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छह ऋतुओं में वसंत को ऋतुराज कहा जाता है. इस ऋतु के आगमन से पूर्व ही प्रकृति की भदेसता पुष्पादि के सौन्दर्य से ढाँपित होने लगती है. इस कारण ही वसंत को प्रकृति ने विशिष्टता प्रदान की है. जलवायु सम होकर प्राणीमात्र के आनंद का स्रोत हो जाती है. ऐसे में आलस्य नहीं रहता, शरीर में हर क्षण स्फूर्ति अनुभव होने लगती है. मन-तुरग पर वल्गा कसना सहज हो जाता है. ब्रह्मचारी विद्यार्थी अपने व्यक्तित्व में कलात्मक विकास लाते हैं.
विद्या ग्रहण करना साधना है, तपस्या है, एक दुष्कर कर्म है. प्राप्ति में मस्तिष्क को अत्यधिक श्रम करना पड़ता है. वसंत ऋतु उस मार्ग को सरल बनाती है, सात्विक मनोरंजन के लिये अवसर भी देती है. पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ [नेत्र, श्रोत, नासिका, जिह्वा और त्वचा] वसंत में ही उल्लिसित होती हैं, विकास पाती हैं. व्याधियाँ विश्राम करती हैं.
नेत्र प्रकृति के सौन्दर्य का दर्शन कर वंचक मोहकता से मुक्त होते हैं; श्रोत भौंरों की गुंजार में अनहद नाद-सा सुख पाकर दैनिक क्लेशों के रव से छुटकारा पाते हैं, नासिका पुष्पादि से सुगन्धित हुए वातावरण में, व्यक्ति की बाहरी और भीतरी मलजन्य दुर्गन्ध से कष्ट पाने के कारण अनचाहा प्राणायाम करना छोडती है; जिह्वा षट रसों का कृत्रिम स्वाद लेते-लेते खाद्य का वास्तविक स्वाद लेने को प्रेरित होती है और त्वचा लोलुप-स्पर्श का क्षणिक-सुख भूलकर अपने रंध्रों से निराकार [ब्रह्म-तेज, वायु, प्रकाश आदि] को पीने की क्षमता पाती है. साथ ही मन प्रकृति के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर, नीरवता में एकाग्र होकर, प्राण-वायु से सही संतुलन पाकर, 'मूलरस' [शांतरस] में विलीन होते शेष अष्ट-रसों की धाराओं की परिणति में गोता खाकर व रोम-रोम से आनन्द को पीकर वसुधा पर मनुष्य-जन्म को धन्य विचारने लगता है.
काल की दृष्टि से वसंत-पंचमी का वसंत के १० दिवस पूर्व ही आगमन हो जाता है. कवि कल्पना करता है कि विशिष्ट अतिथियों के लिये जिस प्रकार आगमन से पूर्व ही साज-सजावट की जाती है, तोरणद्वार आदि सजाये जाते हैं, सुगंधी का छिडकाव किया जाता है, बालक-बालिकायें सुन्दर वेश-भूषा में स्वागत-गीत गाते हैं. भेंट आदि से सम्मान किया जाता है. उसी प्रकार प्रकृति भी ऋतुराज वसंत के आगमन से पूर्व ही सजावट की तैयारियाँ किया करती है और वसंत-पंचमी को वसंत को सम्मानित किया जाता है. अस्सी प्रहरों के उपरान्त विधिवत रूप से ऋतुराज वसंत [माघ मास की पूर्णिमा के पश्चात] कृष्ण-पक्षीय फाल्गुन की प्रतिपदा से अपनी द्वैमासीय सत्ता को संभालता है.
वसंत-पंचमी पर सरस्वती-पूजन और विष्णु-पूजन भी किया जाता है. वैज्ञानिक सोच पूजन की मनाही नहीं करती, किन्तु आडम्बरों को वास्तविकता भुलाने वाली शैली मानती है. वैज्ञानिक सोच में विधि की प्राथमिकता है. पूजन-विधि ऎसी न हो जिससे हम कुछ वस्तुओं तक सिमटते चले जाएँ. अन्नादि खाद्य-पदार्थों को जड़-प्रतिमाओं से चिपकाकर उन्हें भोग लगाने का, वास्तविक-सा लगने वाला, नाटक न करें. सरसता विकसाने वाली कलाओं को प्रोत्साहन देकर या उसमें निष्णात होकर सरस्वती का पूजन करें. उन्नतिपरक सभी तरह की विद्या को और विकारमोचक कलाओं का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार करके उसका संवर्धन करें, यही विष्णु-पूजन है.
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डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
जवाब देंहटाएं“वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।
bahut hi sargarbhit evam jankaripoorn lekh ke liye aabhar..
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