पिछले अंक में आपने पढ़ा- चिरायु ऋषि ने ज़ोडोरियस की प्राण रक्षा की और उसे अपनी कन्दरा में ले गये जहाँ उन्होंने उसकी स्वप्न जिज्ञासा के समाधान का प्रयास किया किंतु ज़ोडोरियस की जिज्ञासा-बुभुक्षा ऋषि के दिव्य वचनामृतों से और भी बढ़ गयी। आगे की कथा इस प्रकार है –
ऋषि द्वारा लाये कन्दमूल का आहार कर ज़ोडोरियस के उदर की संतुष्टि हुयी। तात्विक साधना में लीन रहने वाले ऋषि के लोकाचार से ज़ोडोरियस भावविभोर हो उठा। थोड़े विश्राम के पश्चात वार्ता पुनः प्रारम्भ हुयी।
ऋषि बोले- “सृष्टि स्वयं में एक विकार है किंतु सत्वादि गुणों की साम्यावस्था एवम एकोल्वण भेद से सात्विक, राजसिक तथा तामसिक प्रभावों के परिणामस्वरूप सृष्टि की दिशा एवम दशा निर्धारित होती रहती है। मनुष्य के कर्म इन गुणों से प्रभावित होते हैं जिसका स्पष्ट प्रभाव समाज पर परिलक्षित होता। मनुष्य की सामूहिक चित्तवृत्ति के प्रभाव से सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग नामक कालखण्ड अस्तित्व में आते हैं। सतयुग के प्रारम्भ में सत्वादि तीनो गुण साम्यावस्था में रहते हैं किंतु शनैः-शनैः सात्विक गुणों में क्षरण प्रारम्भ होता है, सात्विक गुण के एक पाद के पूर्ण क्षरण होते ही सतयुग का अंत हो जाता है। त्रेता युग के प्रारम्भ में सत्य के तीन पाद ही रहते हैं। द्वितीय पाद के क्षरण का अंत त्रेतायुग की समाप्ति के साथ होता है। पुनः द्वापरयुग में तृतीय पाद का क्षरण प्रारम्भ होता है और उसका अंत होते ही द्वापरयुग की भी समाप्ति हो जाती है। जब सत्य का एक पाद ही रह जाता है तब समाज में हर प्रकार का पतन दृष्टिगोचर होता है, इसे हम कलियुग कहते हैं। पुनः इसका भी क्षरण होता है और इस अंतिम पाद के पूर्ण समाप्त होने तक कलियुग अपनी चरम स्थिति तक पहुँच चुका होता है। इसकी परिणति खण्ड प्रलय के रूप में होती है। काल का यह स्वाभाविक विभाजन है जो गणितीय और मनुष्य के चारित्रिक समीकरणों से निर्मित होता है। यह अवश्यम्भावी है किंतु यह सोचकर अकर्मण्य नहीं हुआ जा सकता, निरंतर सद्प्रयास एवम सत्चिंतन ही मनुष्य के लिये करणीय और प्रशस्त है। इन सभी कालखण्डों में विभिन्न सभ्यतायें अस्तित्व में आती और विलीन होती रहती हैं। इनका लेखा-जोखा रख पाना सम्भव नहीं किंतु सभी सभ्यताओं में इस विषय पर चिंतन, शोध और मत-मतांतर होते रहे हैं। लोग अपने अस्तित्व की कड़ियाँ इतिहास और पुरातत्व में खोजते रहते हैं।“
ज़ोडोरियस ने प्रश्न किया- “ऋषिवर! काल तो एक काल्पनिक घटक है वह इतना अस्तित्ववान कैसे हो गया?”
ऋषि बोले- “भौतिक दृष्टि से काल को आप काल्पनिक कह सकते हैं किंतु जो भी भौतिक है उसके अस्तित्व के लिये काल एक अपरिहार्य घटक है। काल और दिक ही ऐसे दो घटक हैं जिन्होंने मनुष्य की बुद्धि को सर्वाधिक चमत्कृत किया है। इनका होना सृष्टि का होना है, इनके अस्तित्व के बिना सृष्टि का भी कोई अस्तित्व नहीं। कोई भी परिवर्तन काल और दिक के बिना सम्भव नहीं इसीलिये ये काल्पनिक होते हुये भी इतने अस्तित्ववान हैं। स्वयं में ‘अभाव’ होते हुये भी ‘भाव’ जगत के लिये इनकी अनिवार्यता ने इन्हें इतना महत्वपूर्ण बना दिया है।“
ज़ोडोरियस का अंतःकरण ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो रहा था। उसके मुखमण्डल पर एक दुर्लभ सी दिव्य आभा छिटक आयी थी। आनन्दित होते हुये उसने अगला प्रश्न किया- “भगवन! मनुष्य समाज में सत्य को लेकर होने वाली भ्रांतियों और हिंसक आचरण से जनसामान्य को ही सर्वाधिक क्षति उठानी पड़ती है। पृथक-पृथक समुदायों के पृथक-पृथक सत्य जनसंघर्ष के तुच्छ कारण बनते हैं, इनके परिणाम अवांछित किंतु भोगने की विवशता से परिपूर्ण हैं। सभी जीवों में सर्वाधिक शक्तिशाली और बुद्धिमान होते हुये भी मानव जीवन इस सबके लिये इतना अभिषप्त क्यों है?”
(.... अगले अंक में समाप्य)
साम्य और संतुलन, बहुत आवश्यक है, हम सबके लिये।
जवाब देंहटाएं“भगवन! मनुष्य समाज में सत्य को लेकर होने वाली भ्रांतियों और हिंसक आचरण से जनसामान्य को ही सर्वाधिक क्षति उठानी पड़ती है। पृथक-पृथक समुदायों के पृथक-पृथक सत्य जनसंघर्ष के तुच्छ कारण बनते हैं,
जवाब देंहटाएंसारांश युक्त प्रश्न, उत्तर जानना रसप्रद होगा।
बहुत सुंदर प्रयास आशा है कुछ और भी मिलेगा लगातार....
जवाब देंहटाएंरोचक कथा, अगली कड़ी का इंतज़ार है।
जवाब देंहटाएंअदभुद ....... अगली कड़ी का इन्तजार है
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