प्रथम अंक में आप पढ़ चुके हैं- एक स्वप्न को देख जिज्ञासा से भर उठे ग्रीसवासी ज़ोडोरियस ने उसका रहस्य जानने के लिये अपने गुरु सोलोमन की आज्ञा से भारत की ओर प्रस्थान किया। चिरायु ऋषि के दर्शन की अभिलाषा से हिमालय के जनशून्य हिमप्रांत में प्रवास के अनंतर एक हिमकुण्ड में स्नान करते समय वह मूर्छित हो गया। अब आगे की कथा इस प्रकार है-
कोई नहीं जानता ऐसे सुयोग-संयोग क्यों और कैसे निर्मित होते हैं। पर जब भी निर्मित होते हैं ये तो हम चमत्कृत हुये बिना नहीं रह पाते। जिस समय ज़ोडोरियस प्राणरक्षा के लिये संघर्षरत था ठीक उसी समय उष्ण जलकुण्ड के मार्ग में पड़ने वाले इस शीत जलकुण्ड के समीप चिरायु ऋषि आ पहुँचे। ऋषि ने ज़ोडोरियस को उस कुण्ड से बाहर निकाल, प्राथमिक उपचारोपरांत अपनी पीठ पर लादा और उष्ण जलकुण्ड की ओर प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने एक बार पुनः उसका उपचार किया। थोड़े ही प्रयास से ज़ोडोरियस की चेतना वापस आ गयी। ज़ोडोरियस की प्राणरक्षा हुयी। पूर्व ने पश्चिम को प्राणों का उपहार दिया।
ज़ोडोरियस ने देखा, हिम प्रस्तर से निर्मित उस छोटी सी कन्दरा में चीड़ की पत्तियाँ सघनता से बिछी हुयी थीं। ऋषि ने ज़ोडोरियस को समीप ही बैठाकर कहा- “...तो स्वप्न में प्रकृति द्वारा अपनी सारी शक्तियाँ वापस ले लेने की बात से आप चिंतित हो उठे और स्वप्न के इस रहस्य को जानने की जिज्ञासा में यहाँ तक आ पहुँचे, यही न!”
ज़ोडोरियस ने कहा- “ऐसा ही है भगवन”।
चिरायु बोले- “किंतु इसमें न तो कुछ भी अस्वाभाविक है और न ही इससे भयभीत होने की कोई आवश्यकता। यदि कभी वर्षाऋतु में जल के बुलबुलों को बनते और फ़ूटते हुये ध्यान से देखा होगा तो इस स्वप्न के रहस्य को भी सहज ही समझ सकोगे। स्मरण कीजिये, बुलबुलों के बनने और फूटने के बीच विकास की क्रमिक स्थितियाँ होती हैं, विकास की चरम स्थिति ही उसके समाप्त होने का कारण होती है। प्रकृति शनैः-शनैः अपनी शक्तियों को प्रकट करती है, उनका विस्तार करती है और चरम स्थिति प्राप्त होते ही पूर्वावस्था की ओर प्रतिगमन करती है। प्रसरण और संकुचन की आवृतियों से युक्त ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियाँ अपने विभिन्न रूपों में नाना लीलायें करती हुयी पूर्वावस्था को प्राप्त करती हैं....ताकि अगली आवृतियों की तैयारी की जा सके। समुद्र का ज्वार आता ही है जाने के लिये ....और फिर जाता ही है पुनः आने के लिये। प्रकृति की क्रियाशीलता को भी विश्राम की आवश्यकता होती है। क्रियाशीलता ही प्रकृति की शक्तियों का प्रकटीकरण है और उसकी विश्रामावस्था ही उन शक्तियों के पुनःसंचय की एक अनिवार्य स्थिति। ब्रह्माण्ड के समस्त दृष्टव्यादृष्टव्य पिण्ड कभी न कभी इस विश्रामावस्था को प्राप्त होते ही हैं। अभाव प्रकट होता है भाव बनकर और वही भाव पुनः विलीन हो जाता है अभाव में ही। उद्भव और विलय की, निद्रा और जागरण की, संकुचन और विमोचन की, जन्म और मृत्यु की यह लयात्मक लीला है। मृत्यु भी जीवन का विराम नहीं एक विश्राम मात्र ही है। इसे समझ लेने के पश्चात फिर कोई भय नहीं रहता, कोई दुःख नहीं होता। महादानव की तरह ब्रह्माण्ड के विशाल पिण्डों के भूखे कृष्णविवर की भक्षण लीला भी तो अगले उत्सर्जन की प्रारम्भिक प्रक्रिया मात्र ही तो है। इसमें कैसा भय और कैसा आश्चर्य? सम्भव है कि तुम्हारा स्वप्न किसी खण्ड प्रलय का संकेत हो। पृथिवी पर मानव जीवन से पूर्व और उसके पश्चात भी न जाने कितनी बार खण्डप्रलयों द्वारा धरती पर उथल-पुथल होती रही है और मानव सभ्यतायें विकसित और विलीन होती रही हैं। ऐसी लीलायें इतनी बार हो चुकी हैं कि इनके इतिहास का लेखा-जोखा भी हमारी क्षमताओं से परे है। बस, हम तो सत्य के चतुष्पादों के क्षरण के अनुरूप कालखण्डों का अनुमान भर लगा सकते हैं।”
ज़ोडोरियस के मुखमंडल पर संतोष के भाव देख ऋषि प्रसन्न हुये। ज़ोडोरियस को दिव्यता का साक्षात अनुभव हो रहा था। ऐसी दिव्य शांति उसे अब से पूर्व कभी प्राप्त नहीं हो सकी थी। पश्चिम के जिज्ञासु पूर्व की ओर क्यों भागते रहते हैं इसका प्रमाण आज मिल गया था उसे। जैसे किसी बुभुक्ष की भूख व्यंजन को देख और भी बढ़ जाती है उसी तरह ऋषि चिंतन से प्रभावित हो उसकी जिज्ञासायें बुभुक्ष की भाँति कुलबुलाने लगीं। उसने प्रश्न किया- “कालखण्डों के युगीय वर्गीकरण के बारे में सुना है हमने किंतु सत्य के चतुष्पादों से इसके सम्बन्ध को नहीं समझ सके। गणित में हमारी स्वाभाविक रुचि है पर जीवन दर्शन से इसके सम्बंध की ब्रह्मावर्तीय दिव्यदृष्टि से पश्चिम जगत चमत्कृत है। हम चतुष्पादों के बारे में आपसे कुछ और जानना चाहते हैं।“
चिरायु ऋषि मुस्कराते हुये उठ खड़े हुये, बोले- “ज़ोडोरियस! इस विषय पर बाद में, अभी तो तुम्हें शक्ति की आवश्यकता है। तुम यहीं रुको, मैं अभी आता हूँ। अतिथि का स्वागत तो अभी हमने किया ही नहीं।“
क्रमशः ......
कभी समझ में नहीं आता है कि घटनायें क्यों और कैसे हो रही है, पर उनके पीछे कोई अदृश्य कारण अवश्य होता है।
जवाब देंहटाएंसृष्टि के सत्य ज्ञान का अर्पण हुआ!!
जवाब देंहटाएंनिरामिष: शाकाहार अपनाइये प्रसन्न रहिये।
बहुत ही ज्ञानवर्धक कथा है, संस्कृति का साक्षात दर्शन समेटा है कालखण्डों के युगीय वर्गीकरण का बोध विशिष्ठ ज्ञान है।
जवाब देंहटाएंअगली कडी का इन्तज़ार्………
ज्ञानवर्धक ..... अगली कड़ी पढने जा रहा हूँ .....
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद
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