हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता है , असुरों ने ऐसा उत्पात मचाया हुआ है .. वेदों के आधार पर आज इसका भंडाफोड़ करेंगे ..
सर्वप्रथम ये देखते है की देवता शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ?
देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा घोतनाद्वा, घुस्थानो भवतीति व । । : निरुक्त अ० ७ । खं० १५
दान देने से देव नाम पड़ता है । और दान कहते है अपनी चीज दुसरे के अर्थ दे देना ।
दीपन कहते है प्रकाश करने को, धोतन कहते है सत्योपदेश को, इनमे से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है कि जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है , तथा विद्वान मनुष्य भी विधादि पदार्थों के देने वाले होने से देव कहाते है ।
दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सुर्यादि लोको का नाम भी देव है ।
देव शब्द में 'तल्' प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है ।
नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्शत् : यजुर्वेद अ० ४० । मं० ४
इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है । जोकि श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , जीभ , नाक और मन , ये छ : देव कहाते है । क्योकि शब्द , स्पर्श, रूप, रस, गंध , सत्य तथा असत्य आदि अर्थों का इनके प्रकाश होता है अर्थात इन्ही ६ इन्द्रियों से हमें उपरोक्त ६ लक्षणों (शब्द , स्पर्श, रूप .....) का ज्ञान होता है ।
देव कहने का अभिप्राय ये नही की श्रोत्र , त्वचा , नेत्र ... आदि पूजनीय हो गये .
मातृदेवो भव , पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव । प्रपा ० । अनु ० ११
माता पिता , आचार्य और अतिथि भी पालन , विद्या और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते है वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करने वाला है , सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव है , अन्य कोई नही । इसमें कठोपनिषद का भी प्रमाण है :
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विधुतो भान्ति कुतोSयमग्नि : ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । ।
-कठ ० वल्ली ५ । मं ० १५
सूर्य , चन्द्रमा , तारे , बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नही कर सकते , किन्तु इन सबका प्रकाश करने वाला एक वही है क्योकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा है । इसमें यह जानना चाहिए कि ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतंत्र प्रकाश करने वाला नही है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव है ।
अब ३३ देवता (न की करोड़) के विषय में देखते है :
ये त्रिंशति त्रयस्परो देवासो बर्हिरासदन् | विदन्नह द्वितासनन् ||
ऋग्वेद अ ० ६ । अ ० २ । व० ३५ । मं ० १
त्रयस्त्रिं;शतास्तुवत भूतान्यशाम्यन् प्रजापति : परमेष्ठय्द्हिपतिरासीत् ||
यजुर्वेद अ० १४ मं० ३१
त्रयस्त्रिं;शत् अर्थात व्यवहार के ये (33) देवता है :
8 वसु ,
11 रुद्र ,
12 आदित्य ,
1 इन्द्र ओर
1 प्रजापति |
उन्मे से 8 वसु ये है :- अग्नि , पृथिवि , वायु , अन्तरिक्ष , आदित्य , घौ: , चन्द्रमा ओर नक्षत्र |
इनक नाम वसु इसलिये है कि सब पदार्थ इन्ही में वास करते है और ये ही सबके निवास करने के स्थान है ।
१ १ रूद्र ये कहाते है - जो शरीर में दश प्राण है अर्थात प्राण, अपान , व्यान , समान , उदान , नाग , कुर्म , कृकल , देवदत्त, धनज्जय और १ १ वां जीवात्मा । क्योंकि जब वे इस शरीर से निकल जाते है तब मरण होने से उसके सब सम्बन्धी लोग रोते है । वे निकलते हुए उनको रुलाते है , इससे इनका नाम रूद्र है ।
इसीप्रकार आदित्य 1२ महीनो को कहते है, क्योकि वे सब जगत के पदार्थों का आदान अर्थात सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते है , इसी से इनका नाम आदित्य है ।
ऐसे ही इंद्र नाम बिजली का है , क्योकी वह उत्तम ऐश्वर्य की विधा का मुख्य हेतु है और यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहते है की उससे वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है । तथा पशुओं की यज्ञसंज्ञा होने का यह कारण है कि उनसे भी प्रजा का जीवन होता है । ये सब मिलके अपने दिव्यगुणों से ३ ३ देव कहाते है ।
इनमे से कोई भी उपासना के योग्य नही है, किन्तु व्यवहार मात्र की सिद्धि के लिए ये सब देव है, और सब मनुष्यों के उपासना के योग्य तो देव एक ब्रह्म ही है ।
स ब्रह्मा स विष्णु : स रुद्रस्य शिवस्सोअक्षरस्स परम: स्वरातट । -केवल्य उपनिषत खंड १ । मंत्र ८
सब जगत के बनाने से ब्रह्मा , सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु , दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से रूद्र , मंगलमय और सबका कल्याणकर्ता होने से शिव है ।
--: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका , महर्षि दयानंद सरस्वती
TIME TO BACK TO VEDAS
वेदों की ओर लौटो ।
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
अद्भुत और संग्रहनीय जानकारी आभार
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख !!
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