाविक है ..क़ानून बनते हैं पर अमल मन कितना लाया जाता है यह देखने कि बात है ..सबसे ज्यादा तो आम जन को ही जागृत होना है ..सरकार को हमने ही तो इतनी छूट दे रखी है कि वो जो चाहे करे ..हमारा रवैया ऐसा रहा है कि सब चलता है ... आज जनता के विचारों में बदलाव आया है .. और बदलाव ही क्रांति है .. सुखद परिणाम देखने को मिलें यही कामना है ...

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  11. क्रांति का सही आगाज़ बाबा रामदेव ने किया था ...जो जनता और सरकार को पसंद नहीं आई ....या यूँ कहें की समझ ही नहीं आई........लीपी पुती बातें और संशय से भरे निर्णय ही स्वीकारती है इस देश की जनता.....सार्थक विश्लेषण

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  12. आपने बिल्कुल सही लिखा है हम लेख से सहमत है. हम आप के साथ है.
    मोनिका जी से पूरी तरह सहमत !!
    बाबा ने जो कुछ भी किया, कम से कम उन्होने देश के लोगो को तो जगा दिया काले धन के बारे में, क्या हम में से किसी ने इतना भी किया अपने देश के लिए????
    मेरे ख़याल से अब कांती का वक़्त आगेया है. सब घर से बाहर निकलो और नेताओ को सड़क पर दौड़ा दौड़ा कर पीटो जो भी करप्ट नज़र आए. हाथ पे हाथ रखकर बैठने से कोई फायदा नही है
    इतनी ज़्यादा बाते करने से आज तक कुछ नहीं सुधरा बल्कि और बिगड़ता जा रहा है, अब वक्त आ गया है सशस्त्र क्रांति करने का. सब युवाओं को अपने कॅंप्यूटर पर कमेंट्स करना छोड़ वाकई मे कुछ कर के दिखाना होगा. दुनिया मे ज़्यादातर क्रांतियों की सफलता युवाओं के कारण ही मिली है

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