मंगलवार, 28 अगस्त 2012

ताजमहल की असलियत ... एक शोध -- 8

०७ फरमानों की समीक्षा

फरवरी माह के आलेख में आपने शाहजहाँ द्वारा आमेर के राजा जयसिंह के नाम भेजे गये तीन राज्यादेश (फरमान) पढ़े। यह तीनों लगभग एक ही विषय पर केन्द्रित हैं कि राजा जयसिंह अपने राज्य में स्थित मकराना की खानों से संगमरमर पत्थर भिजवाने की व्यवस्था करें। इन फरमानों का अब तक यही अर्थ लगाया जाता रहा है कि सफेद संगमरमर से बने ताजमहल को शाहजहाँ ने ही बनवाया था जिसका पुष्ट प्रमाण है कि सम्राज्ञी मुमताज उज ज़मानी की मृत्यु के पश्चात्‌ शाहजहाँ ने संगमरमर अकबराबाद मंगवाने के लिये फरमान जारी किये, परन्तु वास्तवकिता इसके विपरीत है। इन फरमानों का गहन अध्ययन ही यह सिद्ध करेगा किशाहजहाँ ने ताजमहल नहीं बनवाया था।

तर्क में कुछ लोग कहेंगे कि फरमानों में संगमरमर लाने की बात कही गई है, परन्तु उसी संगमरमर से ताजमहल बनाया गया, ऐसा स्पष्ट तो क्या संकेत मात्र भी कहीं नहीं है। अतः यह सिद्ध नहीं होता कि मकराना से लाये गये पत्थर से ताजमहल ही बनाया गया था। सम्भव है उस पत्थर का किसी अन्य भवन के बनाने में प्रयोग किया गया हो ? मैं इस तर्क को कुतर्क ही मानूंगा। अनेक प्रमाणों के आधार पर यह स्वयं सिद्ध है कि उपरोक्त फरमानों के आधार पर मकराना की खानों से लाये गये सफेद संगमरमर का प्रयोग ताजमहल में ही किया गया था। आप कहेंगे कि यह दोहीर बात कैसी ? एक ओर आप कह रहे हैं कि लाये गये पत्थर का प्रयोग शाहजहाँ ने ताजमहल में किया था तथा साथ ही साथ यह भी कह रहे हैं कि ताजमहल शाहजहाँ ने नहीं बनवाया था। हाँ ! यह दोनों बातें ही सत्य हैं, परन्तु कृपया कुछ प्रतीक्षा कीजिये।

सम्राज्ञी मुमताज उज ज़मानी का देहान्त आधुनिक मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र की सीमा पर बसे बुरहानपुर नामक स्थान पर दिनांक १७ जिल्काद १०४० हिजरी तदनुसार १७ जून सन्‌ १६३१ ई. को हुआ था तथा उसे वहीं ताप्ती नदी के तट पर जैऩाबाद नामक स्थान पर दफना दिया गया था। शव को दफनाने का प्रमाण है कि ८ दिन पश्चात्‌ शाहजहाँ ताप्ती नदी पार कर कब्र पर गया था। तत्पश्चात्‌ ४ जुलाई सन्‌ १६३१ (४ जिल्हज १०४० हिजरी) को प्रथम गुलाब जल छिड़कने की रस्म भी वहीं पर पूरी की गई। आगे बादशाहनामा कहता है कि १७ जमादिल अव्वल १०४१ हिजरी (११ दिसम्बर सन्‌ १६३१) को सम्राज्ञी के शव को आगरा ले जाया गया जो वहाँ १५ जमादिल आखिर १०४१ हिजरी (८ जनवरी सन्‌ १६३२) को पहुँचा और उसे दफनायां न जाकर ताजमहल परिसर में रख दिया गया। क्यों ? आइए गवेषणा करें।

राजा मानसिंह के महल (ताजमहल) पर शाहजहाँ एवं मुमताज महल की निगाह जहाँगीर के शासनकाल से थी। उसके स्वयं के शासन के प्रथम तीन वर्ष अति व्यस्तता (शासन सुधारने, विद्रोहों का दमन करने तथा दक्षिण के कुछ राज्यों पर आक्रमण करने) में बीते। इसी समय सम्राज्ञी का देहान्त हो गया। शाहजहाँ को यह एक अच्छा अवसर अनायास मिल गया तथा बादशाहनामा के अनुसार, 'महानगर के दक्षिण में स्थित विशाल मनोरम रसयुक्त वाटिका से घिरा हुआ और उसके बीच का वह भवन जो मानसिंह के महल के नाम से प्रसिद्ध था को रानी को दफनाने के लिये चुना गया।'

इस विषय पर तर्क-वितर्क न करते हुए कि राजा का महल ही क्यों चुना गया, हम सीधे विषय पर आते हैं। महल का चुनाव कर लेने के पश्चात्‌ उसके स्वामी राजा जयसिंह को महल सम्राट्‌ को दे देने के लिये कहा गया। स्पष्ट है कि इस अन्याय से जयसिंह असमंजस में पड़ गया। उसने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उसे समझाने का बहुत प्रयास किया गया, परन्तु काम न बना और लगभग पाँच मास का समय बीच गया। तब एक भीषण षड्‌यन्त्र के तहत सच्चा या झूठा (इसलिये कि रानी की असली कब्र तो आज भी बुरहानपुर में बिना खुदी सही दशा में उपलब्ध है) एक शव लाकर महल परिसर में राजा जयसिंह पर दबाव बनाने के लिए रख दिया गया। राजा जयसिंह को, 'धार्मिक पवित्रता तथा दुख के अवसर 'की महत्ता बताई गई, परन्तु राजा टस से मस न हुआ। इसीलिये शव लगभग ६ः मास उसी परिसर में पड़ा रहा। अन्ततः राजा को झुकना पड़ा तथा वह महल छोड़कर आमेर चला गया। रानी के शव को कब दफनाया गया, वह दिनांक कहीं उपलब्ध नहीं है। बादशाहनामा में मात्र इतना इंगित है उसे अगले वर्ष दफनाया गया। मुसलमानी वर्ष १ मुहर्रम से प्रारम्भ होता है और गणना के अनुसार उस वर्ष यह दिनांक १९ जुलाई सन्‌ १६३२ को पड़ा था। यह आवश्यक नहीं कि शव इसी दिन दफनाया गया हो, क्योंकि बादशाहनामा के अनुसार, 'अगले वर्ष उस भव्य शव को..... आकाश चुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर............जिस पर गुम्बज है..............पवित्र भूमि को सौंप दिया।' हम कल्पना कर सकते हैं कि शव को १९ जुलाई के पश्चात्‌, परन्तु २० सितम्बर से पूर्व किसी दिन दफनाया गया। इस कार्य से निपटने के पश्चात्‌ षड्‌यन्त्रकारियों ने निश्चय किया कि सम्भव है राजा जयसिंह पुनः अपने महल को वापस लेने के प्रयास करें अस्तु इसमें रानी की कब्र बनवा दी जाये तथा कुरान लिखा दी जाय। इस कार्य के लिये संगमरमर पत्थर की आवश्यकता थी, क्योंकि पूरा महल सफेद संगमरमर का बना हुआ था। शाहजहाँ का दुर्भाग्य कि पत्थर भी राजा जयसिंह की ही जागीर में उपलब्ध था। राजा कहीं भड़क न जाय ताजमहल का नाम न लिख कर पहले फरमान में मात्र पत्थर काटने वाले तथा किराये की गाड़ियों की बात कही गई है।

इस बात को दूसरे ढंग से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। प्रश्न यह उठता है कि रानी को दफन करने के तुरन्त बाद शाहजहाँ को संगमरमर की आवश्यकता क्यों पड़ गई ? यहाँ पर मैं यह स्पष्ट करना अपना कर्त्तव्य मानता हूं कि नींव से लेकर ऊपर का बड़ा प्रांगण तथा उसके ऊपर संगमरमर का बना चबूतरा तथा उसके ऊपर का विशालकाय संगमरमर का भवन गुम्बज सहित, सम्पूर्ण लाल पत्थर तथा ईंटों का बना हुआ है। जो भाग संगमरमर का बना दिखाई पड़ता है वहां पर ईंट की १३ फीट मोटी दीवाल पर मात्र ६ इंच मोटा संगमरमर दोनों ओर चिपका है। अतः स्पष्ट है कि यदि शाहजहाँ ने ताजमहल बनवाया होता तो उसे धौलपुर की खानों से लाल पत्थर तथा स्थानीय भट्‌ठों से ईंट की व्यवस्था करनी पड़ती तथा जब १२-१४ वर्ष में पूरा महल बन चुका होता उस समय ऊपर चिपकाने के लिये संगमरमर पत्थर की आवश्यकता होती, न कि पहले ही वर्ष। कहाँ है वे फरमान जिनमें लाल पत्थर तथा ईंटों की मांग की गई थी।

जिन्होंने भी ताजमहल देखा है वह भली भाँति जानते हैं कि मुखय सफेद भाग को छोड़कर भी उसकी कुर्सी के चारों ओर का विशाल प्रांगण भूमि से ६०-८० फीट की ऊँचाई तक है और यह सभी ईंट, गारा, चूना तथा लाल पत्थर का बना हुआ है। यह भी एक तथ्य है कि इसकी नींव में कम से कम ४२ कुएँ हैं जो निश्चित रूप से संगमरमर द्वारा नहीं बनाए गये हैं। फरमानों की तिथि पर यदि ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि पहला फरमान २०/०९/१६३२ तथा तीसरा और अन्तिम फरमान दिनांक ०१/०७/१६३७ई. का है। यह ही भवन बनने का प्रारम्भ समय होना चाहिए था। स्पष्ट है कि इस अवधि में शाहजहाँ को संगमरमर की आवश्यकता किसी रूप में भी भवन बनाने के लिये नहीं थी। हाँ, दोनों कब्रें (शाहजहाँ की नहीं) बनाने के लिये तथा कुरान लिखवाने के लिए संगमरमर की आवश्यकता अवश्य थी। दो कब्रों से मेरा तात्पर्य ऊपर तथा नीचे की कब्रों से हैं। नीचे की कब्र इसलिये बनाई गई थी कि यदि कभी राजा जयसिंह वापस भवन को बलात्‌ प्राप्त कर कब्र को नष्ट भी कर दें तो नीचे की तथाकथित कब्र (जो उस समय छिपी थी) सुरक्षित बनी रहे और भवन को पुनः प्राप्त करने की दशा में कहा जा सके कि मकबरा तथा कब्र सुरक्षित है।

अमानत खाँ शीराजी नामक व्यक्ति ने कुरान लिखने का कार्य किया था। उसने कई स्थानों पर अपना नाम तथा तारीख लिखी है। अन्तिम तारीख १६३९ ई. की है, यही कारण है कि सन्‌ १६३७ ई. के बाद संगमरमर की मांग नहीं की गई थी।

अब तक यह स्पष्ट हो चुका है कि तीन फरमानों के द्वारा शाहजहाँ ने आमेर नरेश राजा जयसिंह को संगमरमर भेजने की व्यवस्था करने का आदेश दिया था। यहाँ पर पहला प्रश्न यह उपस्थित होता है कि शाहजहाँ को सन्‌ १६३२-३३ में संगमरमर कीही आवश्यकता क्यों पड़ी ? यही नहीं दूसरा प्रश्न यह भी है कि मात्र ४ मास पश्चात्‌ ही दूसरा फरमान भेजने की आवश्यकता क्यों पड़ी ?

पहले सम्राज्ञी के शव को दफनाने के २ मास बाद ही शाहजहाँ द्वारा संगमरमर प्राप्त करने के लिये आदेश देना, उसे प्राप्त करने के लिये उच्च-अधिकारियों की नियुक्ति करना, तत्पश्चात्‌ लगातार दो अन्य फरमान भेजना सिद्ध करता है कि शाहजहाँ को कुछ ऐसा निर्माण कराना था जिसमें संगमरमर पत्थर की ही अतिशीघ्र आवश्यकता थी। ताजमहल का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि सम्राज्ञी की कब्र संगमरमर की बनी है तथा कुरान भी संगमरमर पर ही लिखी हैं। अधिक ध्यान से देखने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कुरान के आसपास के फूल-बूटे आदि कुरान से अधिक स्पष्ट तथा पुराने हैं। यह ऐसे पुष्ट प्रमाण हैं कि जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि शाहजहाँ ने राजा जयसिंह से संगमरमर प्राप्त किया था तथा कब्रों का निर्माण कराया था एवं कुरान लिखवाई थी। यदि ऐसा न होता तो शाहजहाँ को संगमरमर की आवश्यकता सम्राज्ञी के मरने के कई वर्ष बाद ही होती न कि अविलम्ब। संगमरमर की आवश्यकता तो भवन के गुम्बज तक निर्माण पूरा होने के पश्चात्‌ ही ऊपर सेचिपकाने के लिये होती। माना कि संगमरमर पर फूल-बूटे आदि खुदवाने के लिये कुछ समय पूर्व ही उसकी आवश्यकता रही होगी, परन्तु इस तर्क में भी दम नहीं है। जब तक मुखय भवन बन कर तैयार न हो जाय तथा उसके प्रत्येक भाग का सूक्ष्मतम माप न ले लिया जाय तब तक किसी पत्थर को खुदाई के लिये छुआ नहीं जा सकता। साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ताजमहल में सादे पत्थर का प्रयोग खुदाई किये गये पत्थर से लगभग दस गुना अधिक है।

फरमानो में शाहजहाँ ने संगमरमर के लिये गाड़ियों की व्यवस्था करने तथा भुगतान सम्बन्धी आदेश दिये हैं। यह अति आश्चर्यजनक ही लगता है कि उस युग में जब सम्राट्‌ की भ्रकुटि हिलाने मात्र से कार्य त्वरित गति से हो जाता था, शाहजहाँ को मात्र ४-५ मास में एक नहीं दो आदेश-पत्र (फरमान) क्यों भेजने पड़े थे ? दूसरा फरमान पढ़ने से ज्ञात होता है कि राजा जयसिंह ने न तो पत्थर काटने वालों की ही व्यवस्था की, न ही गाड़ियाँ ही उपलब्ध कराईं। साथ ही साथ उसने मुल्क शाह की भी कोई सहायता नहीं की। जिस प्रकार एक सेनापति के असफल होने पर दूसरा अधिक वीर सेनापति भेजा जाता था, उसी प्रकार मुल्कशाह के असफल होने पर दूसरे फरमानके साथ इलाहादाद को भेजा गया। इस फरमान में 'इस समय अधिक महत्व देने के लिए' लिखा गया अर्थात्‌ ४ मास में संगमरमर प्राप्त न करना शाहजहाँ के लिये कितना 'महत्वपूर्ण' बन गया था। साथ ही साथ शाहजहाँ ने मुल्कशाह के साथ भेजे गये धन का हिसाब भी मांगा था। स्पष्ट है कि राजा जयसिंह का व्यवहार एक स्वामिभक्त मनसबदार का न होकर एक धृष्ट राजा के समान था जो असहयोग करने पर उतारू था।

अन्तिम फरमान से राजा जयसिंह का असहयोग अति स्पष्ट हो जाता है। अनुमान लगाया जा सकता है कि राजा द्वारा कोई सहायता उपलब्ध न कराये जाने पर इलाहादाद ने अपने स्वयं के मुतसद्दियों द्वारा स्वतन्त्र रूप से (बिना राजा जयसिंह की सहायता के) थोड़ा बहुत संगमरमर प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया था, परन्तु राजा को यह भी रुचिकर नहीं था। अतः उसने इस कार्य में भी बाधा डालनी प्रारम्भ कर दी। यह सुस्पष्ट आरोप फरमान में है कि राजा के सैनिक आमेर तथा राजनगर में पत्थर काटने वालों को रोक रहे हैं। बिना राजा जयसिंह की सहमति के सैनिकों अथवा आदमियों को इतना साहस कैसे हो सकता था कि वे सम्राट्‌ के कार्य में बाधा डालें।

मेरा निश्चित मत है कि खानों से संगमरमर कोई भी व्यक्तिसाधारणतया प्राप्त कर सकता था तथा मूल्य देकर शाहजहाँ स्वयं भी पत्थर सुविधापूर्वक प्राप्त कर सकता था। इसके लिये किसी प्रकार के फरमान भेजने की आवश्यकता नहीं थी। फिर भी पहले कुछ मास में पत्थर प्राप्त करने में असफल होने पर शाहजहाँ ने फरमान भेजा। पहले फरमान के बाद ही पर्याप्त संगमरमर मिल जाना चाहिए। यदि राजा असहयोग कर रहा था तो उसे दण्ड दिया जाना चाहिए थ। फरमानों के अन्त में यद्यपि स्पष्ट लिखा जाता था, 'भूल न करें', आदि। इस अति आवश्यक कार्य को अपना दायित्व न समझने की गुरुतर भूल करने, तीन-तीन आदेश पत्रों को रद्‌दी की टोकरी में फेंक कर भी राजा जयसिंह (मात्र एक मनसबदार) मूछों पर ताव देता रहा और सम्राट्‌ होते हुए भी शाहजहाँ कुछ न कर सका ? है न आश्चर्यजनक ! वह युग पूर्ण दया अथवा पूर्ण दण्ड का था। शासन प्रसन्न हो जाय तो सहज ही लाखों के मूल्य के पुरस्कार दे दें और यदि रुष्ट हो जाय तो कम से कम दण्ड सूली पर चढ़वा देना, हाथी के पैर से कुचलवा देना, कुत्तों से नुचवाना अथवा सार्वजनिक रूप से वध कराना आदि होता था तथा राजा एवं मनसबदार इसके अपवाद नहीं थे। इनको भी दण्ड मिलने के उदाहरण हैं यथा अब्दुल रहीमखानखाना, अमर सिंह राठौर, शिवाजी, राजा जसवन्त सिं आदि। इस विषय पर आगे विचार करेंगे, पहले संगमरमर पर।

तीसरे फरमान के पश्चात्‌ का कोई अन्य फरमान भेजा गया, ऐसा प्रतीत नहीं होता हैं इसका यह तात्पर्य नहीं कि राजा जयसिंह के व्यवहार में परिवर्तन आ गया था अपितु मात्र इतना है कि सन्‌ १६३७-३८ में जो संगमरमर पहुँचा उस पर कुरान लिखी गई एवं संगमरमर का काम कुरान लेखन के साथ ही सन्‌ १६३९ ई. में समाप्त हो गया था।

अब पुनः मुखय प्रश्न पर आएं कि राजा जयसिंह का व्यवहार आश्चर्यजनक रूप से उद्‌दण्ड तथा नकारात्मक क्यों था ? साथ ही साथ शाहजहाँ का व्यवहार भी नम्र एवं शिष्ट क्यों था ? इसके लिये दूर नहीं जाना होगा। आइये, पहले बादशाहनामा को देखते हैं। पृष्ठ ४०३ पर पंक्ति २९ के अनुसार राजा मानसिंह का महल जो उस समय राजा जयसिंह के स्वामित्व में था, रानी के शव को दफनाने के लिये चुना गया था। इसी पृष्ठ की पंक्ति ३१ के अनुसार राजा जयसिंह के लिये अपनी यह पैत्रिक सम्पत्ति अत्यन्त मूल्यवान्‌ थी। ऐसी मूल्यवान्‌ सम्पत्ति राजा जयसिंह से दुखद विछोह एवं धार्मिक पवित्रता के नाम पर बलात्‌ छीन ली गई थी। यद्यपि यह कहा गया था कि बदले में भूमि का एकटुकड़ा दिया गया था। वह कितना बड़ा टुकड़ा था तथा कहाँ पर था इसका कोई विवरण नहीं दिया गया। वस्तुतः यह भूमि देना भी संदिग्ध है। पाठक समझ सकते हैं कि ताजमहल जैसी मूल्यवान्‌ सम्पत्ति के बदले में यदि भिूमि का एक टुकड़ा (चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो) यदि सचमुच दे दिया जाए तो भी पाने वाला कितना असंतुष्ट होगा ? स्पष्ट है कि शाहजहाँ के इस कृत्य से राजा जयसिंह न केवल असंतुष्ट ही थे अपितु रुष्ट भी थे। मकराना (उन्हीं के राज्य) की खानों से संगमरमर मंगा कर शाहजहाँ द्वारा राजा जयसिंह के भव्य भवन पर कुरान लिखना भला उन्हें कैसे सहन हो सकता था। यह तो जले पर नमक छिड़कने जैसा था। ताजमहल छिन जाने में तो जयसिंह का वश नहीं चला, परन्तु मकराना की खानें तो उसके राज्य-क्षेत्र में अवस्थित थीं, अतः सीमा में रहते हुए जितना अवरोध (विरोध) सम्भव था उसने उत्पन्न किया उसने अप्रत्यक्ष रूप से कारीगर भी रोक दिये थे। यही कारण था कि शाहजहाँ लगातार शिष्ट बना रहा, क्योंकि उसे भय था कि यदि राजा जयसिंह को व्यर्थ में दण्डित किया गया तो वह विद्रोह भी कर सकता था ओर उस दशा में अन्य राजपूत भी उसका साथ दे सकते थे। ताजमहल परकुरान लिखाने से भी यही तात्पर्य था कि शाहजहाँ उस भवन पर मात्र अपने नाम का ठप्पा भर लगाना चाहता था।

इसके अतिरिक्त भी एक कारण था। अपने पिता जहाँगीर के समय में शाहजहाँ, जो उस समय शाहजादा खुर्रम के नाम से प्रसिद्ध था, ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया था। उस समय समाज्ञी नूरजहाँ ने आमेर के राजा जयसिंह को खुर्रम का विद्रोह दबाने के लिऐ आगरा बुलाया था। जब वह आगरा आये तो उनकी अनुपथिति का लाभ उठा कर खुर्रम ने उनकी राजधानी को लूट लिया था। अन्ततः राजा जयसिंह ने खुर्रम का पीछ करते हुए उसे परास्त कर जहाँगीर के चरणों में ला कर डाल दिया था। स्पष्ट है कि सन्‌ १६२८ में गद्‌दी पर बैठते समय शाहजहाँ के मन में गाँठ थी और वह बदला लेने के लिये अवसर की खोज में था और वह अवसर उसे रानी की मृत्यु के रूप में ३ वर्ष में ही मिल भी गया। स्पष्ट है कि राजा मानसिंह का वह भव्य भवन (ताजमहल) अकबर के समय से ही मुगलों की आँखें में खटक रहा होगा। अकबर के राजा बिहारीमल (भारमल) एवं उनके पुत्र भगवन्त दास तथा पौत्र मानसिंह से निकट के सम्बन्ध थे। जहाँगीर मानसिंह का सगा बहनोई था। अतः इन दोनों ने ऐसा कुछ नहीं किया। दूसरा कारण यह भी था कि राजा मानसिंह मुगल सम्राज्य के महान्‌ स्तम्भ थे, जिनके ऊपर पूरा मुगल शासन तन्त्र टिका था। यद्यपि यही दशा राजा जयसिंह की भी थी, परन्तु उनकी अल्प आयु का लाभ उठाते हुए जब शाहजहाँ को मौका मिला तो उसने धार्मिक अवसर तथा दुखद समय आदि के बहाने उक्त भव्य भवन को राजा जयसिंह से छीन लिया। अन्यथा कोई कारण न था कि खुली भूमि न लेकर एक भव्य भवन को 'दफनाने' के लिये चुना गया।

एक अन्य बात फरमानों से स्पष्ट होती है कि मुल्कशाह एवं इलाहादाद को राजा के पास आमेर भेजा गया था जब कि प्रचलित नियम के अनुसार राजा को आमेर में न होकर आगरा में शाहजहाँ के पास ही होना चाहिए थां उस समय के राजा मात्र कुछ दिनों के लिये ही (सम्राट्‌ से छुट्‌टी लेकर ही) अपनी राजधानी जा सकते थे। अतः राजा का असन्तुष्ट होकर आमेर चलेजाना तथा वहाँ पर कई वर्ष तक रहना कारण रहित नहीं हो सकता हैं इतिहास साक्षी है कि जयसिंह शाहजहाँ के विरुद्ध दक्षिण में औरंगजेब को गुप्त सूचनाएँ भेजता था तथा उसने उत्तराधिकार के युद्ध में न केवल स्वयं औरंगजेब का साथ दिया था अपितु इसके लिये राजा जसवन्त सिंह को भी मना लिया था।
ज़ारी ...



लेखक  : पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय

20 टिप्‍पणियां:

  1. तार्किक विश्लेषण, प्रतुल जी
    पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय का आभार इस शोध के लिए…

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    उत्तर
    1. सुज्ञ जी, झूठ से परदा हटाने वालों को तो सर-माथे बैठाना ही चाहिए.... झूठ को हकीकत के फ्रेम में डालने वालों का नकाब हटाना ही होगा.

      ये कौन लोग थे? उन्होंने ऐसा क्यों किया किया? .... इस पर चिंतन किया जाना जरूरी है.

      हटाएं
  2. ये सब पढ़ तो अब रहा हूँ लेकिन पता नहीं क्यों तीन बार ताजमहल जाना हुआ है, अन्दर एक बार गया हूँ और दो बार बाहर ही बैठा रहा| मैं इस अनादर को अपने अन्दर सौन्दर्यबोध, प्रेम भाव वगैरह का अभाव मानता रहा क्योंकि सारी दुनिया इसे प्रेम की निशानी के रूप में दिखता है और मुझे ये एक बादशाह के द्वारा किया गया भौंडा काम ही दिखा|
    इस शोध को साझा करने के लिए प्रतुल जी का आभार|

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    उत्तर
    1. सञ्जय जी, सौन्दर्यबोध जगा हुआ हो तो ताज देखकर विस्मय होना स्वभाविक है... लेकिन प्रेमबोध जगा हुआ हो तो ताज देखकर प्रेमिका को झूठे आश्वासन देना स्वभाविक है.

      हटाएं
  3. राक्षसों ने हमें संस्कृति से काटने के लिए हमें अपने इतिहास से दूर किया और हिराकत पैदा की , पर हम इतने नीच क्यों है कि हकीकत सामने आने पर भी उसे मानने को तैयार नहीं होते , वह भी बिना विश्लेषण किये ही , यथार्थ को नकार देते हैं. धिक्कार है हमें .

    **************

    आभार इस श्रंखला के प्रकाशन के लिए !

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    उत्तर
    1. अमित जी, यथार्थ को जो लोग आज़ नकारते हैं... उसके पीछे कुछ नकली पंडितों का हाथ रहा है... यह सब षड्यंत्र के तहत ही हुआ है.

      नकली पंडित से मेरा मतलब समझ रहे हैं ना!! ............. पहले PM

      हटाएं
  4. उत्तर
    1. सुशील जी,
      आपको ये शोधपरक आलेख सुन्दर लगा.... लगा आपने सभी तथ्यों का समर्थन किया.

      हटाएं
  5. क्यूं भाई साहब, हमारा कमेन्ट क्यों नहीं छापते? नाराजगी है भी तो ऐसे निकालोग? :)

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    उत्तर
    1. मुस्कुराते हुए नाराजगी व्यक्त करना तो कोई आपसे सीखे....

      जल्दबाजी में कभी-कभी बुजुर्ग लोग अपने कमेन्ट 'छपने वाली टोकरी' की बजाय 'रद्दी टोकरी' में रख जाते हैं. क्या करें? :)

      हटाएं
  6. उत्तर
    1. आनंद जी,

      आप हमारे सभी उन कार्यों में सहयोगी रहे हैं... जो सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षा देते हैं.

      धन्यवाद काहे का... हम सभी एक मिशन में जो लगे हैं.

      हटाएं
  7. एक गर्भ सत्य पर पडा पर्दा हटाने का सफल तर्क इस लेख द्वारा किया गया।
    धन्यवाद।

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    उत्तर
    1. @ मधुसूदन जावेरी जी, आपकी प्रतिक्रिया पर आभार व्यक्त करने में इतना अधिक विलम्ब हुआ कि दिवाली (अमा) और होली (पूर्णिमा) धूम-धड़ाका करके चले गए लेकिन सत्य फिर भी ज्यूँ का त्यूँ बना हुआ है।

      हटाएं
  8. ताजमहल पर अच्छी जानकारी प्रदान करती आपकी यह पोस्ट प्रशंसनीय है। मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

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    उत्तर
    1. @ प्रेम सरोवर में प्रशंसा के गोते खाना अत्यंत सुखद रहा ... इस बार की डुबकी ऎसी थी जो छह मास तक लगी रही।

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  9. ताजमहल की असलियत भाग -9 kahan hai pratul ji?

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    उत्तर
    1. @ पवन जी, ताजमहल पर पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी ने जो शोध किया है उसे पूरे मनोयोग से पहले पढ़ना और फिर उसमें व्याकरणिक त्रुटियों को निकालना ही मेरा कार्य है ... ये कार्य होते ही अगला अंक प्रकाशित करूँगा ....


      पवन जी और सुज्ञ जी, दायित्व बोध कराने के लिए आपका बहुत आभारी हूँ।

      हटाएं
  10. pratul ji itihaas ka gyaan mujhe zyada to nhi he lekin ruchi bhut he. aapka lekh padkr mn me utsukta bad gyi he. me ye janna chati hu ki agr tajmahl ka nirman shahjha ne nhi kiya to yeh kiski adhbhut rachna he?

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  11. सभी दोस्तों को मेरा नमस्कार दोस्तों जब तक हमारी शिक्षा व्यवस्था सही नहीं होगी तब तक हमें यही देखने और सुनने को मिलेगा की ये ईमारत इस मुग़ल ने और वो ईमारत उस मुस्लिम शाशक ने बनवाई क्यों की मेरा मानना है की हमें हमारा इतिहास तोड़ मरोड़ के पढाया जाता है l गौर कीजिये की हमारी किताबों में हमारे महान शाशकों के बारें में क्या पढाया जाता है सिर्फ इतना की

    1 .महाराणा प्रताप ने घास की रोटी खायी और हल्दीघाटी का युद्ध
    2. प्रथ्विराज चोहान
    3. अशोक महान का कलिंग युद्ध

    और छोटी मोटी जानकारी या कहें की इनकी पराजय की कहानी बस

    दूसरी तस्वीर देखिये की मुस्लिम शाशकों के बारे में कितना बढ़ा चढ़ा के बताया जाता है की

    अकबर महान था
    मोहम्मद साहब के बारे में
    मोहम्मद गोरी वाह
    बहादुर शाह जफ़र
    औरंगजेब
    शाह जहाँ

    जबतक ये नहीं बताया जायेगा की इनलोगों ने हिन्दू महलों और मंदिरों को तोड़ कर लूट कर
    उसको खुद बनवाया जैसी भ्रामक बातों की सच्चाई नहीं बताई जाएगी तब तक तो सब इन्होने ही बनवाया यही पढ़ा, सुना और सुनाया जायेगा l

    जागो सोनेवालों देश और देश का इतिहास खतरे में है l

    जय हिन्द

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