"भा रत भारती वैभवं" के इस मंच से आर्यावर्त को सादर प्रणाम करने के सौभाग्य का अवसर प्राप्त हुआ इसके लिए इस अभियान के सूत्रधार का कृतज्ञ हूँ.
जब सत्य के चारो पादों का क्षरण हो जाता है तो कलियुग का प्रारम्भ होता है.....एक ऐसे युग का... जिसका प्रधान लक्षण होता है प्रज्ञापराध....और कारण है आस्थाहीनता.
समाज व्यवस्था में अपराधों के लिए उनकी श्रेणी और गंभीरता के आधार पर दंड, सुधारऔर क्षमा की परम्परा रही है किन्तु प्रज्ञापराध एक ऐसा अपराध है जिसके लिए केवल दंड का ही विधान है. ...फिर यह दंड किसी के भी द्वारा दिया जाय...किसी न्यायाधीश द्वारा या फिर प्रकृति के द्वारा.....दंड तो अपराधी को भोगना ही पड़ता है.
कलियुग की एक विशेषता और है .....सुधार की प्रवृत्ति एवं प्रयास में न्यूनता. आज विश्वगुरु भारत के लोग अपनी पद मर्यादा से च्युत हो कर अपमान और दुःख को भोगने के लिए विवश हैं. क्या इसमें कभी परिवर्तन होगा ? क्या हमें परिवर्तन की प्रतीक्षा करनी चाहिए ?
चारो युग अपनी निर्धारित अवधि पूरी करते हुए एक काल चक्र बनाते हैं ......इससे हम आशा कर सकते हैं कि हमें हमारा पुराना वैभव पुनः प्राप्त होगा. किन्तु ....परिवर्तन तो अवश्यम्भावी है....यह सोचकर अकर्मण्य बन कर नहीं रहा जा सकता.
समय कभी वापस नहीं आता....घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है किन्तु उसके लिए भी पर्याप्त कारण अपेक्षित होते हैं. समय तो किसी भी परिवर्तन के लिए एक अपरिहार्य घटक है......कारण स्वयं हमें ही बनना होगा.
भारती के वैभव की स्तुति हमारे लिए एक लक्ष्य निर्धारित करती है ....वैभव की स्मृति हमारी प्रेरणा बनती है ...किन्तु सत्य निष्ठा के साथ हमें अपने कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ना होगा....निरंतर ...और निरंतर ......इस सावधानी के साथ कि हमें अपने आदर्शों से किसी भी स्थिति में समझौता नहीं करना है.
फेस बुक पर ब्राजील के कुछ लोग आपस में नमस्ते करते हैं ( हमारी तरह गुड मोर्निंग या गुड नाईट नहीं ) .....उनके पन्नों पर रवींद्र नाथ टैगोर की कविताओं के पुर्तगाली अनुवाद होते हैं.....साथ में होते हैं राधा-कृष्ण के चित्र या फिर भारतीय संस्कृति को दर्शाते कोई अन्य चित्र ....भारत के प्रति उनकी दीवानगी सहज दृष्टव्य है. हमें जगाने के लिए क्या यह एक कारण नहीं हो सकता ?
सुबह रियो डी जेनेरो की एक छात्रा से चर्चा हुयी ...उसकी बहन भारत में है और भारत के बारे में उसकी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही है. उसने अंगरेजी में बात करने से मना कर दिया ...हिन्दी उसे आती नहीं ......मुझे पुर्तगाली में बात करनी पडी. मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि उसे अपनी भाषा के प्रति इतना प्रेम है. मैंने अन्य विदेशियों की तरह उसे भी बताया कि हमारे देश का नाम इंडिया नहीं है ...भारत है. मैं स्वयं को भारतीय कहता हूँ इन्डियन नहीं. विश्व में बहुत कम लोग हैं जो मानचित्र में भारत को कहीं खोज पाते हैं ...उन्हें केवल इंडिया के बारे में पता है .....यदि हमारी सरकार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 'भारत' या 'आर्यावर्त' के नाम से अपने कर्त्तव्य संपादित नहीं कर सकती तो यह हमारा भी तो उत्तरदायित्व बनता है. मैं भारत पहले लिखता हूँ और फिर कोष्टक में इडिया ...ताकि पश्चिम के लोगों को भारत का पता चल सके.
आज इतनी चर्चा ही.
जय भारत ! जय आर्यावर्त ! ! जय सनातन धर्म ! ! !
प्रेरणा सहित श्रेष्ठ वचन……
जवाब देंहटाएं"भारती के वैभव की स्तुति हमारे लिए एक लक्ष्य निर्धारित करती है ....वैभव की स्मृति हमारी प्रेरणा बनती है ...किन्तु सत्य निष्ठा के साथ हमें अपने कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ना होगा....निरंतर ...और निरंतर ......इस सावधानी के साथ कि हमें अपने आदर्शों से किसी भी स्थिति में समझौता नहीं करना है. "
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंओम् नमः शिवाय!
महाशिवरात्रि की शुभकामनाएँ!
आपका हार्दिक आभार कौशलेंद्र जी, भारत-भारती के माध्यम से अनुपम प्रेरणा प्रदान की है आपने ।
जवाब देंहटाएंबुद्धिमानों के बताए मार्ग से उल्टा चलना, बुरे काम करने वालों की संगति करना, स्त्रियों का अधिक सेवन करना, ठीक समय पर ठीक कर्म न करना, बिना पूरा करे काम छोड़ देना, विनय और आचार छोड़ देना, पूज्यों की निंदा करना, अपने मनचाहे अहित कार्यों में लगना, बिना समय के अनुचित देशों(स्थानो) में घूमना, बुरे काम करने वालों से मित्रता करना, अच्छे काम छोड़ देना, ईर्ष्या, अभिमान, भय,क्रोध, लोभ, मोह, मद और भ्रम में पड़ना या इन दोषों से उत्पन्न कर्म करना अथवा ऐसे कर्म करना जो रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न हों - इन सब कर्मों को प्रज्ञापराध कहतें हैं । यह प्रज्ञापराध ही व्याधियों की उत्पत्ति का मूल कारण है । जिससे व्यक्ति ना चाहते हुये भी आजीवन दुखों से ग्रस्त रहता है ।
जवाब देंहटाएं(च॰ स॰ 1/03-08)
इसी प्रज्ञापराध के कारण अर्जुन को विषाद हुआ था जिससे वह धर्म को अधर्म और अकर्तव्य को कर्तव्य माना, जिसका समाधान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार किया की उसका सारा अज्ञान नष्ट हो गया । इस प्रज्ञापराध से पीड़ित व्यक्ति सहसा ऐसा काम कर बैठते हैं जो उनके लिए तो अपमानजनक होता ही है, बल्कि साथ साथ समाज और राष्ट्र को भी हानी पहुंचा देते हैं ।
इस प्रज्ञापराध के संबंध में सबसे बड़ी बात यह भी है की इसका उपचार किसी भी तरह की औषधि से संभव नहीं है । यह तो दैव संयोग या किसी महापुरुष के सत्संग या सदुपदेश से ही दूर हो सकता है ।
और यह हमारा सौभाग्य ही है की "भारत-भारती-वैभवम" के माध्यम से ऐसे ही प्रज्ञा-पुरुष अपने श्रेष्ठ अनुभव-पक्व सदुपदेशों से हमें सभी प्रकार के दोषों से बचकर राष्ट्र सेवा मे प्रवृत होने का मार्ग दिखाएंगे ।
प्रेरक, आशावाद लिये हुये व्यावहारिक विचार।
जवाब देंहटाएंऐसे ही मार्गदर्शन की प्रतीक्षा आगे भी रहेगी।
यही विडम्बना है हमारी कि अपनी संस्कृति पर विश्वास भी औरों के माध्यम से हो रहा है।
जवाब देंहटाएंभारत-भारती के माध्यम से अनुपम प्रेरणा प्रदान करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसंस्कृति के पुजारियों के मध्य 'भारत-भारती वैभवं' परिवार में आचार्य कौशलेन्द्र जी ने जहाँ ब्लॉग नामकरण के गौरव को महिमा मंडित किया है वहीं उसे व्यवहार में लाने को भी प्रेरित किया है.... सांस्कृतिक गौरव के प्रति कहे गये वचन इस ब्लॉग के 'मंगलाचरण' तुल्य हैं....
जवाब देंहटाएंएक श्रेष्ठ इच्छा से जब भी किसी यज्ञ का प्रारम्भ होता है भविष्य में उस यज्ञ की अग्नि प्रदीप्त रखने के लिये उसे हम जैसे आहुति देने वाले और वैदिक ऋचाओं का गान करने वाले कौशलेन्द्र व वत्स जैसे पुरोहित उसे मिल ही जाते हैं... मेरा यह विश्वास अटल हो गया है.
@भारती के वैभव की स्तुति हमारे लिए एक लक्ष्य निर्धारित करती है ....वैभव की स्मृति हमारी प्रेरणा बनती है ...किन्तु सत्य निष्ठा के साथ हमें अपने कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ना होगा....निरंतर ...और निरंतर ......इस सावधानी के साथ कि हमें अपने आदर्शों से किसी भी स्थिति में समझौता नहीं करना है.
जवाब देंहटाएंसत्य वचन महाराज!