रविवार, 25 मार्च 2012

काल गणना का भारतीय वर्ष – “संवत्सर”

  परिवर्तन सृष्टि की अनिवार्य प्रक्रिया है जिसका दार्शनिक स्वरूप है द्वैत और गणितीय स्वरूप है संख्या।  भारत में प्रचलित 9 वार्षिक काल गणनाओं में से  सर्वाधिक उपयुक्त, वैज्ञानिक और मान्य विक्रमसंवत्सर प्रचलित है। तत्कालीन राजसत्ताओं ने किसी कारण विशेष को प्रमुखता देने के उद्देश्य से भिन्न-भिन्न नामों से इन्हें प्रचलित किया तथापि सभी संवत्सरों का वैज्ञानिक आधार एक ही रहा है।  
  हम जानते हैं कि किसी भी परिवर्तन का लेखा-जोखा काल-गणना के बिना संभव नहीं हो सकता। किंतु काल-गणना का प्रारम्भ हो कहाँ से यह एक वैज्ञानिक समस्या थी। ठीक वैसे ही जैसे कोई धरती के आदि-अंत छोर के बारे में पूछे। कई देशों में अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार कई वार्षिक गणनायें कर ली गयी हैं जैसे भारत में वित्तीय वर्ष अप्रैल से मार्च। किंतु भारतीय मनीषियों ने वर्षों के दीर्घ अनुसन्धान के पश्चात खगोलीय गति की गणनाओं के माध्यम से सृष्टि को आधार मानते हुये एक सार्वकालिक-सार्वभौमिक काल गणना प्रस्तुत की जिसका उद्देश्य जटिल ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया की वैज्ञानिकता को जनसाधारण के लिये सरल और ग्राह्य बनाने के अतिरिक्त लौकिक व्यावहारिकता भी था। इसीलिये भारतीय कालगणना ने पूरे विश्व के वैज्ञानिकों को सदा ही चमत्कृत किया है।
  भारतीय काल गणना ब्रह्माण्डीय घटनाओं का सूक्ष्मतम से विराटतम संख्याओं के रूप में गणितीय सूत्रानुवाद है। वर्तमान कलियुग से पूर्व वार्षिक कालगणना के लिये “युगाब्द” शब्द प्रचलित हुआ करता था। कालगणना की बड़ी संख्याओं में “चतुर्युग” भारतीय जनमानस में रचे-बसे हैं। वर्तमान कलियुग का प्रारम्भ द्वापर युग के अंत में हुये महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात हुआ था। ईसवी सन 2012 की 22 मार्च की सन्ध्या 7 बजकर 10 मिनट से वर्तमान विश्वबसु नामक संवत्सर प्रारम्भ हुआ है जो विक्रम संवत का 2069 वाँ वर्ष है और सृष्टि का एकअरब पंचानवेकरोड़ अठ्ठावनलाख पच्चासीहज़ार एकसौ बारहवाँ जन्म दिवस है। पाटलिपुत्र निवासी भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने एक वर्षावधि को 365.8586805 सौर्यदिनों का मान दिया था। एक सुखद आश्चर्य यह हैकि भारतीय तिथियाँ अपरिवर्तनीय रहती हैं यह, हमारी काल गणना की वैज्ञानिकता का ज्वलंत लौकिक उदाहरण है।
  ब्रह्माण्ड की अब तक की आयु 31,10,40,00,00,00,000 सौर वर्ष है। काल की लघुतम इकाई “तत्पर” और वृहत्तर इकाई “ब्रह्मा की आयु” है। ब्रह्मा का एक कल्प दिवस 432 करोड़ सौर वर्ष का होता है जबकि ब्रह्मा की कुल आयु है 1000 वर्ष।
   हम काल गणना के गणितीय विश्लेषण में न जाकर इसके कुछ व्यावहारिक पक्षों पर चर्चा करना चाहेंगे।
1-    सभी ब्रह्माण्डीय घटनाओं की पुनरावृत्ति एक निर्धारित कालोपरांत होती है। इससे ब्रह्माण्ड की पेंडुलम जैसी गति प्रमाणित होती है।
2-    पृथिवी पर घटित होने वाली अनेक भौतिक घटनायें निर्धारित अवधि के पश्चात पुनः अपनी दस्तक देती हैं, जैसे सूर्योदय-सूर्यास्त और छह ऋतुयें जोकि सूर्य और चन्द्रमा की गति से नियंत्रित व प्रभावित होती हैं।
3-    सूर्योदय, सूर्यास्त और छहऋतुयें पृथिवी पर तथा ब्रह्माण्ड के सभी निकटस्थ खगोलीय पिण्ड एक-दूसरे पर अवश्यंभावी भौतिक प्रभाव डालते ही हैं।
4-    सूर्य और ऋतुयें पृथिवी की जीव सृष्टि का अभिन्न कारण हैं। इसी अभिन्नता को ध्यान में रखते हुये सृष्टि के प्रतीक स्वरूप चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को वर्ष का आरम्भ स्वीकार किया गया। कोई भी आरम्भ नवीनता का द्योतक है। चैत्र माह में वसंत ऋतु के पश्चात जीर्णता का परित्याग कर पुनः नवीनता का चोला धारण करने वाली प्रकृति नवऊर्जा और नवचेतना का सन्देश देती है।
5-    वसंत के पश्चात ग्रीष्मऋतु प्रकृति को नवसृष्टि के लिये तैयार करने का शंखनाद करती है जो शक्ति के बिना सम्भव नहीं है। शक्ति समय-समय पर आवश्यकतानुरूप अपने विभिन्न रूपों में अवतरित होती है, इसीलिये हमारे यहाँ नववर्ष के प्रथम नौ दिन तक शक्ति के विभिन्न रूपों को जानने, उन्हें समझने और उनके व्यावहारिक महत्व को जीवन में समाहित करने के उद्देश्य से नवरात्रि आराधना का विधान लौकिक जीवन में प्रचलित है।
6-    चैत्र माह जीवन प्रक्रिया का एक सन्धिकाल सा प्रतीत होता है जिसमें कई परिवर्तन अपेक्षित होते हैं। भारतीय परिस्थितियों में मानव जीवन के लिये इन परिवर्तनों को सुगम और अनुकूल बनाने के लिये विद्वान महर्षियों द्वारा कुछ परम्परायें प्रचलित की गयीं।
7-    वसंत के पश्चात ग्रीष्म के आगमन होते ही सूर्य अपनी शक्ति से पृथिवी की संचित शक्तियों का (राजा द्वारा लिये जाने वाले कर, “टैक्स” की तरह) आहरण करने लगता है जिससे बाह्य ताप का तो सभी को अनुभव होता है पर सभी जीवों की पाचकाग्नि मन्द हो जाती है, इसलिये ऐसे आहार-विहार की योजना प्रशस्त की गयी (यथा- कृशरा(खिचड़ी), सत्तू, आदि सुपाच्य और हल्के भोज्य पदार्थ) जो मानव शरीर के लिये अनुकूल हो। इस काल में दही, मावा आदि दुग्ध विकारों का सेवन वर्ज्य रहता है। इनके सेवन से अपच और अम्लता आदि उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। इस काल में प्रतीकात्मक रूप से तैलाभ्यंग की परम्परा रही है। स्नान से पूर्व तैलाभ्यंग करने से डिहाइड्रेशन से तो बचाव होता ही है, वातजव्याधियों की इटियोलॉजी भी दुर्बल हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप आगामी वर्षा में होने वाली अर्थ्राइटिस जैसी व्याधियाँ प्रेसीपिटेट नहीं हो पातीं या कम होती हैं।
   भारतीय संवत्सर परम्परा महान कालगणना मात्र ही नहीं है अपितु प्रकृति, जीवन और ऊर्जा के नवीनीकरण का पर्व है। यह हमारी महान परम्पराओं का प्रतीक और उत्कृष्ट वैज्ञानिक विरासत भी है। आधुनिकता के क्षरित वातावरण में हमें अपनी उत्कृष्टता को हर हाल में बचाये रखना होगा।
जय भारत! जय सनातन धर्म!! जय आर्यभट्ट!!!

बुधवार, 21 मार्च 2012

स्वस्थ्य रहने की ऋषि प्रणीत प्रशस्त जीवन शैली

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व भारतीय ऋषियों ने अपने दीर्घ अनुसन्धान एवम प्रकृति के निरंतर साहचर्य से उत्कृष्ट जीवन शैली का विकास किया था जिसके अभ्यास के परिणामस्वरूप लोग व्याधिमुक्त रहते हुये दीर्घायु के सहज अधिकारी हुआ करते थे। नवीन अनुसन्धानों ने ऋषियों के उपदेशों की वैज्ञानिकता को स्वीकार किया और उसे “जीवनशैली का सनातन सत्य” निरूपित किया है। प्रस्तुत हैं आपके लिये कुछ सामान्य सी करणीय बातें -    
  1. सूर्योदय से पूर्व जागरण का अभ्यास। परिणाम– मलविबन्धता(कॉंस्टीपेशन) नहीं होती। आलस्य नहीं रहता, शरीर और मन में स्फूर्ति बनी रहती है।
  2. उषःपान (ताम्रपात्र में रात भर रखे जल का ऊषाकाल में पान)। परिणाम- मलविबन्धता को दूर करता है, नेत्र के लिये हितकारी है, मूत्र विकारों को दूर करता है, कोषिकाओं के अपवर्ज्य पदार्थों का निष्क्रमण भलीभाँति होता है जिससे रोगों की सम्भावनायें कम होती हैं। उषःपान के अभ्यास(आदत) से अर्श (बबासीर) की सम्भावनायें न्यून हो जाती हैं।
  3. चाय आज का सार्वभौमिक पेय बन चुका है अतः यदि आप चाय लेना चाहते हैं तो बिना चीनी या कम चीनी की नीबू वाली चाय लें। परिणाम- चाय में उपलब्ध एंटीऑक्सीडेंट की अधिकतम मात्रा शरीर को प्राप्त होती है जो रोग प्रतिरोध क्षमता को प्रबल बनाने में सहयोग करता है।
  4. तन्मनाभुंजीत (तन्मयतापूर्वक भोजन अर्थात भोजन के समय केवल भोजन के बारे में ही विचार करें अन्य किसी विषय के बारे में नहीं)। परिणाम- तृप्ति होती है, भोजन का पाचन अच्छी तरह होता है, मुखक्षत नहीं होते, पचित आहार के सूक्ष्मांशों का अवशोषण भलीभाँति होता है।
  5. भोजन से पूर्व बलि अवश्य दें (कार्बोहाइड्रेट एवम प्रोटीनयुक्त भोज्य पदार्थों का थोड़ा सा भाग अग्नि को समर्पित करना)। परिणाम- भोजन स्थल के आसपास का वातावरण फ़्यूमीगेशन से शुद्ध होता है, धूम्र के साथ भोजन के सूक्ष्मांश (नैनोपार्टिकल्स) शरीर में पहुँचकर ओषधि की तरह कार्यकारी होते हैं।                                                    व्यावहारिक रूप में इसे यूँ समझें- मिर्च खाने की अपेक्षा उसके धुँयें की थोड़ी सी मात्रा ही हमें बेचैन कर देती है। पर्व आदि पर दिन भर पकवान बनाने वाली महिलायें बिना खाये ही तृप्ति का अनुभव करती हैं। ये “स्माल इज़ पावरफुल” के दो छोटे उदाहरण हैं। यह बलिकर्म भोजन का प्राकृतिक परीक्षण भी है। विषयुक्त भोजन होने पर निकलने वाला धुँआँ सामान्य से अलग प्रकार का (चित्र-विचित्र, अर्थात विभिन्न रंग युक्त) होता है। निकलने वाले धुंये में यदि दुर्गन्ध हो तो भोजन अखाद्य है ऐसा बासी भोजन, विष या मांसादि के कारण होता है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि अनप्लीजेंट गंध वाला धुँआँ देने वाले खाद्य पदार्थ (मांसाहार) मनुष्य के लिये अखाद्य है।
  6. ठोस भोजन को अच्छी तरह चबायें और तरल को धीरे-धीर पियें। कहावत है कि रोटी को पियें और पानी को चबायें। परिणाम- भोजन का मैस्टीकेशन ठीक से होता है, हर्नियेशन की सम्भावनायें न्यून हो जाती हैं।
  7. नातिशीघ्रम नातिमन्दम, अर्थात भोजन न तो हड़बड़ी में बहुत ज़ल्दी-ज़ल्दी खायें और न बहुत धीरे-धीरे। परिणाम- भोजन कुमार्गी (आहार नली की अपेक्षा श्वास नली की ओर जाना, जिसके कारण सफोकेशन होकर मृत्यु तक की सम्भावना होती है) नहीं होगा, मन्दाग्नि की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी, एब्डॉमिनल फ़्लेचुलेंस नही होगा।
  8. नात्युष्णम नातिशीतम, भोजन न तो अधिक उष्ण हो न अधिक शीत। परिणाम- अधिक गर्म भोजन से मुँह की म्य़ूकस मेम्ब्रेन को क्षति पहुँचती है और स्वाद ग्रंथियाँ अपना कार्य ठीक से नहीं कर पातीं, मसूड़ों और दाँतों को क्षति पहुँचती है, जिंजीवाइटिस होने की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं, दाँतों का पतन ज़ल्दी ही हो जाता है। अतिशीत (बासी और फ़्रिज़ से तुरंत निकाले हुये) भोजन से पाचकाग्नि मन्द हो जाती है, फ़ूडप्वाइजनिंग की सम्भावना रहती है, भोजन में अरुचि उत्पन्न हो जाती है। आजकल भोज-समारोहों में भोजन के बाद लोग या तो कॉफ़ी पीते हैं या फिर आइस्क्रीम खाते हैं, पाचन की दृष्टि से दोनो ही गलत हैं।
  9. भोजन के समय जल की कम से कम मात्रा लें, बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा पीते रहें, भोजनोपरांत कभी भी खूब पानी मत पियें। भोजन से एक घण्टे पहले और दो घण्टे बाद यथेष्ट जलसेवन कर सकते हैं। परिणाम- भोजन के समय अधिक जल सेवन गैस्ट्रिक सीक्रीशन को डायलूट कर देता है जिससे आप अपचन के शिकार हो सकते हैं। भोजन के बाद जम के जल सेवन करने से जल अपनी अधोगति प्रवृत्ति के कारण  बिना पचे भोजन को ढ़केलते हुये पायलोरिक बॉल्व पर दबाव निर्मित करता है जिससे आमाशय एवम ड्यूओडिनम से सम्बन्धित कई व्याधियाँ होने के इटियोलोजिकल फैक्टर्स उत्पन्न होते हैं।
  10. अध्यशन (पहले का खाया हुआ भोजन पचे बिना ही पुनः कुछ खा लेना) न करें। आज की जीवनशैली में लोग दिन भर कुछ-न कुछ खाते ही रहते हैं, कभी चाय, कभी बिस्किट, कभी समोसा....।यह भक्षण का निकृष्ट दोष है। परिणाम- इससे अपचन, गैस्ट्राइटिस और अंत में पेप्टिक अल्सर होने की सम्भावनायें बनती हैं।
  11. इंड्यूस्ड डिफ़ीकेशन (बलपूर्वक मलनिष्कासन) का अभ्यास न करें। परिणाम- बल पूर्वक मल निष्कासन की आदत से फ़िशर इन एनो, प्रोलेप्स तथा हीमोर्होइड्स (बबासीर) की सम्भावनायें प्रबल हो जाती हैं।                       


           

वैश्विक स्वीकार्य बनता शाकाहार


बात सभ्यता की हो, अध्यात्म की, योग की या शाकाहार की, भारत का नाम ज़ुबान पर आना स्वाभाविक ही है। सच है कि इन सभी क्षेत्रों में भारत अग्रणी रहा है। वैदिक ऋषियों, जैन तीर्थंकरों, बौद्ध मुनियों और सिख गुरुओं ने अपने आचरण और उपदेश में वीरता, त्याग, प्रेम, करुणा और अहिंसा को अपनाया है मगर शाकाहार का प्रसार छिटपुट ही सही, भारत के बाहर भी रहा अवश्य होगा ऐसा सोचना भी नैसर्गिक ही है।

निरामिष पर एक पिछली पोस्ट में हमने इंग्लैंड में हुए एक अध्ययन के हवाले से देखा था कि वहाँ सर्वोच्च बुद्धि-क्षमता वाले अधिकांश बच्चे 30 वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले ही शाकाहारी हो गये थे। इसी प्रकार बेल्जियम के नगर घेंट में नगर प्रशासन ने सप्ताह के एक दिन को शाकाहार अनिवार्य घोषित करके शाकाहार के प्रति प्रतिबद्धता का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया था। पश्चिम जर्मनीअमेरिका में बढते शाकाहार की झलकियाँ भी हम निरामिष पर पिछले आलेखों में देख चुके हैं। शाकाहार के प्रति वैश्विक आकर्षण कोई नई बात नहीं है। आइये आज इस आलेख में हम यह पड़ताल करते हैं कि भारत के बाहर शाकाहार के बीज किस तरह पड़े और निरामिष प्रवृत्ति ने वहाँ किस प्रकार एक आन्दोलन का रूप लिया।

रविवार, 18 मार्च 2012

वेदों की अपौरुषेयता

   समय-समय पर विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की गणना की है। इस विषय में स्पष्ट ही विद्वानों के तीन समूह हैं। एक समूह वेदों को प्राचीनतम सिद्ध करने के प्रयास में है, दूसरा समूह वेदों को अर्वाचीन सिद्ध करने के प्रयास में है और एक तीसरा समूह है जो वेदों को अपौरुषेय स्वीकार करता है। इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है जिससे एक अनावश्यक विवाद को समाप्त किया जा सके। यहाँ हम कुछ सामान्य से बिन्दुओं पर चिंतन करेंगे।
    विद्वानों ने ऐतिह्य प्रमाणों, उपलब्ध विभिन्न साक्ष्यों की कड़ी जोड़ने, और अनुमान के आधार पर वेदों का अलग-अलग रचनाकाल निर्धारित किया है। यह एक मनोभौतिक प्रयास है जबकि वेदों के विषय में चिंतन करते समय उसके आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा की जाती रही है।
   वेदों के बारे कहा जाता है कि 1- ब्रह्मा के चार मुखों से चार वेदों की उत्पत्ति हुयी। इसलिये ये सृष्टि के प्रारम्भ से ही अपने अस्तित्व में हैं। 2- वेदव्यास ने ब्रह्मा के मुख से निकले वेद(ज्ञान) को लिपिबद्ध किया।
    पहले ही स्पष्ट करदूँ कि भारतीय दर्शन में तीन आदि देवों में से एक ब्रह्मा है जो शेष दो- विष्णु और शिव की तरह ही अनादि, अनंत, अखण्ड और अमूर्त है। लोक में इनके मूर्त स्वरूप के दर्शन होते हैं जो मनुष्य की अपनी कल्पना पर आधारित हैं। परवर्तीकाल में इन देवों का इतना मानवीयकरण किया गया कि मनुष्य जीवन की सभी सामान्य घटनाओं को इनके साथ जोड़कर देखा जाने लगा। फिर तो न जाने कितनी रोचक कहानियाँ भी गढ़ ली गयीं और इनका उपयोग लोक रंजन के लिये भी होने लगा। भारतीय दर्शन उन ऋषियों का ऋणी है जिन्होंने तात्विक ज्ञान का मानवीयकरण करते समय दार्शनिक-आध्यात्मिक भावों के लिये विभिन्न प्रतीकों का प्रयोग कर अमूर्त को मूर्त बनाकर जन सामान्य के लिये प्रस्तुत किया। इसके दो प्रत्यक्ष लाभ हुये, एक तो यह कि तात्विक ज्ञान, जो जनसामान्य का प्रायः विषय नहीं हुआ करता हीनबुद्धि लोगों की विकृत व्याख्या से बचा रहा। वे सतही भौतिक व्याख्याओं में उलझे रहे और दूसरा यह कि अनेक गूढ़ तथ्यों को इन प्रतीकों में सहेज कर विषय को रोचक बना दिया गया।
   अब ब्रह्मा के चार मुखों का क्या अर्थ है यह बताने की आवश्यकता नहीं रह गयी। मनुष्य जीवन से सम्बन्धित सभी अनिवार्य विषयों के सनातन ज्ञान का मौलिक वर्गीकरण कर वेद्व्यास द्वारा चार वेदों को लिपिबद्ध किया गया। वैदिक ज्ञान श्रुत परम्परा से प्रवाहित होता हुआ.... पीढ़ी दर पीढ़ी चलता हुआ वेदव्यास की लेखनी के माध्यम से लिपिबद्ध हुआ। अर्थात वेदव्यास मूल लेखक न होकर एक संकलक थे जिन्होंने श्रुतज्ञान अगली पीढ़ियों के लिये संरक्षित करने का महान कार्य किया। तब इसका मूल लेखक कौन था यह प्रश्न सामने आता है। इसका उत्तर देने के लिये एक ही उदाहरण देना चाहूँगा, चिकित्सा शिक्षा के विद्यार्थी जिस शरीर रचना शास्त्र का अध्ययन करते हैं उसे पूरी दुनिया के लोग ग्रे की एनाटॉमी के नाम से जानते हैं। इससे यह स्पष्ट सन्देश मिलता है कि इस एनाटॉमी के लेखक हेनरी ग्रे हैं। पर चिकित्सा विज्ञान में एनाटॉमी ग्रे के जन्म से पहले भी पाठ्यक्रम में थी और ग्रे की मृत्यु के पश्चात तो उसके कलेवर और तथ्यों में निरंतर वृद्धि होती रही है। यह कोई कविता या उपन्यास नहीं है जिसके लिये लोग अपने नाम को लेकर इतना परेशान  होते रहते हैं। कोई भी ज्ञान एक लम्बी समय साधना का परिणाम होता है जिसमें न जाने कितनी पीढ़ियों का समर्पण और त्याग होम हुआ रहता है।
   तो वैदिक ज्ञान भी युगों के तपोपरांत संचित, परिवर्धित और संवर्धित ज्ञान का एक संकलन है जिसे बहुत बाद में लिपिबद्ध किया गया। जिस तरह लिपि के आविष्कार से पहले भी भाषाओं का अस्तित्व था उसी तरह वेदों के संकलन से पूर्व भी वैदिक ज्ञान अपने अस्तित्व में था। उस युग में रॉयल्टी का भी कोई झंझट नहीं था कि हर कोई अपने नाम से एक-एक ऋचा का उल्लेख करता। दूसरे, तब ज्ञान का उद्देश्य आज की तरह व्यापार नहीं था, न ही श्रेय लेने की कोई होड़ हुआ करती थी। सब कुछ प्राणिमात्र के कल्याण की पवित्र भावना से किया जाता था। ज्ञान तब श्रद्धा की चीज थी, लोग पवित्र भावना से अनुसन्धान में लगे रहते थे। प्राप्त हुआ ज्ञान ईश्वर के वरदान या उपकार के परिणाम के रूप में स्वीकार किया जाता था। इसलिये ज्ञान का श्रेय उसके अनुसन्धानकर्ता को नहीं अपितु ईश्वर को दिया जाता था। यह सर्वशक्तिमान के प्रति मनुष्य की विनम्र कृतज्ञता थी। यूनीवर्सल ट्रुथ मनुष्य के जन्म से पूर्व भी था और इस धरती के समाप्त हो जाने के बाद भी रहेगा। ऐसा ज्ञान सनातन है... अपरिवर्तनीय है, इसलिये अपौरुषेय है। इसीलिये वेदों की अपौरुषेयता निर्विवाद तथ्य है।


स्वप्न का रहस्य – अंतिम भाग


   अभी तक आप पढ़ चुके हैं – प्रकृति में शक्तियों के उदय और अवसान की स्वाभाविक प्रक्रिया एक सनातन सत्य है। शून्य जिन शक्तियों को प्रकट करता है उन्हें एक निश्चित कालोपरांत पुनः अपने में समेट लेता है। प्रकृति की इस अद्भुत लीला को समझ लेने के पश्चात हम जन्म के सुख और मृत्यु के दुःख को सहज भाव से स्वीकार कर लेते हैं। तत्ववेत्ताओं ने काल और दिक के महत्व को स्वीकार कर उनका आवर्तिक वर्गीकरण किया। इतनी चर्चा के पश्चात ज़ोडोरियस ने सत्य के लौकिक भेदों के बारे में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। अब आगे की कथा इस प्रकार है-

   ज़ोडोरियस का यह प्रश्न बड़ा ही व्यावहारिक था। एक श्रेष्ठ जिज्ञासु को अपने सम्मुख पाकर चिरायु ऋषि भी आनन्दित थे। हिमालय की दिव्य भूमि में जब यह सम्वाद हो रहा था तब भी कलियुग ही था, पर यह अभी वाला कलियुग नहीं...... बहुत युगों पहले वाला कलियुग। उसके बाद से तो न जाने कितनी बार चतुर्युग बीत चुके हैं।
   
   ज़ोडोरियस की जिज्ञासा सुनकर ऋषि बोले- “लौकिक जगत की अपनी सीमायें होती हैं इसीलिये लौकिक सत्य भी सीमित किंतु बहु आयामी होता है। यह पूर्ण सनातनसत्य नहीं, हम इसे एकदेशीय सत्य कह सकते हैं। एकदेशीय होने के कारण अन्य देश के लिये यह छायावत ही प्रभावी हो पाता है। दूसरा कारण है व्यक्ति विशेष की विशिष्ट स्थित और अवलोकन क्षमता। भ्रांतियाँ इसीलिये उत्पन्न होती हैं। भ्रांति सत्य न हो कर भी सत्य जैसी ही प्रतीत होती है। किसी के ‘होने’ और उसके ‘प्रतीत होने’ में तात्विक अंतर है। ये आभासी सत्य केवल समुदायों में ही नहीं अपितु हर व्यक्ति में कुछ न कुछ भिन्नता लिये हुये होते हैं। एक का आभासीसत्य दूसरे के आभासीसत्य से भिन्न होने के कारण द्वन्द का कारण बनता है। कलियुग में सत्य के अंतिम पाद का क्षरण हो रहा होता है इसलिये रजोगुण ......और उससे भी अधिक तमोगुण की प्रमुखता के कारण अहंकार और अतत्वाभिनिवेश अपनी चरम सीमा की ओर गति करते दिखायी देते हैं। ‘अकरणीय’ करणीय हो जाते हैं और ‘करणीय’ अकरणीय। ‘कुविचार’ स्वीकार्य हो जाते हैं और ‘सुविचार’ वर्ज्य एवम उपेक्षित। वृत्तियाँ अधोगामी हो जाती हैं, लोग वेदों में अनर्थ का आरोपण करने लगते हैं, भ्रष्ट आचरण और नैतिक पतन स्वार्थ सिद्धि के स्वीकार्य साधन बन जाते हैं, लोग मांसाहार में अहिंसा और शाकाहार में हिंसा देखने लगते हैं, ईश्वर की सृष्टि पर अनधिकृत अधिकार करने की चेष्टा कर प्रकृति के विरुद्ध आचरण करने के लिये उद्द्यत हो उठते हैं और न केवल दैहिक अपितु मानसिक हिंसा भी प्रशस्त मानी जाने लगती है। यह आभासी सत्य वैश्विक व्यापार बनकर उभरता है और प्रतिक्षण अपने हिंसक प्रभाव से न केवल मनुष्य समाज में अपितु चराचर जगत में विनाश लीला का कारण बनता है। हिंसक शक्तियों का प्रभाव जीवन और समाज के हर क्षेत्र में प्रबल हो जाता है। प्राणों के रक्षण के स्थान पर उनके हरण की गतिविधियों में समाज की रुचि अधिक रहती इसी कारण सबल अत्याचार ‘करने’ के लिये स्वतंत्र और दुर्बल अत्याचार ‘सहने’ के लिये बाध्य हो जाते हैं। बौद्धिक प्रवाह की गति प्राणिमात्र के लिये भोजन की नहीं अपितु अस्त्र-शस्त्र की व्यवस्था की ओर हो जाती है ताकि हिंसा के वर्चस्व को स्थापित किया जा सके। ‘वर्ज्य’ स्वीकार्य हो प्रतिष्ठित हो जाता है। प्राणियों में बुद्धिमान होने का मनुष्य को दिया ईश्वरीय उपहार ही अधोवृत्ति और बौद्धिक शक्ति के दुरुपयोग के कारण जीवन के विनाश का भी कारण बनता है। बुद्धि उपहार भी है और अभिषाप भी.....जो जिस रूप में स्वीकार कर सके।“
   ज़ोडोरियस के मस्तक पर चिंता की रेखायें उभर आयीं, कलियुग में मनुष्य की अधोवृत्ति और अतत्वाभिनिवेष के सम्भावित परिणामों से वह काँप उठा। दीनभाव से उसने अपने हाथ जोड़कर विनती की- “प्रभु! तो ऐसी स्थिति में मनुष्य को क्या करना चाहिये? प्राकृतिक शक्तियों के उदय और अवसान को तो हमें स्वीकारना ही होगा किंतु मनुष्यकृत विनाश लीला से बचने का क्या उपाय है?”
   ऋषि ने परिहास किया -“मनुष्य भी तो प्रकृति का ही एक घटक है, उससे भयभीत होने की क्या आवश्यकता? वह अन्य दैवीय शक्तियों से अधिक शक्तिशाली तो नहीं!”
 
   वे किंचित रुककर पुनः मुस्कराकर बोले- “जिनकी बुद्धि अभी अधोगामी नहीं हुयी है उन्हें स्थितप्रज्ञ की तरह आचरण करना होगा.... सत्य के बीज को बचाकर रखना होगा ताकि उचित अवसर आने पर पुनः बीजारोपण किया जा सके..... उन्हें अस्तित्व के संघर्ष के लिये स्वयं को अर्पित करना होगा”  
  
   ऋषि के बताये उपाय से संतुष्ट हो ज़ोडोरियस बोला- “भगवन! मैं संतुष्ट हुआ, किंतु एक प्रार्थना है .... मैं अब वापस ग्रीस नहीं जाना चाहता। मुझे अपने चरणों में आश्रय दीजिये, मैं यहीं रहकर साधना करूँगा।“
   ऋषि ने कहा –“ हिमालय में तुम्हारा स्वागत है किंतु ग्रीस को तुम्हारी आवश्यकता है ....और केवल ग्रीस को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण पश्चिम को तुम्हारी आवश्यकता है। युगों से यही परम्परा रही है कि पश्चिम से लोग यहाँ आते रहे हैं किंतु दीप जला लेने के बाद उन्हें वापस जाना ही पड़ा है। वे वापस नहीं जायेंगे तो पश्चिम में बीजारोपण कौन करेगा!”

   ऋषि के मन में वैश्विक चिंता और प्राणिमात्र के प्रति करुणा के भाव देखकर ज़ोडोरियस भाव विव्हल हो उठा। उसके अश्रु बह उठे, ऋषि चरणों में प्रणाम करते समय उसके अवरुद्ध कण्ठ से मात्र इतना ही निकल सका- “मैने ठीक ही सुना था, हिमालय की यह भूमि दिव्य है।”

                                 समाप्त ।           
          

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

स्वप्न का रहस्य ...भाग- 3

   पिछले अंक में आपने पढ़ा- चिरायु ऋषि ने ज़ोडोरियस की प्राण रक्षा की और उसे अपनी कन्दरा में ले गये जहाँ उन्होंने उसकी स्वप्न जिज्ञासा के समाधान का प्रयास किया किंतु ज़ोडोरियस की जिज्ञासा-बुभुक्षा ऋषि के दिव्य वचनामृतों से और भी बढ़ गयी। आगे की कथा इस प्रकार है –
   ऋषि द्वारा लाये कन्दमूल का आहार कर ज़ोडोरियस के उदर की संतुष्टि हुयी। तात्विक साधना में लीन रहने वाले ऋषि के लोकाचार से ज़ोडोरियस भावविभोर हो उठा। थोड़े विश्राम के पश्चात वार्ता पुनः प्रारम्भ हुयी।
  ऋषि बोले- “सृष्टि स्वयं में एक विकार है किंतु सत्वादि गुणों की साम्यावस्था एवम एकोल्वण भेद से सात्विक, राजसिक तथा तामसिक प्रभावों के परिणामस्वरूप सृष्टि की दिशा एवम दशा निर्धारित होती रहती है। मनुष्य के कर्म इन गुणों से प्रभावित होते हैं जिसका स्पष्ट प्रभाव समाज पर परिलक्षित होता। मनुष्य की सामूहिक चित्तवृत्ति के प्रभाव से सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग नामक कालखण्ड अस्तित्व में आते हैं। सतयुग के प्रारम्भ में सत्वादि तीनो गुण साम्यावस्था में रहते हैं किंतु शनैः-शनैः सात्विक गुणों में क्षरण प्रारम्भ होता है, सात्विक गुण के एक पाद के पूर्ण क्षरण होते ही सतयुग का अंत हो जाता है। त्रेता युग के प्रारम्भ में सत्य के तीन पाद ही रहते हैं। द्वितीय पाद के क्षरण का अंत त्रेतायुग की समाप्ति के साथ होता है। पुनः द्वापरयुग में तृतीय पाद का क्षरण प्रारम्भ होता है और उसका अंत होते ही द्वापरयुग की भी समाप्ति हो जाती है। जब सत्य का एक पाद ही रह जाता है तब समाज में हर प्रकार का पतन दृष्टिगोचर होता है, इसे हम कलियुग कहते हैं। पुनः इसका भी क्षरण होता है और इस अंतिम पाद के पूर्ण समाप्त होने तक कलियुग अपनी चरम स्थिति तक पहुँच चुका होता है। इसकी परिणति खण्ड प्रलय के रूप में होती है। काल का यह स्वाभाविक विभाजन है जो गणितीय और मनुष्य के चारित्रिक समीकरणों से निर्मित होता है। यह अवश्यम्भावी है किंतु यह सोचकर अकर्मण्य नहीं हुआ जा सकता, निरंतर सद्प्रयास एवम सत्चिंतन ही मनुष्य के लिये करणीय और प्रशस्त है। इन सभी कालखण्डों में विभिन्न सभ्यतायें अस्तित्व में आती और विलीन होती रहती हैं। इनका लेखा-जोखा रख पाना सम्भव नहीं किंतु सभी सभ्यताओं में इस विषय पर चिंतन, शोध और मत-मतांतर होते रहे हैं। लोग अपने अस्तित्व की कड़ियाँ इतिहास और पुरातत्व में खोजते रहते हैं।“
   ज़ोडोरियस ने प्रश्न किया- “ऋषिवर! काल तो एक काल्पनिक घटक है वह इतना अस्तित्ववान कैसे हो गया?”
    ऋषि बोले- “भौतिक दृष्टि से काल को आप काल्पनिक कह सकते हैं किंतु जो भी भौतिक है उसके अस्तित्व के लिये काल एक अपरिहार्य घटक है। काल और दिक ही ऐसे दो घटक हैं जिन्होंने मनुष्य की बुद्धि को सर्वाधिक चमत्कृत किया है। इनका होना सृष्टि का होना है, इनके अस्तित्व के बिना सृष्टि का भी कोई अस्तित्व नहीं। कोई भी परिवर्तन काल और दिक के बिना सम्भव नहीं इसीलिये ये काल्पनिक होते हुये भी इतने अस्तित्ववान हैं। स्वयं में ‘अभाव’ होते हुये भी ‘भाव’ जगत के लिये इनकी अनिवार्यता ने इन्हें इतना महत्वपूर्ण बना दिया है।“
    ज़ोडोरियस का अंतःकरण ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो रहा था। उसके मुखमण्डल पर एक दुर्लभ सी दिव्य आभा छिटक आयी थी। आनन्दित होते हुये उसने अगला प्रश्न किया- “भगवन! मनुष्य समाज में सत्य को लेकर होने वाली भ्रांतियों और हिंसक आचरण से जनसामान्य को ही सर्वाधिक क्षति उठानी पड़ती है। पृथक-पृथक समुदायों के पृथक-पृथक सत्य जनसंघर्ष के तुच्छ कारण बनते हैं, इनके परिणाम अवांछित किंतु भोगने की विवशता से परिपूर्ण हैं। सभी जीवों में सर्वाधिक शक्तिशाली और बुद्धिमान होते हुये भी मानव जीवन इस सबके लिये इतना अभिषप्त क्यों है?”
(.... अगले अंक में समाप्य)    

स्वप्न का रहस्य (...भाग 2)

    प्रथम अंक में आप पढ़ चुके हैं- एक स्वप्न को देख जिज्ञासा से भर उठे ग्रीसवासी ज़ोडोरियस ने उसका रहस्य जानने के लिये अपने गुरु सोलोमन की आज्ञा से भारत की ओर प्रस्थान किया। चिरायु ऋषि के दर्शन की अभिलाषा से हिमालय के जनशून्य हिमप्रांत में प्रवास के अनंतर एक हिमकुण्ड में स्नान करते समय वह मूर्छित हो गया। अब आगे की कथा इस प्रकार है-

   कोई नहीं जानता ऐसे सुयोग-संयोग क्यों और कैसे निर्मित होते हैं। पर जब भी निर्मित होते हैं ये तो हम चमत्कृत हुये बिना नहीं रह पाते। जिस समय ज़ोडोरियस प्राणरक्षा के लिये संघर्षरत था ठीक उसी समय उष्ण जलकुण्ड के मार्ग में पड़ने वाले इस शीत जलकुण्ड के समीप चिरायु ऋषि आ पहुँचे। ऋषि ने ज़ोडोरियस को उस कुण्ड से बाहर निकाल, प्राथमिक उपचारोपरांत अपनी पीठ पर लादा और उष्ण जलकुण्ड की ओर प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने एक बार पुनः उसका उपचार किया। थोड़े ही प्रयास से ज़ोडोरियस की चेतना वापस आ गयी। ज़ोडोरियस की प्राणरक्षा हुयी। पूर्व ने पश्चिम को प्राणों का उपहार दिया।  

   ज़ोडोरियस ने देखा, हिम प्रस्तर से निर्मित उस छोटी सी कन्दरा में चीड़ की पत्तियाँ सघनता से बिछी हुयी थीं। ऋषि ने ज़ोडोरियस को समीप ही बैठाकर कहा- “...तो स्वप्न में प्रकृति द्वारा अपनी सारी शक्तियाँ वापस ले लेने की बात से आप चिंतित हो उठे और स्वप्न के इस रहस्य को जानने की जिज्ञासा में यहाँ तक आ पहुँचे, यही न!”

   ज़ोडोरियस ने कहा- “ऐसा ही है भगवन”।

   चिरायु बोले- “किंतु इसमें न तो कुछ भी अस्वाभाविक है और न ही इससे भयभीत होने की कोई  आवश्यकता। यदि कभी वर्षाऋतु में जल के बुलबुलों को बनते और फ़ूटते हुये ध्यान से देखा होगा तो इस स्वप्न के रहस्य को भी सहज ही समझ सकोगे। स्मरण कीजिये, बुलबुलों के बनने और फूटने के बीच विकास की क्रमिक स्थितियाँ होती हैं, विकास की चरम स्थिति ही उसके समाप्त होने का कारण होती है। प्रकृति शनैः-शनैः अपनी शक्तियों को प्रकट करती है, उनका विस्तार करती है और चरम स्थिति प्राप्त होते ही पूर्वावस्था की ओर प्रतिगमन करती है। प्रसरण और संकुचन की आवृतियों से युक्त ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियाँ अपने विभिन्न रूपों में नाना लीलायें करती हुयी पूर्वावस्था को प्राप्त करती हैं....ताकि अगली आवृतियों की तैयारी की जा सके। समुद्र का ज्वार आता ही है जाने के लिये ....और फिर जाता ही है पुनः आने के लिये। प्रकृति की क्रियाशीलता को भी विश्राम की आवश्यकता होती है। क्रियाशीलता ही प्रकृति की शक्तियों का प्रकटीकरण है और उसकी विश्रामावस्था ही उन शक्तियों के पुनःसंचय की एक अनिवार्य स्थिति। ब्रह्माण्ड के समस्त दृष्टव्यादृष्टव्य पिण्ड कभी न कभी इस विश्रामावस्था को प्राप्त होते ही हैं। अभाव प्रकट होता है भाव बनकर और वही भाव पुनः विलीन हो जाता है अभाव में ही। उद्भव और  विलय की, निद्रा और जागरण की, संकुचन और विमोचन की, जन्म और मृत्यु की यह लयात्मक लीला है। मृत्यु भी जीवन का विराम नहीं एक विश्राम मात्र ही है। इसे समझ लेने के पश्चात फिर कोई भय नहीं रहता, कोई दुःख नहीं होता। महादानव की तरह ब्रह्माण्ड के विशाल पिण्डों के भूखे कृष्णविवर की भक्षण लीला भी तो अगले उत्सर्जन की प्रारम्भिक प्रक्रिया मात्र ही तो है। इसमें कैसा भय और कैसा आश्चर्य? सम्भव है कि तुम्हारा स्वप्न किसी खण्ड प्रलय का संकेत हो। पृथिवी पर मानव जीवन से पूर्व और उसके पश्चात भी न जाने कितनी बार खण्डप्रलयों द्वारा धरती पर उथल-पुथल होती रही है और मानव सभ्यतायें विकसित और विलीन होती रही हैं। ऐसी लीलायें इतनी बार हो चुकी हैं कि इनके इतिहास का लेखा-जोखा भी हमारी क्षमताओं से परे है। बस, हम तो सत्य के चतुष्पादों के क्षरण के अनुरूप कालखण्डों का अनुमान भर लगा सकते हैं।”

   ज़ोडोरियस के मुखमंडल पर संतोष के भाव देख ऋषि प्रसन्न हुये। ज़ोडोरियस को दिव्यता का साक्षात अनुभव हो रहा था। ऐसी दिव्य शांति उसे अब से पूर्व कभी प्राप्त नहीं हो सकी थी। पश्चिम के जिज्ञासु पूर्व की ओर क्यों भागते रहते हैं इसका प्रमाण आज मिल गया था उसे। जैसे किसी बुभुक्ष की भूख व्यंजन को देख और भी बढ़ जाती है उसी तरह ऋषि चिंतन से प्रभावित हो उसकी जिज्ञासायें बुभुक्ष की भाँति कुलबुलाने लगीं। उसने प्रश्न किया- “कालखण्डों के युगीय वर्गीकरण के बारे में सुना है हमने किंतु सत्य के चतुष्पादों से इसके सम्बन्ध को नहीं समझ सके। गणित में हमारी स्वाभाविक रुचि है पर जीवन दर्शन से इसके सम्बंध की ब्रह्मावर्तीय दिव्यदृष्टि से पश्चिम जगत चमत्कृत है। हम चतुष्पादों के बारे में आपसे कुछ और जानना चाहते हैं।“

   चिरायु ऋषि मुस्कराते हुये उठ खड़े हुये, बोले- “ज़ोडोरियस! इस विषय पर बाद में, अभी तो तुम्हें शक्ति की आवश्यकता है। तुम यहीं रुको, मैं अभी आता हूँ। अतिथि का स्वागत तो अभी हमने किया ही नहीं।“
 क्रमशः ......                    

बुधवार, 14 मार्च 2012

स्वप्न का रहस्य

     जिज्ञासा और अनुसन्धान मनुष्य की वे सहज बौद्धिक वृत्तियाँ हैं जिनके कारण सभ्यताओं का उदय और विकास होता है। इस विकास की अंतिम परिणति सदा ही दुःखद अवसान के रूप में सभ्यता के इतिहास का एक अनिवार्य भाग बनती रही है। मनुष्य के विचार, उसकी कार्य प्रणाली और उसके लक्ष्य 'काल' को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करते रहे हैं। किंतु आश्चर्यजनक रूप से इन परिभाषाओं की भी एक निर्धारित क्रम से पुनरावृत्ति होती रही है। यह क्रम इतना सुनिश्चित है कि काल का वर्गीकरण कर पाना मनुष्य के लिये बड़ा सुगम हो गया। हिमालय की उपत्यिकाओं में साधनारत ऋषियों ने काल के लयबद्ध नर्तन का प्रत्यक्ष किया। यह महानर्तन अद्भुत है...विज्ञान के प्रकाश से देदीप्यमान और नर्तन की कला के लास्य से आनन्ददायी। ऊर्जा से पिंड और पुनः पिंड से ऊर्जा तक की ही यात्रा नहीं अपितु अभाव से भाव और पुनः भाव से अभाव तक चिरनिद्रा की लयबद्ध यात्रा के दर्शन ने बुद्धिजीवियों को सदा ही सम्मोहित किया है। सत्यम शिवम सुन्दरम का यह साक्षात्कार सात्विकों के जीवन का लक्ष्य रहा है। ऐसे ही एक लक्ष्य के साथ कभी सुदूर ग्रीसवासी ज़ोडोरियस को अपने गुरु सोलोमन की आज्ञा से हिमालय की यात्रा के लिये प्रस्थान करना पड़ा था।
     उस रात ज़ोडोरियस को फिर नींद नहीं आ सकी। रात्रि के अंतिम प्रहर में देखे गये उस स्वप्न ने एक हलचल सी मचा दी थी। भोर होते ही ज़ोडोरियस अपने गुरु सोलोमन से इस अद्भुत स्वप्न के रहस्य को जानने के लिये बेचैन हो उठा।
      स्वप्न के रहस्य का गुरु समाधान नहीं कर सके, किंतु उन्होंने समाधान का मार्ग बता दिया - हिमालय । शीघ्र ही ज़ोडोरियस ने भारत की यात्रा प्रारम्भ की।
      अपनी जिज्ञासा की शांति के लिये पृथिवी के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा कर ब्रह्मावर्त के हिमाच्छादित शीतप्रांत में पहुँचे ग्रीसवासी ज़ोडोरियस ने अपने मार्ग में पड़ने वाले अंतिम ग्राम 'आरोहण' को प्रणाम कर पृथिवी के जनशून्य भाग में प्रवेश किया।
    तब इस देश का नाम ब्रह्मावर्त था,.....भारत और आर्यावर्त जैसे न जाने कितने और भी नाम रह चुके थे इसके। ब्रह्मावर्त से लेकर इंडिया तक की इस काल यात्रा में मोहन जोदड़ो और हड़प्पा जैसी न जाने कितनी सभ्यताओं का उदय, विकास और अवसान होता रहा। लौकिक विकास ने जीवन को भौतिक सुख प्रदान किया तो आध्यात्मिक विकास ने मन को शांत किया। और सदा की तरह यांत्रिक विकास पतन का मार्ग प्रशस्त करता रहा।
    ब्रह्मावर्त के तपोनिष्ठ महर्षियों की अनुकम्पा से ग्रीस से आरोहण तक की यात्रा मनोयांत्रिकनियंत्रण प्रणाली से संचालित विशेष यान से पूरी करने के बाद आगे की पदयात्रा का मार्ग अति कठिन था किंतु ज़ोडोरियस की जिज्ञासा के आगे यह कठिनायी कुछ भी नहीं थी।
    जनशून्य हिमप्रांत में, आरोहण ग्राम के कुछ ही आगे जाने पर ज़ोडोरियस की भेंट एक दीर्घकाय ताम्रवर्णी साधु से हुयी। ज़ोडोरियस को जनशून्य प्रांत की ओर बढ़ते देख साधु ने हाथ से संकेत कर उसे अपने पास बुलाया। ज़ोडोरियस के समीप पहुँचते ही साधु ने ब्रह्मांडीय भाषांतरण सूक्ष्म प्रणाली के माध्यम से पूछा - "पथिक! इस मार्ग पर तो ज्ञान पिपासु ही आगे बढ़ते हैं, अन्य कोई इधर नहीं आता। कहो, मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?"
     ज़ोडोरियस ने साधु को आश्चर्य से देख मन में विचार किया- अद्भुत है यह देश ....और अद्भुत अनुमानशक्ति है यहाँ के लोगों की। उसने जिज्ञासु भाव से निवेदन किया- "अपने गुरु सोलोमन की आज्ञा से मैं चिरायु ऋषि के दर्शन का अभिलाषी हूँ किंतु इस हिम प्रांत में अपने लक्ष्य तक पहुँचना दुष्कर प्रतीत हो रहा है मुझे।"
साधु ने अपने नेत्र बन्द किये, किंचित मौन के पश्चात बोले- "ज्ञान के पिपासु को अपना मार्ग स्वयं ही निर्मित करना होता है। जिज्ञासा की तीव्रता और उद्देश्य की पवित्रता से इस पथ निर्माण में सहायता मिलती है। स्मरण रहे कि सूर्योदय की दिशा से विचलित हुये बिना आगे बढ़ते जाना है तुम्हें। .....और हाँ! प्राण रक्षा के लिये तुम्हें अष्टभक्ष्य के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा वहाँ।"
    ज़ोडोरियस ने पूछा- "किंतु मैं उन्हें पहचानूँगा कैसे?"
    ज़ोडोरियस को अपने पीछे आने का संकेत कर साधु एक ओर को चल दिये। निकट ही, जहाँ हिम अधिक नहीं था श्वेत धारीयुक्त दीर्घपत्र वाले एक छोटे से पौधे को देख साधु रुक गये। अपनी सुदीर्घ अंगुलियों से पौधे के आसपास के हिम को हटाकर उन्होंने पौधे को समूल उखाड़ लिया। ज़ोडोरियस ने देखा, पौधे के मूल में श्वेत कन्दों का एक गुच्छ था। साधु ने कन्दों को विलग किया फिर हिम से रगड़कर मिट्टी को साफ़ किया और ज़ोडोरियस को देते हुये कहा- " यह अधिक मीठा तो नहीं पर साधकों की प्राण रक्षा के लिये उत्तम है, जीवनदायी होने के कारण हम इसे जीवक कहते हैं।"
     दोनो पुनः आगे बढ़े, समीप ही उन्हें एक और पौधा मिला। इसके पत्र और भी तनु किंतु दीर्घ थे, पत्रों का रंग भी उतना गहरा नहीं था। साधु ने उसे भी उखाड़कर पूर्ववत हिम से रगड़ उसके पुष्ट कन्दों को साफ किया फिर ज़ोडोरियस को देते हुये कहा- "यह जीवक से कुछ अधिक मीठा है, और पुष्टिकर भी। ऋषियों का प्रिय भक्ष्य होने के कारण लोग इसे ऋषभक कहते हैं। अष्टभक्ष्य में यहाँ इतना ही है शेष भी यत्र-तत्र मिल जायेंगे, किन्तु तुम्हारी प्राण रक्षा के लिये ये दो ही पर्याप्त और प्रचुर हैं। जाओ, अपने लक्ष्य को प्राप्त करो।"
साधु लौट गये, ज़ोडोरियस ने श्रद्धावनत हो साधु को प्रणाम कर आगे की ओर प्रस्थान किया।
     चिरायु ऋषि के दर्शन की अभिलाषा से ज़ोडोरियस आगे बढ़ता गया.......जनशून्य प्रांत में जहाँ प्राण रक्षा दुष्कर है, वह जिज्ञासु भाव से आगे बढ़ता रहा। प्रिय पुत्र म्यूनस और पत्नी वीनस के मोह का स्वाभाविक बन्धन भी उसके लिये बाधा नहीं बन सका। पश्चिम की पूर्व यात्रा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती रही। ऋषभक और जीवक का कन्दाहार कर प्राण रक्षा करते हुये भटकते ज़ोडोरियस को एक दिन फिर एक जलकुण्ड के दर्शन हुये। किंतु पिछले दिनों मिले जलकुण्ड की तरह यह जलकुण्ड वाष्पाच्छादित नहीं था। तथापि ज़ोडोरियस ने इस शीत जलकुण्ड में स्नान करना निश्चित किया।
    ज़ोडोरियस ने जलकुण्ड में छलांग लगा तो दी किंतु तुरंत ही उसे अपनी भूल का आभास हो गया। उसका सम्पूर्ण गात शीत के प्रभाव से संवेदनाशून्य होने लगा। उसने किनारे आने का प्रयास किया पर हाथ-पैर उतना सहयोग कर पाने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे। अथक प्रयास के बाद वह जैसे-तैसे किनारे तक पहुँच तो गया किन्तु जैसे ही उसने कुण्ड के किनारे की हिम परत को पकड़ ऊपर आने का प्रयास किया कि विलग हुये हिमखंड के साथ वह पुनः उसी में जा गिरा। छपाक के साथ कुण्ड की जमा देने वाली जल राशि ने उसका पुनः स्वागत किया। पत्नी वीनस, पुत्र म्यूनस और मित्रों प्लेटोरियस,नोड्रोस एवं ग्ल्यूको आदि की स्मृतियों की धुन्ध के बीच वह मूर्छित हो गया।
क्रमशः .....
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