मातृ एवम् शिशु के स्वास्थ्य की रक्षा विश्व के कई देशों में आज भी एक बड़ी समस्या है। इस सन्दर्भ में प्राचीन भारत का चिकित्सा साहित्य हमें गौरवान्वित करता है। महर्षि कष्यप ने शिशुओं के कुछ रोगों के लिये लेहन (चाट कर ग्रहण करने योग्य) औषधियों की व्यवस्था की है। उनके बताये योगों का उपयोग उन व्याधियों में भी है जो आधुनिक चिकित्सा विधा से असाध्य या कष्ट साध्य हैं। यहाँ हम कुछ योगों का उल्लेख कर रहे हैं-
1- इम्यूनिटी हेतु लेहनम् -
सुवर्णप्राशनं ह्येतेन्मेधाग्नि बलवर्धनम्।
आयुष्यं मंगलं पुण्यं वृष्यं वर्ण्यं ग्रहापहम् ॥
पुनः इसी सन्दर्भ में महर्षि सुश्रुत ने भी वर्णन किया है -
अथ कुमारं शीताभिरद्भिराश्वास्य जात कर्मणि कृते मधुसर्पिरनंतचूर्णमंगुल्याsनामिकया लेहयेत् ।
(सुवर्ण भस्म न केवल एण्टीबायटिक है अपितु रोगप्रतिरोधक्षमता को बढ़ाने वाली और मेध्य होने से वर्तमान टीकाकरण का एक निर्दोष विकल्प भी है।)
2- ब्रेन टॉनिक (मेधावर्धक लेहनम्) -
ब्राह्मीमण्डूकपर्णी च त्रिफला चित्रको वचा।
शतपुष्पाशतावर्यौ दंती नागबला त्रिवृत् ।।
एकैकं मधुसर्पिभ्यां मेधाजननमभ्यसेत् ।
कल्याणकं पंचगव्यं मेध्यं ब्राह्मीघृतं तथा॥
3- स्किन डिसीज़ हेतु लेहनम् -
समंगा(मंजिष्ठा) त्रिफला ब्राह्मी द्वे बले चित्रकस्तथा ।
मधु सर्पिरिति प्राश्यं मेधायुर्बलवृद्धये ॥
4- वाणी दोष हेतु लेहनम् -
कुष्ठ वटांकुरा गौरी पिप्पल्यस्त्रिफलावचा।
ससैन्धवैर्धृतम् पक्वं मेधाजननमुत्तमम् ।
5- ऑटोइम्म्यून डिसऑर्डर हेतु लेहनम् -
ब्राह्मी सिद्धार्थकाः कुष्ठं सैन्धवं सारिवावचा।
पिप्पल्यश्चेति तैः सिद्धं घृतं नाम्नाsभयं स्मृतम्।
...प्रबाधन्ते कुमारं तं यः प्राश्नीयादिदं घृतम्॥
6- डिसीज़ेज़ ऑफ़ अन्नोन इटियोलॉजी के लिये लेहनम् -
ब्राह्मी सिद्धार्थक वचा सारिवा कुष्ठ सैन्धवैः ।
सकणैः साधितं पीतं वांग्मेधा स्मृतिकृद् घृतम् ॥
आयुष्यं पापरक्षोघ्नं भूतोन्माद निवर्हणम्।
( यह योग अष्टांग हृदय संहिता का है)
7- व्याधिमुक्ति पश्चात् रीवाइटलाइजेशन हेतु लेहनम् -
खदिरः पृश्निपर्णी च स्यतृ(न्दनः / अर्जुन) सैन्धवं बले।
केवुकेतिकषायः स्यात् पादशिष्टो जलाढ़के।
अर्धप्रस्थं पचेदत्र तुल्य क्षीरं घृतस्यतु ।
घृतं संवर्धनं नाम लेह्यं मधुयुतं सदा॥
निर्व्याधिर्वर्धते शीघ्रं संसर्पत्याशु गच्छति।
पंगुमूकाश्रुतिजड़ा युज्यंते चाशु कर्मभिः।
ध्यान रहे घृत और मधु समान मात्रा में न मिलाकर विषम मात्रा में ही मिलाया जाय अन्यथा यह विषतुल्य प्रभाव देता है।
उत्कृष्ट प्रस्तुति सर जी ||
जवाब देंहटाएंप्रतुल जी याद कर रहे हैं अपनी पोस्ट पर ||
रविकर जी,
हटाएंयाद तो उनको किया है...जो शिष्य भाव से साहित्य चर्चा करने की रुचि रखते हों....
आचार्यों के सम्मुख शृंगार चर्चा अशिष्टता मानी जाती है और इसकी कोई लेहन औषधि भी नहीं.
जैसे कि मधु और घृत का समान योग विषतुल्य होता है.... वैसे ही आध्यात्म और शृंगार का समान योग विषाक्त होता है.
विषम रूप से ही ये स्वीकार हैं.....
एक योगी पुरुष में अल्प रसिकता ही ग्राह्य है और एक भोगी पुरुष में अल्प आध्यात्मिकता ही संभव है....
यदि दोनों में रसिकता व आध्यात्मकिता का अनुपात सम हो जाये अथवा बदल जाये तो वे अपनी-अपनी पहचान ही खो दें.
बहुत बेहतरीन रचना....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
आयुर्वेद एक संस्थापित पद्धति है, पता नहीं किन कारणों से इसे पीछे रखा गया है।
जवाब देंहटाएंभारतीय ज्ञान-विज्ञान, भाषा, संस्कार आदि को समाप्त करने का विदेशी के बाद अब देशी कुचक्र चल रहा है।
जवाब देंहटाएंकौशलेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंइस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए धन्यवाद!
शायद कुछ महीनों पहले कुछ जगहों पर पोस्ट्स के द्वारा ये बताया जा रहा था की सुश्रुत संहिता में मांस की लपसी (उत्कारिका) जैसी चीजें भी इलाज के रूप में बतायी हैं
इस बारे में आप क्या सोचते हैं ?
[अनुरोध:कृपया मेरे प्रश्न को अन्यथा ना लें ]
जिज्ञासा का समाधान आवश्यक है अन्यथा सन्देहों की श्रंखला बनते देर नहीं लगती।
हटाएंइस सम्बन्ध में कुछ अन्य तथ्यों को जानना आवश्यक है।
1- आयुर्वेद के ग्रंथों में राजाओं एवम् एलिट वर्ग की रुचियों (आवश्यकताओं नहीं)के अनुसार भी औषधियों का विधान किया गया है। अतः तामसी औषधिओं का भी उल्लेख है।
2- आयुर्वेद के ग्रंथों में समय-समय पर कई बार अंश जोड़े गये हैं जिन्हें प्रक्षेपांश कहा जाता है। ये प्रक्षेपांश अधिकृत विद्वानों द्वारा नहीं अपितु किसी भी लेखक द्वारा जोड़ दिये गये हैं। इसलिये समय-समय पर विद्वानों को ऐसे प्रक्षेपांशों पर विमर्ष और संशोधन करते रहना चाहिये जोकि दुर्भाग्य से नहीं किया जा पा रहा है । कई बार संशोधन की बात आते ही रूढ़्वादी लोग विरोध के लिये उठ खड़े होते हैं। परिणामतः संहिता ग्रंथों की प्रामाणिकता सन्देहास्पद होने लगती है। ऐसी स्थिति में हमें अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिये।
3- आयर्वेद का मूल सन्दर्भ ग्रंथ है अथर्व वेद। आप देखेंगे कि अथर्ववेद में मांसाहार को औषधि के रूप में नहीं दर्शाया गया है।
4- विश्व की अन्य सभ्यताओं ने आयुर्वेद को और आयुर्वेद ने अन्य सभ्यताओं को बहुत कुछ दिया है। ज्ञान का यह आदान-प्रदान ही विज्ञान को पुष्ट और समृद्ध करता है। यह लेने वाले पर निर्भर करता है कि वह क्या ग्रहण करता है।
यह सत्य है कि शल्यतंत्र के आदि ग्रंथ सुश्रुत संहिता में जंतु जन्य औषधियों का वर्णन है। किंतु आयुर्वेद अपने मूल स्वरूप में काष्ठौषधियों तक ही सीमित था ..वह भी एकौषधि तक। आज तो मिश्र औषधियों का प्रचलन हो गया है जिसमें कई जड़ी-बूटियों को एक साथ मिलाकर औषधि बनायी जाती है।
मेरा चिंतन तो यह है कि किसी जीव की हत्या कर बनायी गयी कोई भी औषधि मनुष्य के लिये निर्दुष्ट(= having no complications and side effects)नहीं हो सकती। स्वतः मृत्यु को प्राप्त हुये जीवों के देहांशों को औषधि के लिये प्रयुक्त करने में मेरा भी कोई विरोध नहीं है यथा- मृगश्र्ंग, हस्ति दंत, मृत सीप, घोंघे,वराटिका, प्रवाल, कुक्कुटाण्ड त्वक आदि।