जो पुरातन है, वो केवल इसी कारण से अच्छा नहीं माना जा सकता कि वो हमारे पूर्वजों की देन है. और जो नया है, उसका भी तिरस्कार करना उचित नहीं.
बुद्धिमान व्यक्ति सदैव दोनों को कसौटी पर कसकर किसी एक को अपनाते हैं. जो मूढ हैं, उन बेचारों के पास घर की बुद्धि का टोटा होने के कारण वे दूसरों के भुलावे में आ जाते हैं.
गुप्त युग के महान विद्वान श्री सिद्धसेन दिवाकर जी की एक बात मुझे स्मरण हो रही है. उन्होने कहा है कि " जो पुरातन काल था, वह मर चुका, वह दूसरों का था. आज का इन्सान यदि उसको पकडकर बैठेगा तो वह भी पुरातन की तरह ही मृत हो जाएगा. पुराने समय के जो विचार हैं, वे तो अनेक प्रकार के हैं. कौन ऎसा है जो भली प्रकार उनकी परीक्षा किए बिना, अपने मन को उधर जाने देगा".
जो स्वयं विचार करने में आलसी है, वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता. जिसके मन मे सही निश्चय करने की बुद्धि है, उसी के विचार प्रसन्न और साफ सुथरे हो सकते हैं. जो यह सोचता है कि पहले के धर्माचार्य, धर्मगुरू, पीर-पैगम्बर जो कह गए, सब सच्चा है, उनकी सब बातें सफल हैं और हमारी बुद्धि तथा विचारशक्ति टटपूंजिया है, ऎसा "बाबा वाक्य प्रमाणं" के ढंग से सोचने वाले इन्सान केवल आत्महनन का मार्ग अपनाते है.
अवार्चीन विचारधारा मानव केन्द्रिक रही है अर्थात जीवन के प्रत्येक अनुष्ठान का मध्यवर्ती बिन्दु मनुष्य है. वही प्रयोग आज महत्वपूर्ण है, जिसका इष्टदेवता मनुष्य है. जिस कार्य का फल साक्षात इहलौकिक मानव-जीवन के लिए न हो, जो निरीह जीवों के वध में ही अपने ईश्वर/अल्लाह की खुशी देखता हो, जो मनुष्य की अपेक्षा स्वर्ग के देवताओं या जन्नत के फरिश्तों को श्रेष्ठ समझता हो----वह किसी भी रूप में आधुनिक जीवन पद्धति के अनुकूल नहीं है.
विज्ञान,कला,साहित्य इत्यादि विश्व के समस्त विषयों की उपयोगिता की एकमात्र कसौटी मनुष्य का प्रत्यक्ष लाभ और प्रत्यक्ष जीवन है. प्रत्येक क्षेत्र में विचारों की हलचल मनुष्य के इसी रूप को पकडना चाहती है.
इस दृ्ष्टिकोण से आज जहाँ एक ओर मानव का मूल्य बढा है तो वहीं दूसरी ओर स्वर्ग-नरक, फरिश्तों, हूरों के ख्यालों में उडने वाले मानव के विचारों नें इस जीवन को सुन्दर बनाने का एक नया पाठ पढा है.
यह सच है कि अभी बहुत से क्षेत्रों में यह नया पाठ पूरी तरह से गले से नीचे नहीं उतर पाया है और स्वार्थों के पुराने गढ इसके विरोधी बने हुए हैं, पर निश्चित जानिए देर-सवेर ये गढ टूटकर रहेंगें......इन्हे टूटना ही होगा. आज नहीं तो कल!!!
क्योंकि विश्व के विचारों का केन्द्रबिन्दु आज मानव के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है और न ही अब आगे भविष्य में कभी हो सकता है.......
(पं.डी.के.शर्मा "वत्स")
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जवाब देंहटाएंमेरे अव्यक्त विचारों को स्वर मिल गया. मेरी मौन संवेदनाओं को भाषा मिल गयी. गुरुदेव आप धन्य हैं इस आधुनिक चिंतन को पुराने सांचों में ढालने के लिये. आपका प्रत्येक वाक्य मनुष्य जीवन के लिये अनमोल सूत्र है.
सही कहा पंडितजी आपने, जीवन चिंतन की धारा प्रवाहमान ही होनी चहिये, नहीं तो उसके सड़ने में देर नहीं लगती .
जवाब देंहटाएंआभार आपका !
पंडित जी,
जवाब देंहटाएंसत्य चिंतन तथ्यपरक हुआ है।
अवार्चीन विचारधारा मानव केन्द्रिक रही है अर्थात जीवन के प्रत्येक अनुष्ठान का मध्यवर्ती बिन्दु मनुष्य है. वही प्रयोग आज महत्वपूर्ण है, जिसका इष्टदेवता मनुष्य है. जिस कार्य का फल साक्षात इहलौकिक मानव-जीवन के लिए न हो, जो निरीह जीवों के वध में ही अपने ईश्वर/अल्लाह की खुशी देखता हो, जो मनुष्य की अपेक्षा स्वर्ग के देवताओं या जन्नत के फरिश्तों को श्रेष्ठ समझता हो----वह किसी भी रूप में आधुनिक जीवन पद्धति के अनुकूल नहीं है.
जो पुरातन है, वो केवल इसी कारण से अच्छा नहीं माना जा सकता कि वो हमारे पूर्वजों की देन है. और जो नया है, उसका भी तिरस्कार करना उचित नहीं.
जवाब देंहटाएंबुद्धिमान व्यक्ति सदैव दोनों को कसौटी पर कसकर किसी एक को अपनाते हैं.
आपकी ये पंक्तिया 'सुक्ति' होने का आभास कराती हैं। मैं आपके विचारों से सहमत हूँ ।
ये चिंतन ही मानव होने का मापदंड है . अन्यथा आज मानव अपनी पहचान तो भूल ही चूका है .आपको बधाई
जवाब देंहटाएंराम राम पण्डित जी,
जवाब देंहटाएंएक विचारणीय लेख...आपने अपने मत को संतुलित रूप में प्रस्तुत किया है...
कुंवर जी,
बहुत ही सुन्दर लेख.
जवाब देंहटाएंमेरे व्लाग में आपका स्वागत है
मेरा सवाल 156 (चित्र पहचानिए)
ज्ञानवर्धक लेख है
जवाब देंहटाएंसमय निकाल कर कृपया मेरी नई पोस्ट देखिएगा
बहुत ही रोचक पोस्ट। समय निकाल कर मेरा पोस्ट दोखिएगा।
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रयास.....और इसका मैं मुखर समर्थन भी करूँ.....अगर आप आज्ञा दो तो मैं भी कुछ लिखूं यहाँ....!
जवाब देंहटाएंसुन्दर व्याख्या-परन्तु--सिर्फ़ अर्वाचीन ही नहीं प्रत्येक युग में मानव-हर क्रिया का केन्द्र रहा है, अन्यथा कोई भी नियम, धर्म, ग्रन्थ , विचार धारा बनती कैसे व क्यों...
जवाब देंहटाएं"....जो पुरातन काल था, वह मर चुका.."--वाक्य भ्रमित विचार है, कोई विचार, वस्तु,तथ्य कभी मरता नहीं.यह वैग्यानिक तथ्य व सत्य है...वस्तुतः म्रत्यु तो कुछ होती ही नहीं, बस परिवर्तन होता है...
--सही बात तो बस यह है-- " पुराने समय के जो विचार हैं, वे तो अनेक प्रकार के हैं. कौन ऎसा है जो भली प्रकार उनकी परीक्षा किए बिना....", ...हां पुरा व सामयिक-तात्कालिक का समन्वय...ही विशाल व सम्यग द्रष्टि है... इसके लिये पुरा को जानना अत्यावश्यक है...हमें ( सभी को)..अपने इतिहास को जानकर( उसे त्यग कर, भुलाकर या उससे चिपक कर नहीं)...नवीन से तादाम्य करके आगे बढना चाहिये...
"---विज्ञान,कला,साहित्य इत्यादि विश्व के समस्त विषयों की उपयोगिता की एकमात्र कसौटी मनुष्य का प्रत्यक्ष लाभ और प्रत्यक्ष जीवन है.--"--
जवाब देंहटाएं---यह विचार भी असत्य, भ्रामक व अवैग्यानिक है,---आजके उन्नत विग्यान के युग में शरीर व जीवन से अपर शरीर व जीवन के तथ्य स्वीकार किये जारहे हैं...जो वस्तुतः मनोवैग्यानि , परा-मानसिक, पराभौतिक ग्यान की विषय वस्तु है...कि प्रत्यक्ष शरीर व जीवन के अतिरिक्त मानव मन का एक अन्य संसार होता है जिसका शरीर पर प्रभाव पडता है...अतः सिर्फ़ प्रत्यक्ष शारीरिक व जीवन के लाभ के अतिरिक्त भी सोचना चाहिये..
----व्यक्तिवादी प्रत्यक्ष सोच के कारण ही आज इतने भौतिक उन्नति के युग में भी, जन्गली युग के द्वन्द्व-द्वेष मौज़ूद हैं....
आदर्ष लेख ! बधाई ! कृप्या म्रेरे ब्लोग पर आ कर फ़ोलो करें व मर्ग प्रशस्त करे !
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