जब आधुनिक विज्ञान का उदभाव सामान्यत: राबर्ट बोयल (1626-91 ई०) से माना जाता है, तो यह जानकार आपको निसंदेह आश्चर्य होगा कि ईसा से हजारों वर्ष पूर्व वेदों में रसायन विज्ञान के निश्चित संकेत मिलते हैं ! आयु बल और दीर्घायु के लिए शंख कृशनम, हिरण्य, स्वर्ण, रजत, अयास, सीस, त्रपु लौह आदि के भस्म का प्रयोग (देखें- अथर्ववेद 4.10.1, 19.26.2) होता था, अनेक औषधियों, वनस्पतियों, भोजों एवं मणियों को भी तन-मन के अनेक रोगों के निवारण में उपयोगी समझा जाता था ! अथर्ववेद में अपामार्ग, सहसपर्णी, अभीवार्त्मापी, दर्भमणी आदि के द्वारा अनेक रोगों की चिकित्सा होती थी ! आज का विज्ञान अथर्ववेद का कर्जदार है !
ऋग्वेद (1.191) में, विषघनोपनिषद में सर्वविषहरी विद्या है, तो अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में न केवल विविध प्रकार के सर्पों का उल्लेख है, अपितु उनके विष को दूर करने के उपाय भी हैं! सीसे का उपयोग अनेक रोगों के निवारण के लिए होता था :-
इसी प्रकार छान्दोग्य उपनिषद से पता चलता है कि सीसे के समान ही लौह, दारो, त्रपु, सुवर्ण, और लवन जैसे पदार्थों का उपयोग भी अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं में होता था :-
इस प्रकार स्पष्ट है कि निश्चित रूप से वेदों में विज्ञान के दर्शन होते है !
परन्तु हमारा दुर्भाग्य यहीं है कि , हमारे पूर्वज विदेशियों के छल - प्रपंच के आगे हार गए और हमारा प्राचीन ज्ञान - विज्ञान अतीत के अँधेरे में खो गया ! यह स्थिति आज भी थोड़ी बहुत ही ठीक हुई है, शेष सब पूर्वत ही है !!!!
मेरी दृष्टि में अब तक का सबसे श्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग -
जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, रसायन विज्ञान का विकास भी उसी के साथ हुआ। प्रकृति में पाई जानेवाली अगाध संपत्ति और उसका उपभोग कैसे किया जाए, इस आधार पर इसकी नींव पड़ी। घर, भोजन, वस्त्र, निरोग रहने की आकांक्षा, और आगे चलकर विलास की सामग्री तैयार करने की प्रवृत्ति ने इस शास्त्र के व्यावहारिक रूप को प्रश्रय दिया। अथर्वांगिरस ने भारत काष्ठ और शिलाओं के मंथन से अग्नि उत्पन्न की। अग्नि सभ्यता और संस्कृति की केंद्र बनी। ग्रीक निवासियों की कल्पना में प्रोमीथियस पहली बार अग्नि को देवताओं से छीनकर मानव के उपयोग के लिए धरती पर लाया।
मनुष्य ने देखा कि बहुत से पशु प्रकृति में प्राप्त बहुत सी जड़ी-बुटियाँ खाकर अपना रोग दूर कर लेते हैं। मनुष्य ने भी अपने चारों ओर उगनेवाली वनस्पतियों की मीमांसा की और उनसे अपने रोगों का निवारण करने की पद्धति का विकास किया। महर्षि भारद्वाज के नेतृत्व में हिमालय की तजहटी में वनस्पतियों के गुणधर्म जानने के लिए आज से २,५०० वर्ष पूर्व एक महान् सम्मलेन हुआ, जिसका विवरण चरक संहिता में मिलता है। पिप्पली, पुनर्नवा, अपामार्ग आदि वनस्पतियों का उल्लेख अथर्ववेद में है। यजुर्वेद में स्वर्ण, ताम्र, लोह, त्रपु या वंग तथा सीस धातुओं की ओर संकेत है। इन धातुओं के कारण धातुकर्म विद्या का विकास लगभग सभी देशो में हुआ। धीरे-धीरे इस देश में बाहर से यशद और पारद भी आया। पारद भारत में बाहर से आया और माक्षिक तथा अभ्रक इस देश में थे ही, जिससे धीरे-धीरे रसशास्त्र का विकास हुआ। सुश्रुत के समय शल्यकर्म का विकास हुआ, और व्रणों के उपचार के निमित्त क्षारों का उपयोग प्रारंभ हुआ। लवणों का उपयोग चरक काल से भी पुराना है। सुश्रुत में कॉस्टिक, या तीक्ष्ण क्षारों, को सुधाशर्करा (चूने के पत्थर) के योग से तैयार करने का उल्लेख है। इससे पुराना उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। मयर तुत्थ (तुतिया), कसीस, लोहकिट्ट, सौवर्चल (शोरा), टंकण (सुहागा), रसक, दरद, शिलासीत, गैरिक, और बाद को गंधक, के प्रयेग से रसशास्त्र में एक नए युग को जन्म दिया। नागार्जुन पारद-गंधक-युग का सबसे महान् रसवेत्ता है। रसरत्नाकर और रसार्णव ग्रंथ उसकी परंपरा के मुख्य ग्रंथ हैं। इस समय अनेक प्रकार की मूषाएँ, अनेक प्रकार के पातन यंत्र, स्वेदनी यंत्र, बालुकायंत्र, कोष्ठी यंत्र और पारद के अनेक संस्कारों का उपयोग प्रारंभ हो गया था। धातुओं के भस्म और उनके सत्य प्राप्त करने की अनेक विधियाँ निकाली गई और रोगोपचार में इनका प्रयोग हुआ। समस्त भोज्य सामग्री का भी बात, कफ, पित्त निवारण की दृष्टि से परीक्षण हुआ। आसव, कांजी, अम्ल, अवलेह, आदि ने रसशास्त्र में योग दिया।
भारत में वैशेषिक दर्शन के आचार्य कणाद ने द्रव्य के गुणधर्मों की मीमांसा की। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचतत्वों ने विचारधारा को इतना प्रभावित किया कि आजतक ये लोकप्रिय हैं। पंचज्ञानेद्रियों के पाँच विषय थे : गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द, और इनके क्रमश: सबंध रखनेवाले ये पाँच तत्व "पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाश' ("क्षिति, जल, पावक गगन समीरा", तुलसीदास के शब्दों में) थे। कणाद भारतीय परमाणुवाद के जन्मदाता है। द्रव्य परमाणुओं से मिलकर बना है। प्रत्येक द्रव्य के परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। ये परमाणु गोल और अविभाज्य हैं। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक और फिर इनसे त्रयणुक आदि बनते हैं। पाक, या अग्नि के योग से पविर्तन हाते हैं। रासायनिक पविर्तन किस क्रम में होते हैं, इसकी विस्तृत मीमांसा कणाद दर्शन के परवर्ती आचार्यों ने की।
भारत में और भारत से बाहर लगभग सभी प्राचीन देशों, चीन, अरब, यूनान में भी, मनुष्य की दो चिर आकांक्षाएँ थीं :
* (१) किस प्रकार रोग, जरा और मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाए अर्थात् संजीवनी की खोज या अमरुल की प्राप्ति हो और
* (२) लोहे के समान अधम धातुओं को कैसे स्वर्ण के समान मूल्यावान् धातुओं में परिणत किया जाए।
ऋग्वेद (1.191) में, विषघनोपनिषद में सर्वविषहरी विद्या है, तो अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में न केवल विविध प्रकार के सर्पों का उल्लेख है, अपितु उनके विष को दूर करने के उपाय भी हैं! सीसे का उपयोग अनेक रोगों के निवारण के लिए होता था :-
सिसायाध्याह वरूप: सीसायागिरूपा वती !
सीसं म इन्द्र: प्रयच्छत तदअन्ग्यातु चात्नाम !! (अथर्ववेद 1.16,2)
सीसं म इन्द्र: प्रयच्छत तदअन्ग्यातु चात्नाम !! (अथर्ववेद 1.16,2)
इसी प्रकार छान्दोग्य उपनिषद से पता चलता है कि सीसे के समान ही लौह, दारो, त्रपु, सुवर्ण, और लवन जैसे पदार्थों का उपयोग भी अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं में होता था :-
तद्यथा लवणएन सुवर्ण
सं दध्यात सुवर्णएन रजतं
राज्तें त्रपु त्रपुण सीसं
सीसें लोहं लोहेन दारूम
दारुम चर्मण !!!
सं दध्यात सुवर्णएन रजतं
राज्तें त्रपु त्रपुण सीसं
सीसें लोहं लोहेन दारूम
दारुम चर्मण !!!
इस प्रकार स्पष्ट है कि निश्चित रूप से वेदों में विज्ञान के दर्शन होते है !
परन्तु हमारा दुर्भाग्य यहीं है कि , हमारे पूर्वज विदेशियों के छल - प्रपंच के आगे हार गए और हमारा प्राचीन ज्ञान - विज्ञान अतीत के अँधेरे में खो गया ! यह स्थिति आज भी थोड़ी बहुत ही ठीक हुई है, शेष सब पूर्वत ही है !!!!
मेरी दृष्टि में अब तक का सबसे श्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग -
भारत का वैज्ञानिक चिन्तन
____________________________________________________________________________________जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, रसायन विज्ञान का विकास भी उसी के साथ हुआ। प्रकृति में पाई जानेवाली अगाध संपत्ति और उसका उपभोग कैसे किया जाए, इस आधार पर इसकी नींव पड़ी। घर, भोजन, वस्त्र, निरोग रहने की आकांक्षा, और आगे चलकर विलास की सामग्री तैयार करने की प्रवृत्ति ने इस शास्त्र के व्यावहारिक रूप को प्रश्रय दिया। अथर्वांगिरस ने भारत काष्ठ और शिलाओं के मंथन से अग्नि उत्पन्न की। अग्नि सभ्यता और संस्कृति की केंद्र बनी। ग्रीक निवासियों की कल्पना में प्रोमीथियस पहली बार अग्नि को देवताओं से छीनकर मानव के उपयोग के लिए धरती पर लाया।
मनुष्य ने देखा कि बहुत से पशु प्रकृति में प्राप्त बहुत सी जड़ी-बुटियाँ खाकर अपना रोग दूर कर लेते हैं। मनुष्य ने भी अपने चारों ओर उगनेवाली वनस्पतियों की मीमांसा की और उनसे अपने रोगों का निवारण करने की पद्धति का विकास किया। महर्षि भारद्वाज के नेतृत्व में हिमालय की तजहटी में वनस्पतियों के गुणधर्म जानने के लिए आज से २,५०० वर्ष पूर्व एक महान् सम्मलेन हुआ, जिसका विवरण चरक संहिता में मिलता है। पिप्पली, पुनर्नवा, अपामार्ग आदि वनस्पतियों का उल्लेख अथर्ववेद में है। यजुर्वेद में स्वर्ण, ताम्र, लोह, त्रपु या वंग तथा सीस धातुओं की ओर संकेत है। इन धातुओं के कारण धातुकर्म विद्या का विकास लगभग सभी देशो में हुआ। धीरे-धीरे इस देश में बाहर से यशद और पारद भी आया। पारद भारत में बाहर से आया और माक्षिक तथा अभ्रक इस देश में थे ही, जिससे धीरे-धीरे रसशास्त्र का विकास हुआ। सुश्रुत के समय शल्यकर्म का विकास हुआ, और व्रणों के उपचार के निमित्त क्षारों का उपयोग प्रारंभ हुआ। लवणों का उपयोग चरक काल से भी पुराना है। सुश्रुत में कॉस्टिक, या तीक्ष्ण क्षारों, को सुधाशर्करा (चूने के पत्थर) के योग से तैयार करने का उल्लेख है। इससे पुराना उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। मयर तुत्थ (तुतिया), कसीस, लोहकिट्ट, सौवर्चल (शोरा), टंकण (सुहागा), रसक, दरद, शिलासीत, गैरिक, और बाद को गंधक, के प्रयेग से रसशास्त्र में एक नए युग को जन्म दिया। नागार्जुन पारद-गंधक-युग का सबसे महान् रसवेत्ता है। रसरत्नाकर और रसार्णव ग्रंथ उसकी परंपरा के मुख्य ग्रंथ हैं। इस समय अनेक प्रकार की मूषाएँ, अनेक प्रकार के पातन यंत्र, स्वेदनी यंत्र, बालुकायंत्र, कोष्ठी यंत्र और पारद के अनेक संस्कारों का उपयोग प्रारंभ हो गया था। धातुओं के भस्म और उनके सत्य प्राप्त करने की अनेक विधियाँ निकाली गई और रोगोपचार में इनका प्रयोग हुआ। समस्त भोज्य सामग्री का भी बात, कफ, पित्त निवारण की दृष्टि से परीक्षण हुआ। आसव, कांजी, अम्ल, अवलेह, आदि ने रसशास्त्र में योग दिया।
भारत में वैशेषिक दर्शन के आचार्य कणाद ने द्रव्य के गुणधर्मों की मीमांसा की। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचतत्वों ने विचारधारा को इतना प्रभावित किया कि आजतक ये लोकप्रिय हैं। पंचज्ञानेद्रियों के पाँच विषय थे : गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द, और इनके क्रमश: सबंध रखनेवाले ये पाँच तत्व "पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाश' ("क्षिति, जल, पावक गगन समीरा", तुलसीदास के शब्दों में) थे। कणाद भारतीय परमाणुवाद के जन्मदाता है। द्रव्य परमाणुओं से मिलकर बना है। प्रत्येक द्रव्य के परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। ये परमाणु गोल और अविभाज्य हैं। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक और फिर इनसे त्रयणुक आदि बनते हैं। पाक, या अग्नि के योग से पविर्तन हाते हैं। रासायनिक पविर्तन किस क्रम में होते हैं, इसकी विस्तृत मीमांसा कणाद दर्शन के परवर्ती आचार्यों ने की।
भारत में और भारत से बाहर लगभग सभी प्राचीन देशों, चीन, अरब, यूनान में भी, मनुष्य की दो चिर आकांक्षाएँ थीं :
* (१) किस प्रकार रोग, जरा और मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाए अर्थात् संजीवनी की खोज या अमरुल की प्राप्ति हो और
* (२) लोहे के समान अधम धातुओं को कैसे स्वर्ण के समान मूल्यावान् धातुओं में परिणत किया जाए।
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जवाब देंहटाएंइस लेख को संग्रहित कर लिया है. उपयुक्त समय में पढूँगा. अभी मन जटिल श्रम करने की अवस्था में नहीं.
हल्की-फुल्की ज्ञान सामग्री तलाश रहा हूँ.
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very good. india is rich in scientific knowlege since acient time.but many of us dont know.we dont want to read VAID,But vaid is full of science.
जवाब देंहटाएंबहोत ही अभ्यास्पूर्ण लेख | दुनिया के सबसे प्रगत देश मे रहके भी , वहाँ की संस्कृति को शरण ना जाते हुए अपनी पवित्र भारतीय संस्कृति को अपने आप को जोड़ के रखा है , बहोत बधाइयाँ | दिवाली की बहोत-बहोत शुभकामनाएँ |
जवाब देंहटाएंन केवल रसायन एवम मानव चिकित्सा अपितु हस्ति-आयुर्वेद एवम वृक्षायुर्वेद जैसे विज्ञान् के सूत्र वैदिक ग्रंथों में मिलते हैं। जर्मनी के किसी पीटर के पास वृक्षायुर्वेद की हस्तलिखित पाण्डुलिपि उपलब्ध है।
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