भारतीय संस्कृति, जिसके विभिन्न स्वरूपों के साथ देश,काल आदि भौगोलिक एवं वैज्ञानिक चिन्तन जुडा हुआ है. जिसके प्रत्येक आचार-विचार के मूल में विज्ञान विराजमान रहा है.
भारतीय सदाचार शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए वैज्ञानिक उपयोगिता पर आधारित है. 'आचार प्रभवो धर्म:' अर्थात आचार से ही धर्म उत्पन्न होता है. 'आचार ग्राहयति इति आचार्य'--ऎसा कहकर निरूक्तकार यास्क नें स्पष्ट कर दिया है कि श्रेष्ठ तथा आचार्यों का कार्य आचार का पालन कराना है. मनुस्मृति भी यही कहती है कि 'आचारहीन न पुनन्ति वेदा'---अर्थात आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते. दरअसल भारतीय संस्कृति ओर उसके प्रत्येक आचार-विचार में वैज्ञानिक चिन्तन विद्यमान रहा है. लेकिन अब इसे युग का प्रभाव कहा जाए या कुछ ओर, आज का समाज विज्ञान की चकाचौंध से प्रभावित होकर प्राचीन आचार-विचार पर कुछ अधिक ही तर्क करने लगा है. इस विषय में आधुनिक शिक्षा एवं संस्कारों नें इन्सान के मन-मस्तिष्क में ओर अधिक भ्रम उत्पन किया है.
परन्तु बेशक धीरे-धीरे ही सही, जहाँ आज आधुनिक विज्ञान इसका वैज्ञानिक स्वरूप प्रतिपादित करने लगा है, वहीं आज का सभ्य समाज भी इसके महत्व को स्वीकार करता जा रहा है. किन्तु फिर भी इस देश की प्राचीन संस्कृति को लेकर सभ्य समाज में मन में कुछ ऎसे प्रश्न शेष रह जाते हैं, जिनका समाधान होना बहुत आवश्यक हो जाता है. यूँ तो समय-समय पर अनेक योग्य विद्वानों द्वारा इस विषय पर भरपूर प्रकाश डाला जाता रहा है. किन्तु इस सनातन संस्कृति की वैज्ञानिकता को समग्र रूप से समझने के इच्छुक जिज्ञासुजनों को इस विषय पर शास्त्रार्थ महारथी स्वामी माधवाचार्य द्वारा लिखित 'क्यों' शीर्षक ग्रन्थ को एक बार अवश्य देखना चाहिए. हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित यह ग्रन्थ आपके मन में उठने वाले प्रत्येक 'क्यों' का संतुष्टिपरक जवाब दे पाने में पूर्णरूपेण सक्षम है. न केवल जिज्ञासुजनों अपितु अनर्गल प्रलाप करने वाले कुतर्कियों को भी एकबार इसे अवश्य पढना चाहिए.
पुस्तक नाम:- 'क्यों' ( दो खंडों में)
लेखक:- शास्त्र महारथी पं. माधवाचार्य शास्त्री
प्रकाशक:- माधव विद्या भवन, दिल्ली
भाषा:- हिन्दी तथा अंग्रेजी
मूल्य:- 180/-(प्रत्येक खंड)
भारतीय सदाचार शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए वैज्ञानिक उपयोगिता पर आधारित है. 'आचार प्रभवो धर्म:' अर्थात आचार से ही धर्म उत्पन्न होता है. 'आचार ग्राहयति इति आचार्य'--ऎसा कहकर निरूक्तकार यास्क नें स्पष्ट कर दिया है कि श्रेष्ठ तथा आचार्यों का कार्य आचार का पालन कराना है. मनुस्मृति भी यही कहती है कि 'आचारहीन न पुनन्ति वेदा'---अर्थात आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते. दरअसल भारतीय संस्कृति ओर उसके प्रत्येक आचार-विचार में वैज्ञानिक चिन्तन विद्यमान रहा है. लेकिन अब इसे युग का प्रभाव कहा जाए या कुछ ओर, आज का समाज विज्ञान की चकाचौंध से प्रभावित होकर प्राचीन आचार-विचार पर कुछ अधिक ही तर्क करने लगा है. इस विषय में आधुनिक शिक्षा एवं संस्कारों नें इन्सान के मन-मस्तिष्क में ओर अधिक भ्रम उत्पन किया है.
परन्तु बेशक धीरे-धीरे ही सही, जहाँ आज आधुनिक विज्ञान इसका वैज्ञानिक स्वरूप प्रतिपादित करने लगा है, वहीं आज का सभ्य समाज भी इसके महत्व को स्वीकार करता जा रहा है. किन्तु फिर भी इस देश की प्राचीन संस्कृति को लेकर सभ्य समाज में मन में कुछ ऎसे प्रश्न शेष रह जाते हैं, जिनका समाधान होना बहुत आवश्यक हो जाता है. यूँ तो समय-समय पर अनेक योग्य विद्वानों द्वारा इस विषय पर भरपूर प्रकाश डाला जाता रहा है. किन्तु इस सनातन संस्कृति की वैज्ञानिकता को समग्र रूप से समझने के इच्छुक जिज्ञासुजनों को इस विषय पर शास्त्रार्थ महारथी स्वामी माधवाचार्य द्वारा लिखित 'क्यों' शीर्षक ग्रन्थ को एक बार अवश्य देखना चाहिए. हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित यह ग्रन्थ आपके मन में उठने वाले प्रत्येक 'क्यों' का संतुष्टिपरक जवाब दे पाने में पूर्णरूपेण सक्षम है. न केवल जिज्ञासुजनों अपितु अनर्गल प्रलाप करने वाले कुतर्कियों को भी एकबार इसे अवश्य पढना चाहिए.
पुस्तक नाम:- 'क्यों' ( दो खंडों में)
लेखक:- शास्त्र महारथी पं. माधवाचार्य शास्त्री
प्रकाशक:- माधव विद्या भवन, दिल्ली
भाषा:- हिन्दी तथा अंग्रेजी
मूल्य:- 180/-(प्रत्येक खंड)
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जवाब देंहटाएंमैं जानता हूँ ... मैं एक अच्छा पाठक हूँ.
लेकिन क्या मैं एक अच्छा क्रेता भी हूँ?
.... इस विषय में मुझे संशय है.
मितव्ययी होना अच्छा है.
लेकिन क्या धर्म पुस्तकों को क्रय करके पढ़ने का गुण मैं धारण कर पाउँगा?
.... इस विषय में मन पर कृपणता हावी रहती है.
आदरणीय वत्स जी,
कोई प्रतियोगिता रखी जाये.
फिर मैं पूरी जान लगा दूँगा इन द्वि-खंडीय धर्म पुस्तकों को पुरस्कार रूप में जीतने के लिये.
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"क्यों" कैसी कही?
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प्रतुल जी सही कहा आपने, आज के समय मे पुस्तकें पढना और वह भी खरीद कर एक बहुत ही बडी बात हो गई है। विशेष कर हिन्दी के पाठकगण तो बहुत ही मुश्किल से मिलेंगे जो घर मे २०-३० पुस्तकें रखें हो, पुस्तकें मिलेंगी सिर्फ बच्चों के पाठ्यक्रम की।
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