भारतीय संस्कृति सदा से ही अहिंसा की पक्षधर रही है । अन्याय, अनाचार, हिंसा, परपीडन आदि समस्त आसुरी प्रवृतियों का निषेध सभी आर्ष ग्रंथों में किया गया है । भारत की पुण्य भूमि में उत्पन्न हर परंपरा में अहिंसा को ही परम धर्म बताते हुये "अहिंसा परमोधर्म" का पावन उद्घोष किया गया है । और यह उद्घोषणा सृष्टि के आदि मे प्रकाशित वेदों में सर्वप्रथम सुनाई दी थी, वेदों में सभी जीवों को अभय प्रदान करते हुये घोषित किया गया "मा हिंस्यात सर्व भूतानि " और अहिंसा की यही धारा उपनिषदों, स्मृतियों, पुराणों, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी द्वारा संरक्षित होती हुयी आज तक अविरल बहती आ रही है ।
लेकिन निरामिष वृति का यह डिंडिम घोष कई तामस वृत्तियों के चित्त को उद्विग्न कर देता है जिससे वे अपनी प्रवृत्तियों के वशीभूत हो प्रचारित करना शुरू कर देते है कि यह पावन ध्वनि "अहिंसा अहिंसा अहिंसा" नहीं "अहो हिंसा - अहो हिंसा" है ।
भारतीय संस्कृति का ही जिनको ज्ञान नहीं और जो भारत में जन्म लेकर भी भारतीय संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये वे दुर्बुद्धिगण भारती-संस्कृत से अनभिज्ञ होते हुये भी संस्कृत में लिखित आर्ष ग्रन्थों के अर्थ का अनर्थ करने पर आमादा है । ये रक्त-पिपासु इस रक्त से ना केवल भारतीय ज्ञान-गंगा बल्कि इस गंगा के उद्गम गंगोत्री स्वरूप पावन वेदों को भी भ्रष्ट करने का प्रयास करतें है ।
जो साधारण संस्कृत नहीं जानते वे वेदों की क्लिष्ट संस्कृत के विद्वान बनते हुये अर्थ का अनर्थ करते है । शब्द तो काम धेनु है उनके अनेक लौकिक और पारलौकिक अर्थ निकलते है । अब किस शब्द की जहाँ संगति बैठती है, वही अर्थ ग्रहण किया जाये तो युक्तियुक्त होता है अन्यथा अनर्थकारी ।
ऐसे ही बहुत से शब्द वेदों मे प्राप्त होते है, जिनको संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति से हीन व्यक्ति अनर्गल अर्थ लेते हुये अर्थ का कुअर्थ करते हुये अहिंसा की गंगोत्री वेदों को हिंसक सिद्ध करने की भरसक कोशिश करते है । लेकिन ऐसे रक्त पिपासुओं के कुमत का खंडन सदा से होता आया है, और वर्तमान में भी अहिंसक भारतीयता के साधकों द्वारा सभी जगह इन नर पिशाचों को सार्थक उत्तर दिया जा रहा है । इसी महान कार्य में अपनी आहुती निरामिष द्वारा भी निरंतर अर्पित की जा रही है, जहाँ शाकाहार के प्रचार के साथ आर्ष ग्रन्थों की पवित्रता को उजागर करते हुये लेख प्रकाशित किए जाते हैं । जिनके पठन और मनन से कई मांसाहारी भाई-बहन मांसाहार त्याग चुके है, जो निरामिष परिवार की महान सफलता है ।
लेकिन फिर भी कई रक्त मांस लोलुप आसुरी वृतियों के स्वामी अपने जड़-विहीन आग्रहों से ग्रसित हो मांसाहार का पक्ष लेने के लिए बालू की भींत सरीखे तर्क-वितर्क करते फिरते है । इसी क्रम में निरामिष के एक लेख जिसमें यज्ञ के वैदिक शब्दों के संगत अर्थ बताते हुये इनके प्रचार का भंडाफोड़ किया गया था । वहाँ इसी दुराग्रह का परिचय देते हुये ऋग्वेद का यह मंत्र ----------
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान् पिबसि त्वमेषाम्.
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः .
-ऋग्वेद, 10, 28, 3
लिखते हुये इसमें प्रयुक्त "वृषभां" का अर्थ बैल करते हुये कुअर्थी कहते हैं की इसमें बैल पकाने की बात कही गयी है । जिसका उचित निराकरण करते हुये बताया गया की नहीं ये बैल नहीं है ; इसका अर्थ है ------
हे इंद्रदेव! आपके लिये जब यजमान जल्दी जल्दी पत्थर के टुकड़ों पर आनन्दप्रद सोमरस तैयार करते हैं तब आप उसे पीते हैं।
हे ऐश्वर्य-सम्पन्न इन्द्रदेव! जब यजमान हविष्य के अन्न से यज्ञ करते हुए शक्तिसम्पन्न हव्य को अग्नि में डालते हैं तब आप उसका सेवन करते हैं।
इसमे शक्तिसंपन्न हव्य को स्पष्ट करते हुये बताया गया की वह शक्तिसम्पन्न हव्य "वृषभां" - "बैल" नहीं बल्कि बलकारक "ऋषभक" (ऋषभ कंद) नामक औषधि है ।
लेकिन दुर्बुद्धियों को यहाँ भी संतुष्टि नहीं और अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हुये पूछते है की ऋषभ कंद का "मार्केट रेट" क्या चल रहा है आजकल ?????
अब दुर्भावना प्रेरित कुप्रश्नों के उत्तर उनको तो क्या दिये जाये, लेकिन भारतीय संस्कृति में आस्था व निरामिष के मत को पुष्ठ करने के लिए ऋषभ कंद -ऋषभक का थोड़ा सा प्राथमिक परिचय यहाँ दिया जा रहा है ----
आयुर्वेद में बल-पुष्टि कारक, काया कल्प करने की अद्भुत क्षमता रखने वाली आठ महान औषधियों का वर्णन किया गया है, इन्हे संयुक्त रूप से "अष्टवर्ग" के नाम से भी जाना जाता है ।
अष्ट वर्ग में सम्मिलित आठ पौधों के नाम इस प्रकार हैं-
१॰ ऋद्धि
२॰ वृद्धि
३॰ जीवक
४॰ ऋषभक
५॰ काकोली
६॰ क्षीरकाकोली
७॰ मेदा
८॰ महामेदा
ये सभी आर्किड फैमिली के पादप होते हैं, जिन्हें दुर्लभ प्रजातियों की श्रेणी में रखा जाता है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता व दमखम बढ़ाने में काम आने वाली ये औषधिया सिर्फ अत्यधिक ठंडे इलाकों में पैदा होती हैं। इनके पौधे वातावरण में बदलाव सहन नहीं कर सकते ।
वन अनुसंधान संस्थान [एफआरआइ] और वनस्पति विज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक अष्ट वर्ग औषधियां बहुत कम बची हैं। जीवक, ऋषभ व क्षीर काकोली औषधियां नाममात्र की बची हैं। अन्य औषध पौधे भी विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं।
जिस औषधि की यहाँ चर्चा कर रहे है वह ऋषभक नामक औषधी इस अष्ट वर्ग का महत्वपूर्ण घटक है । वैधकीय ग्रंथों में इसे - "बन्धुर , धीरा , दुर्धरा , गोपती .इंद्रक्सा , काकुदा , मातृका , विशानी , वृषा और वृषभा" के नाम से भी पुकारा जाता है । आधुनिक वनस्पति शास्त्र में इसे Microstylis muscifera Ridley के नाम से जाना जाता है ।
लेकिन निरामिष वृति का यह डिंडिम घोष कई तामस वृत्तियों के चित्त को उद्विग्न कर देता है जिससे वे अपनी प्रवृत्तियों के वशीभूत हो प्रचारित करना शुरू कर देते है कि यह पावन ध्वनि "अहिंसा अहिंसा अहिंसा" नहीं "अहो हिंसा - अहो हिंसा" है ।
भारतीय संस्कृति का ही जिनको ज्ञान नहीं और जो भारत में जन्म लेकर भी भारतीय संस्कृति को आत्मसात नहीं कर पाये वे दुर्बुद्धिगण भारती-संस्कृत से अनभिज्ञ होते हुये भी संस्कृत में लिखित आर्ष ग्रन्थों के अर्थ का अनर्थ करने पर आमादा है । ये रक्त-पिपासु इस रक्त से ना केवल भारतीय ज्ञान-गंगा बल्कि इस गंगा के उद्गम गंगोत्री स्वरूप पावन वेदों को भी भ्रष्ट करने का प्रयास करतें है ।
जो साधारण संस्कृत नहीं जानते वे वेदों की क्लिष्ट संस्कृत के विद्वान बनते हुये अर्थ का अनर्थ करते है । शब्द तो काम धेनु है उनके अनेक लौकिक और पारलौकिक अर्थ निकलते है । अब किस शब्द की जहाँ संगति बैठती है, वही अर्थ ग्रहण किया जाये तो युक्तियुक्त होता है अन्यथा अनर्थकारी ।
ऐसे ही बहुत से शब्द वेदों मे प्राप्त होते है, जिनको संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति से हीन व्यक्ति अनर्गल अर्थ लेते हुये अर्थ का कुअर्थ करते हुये अहिंसा की गंगोत्री वेदों को हिंसक सिद्ध करने की भरसक कोशिश करते है । लेकिन ऐसे रक्त पिपासुओं के कुमत का खंडन सदा से होता आया है, और वर्तमान में भी अहिंसक भारतीयता के साधकों द्वारा सभी जगह इन नर पिशाचों को सार्थक उत्तर दिया जा रहा है । इसी महान कार्य में अपनी आहुती निरामिष द्वारा भी निरंतर अर्पित की जा रही है, जहाँ शाकाहार के प्रचार के साथ आर्ष ग्रन्थों की पवित्रता को उजागर करते हुये लेख प्रकाशित किए जाते हैं । जिनके पठन और मनन से कई मांसाहारी भाई-बहन मांसाहार त्याग चुके है, जो निरामिष परिवार की महान सफलता है ।
लेकिन फिर भी कई रक्त मांस लोलुप आसुरी वृतियों के स्वामी अपने जड़-विहीन आग्रहों से ग्रसित हो मांसाहार का पक्ष लेने के लिए बालू की भींत सरीखे तर्क-वितर्क करते फिरते है । इसी क्रम में निरामिष के एक लेख जिसमें यज्ञ के वैदिक शब्दों के संगत अर्थ बताते हुये इनके प्रचार का भंडाफोड़ किया गया था । वहाँ इसी दुराग्रह का परिचय देते हुये ऋग्वेद का यह मंत्र ----------
अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमान् पिबसि त्वमेषाम्.
पचन्ति ते वृषभां अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन् हूयमानः .
-ऋग्वेद, 10, 28, 3
लिखते हुये इसमें प्रयुक्त "वृषभां" का अर्थ बैल करते हुये कुअर्थी कहते हैं की इसमें बैल पकाने की बात कही गयी है । जिसका उचित निराकरण करते हुये बताया गया की नहीं ये बैल नहीं है ; इसका अर्थ है ------
हे इंद्रदेव! आपके लिये जब यजमान जल्दी जल्दी पत्थर के टुकड़ों पर आनन्दप्रद सोमरस तैयार करते हैं तब आप उसे पीते हैं।
हे ऐश्वर्य-सम्पन्न इन्द्रदेव! जब यजमान हविष्य के अन्न से यज्ञ करते हुए शक्तिसम्पन्न हव्य को अग्नि में डालते हैं तब आप उसका सेवन करते हैं।
इसमे शक्तिसंपन्न हव्य को स्पष्ट करते हुये बताया गया की वह शक्तिसम्पन्न हव्य "वृषभां" - "बैल" नहीं बल्कि बलकारक "ऋषभक" (ऋषभ कंद) नामक औषधि है ।
लेकिन दुर्बुद्धियों को यहाँ भी संतुष्टि नहीं और अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हुये पूछते है की ऋषभ कंद का "मार्केट रेट" क्या चल रहा है आजकल ?????
अब दुर्भावना प्रेरित कुप्रश्नों के उत्तर उनको तो क्या दिये जाये, लेकिन भारतीय संस्कृति में आस्था व निरामिष के मत को पुष्ठ करने के लिए ऋषभ कंद -ऋषभक का थोड़ा सा प्राथमिक परिचय यहाँ दिया जा रहा है ----
आयुर्वेद में बल-पुष्टि कारक, काया कल्प करने की अद्भुत क्षमता रखने वाली आठ महान औषधियों का वर्णन किया गया है, इन्हे संयुक्त रूप से "अष्टवर्ग" के नाम से भी जाना जाता है ।
अष्ट वर्ग में सम्मिलित आठ पौधों के नाम इस प्रकार हैं-
१॰ ऋद्धि
२॰ वृद्धि
३॰ जीवक
४॰ ऋषभक
५॰ काकोली
६॰ क्षीरकाकोली
७॰ मेदा
८॰ महामेदा
ये सभी आर्किड फैमिली के पादप होते हैं, जिन्हें दुर्लभ प्रजातियों की श्रेणी में रखा जाता है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता व दमखम बढ़ाने में काम आने वाली ये औषधिया सिर्फ अत्यधिक ठंडे इलाकों में पैदा होती हैं। इनके पौधे वातावरण में बदलाव सहन नहीं कर सकते ।
वन अनुसंधान संस्थान [एफआरआइ] और वनस्पति विज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक अष्ट वर्ग औषधियां बहुत कम बची हैं। जीवक, ऋषभ व क्षीर काकोली औषधियां नाममात्र की बची हैं। अन्य औषध पौधे भी विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं।
जिस औषधि की यहाँ चर्चा कर रहे है वह ऋषभक नामक औषधी इस अष्ट वर्ग का महत्वपूर्ण घटक है । वैधकीय ग्रंथों में इसे - "बन्धुर , धीरा , दुर्धरा , गोपती .इंद्रक्सा , काकुदा , मातृका , विशानी , वृषा और वृषभा" के नाम से भी पुकारा जाता है । आधुनिक वनस्पति शास्त्र में इसे Microstylis muscifera Ridley के नाम से जाना जाता है ।
ऋषभक और अष्ठवर्ग की अन्य औषधियों के विषय में विस्तृत जानकारी अगले लेख में दी जाएगी।
जारी ...................
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इस जानकारीपूर्ण शृंखला के लिये धन्यवाद अमित! अत्यन्त सुन्दर यह पोस्ट सन्दर्भ के रूप में संग्रहणीय है।
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