आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व भारतीय ऋषियों ने अपने दीर्घ अनुसन्धान एवम प्रकृति के निरंतर साहचर्य से उत्कृष्ट जीवन शैली का विकास किया था जिसके अभ्यास के परिणामस्वरूप लोग व्याधिमुक्त रहते हुये दीर्घायु के सहज अधिकारी हुआ करते थे। नवीन अनुसन्धानों ने ऋषियों के उपदेशों की वैज्ञानिकता को स्वीकार किया और उसे “जीवनशैली का सनातन सत्य” निरूपित किया है। प्रस्तुत हैं आपके लिये कुछ सामान्य सी करणीय बातें -
- सूर्योदय से पूर्व जागरण का अभ्यास। परिणाम– मलविबन्धता(कॉंस्टीपेशन) नहीं होती। आलस्य नहीं रहता, शरीर और मन में स्फूर्ति बनी रहती है।
- उषःपान (ताम्रपात्र में रात भर रखे जल का ऊषाकाल में पान)। परिणाम- मलविबन्धता को दूर करता है, नेत्र के लिये हितकारी है, मूत्र विकारों को दूर करता है, कोषिकाओं के अपवर्ज्य पदार्थों का निष्क्रमण भलीभाँति होता है जिससे रोगों की सम्भावनायें कम होती हैं। उषःपान के अभ्यास(आदत) से अर्श (बबासीर) की सम्भावनायें न्यून हो जाती हैं।
- चाय आज का सार्वभौमिक पेय बन चुका है अतः यदि आप चाय लेना चाहते हैं तो बिना चीनी या कम चीनी की नीबू वाली चाय लें। परिणाम- चाय में उपलब्ध एंटीऑक्सीडेंट की अधिकतम मात्रा शरीर को प्राप्त होती है जो रोग प्रतिरोध क्षमता को प्रबल बनाने में सहयोग करता है।
- तन्मनाभुंजीत (तन्मयतापूर्वक भोजन अर्थात भोजन के समय केवल भोजन के बारे में ही विचार करें अन्य किसी विषय के बारे में नहीं)। परिणाम- तृप्ति होती है, भोजन का पाचन अच्छी तरह होता है, मुखक्षत नहीं होते, पचित आहार के सूक्ष्मांशों का अवशोषण भलीभाँति होता है।
- भोजन से पूर्व बलि अवश्य दें (कार्बोहाइड्रेट एवम प्रोटीनयुक्त भोज्य पदार्थों का थोड़ा सा भाग अग्नि को समर्पित करना)। परिणाम- भोजन स्थल के आसपास का वातावरण फ़्यूमीगेशन से शुद्ध होता है, धूम्र के साथ भोजन के सूक्ष्मांश (नैनोपार्टिकल्स) शरीर में पहुँचकर ओषधि की तरह कार्यकारी होते हैं। व्यावहारिक रूप में इसे यूँ समझें- मिर्च खाने की अपेक्षा उसके धुँयें की थोड़ी सी मात्रा ही हमें बेचैन कर देती है। पर्व आदि पर दिन भर पकवान बनाने वाली महिलायें बिना खाये ही तृप्ति का अनुभव करती हैं। ये “स्माल इज़ पावरफुल” के दो छोटे उदाहरण हैं। यह बलिकर्म भोजन का प्राकृतिक परीक्षण भी है। विषयुक्त भोजन होने पर निकलने वाला धुँआँ सामान्य से अलग प्रकार का (चित्र-विचित्र, अर्थात विभिन्न रंग युक्त) होता है। निकलने वाले धुंये में यदि दुर्गन्ध हो तो भोजन अखाद्य है ऐसा बासी भोजन, विष या मांसादि के कारण होता है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि अनप्लीजेंट गंध वाला धुँआँ देने वाले खाद्य पदार्थ (मांसाहार) मनुष्य के लिये अखाद्य है।
- ठोस भोजन को अच्छी तरह चबायें और तरल को धीरे-धीर पियें। कहावत है कि रोटी को पियें और पानी को चबायें। परिणाम- भोजन का मैस्टीकेशन ठीक से होता है, हर्नियेशन की सम्भावनायें न्यून हो जाती हैं।
- नातिशीघ्रम नातिमन्दम, अर्थात भोजन न तो हड़बड़ी में बहुत ज़ल्दी-ज़ल्दी खायें और न बहुत धीरे-धीरे। परिणाम- भोजन कुमार्गी (आहार नली की अपेक्षा श्वास नली की ओर जाना, जिसके कारण सफोकेशन होकर मृत्यु तक की सम्भावना होती है) नहीं होगा, मन्दाग्नि की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी, एब्डॉमिनल फ़्लेचुलेंस नही होगा।
- नात्युष्णम नातिशीतम, भोजन न तो अधिक उष्ण हो न अधिक शीत। परिणाम- अधिक गर्म भोजन से मुँह की म्य़ूकस मेम्ब्रेन को क्षति पहुँचती है और स्वाद ग्रंथियाँ अपना कार्य ठीक से नहीं कर पातीं, मसूड़ों और दाँतों को क्षति पहुँचती है, जिंजीवाइटिस होने की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं, दाँतों का पतन ज़ल्दी ही हो जाता है। अतिशीत (बासी और फ़्रिज़ से तुरंत निकाले हुये) भोजन से पाचकाग्नि मन्द हो जाती है, फ़ूडप्वाइजनिंग की सम्भावना रहती है, भोजन में अरुचि उत्पन्न हो जाती है। आजकल भोज-समारोहों में भोजन के बाद लोग या तो कॉफ़ी पीते हैं या फिर आइस्क्रीम खाते हैं, पाचन की दृष्टि से दोनो ही गलत हैं।
- भोजन के समय जल की कम से कम मात्रा लें, बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा पीते रहें, भोजनोपरांत कभी भी खूब पानी मत पियें। भोजन से एक घण्टे पहले और दो घण्टे बाद यथेष्ट जलसेवन कर सकते हैं। परिणाम- भोजन के समय अधिक जल सेवन गैस्ट्रिक सीक्रीशन को डायलूट कर देता है जिससे आप अपचन के शिकार हो सकते हैं। भोजन के बाद जम के जल सेवन करने से जल अपनी अधोगति प्रवृत्ति के कारण बिना पचे भोजन को ढ़केलते हुये पायलोरिक बॉल्व पर दबाव निर्मित करता है जिससे आमाशय एवम ड्यूओडिनम से सम्बन्धित कई व्याधियाँ होने के इटियोलोजिकल फैक्टर्स उत्पन्न होते हैं।
- अध्यशन (पहले का खाया हुआ भोजन पचे बिना ही पुनः कुछ खा लेना) न करें। आज की जीवनशैली में लोग दिन भर कुछ-न कुछ खाते ही रहते हैं, कभी चाय, कभी बिस्किट, कभी समोसा....।यह भक्षण का निकृष्ट दोष है। परिणाम- इससे अपचन, गैस्ट्राइटिस और अंत में पेप्टिक अल्सर होने की सम्भावनायें बनती हैं।
- इंड्यूस्ड डिफ़ीकेशन (बलपूर्वक मलनिष्कासन) का अभ्यास न करें। परिणाम- बल पूर्वक मल निष्कासन की आदत से फ़िशर इन एनो, प्रोलेप्स तथा हीमोर्होइड्स (बबासीर) की सम्भावनायें प्रबल हो जाती हैं।
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जवाब देंहटाएंप्रस्तुती मस्त |
जवाब देंहटाएंचर्चामंच है व्यस्त |
आप अभ्यस्त ||
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charchamanch.blogspot.com
याद आया ... 'सार्वदेशिक आर्य वीर दल' के शिविरों में इसी नियमावली का अभ्यस्त बनाया जाता था. बहुत-से लक्षण अभी भी शेष हैं... इस जीवन चर्या के कुछ नियमों में श्लथता दोलित रहती है. फिर भी इस प्रकार के बार-बार मिलने वाले उपदेशों की प्रासंगकिता सदा बनी रहती है. सब कुछ जानने वालों को भी प्रेरक की आवश्यकता होती है. ऋषि प्रणीत आदर्श जीवन शैली के इस पाठ को पुनः स्मृत कराने के लिये कोटिशः आभार.
जवाब देंहटाएंआपने कई रूढ़-सी प्रतीत होने वाली बातों का तथ्यात्मक विश्लेषण किया ... समझ में आयी वे भूल जो हम स्वाद के वशीभूत कर जाया करते हैं.
इस आलेख के लिये आभार! स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है। सभी को नव सम्वत्सर, युगादि की बधाई!
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