मंगलवार, 23 नवंबर 2010

क्या यह वही इंसान है जो अपने को देवताओं व पीरों का वंशज बताता है और अहिंसा की रट लगाता है. नहीं, यह वह इंसान नहीं हो सकता. ऎसी सामूहिक हिंसा तो वे जंगली पशु भी नहीं करते जिनका भोजन सिर्फ दूसरे पशु ही हैं


एक बकरे की आत्मकथा
{गोपीनाथ अग्रवाल जी द्वारा लिखित 'शाकाहार या मांसाहार फैसला आप स्वयं करें' से साभार}

अन्य सभी जीवों की भाँति अनेक योनियों में भ्रमण करने के बाद जब मैं बकरी माँ के गर्भ में आया और पाँच महीने गर्भ की त्रास सहने के बाद जब मेरा जन्म हुआ तो एक बार मुझे यह दुनिया बहुत सुन्दर व प्यारी लगी. मनुष्य व बकरी माँ का दूध पीकर मैं शीघ्र बड़ा होने लगा. मेरी माँ का मालिक भी मुझे प्यार करता व अपने खेत पर ले जाता जहाँ मैं अपने आप हरी पत्तियाँ खाता. मेरे यहाँ गोबर कर देने पर व खेत में लोट-पोट कर खेलने पर भी मालिक कभी नाराज़ नहीं होता. जब मैंने अपनी माँ से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे गोबर से खाद बन जाती है व खेत में लेटने से धरती अधिक उपजाऊ बनती है जो मालिक के खेत की उपज बढाती है, इसलिये मालिक कुछ बुरा नहीं मानता. 

धीरे-धीरे समय बीतता गया और मैं अपने साथियों के साथ मस्त जीवन बिताता रहा. जब मैं करीब डेढ़ वर्ष का हुआ तो एक दिन यहाँ आदमी मेरे मालिक के पास आया, उसने मालिक से कुछ बात की और मालिक ने मुझे व मेरे अन्य चालीस-पचास साथियों को एक साथ खड़ा कर दिया. कुछ देर बाद वहाँ एक बड़ी-सी गाड़ी आयी और हम सबको उसमें जबरदस्ती ठूँस दिया गया. मैं माँ के पास जाना चाहता था किन्तु असमर्थ था जब मैंने माँ माँ पुकारा तो एक भद्दे से आदमी ने मुझे लकड़ी से मारा. लाचार हम गाड़ी में दुबक गये. गाड़ी में पिचपिच के कारण मेरा दिमाग चकराने लगा. मेरे अन्य साथियों का भी बुरा हाल था. सबके चेहरों की मायूसी व पीलापन देखकर एक ओर कुछ भय व आशंका हो रही थी तो दूसरी ओर कुछ भय व आशंका हो रही थी तो दूसरी ओर गाड़ी के झटकों से आपस में रगड़ते हुए हमारे बदन की खरोंचे कसक रही थीं. दिन बीता रात आयी, फिर दिन बीता रात आयी कुन्तु गाड़ी सफ़र करती ही जा रही थी. रास्ते में गाड़ी चलाने वाले के आदमी ने हमें दो बार कुछ खाना दिया लेकिन उससे तो हमारा आधा पेट भी नहीं भरा. जैसे-तैसे अगले दिन हमारी गाड़ी एक बड़े शहर में आकर रुकी. तभी गाड़ी के पास एक लम्बी दाढी मूँछ वाला आदमी आया उसने गाड़ी वाले को कुछ दिया और गाड़ी वाले ने हम सबको उसके हवाले कर दिया. नया मालिक हम सबको डंडे मारता हुआ एक मकान के पास लाया हमें धूप में खड़ा कर दिया. भूख-प्यास से व्याकुल, ऊपर से धूप व मालिक का डंडा, इससे अपने प्राण निकले जा रहे थे. 
काफी देर बाद हमें मकान के अन्दर ठेला गया वहाँ एक आदमी कान में कुछ नली-सी लगाकर हमारे जैसे अन्य साथियों को बारी-बारी देख रहा सा लगता था. तब हम लोगों की बारी आयी तो हमारे मालिक ने उसे कुछ दिया और उसने हमें बगैर देखे ही अन्दर भेज दिया. यह बात मैं कुछ समझ नहीं सका किन्तु मेरे एक बड़े साथी ने बताया कि यह डॉक्टर था जो हम सबकी जाँच करता था क्योंकि अब हम सबकी मौत नज़दीक है. यह सुनते ही मैं तो अधमरा हो गया, भय से भूख-प्यास सब गायब हो गई और जब एक बार हमें खाना व पानी दिया गया तो वह भी मुझसे खाया नहीं गया. पानी के लिये मुँह बढाया किन्तु भय से पानी हलक के लिये मुँह बढ़ाया किन्तु भय से पानी हलक में जा ही नहीं पाया. तभी एक दूसरे कमरे का दरवाजा खुला और वहाँ का दृश्य देखकर तो मेरी रूह कांपने लगी. आँखों के आगे अन्धेरा-सा छा गया. उस कमरे से भरे साथियों के रोने व चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं जिसे सुनकर मुझे भी रोना आ गया. मैंने चिल्लाने की कोशिश की किन्तु पता नहीं मेरी आवाज़ निकल ही नहीं पायी. बाहर भागने के लिये मैंने पीछे मुड़ने का प्रयत्न किया किन्तु तभी एक आदमी ने मेरी दोनों टांगों को पीछे से पकड़ कर उसी कमरे में धकेल दिया जहाँ एक डरावना राक्षस जैसा व्यक्ति हाथ में बड़ा-सा चाकू लिये मेरे साथियों को मौत के घात उतार रहा था.  अचानक एक विचार मेंरे दिमाग में कौंधा कि क्या यह वही इंसान है जो अपने को देवताओं व पीरों का वंशज बताता है और अहिंसा की रट लगाता है. नहीं, यह वह इंसान नहीं हो सकता. ऎसी सामूहिक हिंसा तो वे जंगली पशु भी नहीं करते जिनका भोजन सिर्फ दूसरे पशु ही हैं.............. मैं सोच ही रहा था कि एक आदमी मेरा कान खींचकर उस भयानक आदमी की ओर ले जाने लगा. मैंने अपना पूरा जोर लगाकर छोटना चाहा किन्तु कोई फल नहीं निकला, क्षोभ से मेरा खून खुलने लगा, मुँह से झाग आया, मल-मूत्र निकलने लगा किन्तु किसी को भी मेरी हालत पर तरस नहीं आया. उलटे दो और आदमियों ने आकर मुझे पकड़ लिया, एक ने मेरी टांगें पकड़ी व दूसरा मेरी गर्दन पर छुरी चलाने लगा. मेरी गर्दन से खून का फौव्वारा छूट गया और रोम-रोम पीड़ा से भर गया. अब मेरे पास कोई उपाय नहीं था और मैं यही चाह रहा था कि इस भाँति पीड़ा देने की बजाये मुझे ये फ़ौरन ही मार दें तो अच्छा हो; किन्तु नहीं, मुझे अभी और कष्ट उठाने थे और तडपना था क्योंकि सिर्फ आधी गर्दन कटी होने से मेरी मौत में विलम्ब हो रहा था. इस बेबसी व यातना का एक-एक क्षण मुझे एक वर्ष से भी बड़ा लग रहा था. कभी अपने भाग्य को कोसता हुआ व कभी भगवान को याद करता हुआ मैं बेसब्री से अपनी मौत की प्रतीक्षा कर रहा था. 



[जारी ............  शेष भाग अगली बारी] 
.......... यह कथा इतनी ही और शेष है. 

20 टिप्‍पणियां:

  1. करूण क्रंदन!! वेदना व्यथित कर गई। सत-चित्रण
    निरिह अबोल की अन्तरव्यथा!
    बेज़ुबान को आपने ज़ुबान देकर, पत्थरों के बीच किसी कोमल पत्थर के पिघलने का मार्ग प्रसस्त किया है।

    (कांपती अंगुलियों से ऐसा ही व्यक्त हो पाया है, जिनकी पैंट गीली नहिं होती वे कम से कम पलकें ही गीली कर दे)

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  2. बहुत सुन्‍दर

    अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी

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  3. हा हा हा हा

    सुज्ञ जी आपने तो जबरदस्‍त कह दिया है
    जिसकी पैंट गीली नहो वो पलकें तो गीली कर ही लें ।

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  4. एक विचार मेंरे दिमाग में कौंधा कि क्या यह वही इंसान है जो अपने को देवताओं व पीरों का वंशज बताता है और अहिंसा की रट लगाता है. नहीं, यह वह इंसान नहीं हो सकता. ऎसी सामूहिक हिंसा तो वे जंगली पशु भी नहीं करते जिनका भोजन सिर्फ दूसरे पशु ही हैं.............. सुज्ञ जी आपने तो जबरदस्‍त कह दिया है
    जिसकी पैंट गीली नहो वो पलकें तो गीली कर ही लें ।
    bahut sunder aur marmik bakara katha aglee kadi ka intizaar----

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  5. ये तो बहुत ही करुण कहानी है......अफ़सोस कि आज तक उस बकरे की पुकार सुनने वाला कोई नहीं है.काश..सभी को इन्साफ को मिले.

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  6. प्रतुल जी बकरे की आत्मकथा ऊपरवाले से प्यार करने वालों के लिए है -
    क्योंकि जिससे हम प्यार करते हैं उसकी सृजित हर वस्तु हमें प्यारी होती है - कम से कम चटोरेपन के लिए तो हम उसकी सृजित वस्तु को नष्ट नहीं कर सकते ---

    उनको क्या जिनमें संवेदना ही शून्य हो चुकी है -
    उनको क्या जो उस परमात्मा को एक व्यक्तित्व समझते हैं, जो मूर्ख मनुष्यों की भांति इच्छा पूरी होने प्रसन्न होता हैं और इच्छा पूरी न होने पर खिन्न होता है, जो ईर्ष्यालु है !

    खैर चिंता छोडिये !!! पूरी पोस्ट जरूर पढ़े -इस बालक पर दया करें ---
    http://meradeshmeradharm.blogspot.com/2010/11/blog-post_24.html

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  7. बहुत अच्छी कहानी है...
    अगली पोस्ट का इंतज़ार...
    ( बकरा-"हरी घास खाने की मुझे ये सजा मिलती है,के लोग मुझे काटकर खाते है....
    तो इंसान तू अपना सोच...तेरा क्या हाल होगा....तू तो मुझे काटकर खाता है|"
    धन्यवाद|

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  8. ..

    सरहद हिंद पर मरने का जज्बा पाल, कर दे दुश्मनों को नेस्तनाबूद औ' सिफ़र.
    पर ना ज़िंदा जनावर को मार, .... मुर्दा खा न बन्दे, ..... कर परिंदे.... बेफिकर.
    ____________________________________________________
    मैं अभी-अभी एक रक्तबीज असुर से मिलकर आया हूँ. उसे समय-समय पर अमित जी ने अपने तर्कों से HaLaaL किया है लेकिन वह गूगल-शंकर की 'ब्लॉग बनाओ' नामक फ्री सेवा का भरपूर लाभ ले रहा है. वह जैसे ही एक ब्लॉग पर निष्प्रभावी होता है वैसे ही दूसरी शक्ल से दूसरे ब्लॉग पर आ जाता है. कई बार 'कसाई' और 'बेनामी' रूप से भी पृष्ठाघात करता है. वैसे तो असुर जाति के खून में ही फ्री चीज़ों और खैरात में मिली चीज़ों को इस्तेमाल करना रहा है. यदि वे चीज़ें मिलना बंद हुई कि उन्होंने शोर मचाना शुरू किया — 'भेदभाव बरता जा रहा है.'
    कुर्बानी की ताल ठोंकने वाले देश पर कुर्बान होने की बात पर पीछे हटते नज़र जाते हैं. मैं फिर से आग्रह करता हूँ — सदियों पुराने विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों? इस देश की देवी कुर्बानी माँगती है अपनी सुरक्षा के लिये, इस राष्ट्र का 'अगाओ' कुर्बानी माँगता है शत्रु के लगातार हमलों को मुँहतोड़ जवाब देने के लिये.
    लेकिन मेरा फट्टू दिल एक फिल्मी गीत गा रहा है : कुर्बानी कुर्बानी कुर्बानी. अल्लाह को प्यारी है कुर्बानी.
    क्या अल्लाह की कुर्बानी जैसी प्यारी-प्यारी इच्छाएँ होती हैं. क्या वह रक्तपात से ही प्रसन्न होता है? या फिर उसका नाम लेकर उसे बदनाम किया जा रहा है?
    मुझे कुर्बानी का गाना देश पर बलिदान के सन्दर्भ में तो ठीक लगता है. लेकिन जीव-वध के सन्दर्भ में कतई नहीं.

    ..

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  9. .

    बूझो तो जानें :
    _________
    [१] एक पियक्कड़ ने 'शराब विरोधी अभियान' की सराहना की. क्यों ?
    [२] एक भ्रष्टाचारी ने 'भ्रष्टाचार उन्मूलन' की बात की. क्यों ?
    [३] एक हत्यारे ने 'मानव धर्म सम्मेलन' में इंसानियत पर जमकर भाषण दिया. क्यों ?
    [४] मदरसे में पढ़े हुए एक तालिबान [student] ने मांसाहार की वकालत की. क्यों ?
    ___________________________________________
    सही जवाब देने वाले को अगली पोस्ट लगाने का हक़ दिया जाएगा.

    .

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  10. प्रतुलजी बकरा कब तक अपनी खैर मनाता, जब तक पेट के दरिन्दे मौजूद हैं तब तक तो यही कहानी बार बार दोहराई जाएगी :-(

    @ मैं अभी-अभी एक रक्तबीज असुर से मिलकर आया हूँ.
    बधाई हो की जिन्दा लौट आये................शायद अभी मानव रक्त-मांस का स्वाद जीभ पर नहीं पडा होगा :)

    पर हैं कौन ये ???????? गोपनीयता का मसला ना हो तो हमें भी तो बताएं ज़रा

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  11. हम भी जानना चाहते हैं यह रक्त बीज़ से कहाँ सामना हुआ?

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  12. ..

    अमित जी
    मैंने रक्तबीज का संकेत अपनी टिप्पणी में किया हुआ है. ज़रा ध्यान दें.

    .

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  13. शायद हलाल के उच्चारण साम्य नाम की और तो इशारा नहीं कर रहे है आप !!!!!!!!!

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  14. .

    सुज्ञ जी,
    अपने टिप्पणीकर्ताओं की पंगत में ही वह आ बैठा है. 'बूझो तो जानें' वाला प्रेरक भी वही है. ज़रा पहचानो उसे.

    .

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  15. अमित जी यह आधा उत्तर है, आप आधा जीत गये। बाकि पहेली के अनुसार वो ऐसा करता क्यों है?

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  16. ज़ालिम कौन Father Manu या आज के So called intellectuals ?
    एक अनुपम रचना जिसके सामने हरेक विरोधी पस्त है और सारे श्रद्धालु मस्त हैं ।
    देखें हिंदी कलम का एक अद्भुत चमत्कार
    ahsaskiparten.blogspot.com
    पर आज ही , अभी ,तुरंत ।
    महर्षि मनु की महानता और पवित्रता को सिद्ध करने वाला कोई तथ्य अगर आपके पास है तो कृप्या उसे कमेँट बॉक्स में add करना न भूलें ।
    जगत के सभी सदाचारियों की जय !
    धर्म की जय !!

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  17. ऐसा लगता है बकरे के सर मैं इंसान का दिमाग रख दिया गया और नतीजे मैं यह कहानी सामने आयी. कहानी यकीनन बहुत दर्दनाक है. लेकिन इस कहानी लिखने वाले ने सभी बकरों की कहानी नहीं लिखी. ऐसा क्यों यह सवाल किसी के भी दिमाग मैं उठना आवश्यक है ?
    कुछ दिन पहले मैंने एक लेख़ पढ़ा था जिसमें कहा जा रहा था की बकरा स्वाद के लिए खाया जाए तो कोई आपत्ति नहीं है. और वो लोग जो यहाँ पूर्णतया शाकाहारी बन रहे हैं, वहाँ चुप्पी साधे, बैठे ऐसा बता रहे थे की जैसे उनको कुछ दिखता ही नहीं.
    जानवर बिचारा सच मैं बेज़बान है, यह ज़बान वाला इंसान , अब बकरे को भी अपनी जबान देके, उसका इस्तेमाल करके अपना उल्लू सीधा करने लगा है.

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  18. .

    हे हिम्मत न हारने वाले अहिंसा के पुजारी ~
    आपकी हिम्मत का ज़लवा देखकर अच्छे-अच्छे जानवरों की रूहें काँप जाती हैं.
    इस वैचारिक द्वंद्व में बहस का मुद्दा यह नहीं है कि महापुरुषों से हुई गलतियों से उनके अनुगामी भी प्रेरणा लें.
    महात्मा गांधी ने अपनी युवावस्था में मदिरा और मांस का सेवन किया और झूठ भी बोला था लेकिन बाद में इन अवगुणों को उन्होंने त्याग भी दिया.
    आर्य समाज के स्वामी श्रद्धानंद भी घोर नास्तिक थे, सभी बुराइयों का घर थे. कालान्तर में उन्होंने समस्त बुराइयों को त्याग भी दिया.
    ............. इसका मतलब यह कतई नहीं कि महापुरुष होने के लिये अनुचित कार्य करना पहली शर्त है.

    .

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