प्रश्न है कि धर्म के नाम पर
सुहाग के प्रतीकों को ढोने की बाध्यता स्त्री को ही क्यों ?
परिवर्तन से परिभाषित होता है समय और
समय की धारा में बहता है समाज ।
हमारे चारो ओर होनेवाला परिवर्तन कैसा भी हो, वह आकर्षित तो करता ही है हमें ।
यह आकर्षण कभी हर्षित करता है, कभी कुपित तो कभी दुखित भी । इस आकर्षण के प्रति हमारी सामूहिक प्रतिक्रिया हमारी दिशा तय करती है ।
इस परिवर्तन से अमेरिका और योरोप में बसे प्रवासी भारतीयों की जीवन शैली प्रभावित हो रही है। यह प्रभाव वहाँ के समाज की परम्पराओं, आवश्यकताओं और नवीनता के प्रति मनुष्य के स्वाभाविक झुकाव का परिणाम है। यह परिणाम किसी को लुभाता है तो किसी को अपनी टूटती जड़ों की पीड़ा से दुखित करता है।
पल्लवी श्रीवास्तव को प्रवासी भारतीयों में हो रहे सांस्कृतिक-सामाजिक परिवर्तन की पीड़ा उद्वेलित करती है तो तृप्ति जी संस्कृति के नाम पर गलत बातें
विरासत में दिये जाने के विरुद्ध हैं।
प्रसंग है प्रवासी भारतीय महिलाओं में सुहाग के प्रतीकों को अनिवार्य स्वीकार न करने की प्रवृत्ति। कुछ लोगों का तर्क है कि धर्म के नाम पर सुहागिन के प्रतीक चिन्हों को ढोने की बाध्यता केवल स्त्री को ही क्यों? पुरुषों के लिये ऐसी कोई बाध्यता क्यों नहीं है? उनके अनुसार यह एक पक्षीय बाध्यता स्त्री पर पुरुष के वर्चस्व और उस पर शासन करने की प्रवृत्ति का प्रतीक है।
समानता की बात करते समय हम भूल जाते हैं कि शारीरिक संरचना और शरीर क्रियात्मक भिन्नता के कारण स्त्री-पुरुष की मानसिकता के स्वाभाविक अंतर की उपेक्षा नहीं की जा सकती। श्रंगार के प्रति जैसा स्वाभाविक झुकाव स्त्रियों में देखने को मिलता है वैसा पुरुषों में नहीं मिलता। कदाचित इसी कारण पुरुषों के वैवाहिक प्रतीक चिन्हों का पुरुष समाज में अभाव है।
तृप्ति जी 'संस्कृति' के नाम पर नयी पीढ़ी को चूड़ी, बिन्दी, बिछिया, सिन्दूर जैसी अनावश्यक, अव्यावहारिक और 'गलत' चीजों को अपनाने की स्वीकृति देने के पक्ष में नहीं हैं।
इस सम्बंध में मेरा विनम्र निवेदन है कि जो
गलत है वह 'संस्कृति' नहीं है,
और
जो 'संस्कृति' है वह गलत नही हो सकती। 'संस्कृति'
'रूढ़ि'
नहीं
है, एक सार्थक परम्परा है, समाज के लिये हितकारी है ...उपादेय है।
'संस्कृति' हमारे सामूहिक विचारों और व्यवहारों का
परिष्कृत रूप है। विचार हमारे अन्दर का बौद्धिक भाव है जो व्यवहार में प्रकट होता
है किंतु यह किसी क्रिया के परिणामस्वरूप ही परिलक्षित और विज्ञापित हो पाता है। किंतु जब कोई क्रिया/घटना न हो रही हो तब ऐसी स्थिति में अपने विचारों की घोषणा करना मनुष्य का स्वभाव है जिसके लिये
उसे कुछ प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है। विश्व की सभी सभ्यताओं में ऐसा किसी न
किसी स्तर पर होता रहा है, आज भी हो रहा है ...कल भी होता रहेगा।
इसलिये प्रतीकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
कल्पना कीजिये, सारे
प्रतीकों को समाप्त कर दिया जाय तो जीवन कैसा होगा? मुद्रा (करेंसी) पर कितने
सारे प्रतीक होते हैं ! राज्यों के विभिन्न विभागों के अलग प्रतीक है, बैंकों
के अपने-अपने प्रतीक हैं, ध्वजों के अपने प्रतीक हैं .....प्रतीक
विहीन है क्या? इन्हें समाप्त कर दिया जाय तो विश्व के सारे
काम बहुत कठिन हो जायेंगे, बहुत अव्यवस्था उत्पन्न हो जायेगी।
तो हमारे सामाजिक
जीवन से सम्बन्धित किसी प्रतीक को अप्रासंगिक क्यों मान लिया जाय? यह
बात अलग है कि ब्रिटेन के मौसम के अनुरूप भारतीय परिधान और प्रतीकों को अधिक
व्यावहारिक न पाया जाता हो पर प्रतीकों को पूरी तरह महत्वहीन नहीं माना जा सकता।
मौसम के अनुरूप उसमें कुछ पारिवर्तन किया जा सकता है ...ताकि सांस्कृतिक परम्परा
बनी रहे। ध्यान रहे, संस्कृति और रूढ़ में अंतर है। जो परम्परा
औचित्यहीन, अतार्किक और अनुपयोगी है वही रूढ़ है। जब तक
उसमें औचित्य, तर्क और उपयोगिता के तत्व बने रहेंगे वह रूढ़
नहीं बल्कि संस्कृति कहलायेगी। जो निरंतर संस्कारित हो वही तो संस्कृति है।
किसी समाज के लोगों का परिधान उसकी सामाजिक और परिवेशजन्य आवश्यकताओं के अनुसार विकसित और निर्धारित होता है। यह एक सहज और विकासमान प्रक्रिया है इसलिये प्रवासियों के प्रसंग में नये समाज और परिवेश के अनुरूप परिवर्तन स्वाभाविक है। किंतु अपनी पृथक पहचान के लिये हमें अपनी मूल परम्पराओं को सहेजना भी उतना ही आवश्यक है अन्यथा तब हम इंग्लैण्ड जाकर अपनी भारतीय पहचान प्रदर्शित कैसे करेंगे?
विमर्ष में एक तर्क यह भी दिया गया कि वैवाहिक प्रतीकों को अपनाना नितांत निजी विषय है।
कोई परम्परा नितांत निजी कैसे हो सकती है? परम्परा समूह का विषय है व्यक्ति विशेष का नहीं। व्यक्ति विशेष का निजी विषय उसका अपना अभ्यास(आदत) हो सकता है किंतु कोई परम्परा तो तभी बनती है जब किसी व्यवहार को समूह में अपना लिया जाय। हम निजता का सम्मान करते हैं पर निजता को भी अपनी मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिये।
कोई परम्परा नितांत निजी कैसे हो सकती है? परम्परा समूह का विषय है व्यक्ति विशेष का नहीं। व्यक्ति विशेष का निजी विषय उसका अपना अभ्यास(आदत) हो सकता है किंतु कोई परम्परा तो तभी बनती है जब किसी व्यवहार को समूह में अपना लिया जाय। हम निजता का सम्मान करते हैं पर निजता को भी अपनी मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिये।
जवाब देंहटाएंsach kaha !
@ तृप्ति जी संस्कृति के नाम पर गलत बातें विरासत में दिये जाने के विरुद्ध हैं।
जवाब देंहटाएंतृप्ति जी से मैं सहमत हूँ |
संस्कृति के प्रतीक इतना श्रम भी नहीं माँगते कि उनका पालन न किया जा सके। विरोध का मर्म क्या है, वह भी सामने आये।
जवाब देंहटाएंविरोधियों द्वारा विरोध के ये कारण बताये गये हैं -
हटाएं1- पश्चिमी देशों की ठंड में भारतीय परिधान से काम नहीं चलता और वहाँ के परिधान के साथ सुहाग के प्रतीक अनुपयुक्त और कभी-कभी कष्टदायक(जैसे बिछिया)लगते हैं।
2- युवा और अविवाहित दिखने की चाह में सुहाग के ये चिन्ह बाधक हैं।
3- इन प्रतीकों के पीछे पुरुष की पुरुषवादी सोच काम करती है जिसमें वह पत्नी को अपनी सम्पत्ति होने की घोषणा करता है।
4- यदि पुरुष के लिये ऐसे किसी प्रतीक की अनिवार्यता नहीं है तो स्त्री के लिये ही क्यों होनी चाहिये ?
5- सुहाग के प्रतीकों को यदि श्रंगार का अंग मान लिया जाय तो यह श्रंगार किसी विधवा को क्यों नहीं करना चाहिये? क्या मात्र इसलिये कि विधवा को श्रंगार करने और जीने का अधिकार नहीं?
6- चूड़ी, बिन्दी, सिन्दूर और बिछिया को सुहाग के नहीं अपितु श्रंगार के प्रतीक माना जाना चाहिये और कुमारी, विवाहिता या विधवा की इच्छा पर छोड़ देना चाहिये कि वह अपनी रुचि से इनका प्रयोग करे अथवा न करे।
7- पश्चिमी देशों में यदि कोई महिला किसी कार्यालय में काम करती है तो उसे वहाँ के बाध्यकारी ड्रेसकोड का पालन करना होता है जिसमें इन प्रतीकों का कोई स्थान नहीं है। चूड़ियों की खनखनाहट से अन्य सहकर्मियों को काम करने में बाधा उत्पन्न होती है।
8- आधुनिक युग में किसी रूढ़ि को बनाये रखने का हठ क्यों?
9- इन प्रतीकों का कोई औचित्य नहीं है।
@ सामाजिक संस्कार पड़ने से पूर्व जिसकी जैसी आदत पड़ जाये उसे वही सुहाता है. जंगल में भेड़ियों के बीच पली-बढी एक लड़की को जब मनुष्य समाज में लाया गया और उसे जबरन वस्त्र पहनाये गये तो उसने वह सब पसंद नहीं किया उअर वस्त्र फाड़ लिये. उसे वस्त्र पहनाना मनुष्य समाज का अत्याचार ही तो है.
हटाएं@ जो व्यवस्था बनाता है, जो नीति-निर्धारण करता है, जो संविधान निर्माण में योगदान देता है... वह कुछ हद तक पक्षपात तो करता ही है...
हटाएंभीमराव ने ... 'वर्षों से दमित वर्ग' का बहाना लेकर एक वर्ग विशेष को अधिक महत्व दिया.
भीमराव ने ... 'अल्पसंख्यक वर्ग' का बहाना लेकर एक वर्ग विशेष को एक राज्य में 'विशेषाधिकार' दिया.
कुलमिलाकर 'राष्ट्र की सर्वोपरि आचार-सहिंता' में भेदभाव किया.
यदि 'सामाजिक आचार सहिंताओं' के निर्माण में नारियों का हाथ होता (शायद हो भी) तो पुरुषों और नारियों के परिधान और रिवाजों के संबंध में क्या-क्या नवीनतम बातें होतीं? कृपया कल्पना करें.
अकाट्य तर्कों वाला चिंतन... मन के अनुरूप भाव.... आलेख की 'छिद्रविहीनता' ने सोचने को मजबूर किया कि 'क्या केवल सराहना ही कर पाउँगा, कोई प्रश्न नहीं?'
जवाब देंहटाएंयह एक नितांत व्यक्तिगत निर्णय है कि कोई महिला इन प्रतिक चिन्हों को धारण करे या नहीं ..... प्रवासी भारतीय, जहाँ तक मैंने देखा है अपनी संस्कृति को सहेजने की, उससे जुड़े रहने की और भी ज्यादा कोशिश करते हैं | सुहाग चिन्हों से दूरी तो भारत में रहने वाली स्त्रीयों ने भी बना ली है | सबके पास इसका कोई न कोई तर्क या कुतर्क ज़रूर होगा | मुझे इन्हें धारण करना पसंद है और करती हूँ ....अभी तक तो कोई असुविधा नहीं हुई , न हिदुस्तान में रहते हुए और न ही देश के बाहर ......
जवाब देंहटाएंमोनिका जी, मैं भी यही मानती हूँ की यह एक व्यक्तिगत निर्णय है | यह सच है कि आपको या मुझे कोई कोई चिन्ह धारण करने में असुविधा नहीं हुई, लेकिन आवश्यक नहीं कि किसी और स्त्री को नहीं ही हुई हो | यह भी उतना ही सच है कि कोई कोई चिन्ह धारने में असुविधा होती भी है | जैसे - बिछिया पहनने में sandals के साथ दिक्कत होती है, मंगलसूत्र पहनने से गर्दन में एलर्जी भी | और physical असुवुधा न भी हो, तो भी मानसिक असुविधा हो सकती है, या यह भी हो सकता है कि बस इच्छा न हो |
हटाएंमैं तृप्ति जी से पूरी तरह सहमत हूँ कि "सामाजिक" के नाम पर स्त्री पर क़ानून लगाना समाज की / समाज के ठेकेदारों की "male chauvinism " ही है, और कुछ नहीं | ऊपर प्रवीण जी के प्रश्न के उत्तर में कौशलेन्द्र जी ने कई बिंदु बताये ही हैं | स्त्रियों को क्या धारण करना / नहीं करना चाहिए - यह समाज की रीति रिवाजों के नाम पर बहुत लोग बहुत बार कहते रहते हैं - और इन कहने वालों में अधिकतर जन पुरुष हैं | पुरुष भी धोती कुरते की जगह शर्ट पेंट पहनना पसंद करते हैं | पूजा हवन आदि के दिन धोती कुरता धारण कर भी लें - तो अगले दिन फिर शर्ट पेंट पहन लेते हैं | अधिकतर ब्लोगर बंधुओं के जो चित्र दिखते हैं - शर्ट पेंट में ही हैं | यह परंपरा पर चोट नहीं है - यह सुविधा भर है | इसके लिए मैं उन्हें दोष नहीं दे रही, सिर्फ कह रही हूँ कि यह नितांत उनका निजी निर्णय है | लेकिन डबल standard है - कि स्त्री तो साडी में ही शोभती है | क्यों शोभे ? क्या वह सिर्फ शोभा की वस्तु भर है ?
लेख में स्त्री और पुरुष की मानसिकता के बारे में कहा गया कि "श्रंगार के प्रति जैसा स्वाभाविक झुकाव स्त्रियों में देखने को मिलता है वैसा पुरुषों में नहीं मिलता" यह generalization है | हर स्त्री सजना संवारना पसंद करे यह आवश्यक नहीं - और हर पुरुष नापसंद करे यह भी आवश्यक नहीं | यदि कोई श्रृंगार करना चाहे - तो वह उसकी मर्जी | न करना चाहे तो वह भी उसकी मर्जी | स्त्री कोई शोकेस में रखा सजावट का सामान नहीं है - कि श्रृंगार करना उस पर क़ानून बना कर थोप दिया जाए, परंपरा के नाम पर |
यही परम्पराएं हैं जो हमारे देश में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर कभी बनने नहीं देना चाहतीं - कि "यह स्त्री धर्म है, वह स्त्री धर्म है" | और भी बहुत से "स्त्री धर्म" हैं - पति की झूठी थाली में खाना स्त्री धर्म है, पति के लिए भूखे प्यासे रह कर करवा चौथ आदि के उपवास स्त्री धर्म हैं, पति के साथ सती हो जाना भी स्त्री धर्म है , पति मारे तो चुप रह कर सहना और घर की "इज्ज़त" बचाए रखना स्त्री धर्म है .... the list is unending | और ऐसा नहीं कि मैं इनमे से कई गलत परम्पराओं को सर पर धारे नहीं न चल रही हूँ - जानती हूँ कि गलत है - असहमत भी हूँ - परन्तु मुझ में "न" कहने की हिम्मत नहीं, इसलिए मैं कई बातों को फोलो करती हूँ |
दुखदायी है कि संस्कृति के नाम पर स्त्रियों को पैरों तले रखने की मानसिकता अब भी हमारे समाज से गयी नहीं है |
@ हम सभी (स्त्री-पुरुष) की पहनावे संबंधी पसंद-नापसंद उत्पादक वर्ग द्वारा चलाये चलन पर आधारित होती जा रही है... जिसमें फिल्म जगत सहयोग कर रहा है. जो बाज़ार में सहजता से उपलब्ध होगा वही खरीदा जायेगा.
हटाएंधोती का प्रचार होगा तो धोती ही बिकेगी पेंट नहीं. पेंट-शर्ट-बनियान चलन में इसलिये आ गया है कि वह बाज़ार में उपलब्ध है...
कुछ वर्षों पहले गुरुकुल झज्जर में रहा तो वहाँ की ही पोशाक मेरे स्वतः पहनावे में आ गयी.... मतलब लंगोट, धोती और कुर्ता.
हाँ, बंडी अब नहीं मिलती इसलिये उसका नवीनतम रूप बनियान ही पहनते थे.
इसी प्रकार स्त्री सम्बन्धी पौशाकों का वर्तमान में अभाव हो गया है क्या? साड़ी से सूट, सूट से जींस, और अब जींस की यात्रा किस दिशा में जाने की है?
जो बाजारवाद यात्रा करवाना चाहता है क्या हम उसकी इच्छा से यात्रा तो नहीं कर रहे? हमारी अपनी इच्छा क्या है आज़? ... शायद हमें इसका खुद पता नहीं?
yahan maine ek tippani ki thi ..... Par nazar nahin aa rahi...
जवाब देंहटाएं@ यह एक नितांत व्यक्तिगत निर्णय है कि कोई महिला इन प्रतीक चिन्हों को धारण करे या नहीं .....
हटाएंमोनिका जी! कई बार 'व्यक्तिगत' और 'सामाजिक' के बीच की सीमारेखा बहुत ही क्षीण हो जाया करती है। दोनो ही एक-दूसरे को कहीं न कहीं प्रभावित करते हैं। जब परम्पराओं की बात आती है तो बात व्यक्तिगत से अधिक सामाजिक हो जाती है। यूँ कोई बाध्यता नहीं होती पर अंगुली उठने का कारण तो बन ही जाता है। यह लेख भी इसी अंगुली उठने का ही तो परिणाम है न! :)
डॉ॰ मोनिका शर्मा ने आपकी पोस्ट " बाध्यता - एक विमर्ष " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंयह एक नितांत व्यक्तिगत निर्णय है कि कोई महिला इन प्रतिक चिन्हों को धारण करे या नहीं ..... प्रवासी भारतीय, जहाँ तक मैंने देखा है अपनी संस्कृति को सहेजने की, उससे जुड़े रहने की और भी ज्यादा कोशिश करते हैं | सुहाग चिन्हों से दूरी तो भारत में रहने वाली स्त्रीयों ने भी बना ली है | सबके पास इसका कोई न कोई तर्क या कुतर्क ज़रूर होगा | मुझे इन्हें धारण करना पसंद है और करती हूँ ....अभी तक तो कोई असुविधा नहीं हुई , न हिदुस्तान में रहते हुए और न ही देश के बाहर ......
डॉ॰ मोनिका शर्मा द्वारा ॥ भारत-भारती वैभवं ॥ के लिए 21 जून 2012 7:49 am को पोस्ट किया गया
स्त्री / पुरुष
जवाब देंहटाएंसमाज
संस्कृति
नियम
कानून
इस क्रम से दुनिया शायद चल रही हैं
पहले स्त्री और पुरुष का विवरण पढो तो पता चलता हैं वो दुनिया में वस्त्र हीन ही आये और विचरे
आज भी वो वो वस्त्र हीन ही आते हैं पर विचरते नहीं हैं क्युकी सुसंस्कृत हैं
कुछ सुसंस्कृत नहीं हुए तो उनके लिये कानून बने हैं
सुहाग
इस का अभी पर्याय क्या हैं ??
क्यूँ स्त्री के लिये सुहाग चिह्नं पहनने की परम्परा बनी ??
और विधवा के लिये इसको पहनना वर्जित क्यूँ हैं
भारतीये परम्परा में ही नहीं विदेशो में भी शादी का चिह्नं पहनने की परम्परा हैं , पति और पत्नी दोनों के लिये यानी ऊँगली में एक सोने का छल्ला जो वो मृत्यु तक पहनते हैं चाहे वो विधवा और विधुर ही क्यूँ ना हो जाए
पल्लवी ने अपनी पोस्ट में ये भी तो कहा हैं की सुहाग चिन्ह पहनने से स्त्री सुरक्षित हो जाती हैं ??? क्यूँ समाज में बिना सुहाग चिह्न के स्त्री सुरक्षित नहीं हैं ? आप इस का उत्तर अवश्य दे . और ये भी बताये की सुहाग का मतलब केवल स्त्री के लिये ही होना क्या वाकयी भारतीये संस्कृति हैं , क्या कभी किसी भी समय इस की अनिवार्यता पुरुष के लिये नहीं थी ?? कृपा कर इतिहास खोजे जरुर . हो सकता हैं आप को पुरुष के लिये भी क़ोई चिन्ह मिल ही जाए . अगर नहीं मिले तो समझिये की इतिहास पुरुष ने लिखा था क्युकी स्त्री तब अनपढ़ थी . अब वो पढ़ लिख गयी हैं और नए इतिहास को रचने की तयारी में हैं . वो क़ानूनी और संविधान से इतिहास रचेगी ताकि आज से ५० साल बाद जो संस्कृति की बात हो तो स्त्री और पुरुष समान दिखे न की दस्ता के प्रतीक बिम्बों को ले कर आपस में नोक झोक करते हुए .
आदरणीय रचना जी !सादर नमस्कार ! बड़े क्लिष्ट प्रश्न छोड़े हैं आपने, प्रयास करता हूँ उत्तर देने का।
हटाएं1- पुरुषों के लिये एक प्रतीकात्मक( विवाहोपरांत जोड़े में यज्ञोपवीत धारण करना) और एक भावनात्मक(एक पत्नीव्रत धर्म पालन)...बस ये दो ही चिन्ह मिल सके हमें तो । यद्यपि यह कहा जा सकता है कि सभी लोग यज्ञोपवीत धारण नहीं करते और हर कोई एक पत्नीव्रत का पालन नहीं करता। पर यह एक आदर्श स्थिति थी जिसके पालन की अपेक्षा की जाती थी। भारत की विवाह नामक संस्था में आज कितने भी दुर्गुण क्यों न आ गये हों फिर भी तुलनात्मक दृष्टि से यह अभी भी अच्छी परम्परा है -ऐसा भारत आने वाले विदेशी कहते हैं।
2- विधवा के लिये सदा से सतीप्रथा जैसे नियम नहीं रहे यह मध्ययुगीन व्यवस्था थी जिसके कुछ तत्कालीन कारण थे। इसका विरोध भी बाद में पुरुषों ने ही किया और इस प्रथा को समाप्त कराया गया ।
3-जब दम्पति में प्रेम हो और उनमें से कोई एक सिधार जाय तो स्वाभाविक ही उत्तरजीवी की अपने जीवन के प्रति उदासीनता उसके जीवन में परिलक्षित होने लगती है। जो स्त्रियों में श्र्ंगार के प्रति अरुचि के रूप में सहज ही प्रकट हो जाती है। श्रंगार न करना कोई बाध्यता नहीं एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है यदि किसी स्त्री को पति की मृत्यु से दुःख न हुआ हो तो उसे श्रंगार से कोई रोक नहीं सकता। पश्चिमी देशों में सहज प्रेम की ऐसी पराकाष्ठा कम ही देखने को मिलती है। आज तो विधवा विवाह को भी सामाजिक स्वीकृति मिली हुयी है।
4- जब हम स्त्री शिक्षा की बात करते हैं तो हमें स्मरण करना होगा कि जब आज की तरह स्कूल नहीं थे और केवल गुरुकुल में रहकर ही शिक्षा दी जाती थी तब भी गार्गी, मैत्रेयी और लीलावती जैसी स्त्रियों ने अपनी विद्वता की सामाजिक स्वीकार्यता पूरे सम्मान के साथ प्राप्त की थी। प्राचीन भारत की परम्पराओं का उल्लेख करते समय हमें केवल मध्ययुगीन विकृत घटनाओं की ही चर्चा नहीं करनी है(उपेक्षा भी नहीं करनी है)क्योंकि वे घटनायें भारतीय संस्कृति की प्रतीक नहीं हैं। हम उन्हें विकार या पाखण्ड कह सकते हैं।
5- जहाँ तक स्त्री-पुरुष समानता की बात है, आप योरोप के इतिहास में झाँक कर देखें तो पता चलेगा कि भारत में स्त्रियों की स्थिति अपेक्षाकृत बहुत अच्छी रही है। पश्चिमी देशों में तो वोट का अधिकार भी बहुत बाद में मिल सका है स्त्रियों को।
6- सामाजिक पतन की घटनायें हमारी संस्कृति का नहीं अपितु अपसंस्कृति का हिस्सा हैं। जब हम संस्कृति की बात करते हैं तब आदर्श की बात करते हैं क्योंकि वही अभिप्रेत है। "टूट-फूट और सुधार" समाज की निरंतर चलने वाली एक सहज प्रक्रिया है। मानते हैं कि समाज में मूल्यों में पतन हुआ है किंतु उसके विरुद्ध निरंतर आवाज़ भी उठती रही है। यह आवाज़ इतनी विस्फोटक भी नहीं होनी चाहिये कि प्रतिपतन शुरू हो जाय। आज हमारा समाज एक वैचारिक ट्रांजीशन पीरियड में है..यह एक अति सम्वेदनशील काल होता है। अति उत्साह में लक्ष्य से भटकने की सम्भावनायें अधिक होती हैं।
6- पुरुष के अत्याचार का विरोध होना चाहिये, हम समर्थन करते हैं। परंतु पुरुष की सहज स्वीकार्यता भी अनावश्यक नहीं है। उसे नारी का सनातन शत्रु समझने की भूल नारी को अपने समानता के लक्ष्य से भटका देगी। समानता के लिये साम्यावस्था की स्थिति लानी होगी जो पुरुष की स्वीकार्यता के बिना कैसे सम्भव है? अतः निवेदन है कि एक पक्षीय विरोध न किया जाय।
वाह भाई जी, व्यवहारिक और तर्कसंगत!!
हटाएंसौ बात की एक बात......
प्राचीन भारत की परम्पराओं में यदि कोई विकृति आती है तो समाधान विकृति दूर करने में है न कि समूल नाश। विकृत व अपवाद कभी आदर्श नहीं हो सकते।
@ यदि किसी स्त्री को पति की मृत्यु से दुःख न हुआ हो तो उसे श्रंगार से कोई रोक नहीं सकता।
हटाएंबहुत objectionable बात कह रहे है आप कौशलेन्द्र जी | आपको कोई अधिकार नहीं बनता किसी स्त्री पर यह इलज़ाम लगाने का - सिर्फ इसलिए की वह तैयार हो रही है - तो उसे पति की मृत्यु का कोई दुःख नहीं है | कृपया स्त्रियों को पुरुष की दासी मात्र मानने / दिखाने से बचें | आपकी यह पोस्ट और इस पर आपके कमेंट्स हम स्त्रियों के संवैधानिक अधिकारों का मज़ाक उड़ा रहे हैं |
हर एक बात मैं यहाँ लिखना नहीं चाहती point wise - परन्तु कृपया अपने निजी निश्चय और अपनी निजी सोच को , संस्कृति का मुखौटा ओढा कर, स्त्री जाति पर थोपने का प्रयास न करें |
आभार |
हम प्रचलित धर्म-कथाओं और महापुरुषों व देवियों की चरित्र गाथाओं से सीखते रहे हैं... मनमानी कभी नहीं करते...
हटाएंहमने कथाओं में अब तक देखा है...
— दशरथ के स्वर्गवास पर रानियों ने शृंगार त्यागकर श्वेत वसन पहने.
— कुंती को सादगी अपनाए.
— अभिमन्यु की वधु 'उत्तरा' को अलंकार का त्याग किये.
ऐसे तमाम उदाहरण मिल जायेंगे जब पुरुषों की मृत्यु पर उनकी स्त्रियों ने शृंगार त्यागा.
और साथ ही ऐसे भी उदाहरण हैं... जब पत्नी की मृत्यु पर पति शोकाकुल होकर सामाजिक वयवहार भूल गया. महाकवि कालिदास ने इसका उल्लेख कई नाटकों में किया भी है.
यक्ष का वियोग, इंदुमती की मृत्यु पर अज का वियोग आदि.
यदि दो-एक नवीनतम उदाहरण भी आज ऐसे होते जो वर्तमान समाज के लिये प्रेरणा-स्रोत का कार्य करते तो समाज उन्हें ही अपना लेता.
अब ब्रिटेन की राजकुमारी 'डायना' तो हमारी आदर्श नहीं हो सकती न?
रचना जी,
हटाएंमैं जानना चाहता हूँ... कि आपकी दृष्टि में कौन-कौन से महापुरुष और कौन-कौन-सी स्त्रियाँ (देवियाँ) अनुकरणीय हैं?
स्वदेशी हों अथवा विदेशी, जैसी भी हों .... कृपया उल्लेख करें.... फिर मैं भी जानना चाहूँगा कि उन्होंने अपने समय में पुरुष समाज से कैसे-कैसे लोहा लिया?
घर बनाने का अधिकार नारी का नहीं होता
जवाब देंहटाएंघर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता
घर तो केवल पुरुष बनाते हैं
नारी को वहाँ वही लाकर बसाते हैं
जो नारी अपना घर खुद बसाती हैं
उसके चरित्र पर ना जाने कितने
लाछन लगाए जाते हैं
बसना हैं अगर किसी नारी को अकेले
तो बसने नहीं हम देगे
अगर बसायेगे तो हम बसायेगे
चूड़ी, बिंदी , सिंदूर और बिछिये से सजायेगे
जिस दिन हम जायेगे
उस दिन नारी से ये सब भी उतरवा ले जायेगे
हमने दिया हमने लिये इसमे बुरा क्या किया
कोई भी सक्षम किसी का सामान क्यूँ लेगा
और ऐसा समान जिस पर अपना अधिकार ही ना हो
जिस दिन चूड़ी , बिंदी , सिंदूर और बिछिये
पति का पर्याय नहीं रहेगे
उस दिन ख़तम हो जाएगा
सुहागिन से विधवा का सफ़र
लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा
क्यूंकि
घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होताhttp://mypoemsmyemotions.blogspot.in/2011/07/blog-post.html
रचना को इस क्रांतिकारी रचना के लिये साधुवाद! इस रचना में स्त्रियों की पीड़ा का स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। आपने नारी के घर बनाने के अधिकार की चर्चा की है। एक बार मैंने भी सोचा कि यदि लड़कियों के स्थान पर लड़कों को ससुराल जाना पड़े तो? फिर मैंने लड़की के स्थान पर स्वयं को रखकर देखा और एक नये परिवार की कल्पना की। मुझे लड़कियों की इस यूनिक फ़्लैक़्जिबिलिटी को सच्चे हृदय से स्वीकार करना पड़ा। यह काम पुरुषों के बस का नहीं है..यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ। कोई लड़की अपने बचपन और किशोरावस्था के स्थान को छोड़कर एक नितांत नये घर में नये-नये लोगों से हमेशा के लिये सामंजस्य बना लेती है ....हम पुरुष लड़कियों की इस काबिलियत के आगे कुछ भी नहीं हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से स्त्रियों के इस सद्गुण का ऋणी हूँ। यह भाव यदि सभी पुरुषों में आ जाय तो कदाचित लड़कियों को ससुराल से कभी कोई शिकायत न हो।
हटाएंअब बात आती है उन नारियों की जो अपना घर पुरुष के बिना ही बसाना चाहती हैं। हाँ ! यदि वे सक्षम हैं तो कर सकती हैं, वे चाहें तो स्वयम्वर भी रचा सकती हैं। पर मुझे लगता है कि उनका विरोध पुरुषों से अधिक स्त्रियाँ ही करती हैं। परम्परा से हटकर जो भी होता है वह समाज में सहज स्वीकार्य नहीं हुआ करता। समय लगता है उसकी स्वीकार्यता में। तो भी, मैं अभी लिव इन रिलेशनशिप के पक्ष में नहीं हूँ....क्यों नहीं हूँ, इसके कई सोशियो-इण्डीविडुअल कारण हैं।
घर बसाना
हटाएंअगर आप इस को केवल पारंपरिक सोच से देखेगे तो इसका अर्थ होगा स्त्री और पुरुष का एक घर में बसना
अगर आप इस को दूसरे नज़रिए से देखे यानी एक , एकल नारी का अपने बल बूते पर अपना घर बसना यानी बिना किसी पुरुष की सहयता से , अब वो नारी अविवाहित भी हो सकती हैं , तलाक शुदा भी , विधवा भी
इस कविता में लिव इन रिलेशन शिप और स्वयंबर जैसी बात कैसे जोड़ी जासकती हैं
यहाँ नारी के उस अस्तित्व की बात हैं जहां पुरुष उसके लिये नगण्य हो चुका हैं , जहां वो पुरुष को अपने से ऊपर नहीं मानती हैं और उसके बिना भी अपना जीवन जी ने में पूर्णता सक्षम हैं
बिल्कुल रचना जी! सहमत हूँ आपसे। ऐसी नारी यदि अपने बलबूते पर अपने अस्तित्व के साथ अपना एकल घर बसाती है तो यह स्वागत योग्य है। होना चाहिये ऐसा। बलात सती कर देने जैसी कुरीतियाँ विद्वत्समाज में कभी स्तुत्य नहीं हो सकतीं।
हटाएंकेवल सती की बात नहीं हैं कौशलेन्द्र जी बात हैं की अगर सुहाग चिन्ह किसी स्त्री का श्रृगार हैं तो पति की मृत्यु से उनको क्यों जोड़ना , क़ोई स्त्री चाहती हैं पहने , नहीं चाहती हैं ना पहने , इस से पति और शादी को क्यूँ जोड़ना .
हटाएंइस से तो हम सुहाग चिन्ह की नहीं पति की महिमा का मंडन करते हैं क्युकी जिस बेदर्दी से पति की मृत्यु के बाद ये चिन्ह एक विधवा के शरीर से उतारे जाते हैं वो जिन्होने देखा हैं वो समझ सकते हैं की महिमा चिन्ह की नहीं पति की होती हैं
आदरणीय रचना जी! हर समाज की कुछ अपनी सामाजिक परम्परायें होती हैं जो समाज के लोगों द्वारा ही बनायी जाती हैं। परम्परायें लोगों की सोच और आवश्यकताओं के अनुसार बदलती भी हैं...कभी परिष्कार के साथ तो कभी और भी रूढ़ के साथ। एक परिवर्तन तो प्रायः देखा जा रहा है कि अब विधवाओं ने अपने परिधान में पूर्वापेक्षा परिवर्तन किये हैं जो समाज द्वारा भी शनैः शनैः स्वीकार्य हो चुके हैं, किंतु मांग में सिन्दूर शायद ही कोई विधवा स्वीकार करे। विधवा के शरीर से कोई सुहाग चिन्ह बलपूर्वक या निर्ममतापूर्वक नहीं उतारे जाने चाहिये। मैं इस पक्ष में हूँ।यह विषय उसकी स्वेच्छा पर छोड़ देना चाहिये .....और मेरा विश्वास है कि कोई भी विधवा वैवाहिक प्रतीकों को स्वेच्छा से ही त्याग देगी। यह बाध्यता नहीं ....भावनात्मक निर्णय है।
हटाएंकोई भी विधवा वैवाहिक प्रतीकों को स्वेच्छा से ही त्याग देगी। यह बाध्यता नहीं ....भावनात्मक निर्णय है।
हटाएंउसी प्रकार से सुहाग चिन्ह पहनना भी स्त्री के लिये बाध्यता क्यूँ हो
धर्म के नाम पर सुहाग के प्रतीकों को ढोने की बाध्यता स्त्री को ही क्यों ?
अगर क़ोई विवाहिता भावना से नहीं दिमाग से सोच के क़ोई निर्णय लेती हैं तो उस पर धार्मिक बाध्यता क्यों हो , उसका अपना निर्णय क्यूँ ना हो ,
विधवा होते ही क्यों वो अपना निर्णय खुद ले और सुहागिन होते हुए क्यूँ नहीं ले
सुहाग प्रतीकों को धारण करना धार्मिक नहीं सामाजिक परम्परा है। जितनी स्वतंत्रता धर्म में है उतनी सामाजिक परम्पराओं में नहीं हुआ करती। समाज की रीति-नीति बाध्यकारी होती है ...ऐसा सभी विकसित और आधुनिक समाजों में भी होता है। साथ ही पुनः कहूँगा कि समय आने पर समाज की परम्परायें और वर्जनायें टूटती भी हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने यही तो किया था।
हटाएं@ यदि इस पोस्ट के पाठक पंडित वत्स जी और संगीता पुरी जी होते तो विमर्श 'सामुद्रिक शास्त्र' की दिशा ले लेता.
हटाएंऔर यदि स्वर्णकार जी और अविनाश चंद्रा जी होते तो विमर्श 'काव्य शास्त्र' की दिशा ले लेता.
और यदि कुछ अन्य प्रतिष्ठित महानुभाव होते तो विमर्श 'काम शास्त्र' की दिशा ले लेता.
....... मुझे लगता है जो जिस खेमे का होता है चर्चा को उसी और धकियाता है.
लेख अति उत्तम है !
जवाब देंहटाएंऔर यहाँ चल रही चर्चा पर इतना ही कहूँगा की इस तरह की चर्चाओं में प्रश्न पूछने वाला पक्ष अक्सर असंतुष्ट ही रहता है चाहे उत्तर कितने सटीक क्यों ना हों , कभी कभी तो ऐसा लगता है की केवल विरोध दर्ज करवाने की औपचारिकता कर दी है और उत्तर को पढ़ा भी नहीं गया है
खैर ..... बात करते हैं कुछ राजस्थानी गीतों की तो उनमें अक्सर नायिका नायक को गहने आदि सजावट की चीजें ना लाने के लिए उलाने दे रही होती थी .. इन गीतों का अंत सुखद ही दिखाया जाता था
जैसे यहाँ देखिये :
http://www.youtube.com/watch?v=4jLh60E98EE
और अब बात करते हैं नयी जमाने की महिलाओं की
http://www.dailymail.co.uk/news/article-1319063/Girl-14-wins-legal-battle-school-chiefs-wear-nose-piercing-claims-religion.html
http://www.indianexpress.com/news/the-girl-with-a-gold-nose-ring/24879/0
आपकी टिप्पणी से सहमत हूँ। विरोध यदि तर्कपूर्ण हो तो उस पर विमर्ष अवश्य ही किया जाना चाहिये। किंतु यदि केवल विरोध करने के कारण ही विरोध हो तो ऐसे पूर्वाग्रहीविरोध की उपेक्षा करना ही शास्त्रसम्मत है।
हटाएंजब भी किसी को विद्रोह की आहट विरोध में दिखती हैं लोग उसे पूर्वाग्रह का नाम देते हैं बिना कुछ पढ़े विमर्श ऐसी बात कहने वाले सारे विमर्श करने वालों से किसी पूर्वाग्रह के चलते नाराज दिखते हैं
हटाएंजब तर्कों के उत्तर देते नहीं बनता हो तो या तो मान लेना चाहिये की दूसरो के तर्क बेहतर हैं और हमे अपनी सोच पर ही विचार करना होगा या नये तर्क ही खोजने होगे
नहीं रचना जी! विद्रोहपूर्ण विरोध को पूर्वाग्रह नहीं कहा जा सकता। पूर्वाग्रह को ही पूर्वाग्रह कहा जा सकता है। विमर्ष हेतु हमारे देश में सम्भाषा परिषद् के आयोजन की व्यवस्था हुआ करती थी। सम्भाषा का एक प्रकार "विग्रह्य सम्भाषा" भी था जिसमें दूसरे पक्ष को एन केन प्रकारेण पराजित और अपमानित करना ही उद्देश्य हुआ करता था, इसे विद्वानों ने निकृष्ट कहा है। इनका सिद्धांत था -"न शुणुतव्यं न मंतव्यं वक्तव्यं तु पुनः पुनः "
हटाएंजिसमें दूसरे पक्ष को एन केन प्रकारेण पराजित और अपमानित करना ही उद्देश्य हुआ करता था, इसे विद्वानों ने निकृष्ट कहा है।
हटाएंयहाँ तो किसी भी कमेन्ट में मुझे ऐसी क़ोई साम दम दंड भेद वाली नीति या भाषा नहीं दिखी ,
आपके तो सभी प्रश्नों के यथा सम्भव उत्तर देने के प्रयास किये गये हैं न! :)
हटाएं"सामदामदण्डभेद" ऐसा मैने कब कहा रचना जी ? और फिर अंतर्जाल पर यह सम्भव भी नहीं है। जो सम्भव है वह है- "न शुणुतव्यं न मंतव्यं वक्तव्यं तु पुनः पुनः "
टंकण त्रुटि सुधार -
हटाएंशब्द शुणुतव्यं नहीं "श्रुणुतव्यं" है। त्रुटि के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ।
रचना जी माने या ना माने मैं तो मानता हूँ की आपने सभी प्रश्नों के यथा सम्भव उत्तर देने का प्रयास किया है |
हटाएंअब एक अनुरोध मेरी ओर से :
आभूषणों से होने वाले स्वास्थ्य संबंधी फायदों पर (आपके अनुसार अगर हों तो)कृपया प्रकाश डालें
सभी के विचार पढ़ रहा हूँ... किसी दृष्टि से बिलकुल सही प्रतीत होते हैं और फिर कोई-न-कोई बात गले नहीं उतरती....
हटाएंअमित जी के विचारों में गजब का संतुलन दिखा... ठीक एक पुरोहित सरीखा.
सभी विदूषी और विद्वान् अपना-अपना सौ प्रतिशत दे रहे हैं... चर्चा का सुख तभी मिलता है जब कुछ बचाकर नहीं रखा जाता.
ऐसी चर्चा में वस्तुतः व्यक्तिगत मताक्षेप ही मुख्यतः प्रक्षेपित होता है .
जवाब देंहटाएंबाकि एक कहानी कहीं पढ़ी थी जिसमें एक सज्जन रामप्रसाद जी अपने दिवंगत मित्र के यहाँ परिजनों का कुशल पूछने के लिए पहुँचते है, जहाँ अब उस मित्र का बेटा रोहित और उसकी पत्नी रहते है थे . बाते करते हुए खाने का समय होने पर दोनों ने खाना खाया, खाने के बाद हाथ धोकर रोहित कमरें में एक कोने में बनी ताक (आला)के सामने जाकर खड़ा हो गया, और १० मिनिट तक यों ही खड़ा रहकर वापस आ गया.
रामप्रसाद जी को रोहित का यों कोने में एकटक इतनी देर खड़े रहना कुछ समझ में नहीं आया. शाम को भी ऐसा ही हुआ और दूसरे दिन सुबह भी . फिर जब रामप्रसाद जी अपने गाँव के लिए निकलने लगे तो उन्होंने रोहित से पूछ ही लिया की बेटा तुम खाने के बाद उस कोने में क्यों खड़े रहते हो क्या कारण है.
रोहित ने उन्हें बताया की मेरे पिताजी को मैंने बचपन से देखा है की वे खाना खाने के बाद नित्य नियम से दोनों समय इसी प्रकार खड़े होते थे. पिताजी ने कभी इस बारे में बताया नहीं पर जब वे नियम से करते थे तो कोई पालनीय बात तो अवश्य रही होगी इसलिए उनके बाद इस परंपरा को उनका उत्तराधिकारी होने के नाते मैं निभा रहा हूँ .
राम प्रसाद जी का हँस हँस कर पेट फटने को आ गया और रोहित विस्मित हो उन्हें देखता रहा. उन्होंने पूछा बेटा जानते हो तुम्हारे पिता वह क्या करते थे ? रोहित ने अनभिज्ञता जताई तो रामप्रसाद जी मुस्कुराते हुए बोले की वह वाहन खड़ा होकर उस ताक में रखे शीशे में देखते हुए तीली से अपने दांतों में फंसे अन्नकण साफ़ करता था !!!! और तुम बिना तथ्य जाने सिर्फ लकीर पीटते हुए मूर्खों की तरह खड़े हो जाते हो परंपरा निभाने के नाम पर .
क्या यह कथा सटीक नहीं बैठती रीती-रिवाजों के प्रारंभ होने उनके उपयोगी अनुपयोगी लगने के कारण तथा उनको असंगत रूप से सिर्फ ढोते रहना आदि कैसे पनपते है . सार यही की परंपरा रिवाज कोई भी अपने उद्गम में गलत नहीं है, सिर्फ उनकी प्रमाणिकता और उपयोगिता जाने बिना उन्हें ढोना गलत है, उतना ही उनकी वैज्ञानिकता जाने बिने उन्हें सिरे से ही नकारना भी गलत है .
बिल्कुल शर्मा जी! मैने पहले ही कहा है -"जो परम्परा औचित्यहीन, अतार्किक और अनुपयोगी है वही रूढ़ है। जब तक उसमें औचित्य, तर्क और उपयोगिता के तत्व बने रहेंगे वह रूढ़ नहीं बल्कि संस्कृति कहलायेगी। जो निरंतर संस्कारित हो वही तो संस्कृति है।"
हटाएंपरम्परायें मनुष्य समाज की आवश्यकतायें हैं,किंत तभी तक जब तक वे देश-काल-वातावरण के अनुसार निरंतर परिमार्जित होती रहें। परिवर्तन के समय उनका औचित्य स्पष्ट होना चाहिये। भारतीय परिधान योरोप के मौसम के अनुरूप न होने पर वहाँ की परम्परा के अनुसार बदले जा सकते हैं, किंतु सुहाग के प्रतीकों को नकारने से पहले ठोस चिंतन की आवश्यकता है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि हिन्दू इतर लोग अपने धर्मोद्गम वाले मूल देश की परम्पराओं का पालन भारत में भी करते हैं (विपरीत मौसम के बाद भी) ...परिधान के मामले में तो पूरी तरह। यदि हम उन्हें विकसित मानते हैं तो हमें इस पूरे परिदृश्य पर पुनः चिंतन करना होगा। कुछ धर्म विशेष के लोग भारत के उष्ण वातावरण में भी जो परिधान धारण करते हैं वे अनुपयुक्त होते हुये भी उनके लिये अनुकरणीय इसलिये हैं क्योंकि वे अपनी पृथक पहचान अपनी परम्पराओं के पालन में पाते हैं। बिछिया और चूड़ी से यदि योरोप के वातावरण में परेशानी है तो उन्हें त्यागा जा सकता है पर मांग में सिन्दूर को त्यगने के पीछे कोई ठोस तर्क समझ में नहीं आ रहा। यदि सिन्दूर के कारण कैंसर की सम्भावना मानी जाय तो यह परम्परा का दोष नहीं अपितु उपलब्धता के अभाव में अपनाये गये विकल्प का दोष है। दूसरी बात, यदि ऐसा होता तो हमारी आधी आबादी के लोगों को त्वचा के कैंसर होने का इतिहास कहीं तो मिलता। रासायनिक सिन्दूर का विकल्प तो बाज़ारवाद और मान्यताओं के साथ व्यापारिक खिलवाड़ करने का दुष्परिणाम है। किंतु ऐसे दुष्परिणामों के कारण तो दैनिक जीवन की अन्य बहुत सारी चीज़ों का बहिष्कार पहले होना चाहिये।
सिन्दूर के बारे में ये चर्चा पढने लायक है
हटाएंhttp://www.defence.pk/forums/world-affairs/50799-indian-sindoor-poisonous-us-scientists.html
http://akhtarkhanakela.blogspot.in/2012/06/blog-post_2006.html
जवाब देंहटाएंmaene yahaan ek kament diyaa haen
ki laekhak ne apne dharm kae vishay mae kuchh nahin kehaa haen
kyaa jahaan islaam dharm hotaa haen wahaan aurto ko baechaa kharida nahin jaataa haen
sab sae aagrh haen is link par jarur jaa kar apni baat keh aayae
अब क्या इसे विषयांतर नहीं कहा जाएगा ?
हटाएं@ "kyaa jahaan islaam dharm hotaa haen wahaan aurto ko baechaa kharida nahin jaataa haen"
हटाएंमैने अवलोकन कर लिया है रचना जी। स्त्री को उपभोग की वस्तु समझना और उसे धार्मिक चोले में आवेष्टित कर अपने कुकृत्य को स्वीकार्य बनाने के प्रयास पूरे विश्व में होते रहे हैं। अकेला जी के लेख में देवदासी प्रथा के बारे में लिखा गया है जो मृतसर्प को पीटने जैसा है क्योंकि भारत में देवदासी की प्रथा समाप्त हो चुकी है।
तथापि बेड़िया जनजाति में लड़कियों को उनके स्वजनों द्वारा ही बेचने की परम्परा आज भी चल रही है। यद्यपि बेड़ियों में भी अब शिक्षा के प्रति रुझान देखा जा रहा है किंतु वह नगण्य है। जहाँ तक मुस्लिम देशों में लड़कियों की ख़रीद-फरोख़्त की बात है तो मेरी जानकारी के अनुसार कुछ मुस्लिम देशों में "निकाह-अल-हमात" की परम्परा है जिसमें लड़कियों को बिना निकाह किये केवल अनुबन्ध के आधार पर आधा घंटे से लेकर कुछ दिनों/कुछ सप्ताहों/ कुछ महीनों या कुछ वर्षों तक गिफ़्ट देने वाले मुस्लिम पुरुष के साथ रहना पड़ता है। यद्यपि हमातनामा की कार्यवाही किसी काज़ी की उपस्थिति में होती है पर यह स्त्री शोषण का महज़ एक छलभरा तरीका भर है जिसे धर्म् की आड़ में स्वीकार्य बना दिया गया है। फ़िलहाल हमें दूसरे देशों के बारे में नहीं, अपने देश में चल रही कुप्रथाओं के बारे में ही चिंतन करना है
साधारण पाठक गौरव जी, कौशलेन्द्र जी -
जवाब देंहटाएं१. मैं और रचना यहाँ गहनों / या सिन्दूर / या किसी अन्य "सुहाग चिन्ह" की उपयोगिता / निरुपयोगिता पर नहीं, फायदे / नुक्सान पर नहीं, बल्कि उसके "सुहागन" "कुंवारी" और "विधवा"होने से जोड़े जाने का विरोध कर रहे हैं | यदि ये चीज़ें फायदेमंद हैं - तो सबके लिए , सिर्फ "सुहागिन" के लिए ही नहीं | और हर व्यक्ति को अपना फायदा नुकसान खुद निश्चित करने का अधिकार है |
२. इस लेख का नाम है "बाध्यता : एक विमर्श" हम दोनों उस बाध्यता का विरोध कर रहे हैं | आप सब पुरुष हैं - हम स्त्री हैं - और यह "बाध्यता" आपके लेख के ही अनुसार "स्त्रियों" पर है, पुरुषों पर नहीं |
३. संविधान कहता है कि जेंडर के अनुसार कोई भेदभाव करना गलत है - और मैं इस बात के साथ हूँ | और यह लेख इस भेदभाव को ही बढ़ावा दे रहा है |
४. साधारण पाठक जी ने कहा कि लेखक ने प्रश्नों के उत्तर देने का पूरा "प्रयास" किया है | ऐसे प्रयास वे लोग भी करते हैं जो बालविवाह को सही या विधवा के आजीवन पति के नाम पर सफ़ेद सदी लपेटे रहने का पक्ष कहते हैं | "प्रयास" करने से उत्तर या बात सही होना सिद्ध नहीं होता | यदि हज़ार लोग भी कोई बात कह दें - तो भी गलत सही नहीं होता |
५. बाध्यता / गुलामी हंमेशा गलत है - और गलत रहेगी | जब एक मनुष्य (या पूरे स्त्री समाज) के निजी पहनावे तक को दूसरे मनुष्य निर्धारित करने का प्रयास करते हैं, तो यह परिष्कृत रूप में गुलामी ही है, चाहे आप लोग इसे "संस्कृति" का नाम देते रहने के "प्रयास" करें |
आभार |
ह्म्म्म अभी आपका कमेन्ट पढ़ कर मुझे एहसास हो रहा है की ये लेख और ये चर्चा इस ग्रुप ब्लॉग की जगह व्यक्तिगत ब्लॉग पर हो तो ज्यादा बेहतर रहेगा |
जवाब देंहटाएंकृपया ये न सोचें की मैं बचने की कोशिश कर रहा हूँ , ना तो ये प्रश्न / विरोध ही नया है और ना ही ऐसा है की मुझे इसका सही उत्तर (स्वीकार किया गया) पता ना हो|
मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ ये जानने के लिए ये लिंक देखें :
http://bharatbhartivaibhavam.blogspot.in/2010/09/blog-post.html
गम्भीर चिन्तन को समेटे हुए इस वार्ता के लिये आप लोगों का आभार
जवाब देंहटाएंकिन्तु मुझे यहाँ कुछ कहना अवश्य है,
कौन कहता है कि समाज किसी पर किसी प्रतीक विशेष को लाद रहा है, और यदि लाद रहा है तो वह स्त्री पुरुष दोनों पर बराबर है, यदि स्त्री के लिये सिन्दूर लगाना आवश्यक है तो पुरुष को भी चन्दन लगाना आवश्यक है, पर आजकल हमने ऐसे पचासों स्त्रियों और पुरुषेां को देखा है जो सिन्दूर व चन्दन का प्रयोग सर्वथा नहीं करते हैं,
द्विजाति पुरुषों के लिये क्रमश: 8, 12 व 14 वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत धारण करना अनिवार्य है, किन्तु शायद ही आपने किसी को इन उम्रों में यज्ञोपवीत पहनते देखा हो, बल्कि अब यज्ञोपवीत धारण करना ही नहीं चाहते लोग, ठीक उसी प्रकार महिलाओं में विवाह के पश्चात् घूँघट निकालना नितान्त अनिवार्य था, खासकर अपने ज्येष्ठों के सम्मुख, पर मुझे नहीं लगता कि युवा पीढी में कोई भी औरत अब ऐसा करती है, कुछ करते भी होंगे पर अधिकतम तो नहीं ही करते हैं ।
फिर ऐसे भ्रामक तथ्यों की कोई आवश्यकता लगती है मुझे ऐसा नहीं लगता, आधुनिक युग अर्थप्रधान है, यहाँ धन के लिये पति अपना अमर प्रेम व पत्नी अपने प्राणपरमेश्वर को भी बेंच लेते हैं, फिर प्रतीक चिह्नों की बात ही क्या, ये तो मात्र प्राचीन भारतीय परम्पराओं के प्रतिनिधि हैं, आज जब भारत ही पाश्चात्य मानसिकता का गुलाम हो बैठा है तो बेहतर है ये प्रतीक अपनी स्थिति को समझते हुए रामराज्य आने की प्रतीक्षा करें ।
ब्लॉग से जुड़े लेखकों और पाठकों से निवेदन है की ब्लॉग का उद्देश्य भारत-भारती का वैभव पुनर्स्थापित करने वाले तथ्यों का प्रसार करना है, इसलिये आलेख या टिप्पणियों में कोई वाक्य लिखने से पहले देखें कि कहीं वह विभाजनकारी वा वेदनाकारक तो नहीं।
जवाब देंहटाएंमुझे अभी मेल से ज्ञात हुआ की हमारी एक अज्ञात पाठक जिन्होंने कमेन्ट आदि से अपनी उपस्थिति कभी दर्ज नहीं करवाई परन्तु भारत-भारती के लेखों को उत्साह से पढ़ती रहीं है, उन्हें यहाँ प्रकाशित एक कमेन्ट से महत्ती वेदना पहुंची है ।
मैं यहाँ ब्लॉग प्रबंधक के रूप में यह स्पष्ट करना चाहूँगा की विवाह द्वारा हम जिसके साथ जिंदगी बिताने के मधुरतम स्वप्न संजोते हैं, उनमें से किसी एक के अचानक चले जाने पर दूसरे साथी को जो दुःख होता है उसका निस्तार नहीं है । पत्नी की मृत्यु होने पर पति अपने बच्चों के पालन के नाम पर अथवा किसी अन्य कारण से दूसरा विवाह करते है या अविवाहित रहने पर भी अपनी वेश-भूषा में कोई परिवर्तन नहीं लातें है, तो यह वर्जना सिर्फ नारी के लिए ही क्यों ? जबकि वर्तमान परिवेश में जहाँ स्त्री को विशेषकर अपने जीवन साथी से बिछड़ने पर बच्चों को पलने के लिए नौकरी आदि करनी पड़ती है, अपनी बच्चों में उत्साह का प्रवाह बनाये रखना होता है वहाँ उससे आशा करना की वह अपने दैनिक बहरी जीवन में अवसरानुकूल वेश ना पहने अथवा दूसरा विवाह ना करें ।
हमारे मनीषियों ने जो भी नियम इत्यादि बनाएं है, उसका मूल आधार सदाचरण रहा है। सारे के सारे नियम-उपनियम(रिवाज) सदाचरण के पोषण के लिए है।
विधुर पुरुष को पुनर्विवाह की आज्ञा और विधवा स्त्री को निषेध का कारण विधि निर्माताओं की यही सदाचारी दृष्ठी थी, जिसके पीछे का तत्कालीन सदाचारी पवित्र जीवन था।
आयुर्वेद में शरीर की सात धातुएं "रस (बाइल ऐंड प्लाज्मा), रक्त, मांस, मेद (फ़ैट), अस्थि, मज्जा (बोन मैरो) और शुक्र (सीमेन)" मानी गयी है । पुरुष में वीर्य सप्तम एवं अंतिम धातु है। इसकी दो गति है एक अधोगामी दूसरी उर्ध्वगामी। ज्ञानी पुरुष अपनी साधना और अभ्यास से इसे उर्ध्वगामी बनाकर संयम द्वारा साधतें है, लेकिन ऐसे संयमी कुछ ही लोग होते है अन्यथा तो सभी निम्नगामी धातु के वेग को थमने में असमर्थ ही है। स्पष्ट है की वीर्य का वेग अपने काम रुपी प्रचंड साथी का हाथ थामे रहता है। जिसकी परिणिति विधिसम्मत ना होने पर व्यभिचार का ही प्रचार होता है, इसलिए इस व्यभिचार रुपी अनाचरण का निरोध करने के लिए महापुरषों ने पुरुष के पुनर्विवाह की सम्मति दी है .
जबकि स्त्री का रज उसकी द्वितीय धातु रक्त के बाद की स्थिति है, जिसके बाद उसे अन्य धातुओं के रूप में परिणीत होना शेष रहता है। अतः आत्मसंयम की संभावना पुरुष की अपेक्षा अत्यधिक रहती है. अतः विधवा स्त्री के शरीर धर्म से -जो की तत्कालीन समाज के आचरण से प्रभावित मन-बुद्धि द्वारा निर्देशित थे - व्यभिचार की संभावना नगण्य थी. इसलिए विधवा स्त्री के पुनर्विवाह को मनीषियों ने संगत नहीं माना।
लेकिन आज के समाज में जहाँ सारी की सारी ही वर्जनाएं टूट रही है, सदाचरण का नाम ही शेष नहीं है, वहाँ सदाचरण की पुनर्स्थापना के अन्य उपाय किये बिना केवल एक स्त्री को वर्तमान सामाजिक परिवेश में जहाँ उसे अकेले ही अपने तथा अपनी संतान का पालन करना पड़ता हो वहाँ पुनर्विवाह से रोकना अथवा उसके वेश/परिधान को ही उसकी अनैतिकता मानना मेरे अनुसार अनुचित हैं ।
मैं पुनः आग्रह करना चाहुंगा की संस्कृति संस्कार सम्बन्धी चर्चा में सर्वपक्षी वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये । अनवरत सांस्कृतिक यात्रा में कईं विकृतियों और अशुद्धताओं का आना अवश्यंभावी है। यदि गौरवमय शुद्ध संस्कृति लक्ष्य है तो विकृतियों और अशुद्धताओं का मण्डन नहीं खण्डन करना होगा । चूँकि पुरुष एवं प्रकृति ही समस्त जगत व्यवहार के मूल हैं इसलिए संस्कार आदि के क्षरण-पोषण के लिए समान उत्तरदायी हैं। अतः किसी एक पक्ष को एकपक्षीय जिम्मेदार ठहराए जाने वाले दुराग्रहों से बचा जाना चाहिये। जब हम सांस्कृतिक गौरव के पुनर्स्थापन की बात करते है तो सांस्कृतिक पुनर्विकास समग्रता से अर्थात् धनी-निर्धन, बाल-युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष में भेदभाव अथवा पक्षपात रहित होना चाहिए।
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is kament ko padh kar vishvaas hogyaa ki raasta aur manjil dur nahin haen
हटाएंbahut bahut shubhkamana aur badhaaii is kament kae liyae maere yogya koi bhi kaam ho nishankoch keh dae agar laskhya
अर्थात् धनी-निर्धन, बाल-युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष में भेदभाव अथवा पक्षपात रहित होना चाहिए।
yae haen
nisendhae itna sundar kament manaen ab tak nahin padhaa haen hindi blog par kahii bhi jahaan maenae stri purush samantaa par baat ki haen / behas ki haen
@ ".......उन्हें यहाँ प्रकाशित एक कमेन्ट से महत्ती वेदना पहुंची है ।"
हटाएंअज्ञात पाठिका जी को जिसकी भी टिप्पणी से वेदना पहुँची हो, हम क्षमाप्रार्थी हैं....किसी की भावनाओं को आहत करना हमारा उद्देश्य नहीं है। मैने पहले भी कहा है कि हम परम्पराओं के निरंतर परिमार्जन को ही संस्कृति मानते हैं। परिवर्तन अपेक्षित हैं, किंतु हमारे आर्ष आदर्श को पैरामीटर बनाये रखने से भटकने की सम्भावनायें न्यून हो जाती हैं। प्राचीन भारतीय परम्परा में तो स्त्री को स्वयम्वर का भी अधिकार था। आज बालविवाह को कोई भी सहमति नहीं देगा, वहीं विधवा विवाह को सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी है। भारतीयता जहाँ आहत न हो ऐसे परिवर्तन सदा स्वीकार्य होंगे। ये हमारी प्राचीन सामाजिक-पारिवारिक परम्परायें ही थीं जिनके कारण परिवार और समाज में भावनात्मक संतुलन बना रहता था। आज नयी रोशनी में ऐसे भावनात्मक संतुलन का अभाव सा प्रतीत होता है। भारतीय विवाह परम्परा एक ऐसी पवित्र संस्था है जो भावनाओं से जितनी गहरी जुड़ी है विश्व की अन्य कोई विवाह परम्परा इतनी गहराई से जुड़ नहीं सकी। ऐसी परम्परा के प्रतीक आज प्रश्नों के घेरे में हैं। भारत के विवाह और यहाँ की परम्परायें आज भी पश्चिम को आकर्षित करती हैं...कुछ तो ऐसा होगा आकर्षण ...हमें यह समझने की आवश्यकता है। जहां तक श्रृंगार की बात है तो यह पुरुष की दासता का प्रतीक नहीं कलात्मक अभिरुचि का प्रतीक है, पहले तो पुरुष भी श्रृंगार करते थे। आज फिर से कान में हीर की लौंग पहनने का प्रचलन प्रारम्भ हो गया है। तो यह रुचि की बात है।
अमित जी! मेरा भी एक विनम्र निवेदन है कि चर्चा या विमर्ष स्वस्थ्य भाव से होना चाहिये। इसे व्यक्तिगत आक्षेप या आरोप-प्रत्यारोप का माध्यम नहीं बनाया जाना चाहिये..अन्यथा विमर्ष के तत्व छिन्न-भिन्न होने लगते हैं।
@ जब हम सांस्कृतिक गौरव के पुनर्स्थापन की बात करते है तो सांस्कृतिक पुनर्विकास समग्रता से अर्थात् धनी-निर्धन, बाल-युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष में भेदभाव अथवा पक्षपात रहित होना चाहिए।
हटाएंसाधुवाद अमित जी | इस वाक्य से आपने इस ब्लॉग का उद्देश्य पुनर्स्थापित कर दिया | आभार आपका |
@ किंतु यदि केवल विरोध करने के कारण ही विरोध हो तो ऐसे पूर्वाग्रहीविरोध की उपेक्षा करना ही शास्त्रसम्मत है।
जवाब देंहटाएं@ इसे विद्वानों ने निकृष्ट कहा है।
@ इनका सिद्धांत था -"न शुणुतव्यं न मंतव्यं वक्तव्यं तु पुनः पुनः "
@ आपके तो सभी प्रश्नों के यथा सम्भव उत्तर देने के प्रयास किये गये हैं न! :)
@ रचना जी माने या ना माने मैं तो मानता हूँ की आपने सभी प्रश्नों के यथा सम्भव उत्तर देने का प्रयास किया है
@ व्यक्तिगत आक्षेप या आरोप-प्रत्यारोप का माध्यम ....
....
रचना जी, गौरव जी, यहाँ बात एक ही टिप्पणीकार के प्रश्नों की की जा रही थी, उपेक्षा भी उस एक ही व्यक्ति के सवालों की की जा रही थी, और पूर्वाग्रही भी उसे ही कहा जा रहा था | "आदरणीय रचना जी !सादर नमस्कार !" की पूर्व उद्घोषणा के साथ , "आपके" प्रश्नों के उत्तर देने के प्रयास तो किये ही गए | तो आप तो आदरणीय हैं, वह "निकृष्ट पूर्वाग्रही" आप तो नहीं ही हैं :) | "निकृष्ट" वह व्यक्ति हैं जिसे और भी कहीं निकृष्ट कहा जा रहा है और यहाँ वही बात प्रतिध्वनित हो रही है :) | और हाँ - मुझे इन्ही ज्ञानी वचनों की अपेक्षा थी | ऐसा नहीं है की मैं समझ नहीं रही थी की क्या किया जा रहा है - और इसी अपमान के प्रयास के चलते धर्मचिन्तन पर रावण स्तुति के बाद से मैं इस ब्लॉग पर चुप ही रही, परन्तु यह विषय ऐसा था की मैं चुप नहीं रह सकती थी, और न व्यक्तिगत अपशब्दों के डर से भविष्य में रहूंगी | यह व्यक्तिगत व्यंग्य और अपमान सत्य को बहुत समय तक नहीं दबा सकते - चाहे साथी "team" लेखक इसका विरोध करें, या न करें |
विधवा स्त्री से "जबरदस्ती" ये चिन्ह उतरवाने का विरोध करते हुए भी यह "अपेक्षा" तो की ही जा रही है अब भी की वह "स्वेच्छा से" इनको त्याग दे | वहीँ "सुहागिन" से यह अपेक्षा की जा रही है कि वह "स्वेच्छा से" इन्हें धारण करे | यानी कि यही इंगित है कि यह, ऐसे करना ही उत्तम है, अब वह इतनी "निकृष्ट" हो कि वह ऐसा न करना चाहे - तो यह उसकी मर्जी |
अमित जी - क्षमा चाहती हूँ - आपके इतने स्वागत योग्य उदघोषण के बाद भी यह टिपण्णी कर रही हूँ, किन्तु क्या करूँ - यह "निकृष्ट" आदि शब्द बड़े खलते हैं एक ऐसे ब्लॉग के लेखक द्वारा एक टिप्पणीकर्ता के लिए , जो ब्लॉग अपने आप को भारत के वैभव से जुड़ा कहता हो |
@सांस्कृतिक पुनर्विकास समग्रता से अर्थात् धनी-निर्धन, बाल-युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष में भेदभाव अथवा पक्षपात रहित होना चाहिए।
जवाब देंहटाएं- सहमत हूँ। निष्पक्ष दृष्टिकोण ही वरेण्य है लेकिन विषय के सभी पक्षों की अधिकाधिक जानकारी और समझ के बिना निष्पक्ष हो सकना भी कठिन है। इसी विषय पर मेरे व्यक्तिगत विचार "चुटकी भर सिन्दूर" पर हैं। टिप्पणी बॉक्स की शब्दसीमा के कारण यहाँ नहीं लिख सका।
@@ विवाह से पहले विद्यार्थी जीवन में मेरे पास बहुत से छोटे बच्चे इसलिये आते थे कि मेरे पास उनके लिये एकाधिक गतिविधियाँ थीं करवाने को और मैं उनसे मिलने को लालायित भी रहता था. मतलब कि बच्चों का मुझसे लगाव और मेरा उनके प्रति आकर्षण परस्पर का व्यवहार बना. समय बीता, बच्चों को व्यस्त रहने के कई विकल्प आ गये... मेरी बच्चों में रुचि भी घट गयी... हुआ ये कि परस्पर का व्यवहार समाप्त हो गया.
जवाब देंहटाएंनयी पीढ़ी के बच्चों में यही स्वभाव (इच्छा पर छोड़ देने वाली रुचि) भरपूर मात्रा में देखता हूँ. मैंने भी सोच लिया है कि अब बच्चे मन आये सो करें...मुझे क्या पड़ी है... मैं कोई ठेकेदार हूँ 'बाल-व्यवहार सुरक्षित रखने का'.
सभी कुछ सब लोगों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए.... सही अर्थों में यही तो स्वतंत्रता है... अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए... साथ ही अपनी इच्छा अनुरूप बदलाव लाने की भी स्वतंत्रता होनी ही चाहिए. जो भी इसका विरोध करे वो 'कुएँ का मेढक'.... अब 'कुएँ के मेढकों' को भी कुआँ छोड़कर 'नलकूपों' की शरण लेनी चाहिए...कुएँ समाप्त जो हो चुके हैं.
साथ ही... संस्कृति के मेढकों को अपनी टरटर से 'खुले नलकूपों' की चेतावनी देते रहना चाहिए.... नलकूप' खुले रह जाने से गिरने का भय बना रहता है.
@ एक समय बाद... 'फौजी' की चाहना होती है कि समाज के हर व्यक्ति को अनुशासन में रहने के लिये कदम-से-कदम मिलाकर चलना चाहिए. कोई नहीं चले तो उसका 'कोर्ट मार्शल' हो ... मतलब... समाज से बहिष्कृत.
जवाब देंहटाएंएक समय बाद.... 'विरक्त जीवन बिताने वाले' संन्यासी की चाहना होती है कि समाज के हर व्यक्ति में 'कुछ त्याग' (मोह आदि का) जरूर होना चाहिए.
एक समय बाद.... 'ब्रह्माकुमारियों के उपदेशों से पकी (प्रभावित) सत्संगी महिलाओं की चाहना होती है कि 'भाई-बहिन' संबंध ही एकमात्र संबंध है.. अन्य सब मिथ्या... इसलिये परिवार का मोह न्यूनतर करते चलो.
मेरा मानना है कि स्त्री-पुरुषों के लिये जितने भी शृंगार रूप में प्रतीक रहे हैं ... उन सभी के उद्देश्यों में बदलाव आने के कारण से वे रुचि-अरुचि का कारण हो गये हैं अन्यथा वे सर्व-स्वीकृत बने रहते.
जवाब देंहटाएंपुरुषों का प्रतीकात्मक शृंगार रहा है : शिखा, तिलक, कुंडल, माला आदि.
[कुछ 'आभूषण' मात्र सौन्दर्य बढ़ाने के लिये नहीं थे... वे एक प्रकार से उस समय के 'एटीएम्/डेबिट' कार्ड थे.]
प्रतीक धारण करने के कई उद्देश्य हो सकते हैं :
१] स्वास्थ्य के लिये ...
२] सौन्दर्य के लिये ...
३] समृद्धि दर्शाने के लिये ....
४] वर्तमान स्थिति दर्शाने के लिये....
मेरे पिछले कार्यालय में कुछ साथियों का विवाह हुआ... उनमें एक कन्या ऎसी थी जिसे हर किसी को बताने की जरूरत नहीं पड़ी कि उसका विवाह हो गया है क्योंकि उसका शृंगार ही बता रहा था. लेकिन एक दूसरी नये खयालातों की युवती को हर किसी को बताना पड़ा कि उसका विवाह अमुक तारीख को हो गया है.. और अब हाथ मिलाने वाले थोड़ा शालीन तरीके से हाथ मिलायें.
कौन क्या पहनता है इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब खुद पतलून पहनने वाले साड़ी की, टाई लगाने वाले दाढी की, या ब्रेसलैट पहनने या न पहनने वाले बिछुए का आग्रह करते हैं तो अजीब ज़रूर लगता है।
जवाब देंहटाएं@@ युगों से परिधानों की दौड़ हो रही है ....
— धोती पहनने वालों ने अपनी अगली पीढी को पाजामा पहनाकर दौडाया... और पाजामा पहनने वालों ने अपनी आगामी पीढ़ी को पतलून (पेंट) पहनाकर दौड़ाया लेकिन अब वो पतलून उतरने का नाम ही नहीं ले रही है.
— साड़ी पहने वालों ने अपनी अगली पीढ़ी को सूट-सलवार पहनाकर दौड़ाया.... और सूट-सलवार पहनने वालों ने अपनी अगली पीढ़ी को मनचाहे सुविधापरक वस्त्रों में दौड़ाया... लेकिन अब अगली पीढी का मन उन वस्त्रों से भी भर गया है... शायद वे अब आउट ऑफ़ डेट माने जाने लगे हैं. बदलाव की दौड़ का मतलब ये नहीं कि पुनः वहीं ना आया जाये.
....... स्टेडियम में होने वाली लम्बी दौड़ के धावक-धाविकायें वापस भी लौटते हैं.
[इस पोस्ट पर इस प्रतिक्रिया को देने का तात्पर्य ये है कि जहाँ प्रतिक्रिया (बात) 'व्यक्तिगत रुचि' धर्म के नाते दबा दी जाये, वहाँ प्रतिक्रिया लेने का कोई लाभ नहीं.]
* लेने का = देने का
हटाएंसबको अमित भाई की बात पसंद आयी और समझ में भी आयी| फिर भी कमेन्ट जारी रहे .. सोच रहा हूँ ऐसा क्यों हुआ होगा ? क्या चर्चा अमित भाई के कमेन्ट पर चर्चा का बंद हो जाना इस चर्चा का सुखद समापन नहीं होता ?
जवाब देंहटाएंरूस में समाजवाद की एक विचारधारा बही ... जिसे 'आदर्शवादी' कहा गया... जिसे सभी ने सराहा...
हटाएंसभी को समान अवसर मिलने चाहिए... बिना भेदभाव के.
सभी को कार्य के समान घंटों तक श्रम करना होगा.... सभी को समान शिक्षा, सभी को प्रत्येक कार्य का समान वेतन.... सभी परिवारों के बच्चों की समान परवरिश ...
किसी के पास व्यक्तिगत संपदा कुछ नहीं होगी... सभी कुछ राष्ट्र का होगा. मूलभूत आवश्कताओं के अलावा आप कोई संग्रह नहीं कर सकेंगे.... न जाने कितनी ही कल्पनाएँ थीं समानता की.... फिर भी वह व्यवहारिक नहीं था.
असमान योग्यताओं की, असमान समझ वाली, असमान रुचियों के लोगों की आवश्यकतायें भिन्न-भिन्न होती हैं.... इसी कारण मतभेद बना रहता है.
गौरव जी,
— बहुत कुछ मन को अच्छा लगता है फिर भी हम उसे अपने शब्दों में कहकर संतुष्ट होते हैं.
— 'अंतिम सत्य' पाने के बाद भी यात्रा का अंत नहीं हो जाता. व्यक्ति के जीवन उपरान्त भी पुनर्जन्म माध्यम से यात्रा आरम्भ ही रहती है.
— जब सभा में 'अमृत' बँटता है... तब सभी पीने वाले अपने-अपने पात्रों में उसे लेते हैं. चुप्पी-साध लेने से सभा समाप्त समझी जाती है.
.... चर्चा यदि 'विमर्श' पर बल देती है तो उसे चलते रहना चाहिए... और यदि 'विषवमन' वाली हो जाती है तो उसका अंत मान लेना चाहिए..... मुझे नहीं लगता कि ब्लॉग-लेखक परिवार के सदस्य संकीर्ण सोच वाले हैं.... विषय पर 'विमर्श' केवल इसलिये हो रहा है कि वे परस्पर सुलझना चाहते हैं. इस सभा के सभी सभासद भिन्न-भिन्न क्षमताओं वाले हैं... सभी आदरणीय हैं. यहाँ किसी विधेयक को पास-फेल कराने जैसी स्थिति नहीं है. किसी की दृष्टि में मैं पुराने खयालात का हो सकता हूँ और वह मेरी दृष्टि में नये ज़माने में रचा-बसा. किसी की दृष्टि में 'कौशलेन्द्र जी' पूर्वाग्रही हो सकते हैं..... तो मेरी दृष्टि में 'सुलझी सोच के'.
जहाँ तक 'अमित जी' की सारगर्भित टिप्पणी का प्रश्न है.... वे 'भारत भारती वैभवं' के उद्देश्यों के भटकने की चिंता से ग्रस्त हैं... प्रबंधक के नाते उनकी चिंता उचित भी है.
भारतीय समाज में हर वर्ग के लिये न जाने कितनी ही बाध्यताएं मौजूद हैं... लेकिन यहाँ विचारों को न रखने जैसी कोई बाध्यता नहीं है.
'बाध्यता' वहाँ हो जहाँ कुछ अनुचित हो रहा हो, विचार-विमर्श में दूसरे का पक्ष अपने अनुसार न पाकर कष्ट कैसा.... चर्चा तभी तो गति पकड़ती है जब कुछ विरोध का आभास होता है.
मित्र,
आपकी इस चर्चा पर अभी भी दृष्टि है... मतलब ये कि आप सभा में उपस्थित हैं.... और सभा विग्रहित नहीं हुई. :)
आदरणीय प्रतुल जी,
जवाब देंहटाएंआपने ठीक कहा| इस चर्चा पर मेरी दृष्टि है , मैं उपस्थित हूँ लेकिन मौन धारण किये हुए हूँ (कुछ समय पहले तक ये धैर्य मुझमें नहीं था)
संभव है ...इस विषय से सम्बंधित काफी नयी जानकारियाँ मेरे पास हों ..... लेकिन फिर भी मौन क्यों ? कोई कारण तो होगा ही |
आप गुरुजन हैं आप ही पहचानिए की मैं तो ब्लॉग प्रबंधक भी नहीं हूँ मुझे किस चिंता ने रोका हुआ है ?