रविवार, 1 अप्रैल 2012

प्राचीन भारतीय शोध परम्परा और विकास की अवधारणा

वेद भारतीय ज्ञान के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं जिनमें शोधकर्ताओं के ज्ञान को सूत्र रूप में संगृहीत किया गया है। प्रकृति में व्याप्त शक्तियों का प्राणिमात्र के कल्याणार्थ उपयोग तथा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए उपयुक्त मार्ग का सन्देश देने वाले वेद, आज जबकि हम विकास की सही दिशा से विचलित हो चुके हैं और भी अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।
वैज्ञानिक समाधानों के युग में हमारे समक्ष कुछ ज्वलंत प्रश्न हैं जिनका वैज्ञानिक उत्तर हमें खोजना ही होगा।

१- इतने तथाकथित विकास के बाद भी दुर्भिक्ष और दरिद्रता अभी तक हमारे लिए अभिषाप बने हुए हैं।
२- शारीरिक व्याधियाँ अपने नए स्वरूपों में प्रकट हो रही हैं।
३- नवीन औषधियाँ फलप्रद नहीं हो पा रही हैं।
४- रोगाणुओं के नए-नए अवतरण (NEW STRAINS) चिकित्सा जगत के समक्ष एक गंभीर चुनौती बन गए हैं।
५- मनुष्य का नैतिक पतन अपनी पराकाष्ठा की ओर तीव्र गति से बढ़ रहा है।
६- पारस्परिक संवेदनायें समाप्त होती जा रही हैं।
७- हिंसा हमारे आचरण का भाग बनती जा रही है।
८- जीवन से सुख और शान्ति का सम्बन्ध समाप्त होता जा रहा है।
९- हम विनाश की ओर शनैः शनैः आगे बढ़ते जा रहे हैं।

   इस सबके बाद भी हमारी सांख्यिकीय गणनाएं समाज के विकास को प्रदर्शित करती हैं जो निश्चित ही एक राजनैतिक छलावा है। जब हम बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को आत्महत्या करते हुए या नैतिक पतन के आरोपों में घिरा पाते हैं तो स्वयं को एक ऐसे रथ पर आरूढ़ पाते हैं जो सारथी रहित तो है ही दिशाहीन भी है। हमें यह विचार करना होगा कि हम त्रुटि कर कहाँ रहे हैं ? तनिक कल्पना कीजिये कि शोधकर्ता महर्षियों को यदि आज के वैज्ञानिकों की स्थिति से जूझना पड़ा होता तो क्या वे इतने निर्दुष्ट अनुसंधान कर पाते?
मनुष्य जीवन के सन्दर्भ में भारतीय चिंतन चार पुरुषार्थों "धर्मार्थकाममोक्षाणाम...." को केन्द्रित कर अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है जिसका सबसे बड़ा टूल है सत्य। आधुनिक वैज्ञानिक भी सत्यानुसन्धान में लगे हैं किंतु शाश्वत चिंतन के अभाव में उनका मार्ग निर्दुष्ट नहीं हो सका। वे आंशिक सत्य तक ही सीमित हो कर रह गये, परिणामतः उनके शोध की दिशा ही एक अन्धकूप की ओर हो गयी है। मुझे यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण लगती है, जिन शोधकार्यों के लिये हमारी प्रतिभायें अपना जीवन खपा देती हैं, जिनके लिये आम जनता की कमाई का एक बड़ा हिस्सा होम कर दिया जाता है वे शोध हमें केवल काला ज़ादू भर दिखा पाते हैं। जिन शोधकार्यों और अपनी उपलब्धियों पर हम गर्व से फूले नहीं समाते वे सत्य के कितने समीप हैं यह विचारणीय है।
   इस जगत के बारे में हम जितना जो कुछ जानते हैं सत्य उतना ही नहीं है। वस्तुतः हम केवल आंशिक सत्य ही जान पाते हैं, उतना ही जितना हमारी भौतिक इन्द्रियों के समक्ष प्रकाशित हो पाता है। जो अप्रकाशित रह जाता है वह गुप्त बना रहता है...रहस्यमय। कई बार रहस्यों के अत्याल्पांशों की एक झलक मात्र ही देख पाते हैं हम। हमारे देखने की क्षमतासीमा और प्रक्रिया अत्यंत सीमित होने से विश्लेषणात्मक ज्ञान के प्रति दोषपूर्ण है। हम गति को उसके पूर्णरूप में नहीं देख पाते ....आभास भर होता है उसका। देख उसी को पाते हैं जो अपेक्षाकृत बहुत स्थिर है। इसीलिये जीवन के वाहक सूक्ष्मांशों की एक झलक मात्र पाने के लिये जीवित कोशिकाओं की killing, fixation, dehydration, embedding, sectioning, staining और mounting जैसी अप्राकृतिक क्रियायें हमारी शोध प्रक्रिया की अनिवार्य विवशतायें हैं। जीवित कोशिका के मौलिक स्वरूप को नष्ट कर उसके बारे में प्राप्त एक झलक भर ही हमारे शरीर के भौतिक ज्ञान का आधार बन पाती है। हम जानना तो चाहते हैं जीवन को किंतु अध्ययन कर पाते हैं मृत कोशिका का। मृत्यु से जीवन को कितना जाना जा सकेगा? कोशिका के मृत्यु के समय... उसके नैनो सेकेण्ड्स के जीवन की एक हलचल भर जान पाते हैं हम, उसके आगे या पीछे क्या रहा होगा इसका अनुमान ही हमारे अगले ज्ञान का साधन है। और फिर यह भी क्या निश्चित है कि मृत्यु के समय वह कोशिका पीड़ा से तड़प नहीं रही होगी...तो हमने पीड़ा के नैनो सेकेण्ड्स का दर्शन किया इससे पैथोलॉजी तो समझी जा सकती है कुछ ...पर फ़िजियोलॉजी कैसे समझी जा सकेगी? प्रश्न यह भी है कि स्वस्थ्य रहने के लिये क्या यह सब जानना इतना आवश्यक है? अब से हज़ारों वर्ष पूर्व ...जब ऐसा विघटनकेन्द्रित ज्ञान नहीं था हमारे पास तब हमारी चिकित्सा का आधार क्या था? जटिल शल्य क्रियायें तो तब भी होती थीं।
  अपनी सीमित इन्द्रिय शक्तियों के कारण हमारा ज्ञान आंशिक ही है। प्रकृति की अपार शक्तियों के आगे इसीलिये नतमस्तक होना पड़ता है हमें। इन शक्तियों की एक आश्चर्यजनक किंतु स्वाभाविक व्यवस्था है जो हमें इसके नियंता के अस्तित्व को स्वीकारने विवश करती है। प्रकृति की इस अत्यंत जटिल किंतु सुव्यवस्थित प्रणाली ने हमें एक सर्वशक्तिमान नियंता के अस्तित्व की ओर स्पष्ट संकेत कर दिया है। इस अनादि-अखण्ड-अदृष्य किंतु सर्वशक्तिमान की सूक्ष्मता में समाहित विराटता ने बार-बार चमत्कृत किया है मानव बुद्धि को।
हमारा स्पष्ट मत है कि आज की भौतिक शोधप्रणाली दोषपूर्ण है जिसके कारण हम अपनी दिशा से भटक गए हैं। शोध की दो प्रणालियाँ हैं, एक रचनात्मक और दूसरी विघटनात्मक। रचनात्मक प्रणाली में हम किसी भौतिक वस्तु का स्वरूप विकृत किये बिना ही अन्यान्य विधियों से उसके बारे में सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, भारतीय ऋषियों की यही शोध परम्परा थी। जबकि विघटानात्मक प्रणाली में हम उस वस्तु का मौलिक स्वरूप ही विकृत कर देते हैं जिसके बारे में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। संश्लेषण और विश्लेषण के स्वरूप को समझे बिना अपनाई गयी वर्त्तमान शोध प्रक्रियाएं कभी भी अंतिम सत्य तक नहीं पहुँच सकतीं। संभवतः, सम्यक सत्यान्वेषण इनका उद्देश्य है भी नहीं। राज्य और व्यापारियों की आवश्यकताएं आज के शोध की दिशा तय कर रही हैं। प्राणिमात्र के हित के लिए पवित्र भाव से शोध करना कलियुग की परम्परा नहीं है। किन्तु हमें यह परम्परा तोड़नी होगी।

  वैदिक युग में भी शोधकार्य ज्ञान प्राप्ति के साधन हुआ करते थे।  किंतु तब के और अब के ज्ञान की परिभाषायें भिन्न हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा में ज्ञान तो वह है जो सत्य हो, सनातन हो, सार्वकालिक हो, सार्वभौमिक हो। पुनः, सुखी और निरामय जीवन के लिये, विश्वशांति के लिये, पृथिवी की रक्षा के लिये और सार्वभौमिक कल्याण के लिये हमें अपने वैज्ञानिक साधनों की सीमाओं, उनके औचित्य और अपने अनुसन्धान की दिशा की गम्भीर समीक्षा करनी होगी।

(एक छोटे से प्रवास के लिये कुछ दिनों तक आप सबसे दूर जा रहा हूँ, पुनः भेंट होगी...तब तक के लिये नमस्कार! शुभकामनायें !!)

11 टिप्‍पणियां:

  1. आभार ||
    रामनवमी की शुभकामनायें|

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  2. बहुत ही सुन्दर विवेचन हुआ है आधुनिक भौतिक शोधप्रणाली और विकास की दिशा का।
    आधुनिक विज्ञान विकास सुख-साधन लक्षी ही है वास्तविक शान्ति लक्षी नहीं। साधन हमें अल्पकालिन सुख अवश्य प्रदान कर देते है पर दुखों की एक अंतहीन शृंखला का भी निर्माण कर देते है
    जैसे आराम पसंद जीवन शैली से स्वास्थ्य समस्याएं।
    किटनाशकों के प्रयोग से मानव आरोग्य समस्या।
    जीव जगत के विनाश से प्राकृतिक संतुलन समस्या।
    रोगाणुओं विषाणुओं की प्रतिकार समस्या का विकास।
    प्रत्येक विकास से पर्यावरण को भंयकर क्षति।

    यह सभी साधन-सुखों से उपजे भयंकर परिणाम है। जो कभी शान्ति पर समाप्त नहीं होगें।
    प्रमुख कारण वही है आधुनिक विज्ञान में नैतिकता, सहजीवन उत्तरदायित्व की सम्वेदनाओं का न होना, अहिंसा का अभाव।

    जबकि हमारा प्रचीन विज्ञान इन सारे तत्वों को आगे रखकर विकास करता था।

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  3. समीक्षा तो विद्वजन ही करेंगे, आमजन तो प्रभावित मात्र होता है।
    प्रवास सुखद रहे, शुभकामना।

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  4. @प्रश्न वाकई ज्वलंत हैं। उत्तर ढूंढने के प्रयास जारी रहने चाहिये, शुभकामनायें!

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  5. जिन्हें आधुनिके मात्र कल्पना का मेघ मानते हैं, उसमें ही भविष्य के बीज छिपे हैं।

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  6. आचार्य जी,
    प्रश्नों की रज्जू से
    स्व-मूल विचारों और
    निज उद्भावक विचारों का
    मंथन कराके
    आप कौन देश में दूर प्रवास को गये ?....

    यदि इस मंथन में कोई रत्न निकलियावे तो कौन निर्णय करेगा कि कौन-सा किसके पास रहेगा?
    हंसराज जी ने मंथन कर कई रत्न निकाल भी दिये हैं...
    मैं लोभवश उन्हें लिये जा रहा हूँ :
    " आधुनिक विज्ञान विकास 'सुख-साधन लक्षी' ही है वास्तविक शान्ति लक्षी नहीं।
    साधन हमें अल्पकालिन सुख अवश्य प्रदान कर देते है
    पर दुखों की एक अंतहीन शृंखला का भी निर्माण कर देते हैं,
    जैसे — आराम पसंद जीवन शैली से स्वास्थ्य समस्याएँ।
    — कीटनाशकों के प्रयोग से मानव आरोग्य समस्या।
    — जीव जगत के विनाश से प्राकृतिक संतुलन समस्या।
    — रोगाणुओं विषाणुओं की प्रतिकार समस्या का विकास।
    — प्रत्येक विकास से पर्यावरण को भंयकर क्षति।
    ^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
    यह सभी 'साधन-सुखों' से उपजे भयंकर परिणाम है,
    जो कभी शान्ति पर समाप्त नहीं होंगे।
    प्रमुख कारण वही है
    — आधुनिक विज्ञान में नैतिकता,
    — सहजीवन उत्तरदायित्व की सम्वेदनाओं का न होना, और
    — अहिंसा का अभाव।

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    उत्तर
    1. परमानन्द प्रतुल जी,
      "आधुनिक विज्ञान विकास 'सुख-साधन लक्षी' ही है"
      वस्तुतः यह इस तरह शृंखला का निर्माण करते है। सुख- साधन तृष्णा को जन्म देते है। तृष्णा घोर प्रतिस्पृदा को जन्म देती है, मानव दौडता ही रहता है असंतोष से अंतहीन क्षितिज की ओर। हर साधन एक मृगजाल। अगर एक साधन सभी के पास हो जाय तो श्रेष्टतावादी को और भी उन्नत साधन चाहिए। मिले तब भी तनाव, न मिले तब भी तनाव। बस तनाव भरी मशीनी जिन्दगी। एक रोटी एक लंगोटी और दो गज कच्ची जमीन की आवश्यकता के लिए निकला मानव वापस "घर" (शान्ति) नहीं लौटता।
      लोग अक्सर व्यंग्य करते है कि भारतीयों की आधुनिक विज्ञान को देन क्या है? भारतीय मनीषी और साधारण ज्ञानी भी छल नहीं करते, वे मानवता को कोई ऐसा चक्र नहीं देते जो दूरगामी मृगजल साबित हो। उनका विज्ञान जीवन-मूल्यों, नैतिकताओं और शान्ति की केन्द्रीय भावनाओं पर आधारित था। जिसे आज व्यवहारिक नहीं माना जाता और इसीलिए प्राच्य भारतीय विज्ञान चित्र-विचित्र सा लगता है।
      भारतीय मनीषी सलाह देते कि गाय को हरी घास खिलाओ यह मानवता के लिए अच्छा कार्य है। आधुनिक लोग इसे कर्मकाण्ड और निर्थक पुण्यायी समझ कर नाक-भौ सिकोडते है। किन्तु अब यह स्पष्ट है कि हरी घास खाने वाले पशु अपने व्यर्थ से बहुत ही कम ग्रीन हाउस गैस का विसर्जन करते है, जबकि पशुओं को अनाज दिया जाय तो उनके गोबर मांसादि व्यर्थ से बहुत अधिक मात्रा में ग्रीन हाउस गैसों का विसर्जन होता है।

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    2. अनाज की बात छोड़िये, लोगों ने तो पूरक आहार के नाम पर गाय को ही मांसाहारी बना दिया है। ऐसी गायों के दूध और मूत्र में किन औषधीय गुणों की अपेक्षा की जा सकती है?

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  7. भौतिकवादियों और साम्यवादियों नें कभी सोचा भी न होगा कि आधुनिक साधन प्रधान विज्ञान संसाधनों के अन्यायपूर्ण वितरण और शोषण को प्रोत्साहित करता है। इस विकसित नवीनत्तम साधन सामग्री पर हर व्यक्ति अपना एकाधिकार जमाना चाहता है।
    वायुयान में हर यात्री बादशाही महत्व चाहता है तो कर्मचारी उन्हें राजसी ठाठ महसुस करवाने को मजबूर।
    एक सॉफ्ट्वेयर इंजिनियर बिल गैट्स विश्व का धनपति बनता है इसी विकास के कारण तो करोड़ों सॉफ्ट्वेयर इंजिनियर उसको और भी बडा बनाने का कर्म करने के लिए अभिशप्त।

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  8. सभी सुधीजनों को नमस्कार! सुज्ञ जी! इस आलेख का कथ्य आपने और भी सुबोध कर दिया है। जिस तरह एक झूठ को सच प्रमाणित करने के लिये झूठों की एक बड़ी श्रंखला निर्मित होती जाती है उसी तरह आधुनिक वैज्ञानिक शोध अंतहीन तृष्णा और भटकाव को ही जन्म देते हैं। शोध की दिशा गलत है यही मैं कहना चाहता था। हमें पुनः प्रकृति की ओर वापस जाना होगा इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय है ही नहीं। हर नयी वैज्ञानिक उपलब्धि अपने साथ कुछ नई समस्यायें साथ लेकर आती है उन समस्याओं के समाधान के लिये पुनः कई शोध और नई उपलब्धियों से "विकास" के साथ छल किया जाता है। पृथिवी के न जाने कितने जीव जंतुओं और वनस्पतियों की प्रजातियों को सदा के लिये समाप्त कर देने और जेनेटिक म्यूटेशन के लिये आधुनिक विज्ञान ही उत्तरदाई है। जैविक असंतुलन ने मनुष्य के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। पर ये तथाकथित वैज्ञानिक अभी तक अपने शोध की दिशा तय नहीं कर सके हैं। इस लेख के माध्यम से मैं सभी शोध वैज्ञानिकों से आग्रह करना चाहता हूँ कि जगत के कल्याण के लिये वे चमत्कार के मोह को छोड़ कर सत्यम-शिवम-सुन्दरम की दिशा में आगे बढ़ने की दिशा में प्रयास करें।

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