तुम तो ठहरे बाबा-बैरागी, तुम्हें सांसारिकता से क्या प्रयोजन? जाओ, माला जपो और ईश्वर का ध्यान करो। अन्याय,शोषण और अत्याचार से तुम्हें क्या?
भारत के विभिन्न संतों ने प्राणिमात्र के प्रेम में विह्वल होकर अपने-अपने तरीकों से सत्यम-शिवम-सुन्दरम की आराधना करते हुये जगत के कल्याण के लिये वैचारिक क्रांतियाँ की हैं। जो क्रांतिकारी नहीं वह संत कैसा?...हमें क्रांति की इस संत परम्परा को आगे बढ़ाना ही होगा।
........ सत्ता ने सत्य को घुड़की दी।
...जैसे कि ईश्वर का ध्यान केवल बैरागी को ही करना है, अन्य किसी को नहीं।
....और यह भी कि बैरागी को संसार के सामूहिक कष्टों से कभी कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिये।
निरंकुश सत्ताओं के इस युग में एक प्रश्न विचारणीय है कि तब अन्याय, शोषण और अत्याचार के उन्मूलन का प्रयोजन यदि संत को नहीं तो और किसे होना चाहिये?
क्या असंत के कुकृत्यों का विरोध किसी असंत ने किया है कभी?
क्या असंत के कुकृत्यों का विरोध किसी असंत ने किया है कभी?
क्या संतों के कर्तव्य असंतों द्वारा निर्धारित किय जायेंगे अब? क्या संत के कर्तव्यों की असंतों द्वारा खींची गयी सीमा रेखा असंतों की निरंकुश भावना का प्रमाण नहीं?
मनुष्य पर मनुष्य का अत्याचार करते रहने की यह कैसी अदम्य लालसा है मनुष्य की?
न केवल मनुष्य अपितु.....प्राणिमात्र...प्रकृतिमात्र पर अत्याचार करते रहने की अदम्य लालसा है यह।
न केवल मनुष्य अपितु.....प्राणिमात्र...प्रकृतिमात्र पर अत्याचार करते रहने की अदम्य लालसा है यह।
हमें परिभाषाओं पर चढ़ी धूल झाड़कर उनका परिमार्जन करना होगा, वैराग्य को एक बार पुनः समझना होगा।
कष्टों के अन्धकूप में पड़े लोगों से पूछता हूँ मैं, राग से वैराग्य तक की कठिन साधना के पश्चात....पोखर से समुद्र तक की यात्रा के पश्चात ....क्या किसी विरागी को संवेदनहीन हो जाना चाहिये?
सृष्टिकर्ता की आराधना की उस स्थिति में पहुँचकर क्या संवेदनहीन हुआ जा सकता है?
सृष्टिकर्ता की आराधना की उस स्थिति में पहुँचकर क्या संवेदनहीन हुआ जा सकता है?
संवेदनहीन तो वह है जो एकांगी राग के पंक में आकंठ डूबा हुआ है....
......यह राग एकांगी और मोहावृत है, व्यापक और विशिष्ट नहीं। विशिष्ट राग तो किसी वैरागी का ही विषय हो सकता है।
मोहावृत राग के पंक से निकलकर करुणा और प्रेम के विशिष्ट राग की यात्रा तो कोई वैरागी ही कर सकेगा...और उसी वैरागी के लिये इतनी लांछना कि समष्टि से प्रेम न करे! समष्टि की पीड़ा से पीड़ित न हो ....निर्विकार बना रहे... नेत्र मूँद ले अपने पीड़ितों को देखकर ..... कान बन्द कर ले अपने धरती की चीत्कार सुनकर!
नहीं....परिभाषाओं को अपने स्वार्थ के साँचे में ढ़ालकर विकृत करने की स्वतंत्रता किसी को नहीं दी जा सकती।
संत तो व्यष्टिगत प्रेम के छुद्र पोखर से निकलकर समष्टिगत प्रेम के महासमुद्र की ओर यात्रा करता है।
लोग कहते हैं कि प्रेम तो सांसारिकों का विषय है, संतों का नहीं। मैं कहता हूँ कि प्रेम जब व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर व्यापक हो जाता है तब वह संत का विषय हो जाता है।
प्रेम को सतही समझना भूल होगी, वह समाप्त नहीं होता कभी .....विस्तृत होता है ...व्याप्त होता है।
वैरागी व्यक्ति अन्य सांसारिकों की अपेक्षा अधिक प्रेमी होता है....करुणा और संवेदना से भरा हुआ। उसका प्रेम विशिष्ट प्रेम है ..इसलिये वह विरागी है अरागी नहीं।
उसका राग सृष्टि मात्र के प्रति करुणा से भरा हुआ है तब वह जीवमात्र के कष्टों से निस्पृह कैसे रह सकता है भला?
भारत के विभिन्न संतों ने प्राणिमात्र के प्रेम में विह्वल होकर अपने-अपने तरीकों से सत्यम-शिवम-सुन्दरम की आराधना करते हुये जगत के कल्याण के लिये वैचारिक क्रांतियाँ की हैं। जो क्रांतिकारी नहीं वह संत कैसा?...हमें क्रांति की इस संत परम्परा को आगे बढ़ाना ही होगा।
हरि ओम तत्सत!
satyam shivam sundaram ke aavhan ka nya salika man ko bha gya.
जवाब देंहटाएंआपके प्रथम आगमन का हार्दिक स्वागत है।
हटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!
संत-स्नेह की सत्य सुन्दर शिवम् व्याख्या!! आनन्दवर्धक कल्याण्दायक!!
जवाब देंहटाएंसंत का प्रेम प्रेमातीत करूणा होता है। न यह गुदगुदी देने वाला प्रेम और न ही स्वार्थी मनलुभावन प्रेम!! यह वह शाश्वत प्रेम नहीं यह तो स्वार्थ बदलते ही प्रभाव बदल देता है।
सत्य वचन! दधीचि, विश्वामित्र, परशुराम, समर्थ गुरु रामदास, गुरु गोविन्द सिंह, जिधर भी देखिये, भारत में संत यथार्थवादी और परदुःख-कातर रहे हैं। मार्ग-विभाजन के शोर के पीछे उद्देश्य अक्सर कुछ और होता है।
जवाब देंहटाएंआज भारत को इसी सन्त परम्परा की आवश्यकता है।
हटाएंआचार्य जी,
जवाब देंहटाएंइस निबंध को तल्लीन होकर पढ़ा.... उच्चकोटि का वैचारिक दर्शन प्रकट हुआ है ... मुझे 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल' की शैली से कमतर नहीं लगी... 'जब से आप 'भारत भारती वैभवं' के लेखक मंडल में सम्मिलित हुए हैं... हमें भी इस पंगत में रहने पर गौरव होने लगा है..... दुर्लभ होती जा रही है ऎसी शैली.
नीर-क्षीर विवेकी और शान्तमना हृदय से ही ऐसे उदगार प्रकट हो सकते हैं. ............ अद्भुत है यह विचार गंगा....... पठन-स्नान से गदगद हूँ.
"सत्ता ने सत्य को घुड़की दी।"
जवाब देंहटाएं"जैसे कि ईश्वर का ध्यान केवल बैरागी को ही करना है, अन्य किसी को नहीं।"...
@ इस निबंध में काव्य का पुट है, स्वस्थ्य व्यंग्य का समावेश भी है. प्रसाद गुण वाले उलाहनों की भरमार है. आपकी बातचीत शैली कृत्रिम बिलकुल नहीं लग रही.
विषयवस्तु पर टिप्पणी करने का कोई छोर आपने छोड़ा ही नहीं, इसलिये शिल्प पर बोंल रहा हूँ.
साहित्य की दृष्टि से कंगाल हूँ। हमें त्रुटियों की ओर इंगित किये जाने की भी प्रतीक्षा रहती है। विषयवस्तु के साथ ही साहित्य शिल्प भी यदि अच्छा हो तो बात कुछ और भी प्रभावी हो जाती है...इसलिये हर रचनाकार को यह मोह तो रहता ही है। आपकी टिप्पणियाँ मेरा साहित्यिक मार्गदर्शन करती हैं ...इसके लिये आभारी हूँ।
हटाएं@ मुझे प्रतीत होता है.... शिक्षा की आत्मा 'मूल्यपरकता' शनैः-शनैः शिक्षा-शरीर का साथ छोड़ रही है.
जवाब देंहटाएंसत्ताधीशों की शिक्षा के समुचित प्रबंध पर विद्वानों को नये सिरे से विचार करना होगा.
उनके उत्तराधिकारियों अथवा सत्ता युवराजों को भारतीय संस्कृति और नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाना होगा.
..........भविष्य में कुछ ऐसा किया जाये जो असंतों की निरंकुश भावनाओं को नियंत्रित किया जा सके.
संतों को भी 'स्वयम्भू' के आवरण से निकलकर अपने त्यागमयी आचरण से आमजन का विश्वास अर्जित करना होगा.
सभी महानुभावों को सादर नमन!
हटाएंप्रतुल जी! शिक्षा जब तक व्यवसाय रहेगी तब तक मूल्यपरकता की आशा करना स्वयं को छलना होगा। शिक्षा के प्राण मानवीय सम्वेदना और चेतना के निरंतर परिमार्जन होते रहने में बसते हैं। यह मानवीय उच्चादर्शों को स्थापित करने का अभियान है जो व्यवसाय के नियमों के विरुद्ध है। यह बीड़ा तो संतों को ही उठाना पड़ेगा .....गुरुकुल परम्परा का दीपक फिर से जलाना होगा।
छलक-छलक कविता छलकाने आये अवध के लाल।
जवाब देंहटाएंचलो बचायें संत परम्परा,त्यागें सब जी के जंजाल॥