आज के युग में भारतीय मेधा के प्रथम प्रदर्शन 'वेद' विद्या के प्रसार प्रचार की बहुत ही आवश्यकता है । वेदों के विषयों में पाश्चात्य व प्रार्च्य कतिपय विद्वानों द्वारा इतने भ्रामक तथ्य फैला दिये गये हैं कि समाज में वेदों के सम्यक प्रचार की पुन: आवश्यकता प्रतीत होती है, ये वेद प्राचीनकाल से आज तक के आविष्कारों व खोजों की सूची हैं । यदि हम ठीक से इन्हे पढें तो ये देखेंगे कि विश्व का सर्वप्रथम आविष्कार कब और कहाँ हुआ था ।
वेदों में वैज्ञानिक तथ्यों की भरमार है । मेरे स्वयं के अध्ययन से मैने ये पाया कि वस्तुत: वेद हमारे आस पास की वस्तुओं में ही निमीलित वैज्ञानिक तथ्यों का ही अध्ययन है ।
वेदों के मन्त्र बडे ही सांकेतिक है जिनमें ऐसी ऐसी बातों का वर्णन है जिसे आज का विज्ञान अब ढूढ पाया है । इन्ही सूक्ष्म वैज्ञानिक तथ्यों का खुलासा करने हेतु ही वेदों में विज्ञान की यह श्रृंखला प्रारम्भ की जा रही है । आज सर्वप्रथम ऋग्वेद के प्रथम सूक्त के प्रथम मन्त्र का वर्णन करता हूँ , जिसमें विश्व की सर्वप्रथम और महानतम खोज हुई थी ।।
संकेत - ॐ अग्निमीले पुरोहितं........................................ रत्नधातमम् ।। (ऋग्वेद-1/1/1)
अर्थ - हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं जो यज्ञ के पुरोहित, देवता, ऋत्विज, होता और याजकों को रत्नों से विभूषित करने वाले हैं ।।
विशेष - अग्नि विश्व की सर्वप्रथम खोज है , ये विश्व की सबसे महानतम खोज कही जा सकती है । इस मन्त्र में अग्नि की महत्ता का वर्णन है । ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र किसी विशिष्ट देव को ही समर्पित किया जाना चाहिये । विशिष्ट में भी देवराज इन्द्र प्रधान हैं किन्तु फिर भी प्रथम मन्त्र उनको समर्पित नहीं किया गया । देवगुरू वृहस्पति तो इन्द्र के भी मार्गदर्शनकर्ता हैं पर प्रथम मन्त्र उनको भी समर्पित न होकर अग्नि को समर्पित किया गया इससे यह पता चलता है कि वैदिक काल में ही अग्नि की महत्ता का पता चल गया था । अग्नि याजकादि को समृद्धि प्रदान करने वाले हैं इससे भी अग्नि की महत्ता की ओर संकेत किया गया है । आगे के मन्त्रों में अग्नि की उत्पत्ति का भी वर्णन दिया गया है और अग्नि का विशेष महत्व भी बताया गया है । जो क्रमश: प्रस्तुत किया जायेगा ।
bahot hee acchaa
जवाब देंहटाएंवेद में सर्वप्रथम सही बातें लिखी थी किन्तु आने वाले लोगों ने इसमें अपने अपने देवी देवताओं की स्तुति हेतु तथा गुणगान के लिए इसमें बहुत से श्लोकों को जोड़ दिया गया , जिस से इसकी वास्तविक पहचान कही खो गयी , आप एक अच्छा कार्य कर रहे हैं
जवाब देंहटाएंdabirnews.blogspot.com
तौसीफ हिन्दुस्तानी जी
जवाब देंहटाएंवेदों में कहीं कोई श्लोक जोडा नहीं जा सका है । आज भी वेद अपने पूरे रूप में उपस्थित है, हालाँकि इसकी कई शाखाएँ लुप्त हो गईं हैं किन्तु जितना प्राप्त है उसमें कोई भी उच्छिष्ट नहीं है । क्यूँकि हमारे मनीषियों ने इसके एक एक अक्षर तक की गणना कर ली थी ।।
आगे भी वेदों के बारे में अत्यधिक रोचक जानकारियाँ देता रहूँगा ।
आनन्द जी ! श्लोक गीता रामायण में होते हैं वेदों में नहीं , कैसे वेद शोधक हैं आप ?
जवाब देंहटाएं2, अग्नि का अर्थ यहाँ पर ईश्वर है महोदय न कि जलाने वाली आग ? मेरे ब्लाग पर देख लीजिए
महाशय जमाल साहब, इसे ही कहते है ............."थोथा चना बजे घना"...................
जवाब देंहटाएंश्लोक का अर्थ होता है -- संस्कृत की दो पंक्तियों की रचना, जिनके द्वारा किसी प्रकार का कथोकथन किया जाता है, प्रायः श्लोक छंद के रूप में होते हैं अर्थात् इनमें गति, यति और लय होती है. इस लिए ही मैं आप से बार बार निवेदित करता रहा हूँ की अपनी बुद्धि के घोड़े सही रस्ते से हो कर दौड़ाया कीजिये :) कैसे ज्ञानमार्गी हैं आप!!!!!!!!!!!!!!!!!!
यह भी देख लीजिये _______
श्लोक पुं० [सं०√श्लोक्+अच्] १. आवाज। ध्वनि। शब्द। २. पुकारने का शब्द। आह्वान। पुकार। ३. प्रशंसा। स्तुति। ४. कीर्ति। यश। ५. किसी गुण या विशेषता का प्रशंसात्मक कथन या वर्णन। जैसे—शूर-स्लोक अर्थात् शूरता का वर्णन। ६. संस्कृत के अनुष्टुप छंद का पुराना नाम। ७. आज-कल संस्कृत का कोई छंद या पद्य।
तौसीफ़ जी ने ही अपनी टिप्पणी में "श्लोक" शब्द का प्रयोग किया है। उसी के उत्तर में आनन्द जी ने भी इस शब्द का प्रयोग कर दिया। जो जिस रूप में समझे उसे उसी रूप में समझाने का प्रयास किया गया है। इस पर वितण्डा की आवश्यकता नहीं। विद्वता का उपयोग पाण्डित्य प्रदर्शन में नहीं अपितु लोक कल्याण हेतु किया जाना चाहिये।
हटाएंअब चूँकि वेद कथन ऋषियों के मन में अवतरित हुए थे इसलिए मंत्र कहलाते है.
जवाब देंहटाएंभाई जमाल साहब
जवाब देंहटाएंबिना वजह के छिद्रान्वेषण न करें ।
श्लोक से तात्पर्य छन्द से है, त्वरित लेखन में छन्द की जगह श्लोक प्रयुक्त हो गया ।
अग्नि के अलावा भी अन्य देव परमात्मा ही हैं । अग्नि शब्द का साक्षात् अर्थ देखिये । और फिर भी न यकीं हो तो सायणभाष्य के अलावा सातवलेकर भाष्य और श्रीराम शर्मा आचार्य कृत भाष्य पर नजर दौडाइये । सम्यक शब्दार्थ प्राप्त हो जायेगा ।।।
@ मित्र अमित और आनंद पाण्डेय जी ! आज तक मैंने केवल बड़े विद्वानों के भाष्यार्थ ही पढ़े हैं , उनमें तो ऋचा और मन्त्र ही पढ़ा है लेकिन ब्राह्मण बुधि कुछ भी साबित कर सकती है .
जवाब देंहटाएंकहीं भी कोई मित्र वेदमंत्र को श्लोक लिखा दिखाएँ तो बात बने .
२- अग्नि का अर्थ स्थौलाष्ठिवी ऋषि ने 'अग्रिणी' किया है , आपने जलने वाली आग कैसे कर डाला ?
३- मेरे ब्लॉग के सही अर्थ को भी सही कहने वाला यहाँ कोई नहीं है ?
४ पूजनीय परमेश्वर है आग पानी नहीं , आओ एक परमेश्वर का यजन करें .
भाई जमाल जी
जवाब देंहटाएंहमने किसी भी विवाद के लिये ये प्रसंग नहीं लिखा था ।
हम अनावश्यक विवाद में पड रहे हैं किन्तु फिर भी आपसे एक बार फिर कहना चाहूँगा , श्लोक का प्रयोग त्वरा मात्र में हो गया था, उसे आप मन्त्र या छन्द ही ग्रहण करें ।।
अग्नि का अर्थ अग्रणी बिलकुल सही कहा है, विश्व की सर्वप्रथम खोज अग्नि की ही मानी भी जाती है, अत: अग्नि अग्रणी है, वैदिक ऋषि जो भी कहता है व्यंजना के माध्यम से कहता है अत: उसने सर्वप्रथम आविष्कार को अग्नि कहा ।।
वैदिक प्राप्त भाष्यों में इस समय प्राचीनतम् सायणभाष्य है जिसे आप शायद छोटा विद्वान समझ कर नहीं पढ सके ।
श्री सातवलेकर जी का भाष्य अबतक का सबसे सुव्यवस्थित भाष्य है जिसको आप छोटा समझ कर नहीं पढे होंगे शायद ।
खैर विषय केवल यही था कि अग्नि विश्व की सर्वप्रथम खोज है जो वेद में वर्णित भी है, अग्नि के प्रकट होने का भी वर्णन आगे प्रस्तुत करूँगा ।।
आप की प्रस्तुति और तर्क अच्छा है किन्तु आपको इसीलिये कोई शायद समझना नहीं चाहता क्यूँकि आप सही समय पर ये तर्क नहीं रखते ।। वेद का ज्ञान सामान्य तर्क का ज्ञान नहीं है, पिछले कितने ही वर्षों से कई विद्वानों की शरण होकर मैं इनका ज्ञान प्राप्त कर रहा हूँ तथापि आज भी तर्क करने की सामर्थ्य नहीं रखता ।
तर्क आवश्यकता पडने पर ही शोभा देता है व फलित होता है ।
धन्यवाद
आप सब तो बडे ज्ञानी हैं कुछ जानना चाहूं दो अलग अलग प्रसिद्ध वेबसाइट से लाया हूं एक में विज्ञान घुसाया गया है जरा बतायें कौन सा भाष्य ठीक है किस में ज्ञान और किसमें विज्ञान डाला गया है?
जवाब देंहटाएंत्वं बलस्य गोमतोSपावरद्रिवो बिलम् |
त्वां देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानास आविषुः ||5||
ऋग्वेद 1|11|5||
हे वज्रधारी इन्द्रदेवङ आपने गौओं (सूर्य-किरणों) को चुराने वाले असुरों के व्यूह को नष्ट किया, तब असुरों से पराजित हुए देवगण आपके साथ आकर संगठित हुए 1-11-5
http://www.vedpuran.com/brahma.asp?bookid=24&secid=1&pageno=0001&Ved=Y
आर्य समाजी भाई लिखते हैं
वेदो में विज्ञान व शिल्पविद्या के रहस्य (26)
त्वं बलस्य गोमतोSपावरद्रिवो बिलम् |
त्वां देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानास आविषुः ||5||
ऋग्वेद 1|11|5||
भाषार्थ -
जैसे सूर्य्यलोक अपनी किरणों से मेघ के कठिन बद्दलों को छिन्न भिन्न करके भूमि पर गिराता हुआ जल की वर्षा करता है, क्योंकि यह मेघ उसकी किरणों में ही स्थिर रहता, तथा इसके चारों ओर आकर्षण अर्थात् खींचने के गुणों से पृथिवी आदि लोक अपनी अपनी कक्षा में उत्तम उत्तम नियम से घूमते हैं, इसी से समय के विभाग जो उत्तरायण, दक्षिणायन तथा ऋतु, मास, पक्ष, दिन, घड़ी, पल आदि हो जाते हैं, वैसे ही गुणवाला सेनापति होना उचित है ||5||
http://www.aryasamaj.org/newsite/node/1347
महोदय
जवाब देंहटाएंउपरोक्त प्रथम व्याख्या तो शाब्दिक व्याख्या है जो हर जगह उपलब्ध है
अत: उसके गलत होने का प्रश्न ही नहीं है । किन्तु आर्य समाज के द्वारा किये गये भाष्य पर टिप्पणी करने का सामर्थ्य अभी हम में नहीं है ।
अत: कृपया क्षमा करें ।
ब्लोगर यदि लेख के भाव और विषय पर चर्चा करें तो सार्थक है।
जवाब देंहटाएंअन्यथा शब्दों की अनावश्यक व्याख्या करना वितंडा करना ही कहलायेगा।
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जवाब देंहटाएंआनंद जी
प्रश्न आने ही चाहिए. अधिक स्पष्टीकरण देने में सत्य की गहरायी पता चलती है. जिज्ञासु पाठकों को लाभ होता है साथ ही तर्क-वितर्क-कुतर्क से वास्तविक विद्वता उदघाटित होती ही है.
वैदिक ऋचाओं के विद्वानों ने न केवल शाब्दिक अर्थ किये हैं बल्कि उसके भौतिक अर्थ, आध्यात्मिक अर्थ और दार्शनिक अर्थ तक किये हैं. सभी ऋचाओं में जिसे हम चमत्कार कहते और मानते रहे हैं वे दरअसल आविष्कार ही हैं. आप अपने पाठ को ज़ारी रखें. जमाल साहब को मैं संभालता हूँ.
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जवाब देंहटाएंजिज्ञासु जमाल साहब,
१] बालकों के लिये पर्यायवाची शब्दों का आविष्कार हुआ. अन्यथा कोई शब्द किसी का पर्याय नहीं हुआ करता. सभी की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हुआ करती हैं. यदि किसी बालक को 'नीर' शब्द समझ नहीं आया तो उसे बताया गया कि जल, पानी, वारि आदि शब्द.
अब यदि बालक बढ़ा होने पर भी एक शब्द के स्थान पर उसके पर्याय का प्रयोग करता है तो अनर्थ हो जाएगा. "सूर्य पर जल चढाने" की बजाये "सूर्य पर पानी चढाने" को अनुचित माना जाएगा. इसी तरह "नीर पीना" व्यवहारिक नहीं है. ................... इन पर विस्तृत चर्चा करेंगे थोड़ा धैर्य रखिये.
२] आज स्थिति यह है कि हम वो कहना अधिक पसंद करते हैं जो ज़्यादा समझा जाता है. यदि मैं सूरज को सूर्य न कहकर मार्तंड कहूँ, यदि मैं कमल को अरविन्द न कहकर इन्दीवर या कोकनद कहूँ. यदि मैं मंत्र को श्लोक न कहकर ऋचा कहूँ. यदि मैं मुसलमान को यवन न कहकर असुर कहूँ तो कौन समझेगा कि मैं किसके सन्दर्भ में बात करता हूँ. इसलिये प्रायः कई शिक्षक जटिलता समाप्त करने के कारण अपने पाठ को बहुश्रुत बनाने की झोंक में उन शब्दों को अपने रोजमर्रा के वार्तालाप में ला रहे हैं.
३] अगर कोई प्रोफ़ेसर मदरसे में पढ़ने की इच्छा से आ बैठा है तो उसे चाहिए कि मौलवी साहब को पहले पढ़ाने दें. जितने सवाल मन में उठते हैं उनको उत्तर बताने के अंदाज़ में न पूछें.
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जवाब देंहटाएंआनंद जी
आपके लेख से मुझे नया दृष्टिकोण मिला. अग्नि की व्यतुपत्ति अग्रणी से हुई अथवा उसका अग्रज शब्द है ........... जानकार मन प्रसन्न हुआ. जैसे गहरायी में जाकर मोती हाथ लगा हो.
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@ Pratul Vashishth ji !
जवाब देंहटाएंईश्वर और चीज़ों के नाम वेदों में गडमड हैं और वेदों के वास्तविक अर्थ निर्धारण में यह एक सबसे बड़ी समस्या है। सायण जिस शब्द का अर्थ सूर्य बता रहे हैं , उसी का अर्थ मैक्समूलर साहब घोड़ा बता रहे हैं और दयानंद जी कह रहे हैं कि इसका अर्थ है ‘ईश्वर‘। अब बताइये कि कैसे तय करेंगे कि कहां क्या अर्थ है ?
परमेश्वर के वचन के अर्थ निर्धारण के लिए केवल मनुष्य की बुद्धि काफ़ी नहीं है। इसे आप परमेश्वर की वाणी कुरआन के आलोक में देखिए।
जमाल साहब,
जवाब देंहटाएंवन्दे ईश्वरम
एक छोटा सा प्रश्न
ईश्वर (परमेश्वर) तत्त्व है या व्यक्तित्व ?
जमाल साहब एक और प्रश्न -
जवाब देंहटाएंपत्तियों का रंग कैसा होता है ?
उपरोक्त प्रश्नों के जवाब देने के बाद एक अंतिम प्रश्न -
जवाब देंहटाएंसूर्य के प्रकाश का रंग कैसा होता है ?
इन प्रश्नों के उत्तर के ठीक उत्तर देने के बाद ही ..................
हमें आपकी बुद्धि और कुरआन की मैलिकता का आभास हो पायेगा !!
ध्यान दीजियेगा - मुझे समझाना आता नहीं है, इसलिए आपकी दया वांछनीय है !!!
हा हा हा हा
जवाब देंहटाएंजबरदस्त प्रश्न
शायद कुरान इसका उत्तर दे सके ।।
राजपूत जी , यह पठान आपको अपना मोबाइल नं. आपको पहले ही दे चुका है । PROFILE में ईमेल एड्रेस भी है , जैसे चाहें सम्पर्क कर सकते हैं ।
जवाब देंहटाएंपरमेश्वर अग्नि है ,अग्रणी है , सर्वप्रथम है , अनुपम है ।
रंग की जानकारी देखिए मेरे ब्लाग पर ।
D@@@@@ R. ANWER JAMAL
जवाब देंहटाएंसाहब बिल्कुल, उम्मीद लायक जबाब दिया आपने - मैं बच्चों की तरह रंगों की कोई पहेलियाँ नहीं बुछा रहा और न तो आपके सामान्य ज्ञान की परीक्षा ले रहा हूँ - मै तो इन निम्न वाक्यों की तरफ आप का ध्यान दिलाना चाहता हूँ -
परमेश्वर के वचन के अर्थ निर्धारण के लिए केवल मनुष्य की बुद्धि काफ़ी नहीं है। इसे आप परमेश्वर की वाणी कुरआन के आलोक में देखिए।
आप का कहना है की दर्शन और धर्म में अंतर है, (आपकी मूल समस्या)
परन्तु वैदिक धर्म का तो आधार ही दर्शन है, इसीलिए ये छोटा सा प्रश्न पूछा -
ईश्वर (परमेश्वर) तत्त्व है या व्यक्तित्व ?
फोन पर तो आप केवल मेरी जिज्ञासा ही शांत कर पायेंगे, परन्तु जिज्ञासु तो यहाँ और भी है, उनका भी ख्याल कीजिये !!!!
बाकी पत्तियों वाली बात और रंगों वाली बात, इस जिज्ञासा की शांति के बाद !!!!
प्रतीक्षा उत्तर की OOOOOOOOOOOOO..............
आपने यह भी पूछा है कि ईश्वर व्यक्तित्व है या तत्व ?
जवाब देंहटाएंमैं आपसे कहना चाहूंगा कि क्या मेरे लिए लाज़िमी है कि मैं इन दो शब्दों में से ही किसी शब्द को ज़रूर चुनूं। आप यह पूछिए कि ईश्वर कौन है ?
ईश्वर एक चेतन अस्तित्व है जो सभी उत्कृष्ट गुणों से युक्त है। उसका अस्तित्व और उसके गुण हमारे ज्ञान और कल्पना से परे हैं। उसने हमें अपनी मनन शक्ति से उत्पन्न किया और हमें जीवन दिया , जीने का मक़सद दिया, जीने का विधान दिया, सफलता का मार्ग दिखाया। उसके नियमों का नाम धर्म है। धार्मिक कर्मकांड के ज़रिए उसकी वाणी की सुरक्षा की जाती है , उसके नियमों को स्मृति में सुरक्षित रखा जाता है। जीवन में उनका पालन किया जाता है।
जिस ऋषि के अंतःकरण पर वाणी का अवतरण होता है , वह सारे समाज के लिए आदर्श होता है। वैदिक ऋषियों के आचरण को सुरक्षित न रखे जाने से भी बहुत भारी समस्या का सामना करना पड़ता है।
ये सभी समस्याएं आज वास्तव में सामने हैं। मैंने जो उचित समझा उसका हल आपको बता दिया। आपको इससे ज़्यादा बेहतर हल कोई दूसरा लगे तो आप मुझे वह बताएं।
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जवाब देंहटाएंजिज्ञासु पाठक जमाल साहब,
सटीक अर्थ पाने के लिये हमें कई बार प्रचलित अर्थों से सहायता नहीं मिलती. क्योंकि कई बार वे अपना अर्थ खो चुके होते हैं, या अर्थ बदल चुके होते हैं, या फिर अर्थ संकुचन या विस्तार जैसी स्थितियों में पड़कर अपने वास्तविक अर्थ से दूरी बना लेते हैं. ऎसी स्थिति में भाषा विज्ञान या न्यायशास्त्र सहायता करता है.
चलिए सरल तरीके से समझते हैं :
१] एक शब्द है पंकज ........ आप जानते ही होंगे इसका प्रचलित अर्थ 'कमल' है. वह पंक मतलब कीचड़ में पैदा होता है. अब क्योंकि कीचड़ में कुछ कीड़े और अन्य चीज़ें जैसे बदबू आदि भी पैदा होती है फिर उसे क्यों नहीं पंकज कहते ? ..... कारण है कई शब्द रूढ़ हो जाते हैं. वे किसी एक के साथ जुड़कर ही अपना जीवन बिताना पसंद करते हैं इसमें जनरुचि की अधिक भूमिका होती है. जैसे 'गांधी' शब्द जैसे ही बोला जाता है केवल 'मोहन दास करमचंद गांधी' नाम के व्यक्ति का चेहरा नज़रों के सामने तैर जाता है. गांधी से 'राजीव' या 'इंदिरा' या राहुल या सोनिया के नाम केवल प्रसंगवश ही समझे जाते हैं.
२] एक दूसरा शब्द है 'सैन्धव'. सैन्धव शब्द का अर्थ घोड़ा लिया जाता है क्योंकि उसकी एक अच्छी नस्ल सिंध प्रदेश में मिला करती थी. सैंधव नमक को भी कहते हैं. क्योंकि समुद्र का एक नाम सिन्धु है इस कारण समुद्र सम्बन्धी वस्तुयें भी सैन्धव मानी जानी चाहियें. लेकिन यह शब्द अब केवल नमक के लिये ही रूढ़ हो गया है —जनरुचि के कारण. .......... इसी तरह के अनेक शब्द हैं. जिन पर विचार किया जा सकता है.
३] अब आपको अर्थ संकोच, अर्थ विस्तार और अर्थ परिवर्तन के आधार पर शब्दों के बारे में बताऊँगा.
....... लेकिन समय त्यौहार का है, मुझे कई काम करने हैं...... फिलहाल ऊपर कहे पर ही विचार करियेगा.
आपके प्रश्न अन्य पाठको को काफी लाभान्वित करते हैं. प्रश्न करते रहें. ब्लॉग को अच्छा प्रचार मिलता है. उत्तरों के लिये थोड़ा इंतज़ार करें.
कुरआन के सन्दर्भ में अमित जी आपका मार्गदर्शन करेंगे. इस पर मेरी पकड़ थोड़ी ढीली है.
मैं कुरआन पर बिना पढ़े कोई राय नहीं देना चाहता फिर भी तार्किक विद्वानों की बात मानता रहा हूँ.
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जवाब देंहटाएंमैक्समूलर के सन्दर्भ में कहा जाता है :
जिस प्रदेश में वृक्ष नहीं होते वहाँ अरंड को ही बरगदी महिमा से मंडित किया जाता है.
मैक्समूलर का समय ऐसा था [ब्रिटिश हुकूमत के चलते] जब भारतीय धर्मशास्त्रों को या तो नष्ट किया जा रहा था. या कहीं धर्मशास्त्रों का अनुशीलन कम हो गया था. या अशिक्षा, मुगलिया आतंक और व्यभिचारी संस्कृति के चलते पाखंड और कुरीतियों में ही samaaj फंसा हुआ था. ऋषि दयानंद ने उसे पहचाना और 'लौटो वेदों की ओर' का नारा देकर फिर से वैदिक धर्म की स्थापना करने का प्रयास किया. इसी उद्देश्य को पाने को 'आर्य समाज' की स्थापना हुयी. किन्तु जब किसी संस्था में वैयक्तिक स्वार्थ और लौलुपता घर कर जाती है तब उसकी असल पहचान भी खो जाती है. इसी कारण आज 'आर्य समाज' जैसी संस्थायें पूरी ऊर्जा से कार्य नहीं कर पा रही हैं.
यदि करतीं तो आपके प्रश्न अपने आवासीय क्षेत्र में ही उत्तर पा गये होते.
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बहुत सुंदर लगी आप की पोस्ट, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंवेद की महीमा को मालेक्श क्य जाने और वेदो के ग्यान की बात तो जमाल साहब के बास की बात नही है अब अगार मै ये कहु की पहला परमाणु बाम भारत ने फोडा है तो ये शायद ना माने पर ये बात सरआयजन हावर जरुर मनते है आज हमने वो ग्यान खो दिया है
जवाब देंहटाएंभाइयों आप सबको आपके छोटे भाई की नमस्ते!मैं एक आर्य समाज का उपदेशक हूँ.आपको अग्नि शब्द के अर्थ पर लड़ते हुए देखकर शांत नहीं बैठ सका माफ़ करना भाइयों मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ.वेदों में जहाँ प्रकृति प्रकरण में अग्नि शब्द आया है वहां इसका अर्थ भौतिक अग्नि से लेना चाहिए जहाँ जीवात्मा के सम्बन्ध में चर्चा है वहां इसका अर्थ आत्मा होगा और इश्वर विषय के अंतर्गत इसका अर्थ परमात्मा होता है.माफ़ कीजियेगा वेदों की ऋचाओं की संज्ञा श्लोक नहीं मंत्र होती है.
जवाब देंहटाएंवितण्डावादियों को धन्यवाद! ...क्योंकि उनके छिद्रान्वेषी स्वभाव के कारण ही सही विद्वानों की संगत तो मिली। एक बात स्मरण हो आयी, कुपात्र को ज्ञान का निषेध किया गया है। कलियुग में इस विधान पर ध्यान नहीं दिया गया, परिणाम सामने है।
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