परिवर्तन सृष्टि की अनिवार्य प्रक्रिया है जिसका दार्शनिक स्वरूप है द्वैत और गणितीय स्वरूप है संख्या। भारत में प्रचलित 9 वार्षिक काल गणनाओं में से सर्वाधिक उपयुक्त, वैज्ञानिक और मान्य विक्रमसंवत्सर प्रचलित है। तत्कालीन राजसत्ताओं ने किसी कारण विशेष को प्रमुखता देने के उद्देश्य से भिन्न-भिन्न नामों से इन्हें प्रचलित किया तथापि सभी संवत्सरों का वैज्ञानिक आधार एक ही रहा है।
हम जानते हैं कि किसी भी परिवर्तन का लेखा-जोखा काल-गणना के बिना संभव नहीं हो सकता। किंतु काल-गणना का प्रारम्भ हो कहाँ से यह एक वैज्ञानिक समस्या थी। ठीक वैसे ही जैसे कोई धरती के आदि-अंत छोर के बारे में पूछे। कई देशों में अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार कई वार्षिक गणनायें कर ली गयी हैं जैसे भारत में वित्तीय वर्ष अप्रैल से मार्च। किंतु भारतीय मनीषियों ने वर्षों के दीर्घ अनुसन्धान के पश्चात खगोलीय गति की गणनाओं के माध्यम से सृष्टि को आधार मानते हुये एक सार्वकालिक-सार्वभौमिक काल गणना प्रस्तुत की जिसका उद्देश्य जटिल ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया की वैज्ञानिकता को जनसाधारण के लिये सरल और ग्राह्य बनाने के अतिरिक्त लौकिक व्यावहारिकता भी था। इसीलिये भारतीय कालगणना ने पूरे विश्व के वैज्ञानिकों को सदा ही चमत्कृत किया है।
भारतीय काल गणना ब्रह्माण्डीय घटनाओं का सूक्ष्मतम से विराटतम संख्याओं के रूप में गणितीय सूत्रानुवाद है। वर्तमान कलियुग से पूर्व वार्षिक कालगणना के लिये “युगाब्द” शब्द प्रचलित हुआ करता था। कालगणना की बड़ी संख्याओं में “चतुर्युग” भारतीय जनमानस में रचे-बसे हैं। वर्तमान कलियुग का प्रारम्भ द्वापर युग के अंत में हुये महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात हुआ था। ईसवी सन 2012 की 22 मार्च की सन्ध्या 7 बजकर 10 मिनट से वर्तमान विश्वबसु नामक संवत्सर प्रारम्भ हुआ है जो विक्रम संवत का 2069 वाँ वर्ष है और सृष्टि का एकअरब पंचानवेकरोड़ अठ्ठावनलाख पच्चासीहज़ार एकसौ बारहवाँ जन्म दिवस है। पाटलिपुत्र निवासी भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने एक वर्षावधि को 365.8586805 सौर्यदिनों का मान दिया था। एक सुखद आश्चर्य यह हैकि भारतीय तिथियाँ अपरिवर्तनीय रहती हैं यह, हमारी काल गणना की वैज्ञानिकता का ज्वलंत लौकिक उदाहरण है।
ब्रह्माण्ड की अब तक की आयु 31,10,40,00,00,00,000 सौर वर्ष है। काल की लघुतम इकाई “तत्पर” और वृहत्तर इकाई “ब्रह्मा की आयु” है। ब्रह्मा का एक कल्प दिवस 432 करोड़ सौर वर्ष का होता है जबकि ब्रह्मा की कुल आयु है 1000 वर्ष।
हम काल गणना के गणितीय विश्लेषण में न जाकर इसके कुछ व्यावहारिक पक्षों पर चर्चा करना चाहेंगे।
1- सभी ब्रह्माण्डीय घटनाओं की पुनरावृत्ति एक निर्धारित कालोपरांत होती है। इससे ब्रह्माण्ड की पेंडुलम जैसी गति प्रमाणित होती है।
2- पृथिवी पर घटित होने वाली अनेक भौतिक घटनायें निर्धारित अवधि के पश्चात पुनः अपनी दस्तक देती हैं, जैसे सूर्योदय-सूर्यास्त और छह ऋतुयें जोकि सूर्य और चन्द्रमा की गति से नियंत्रित व प्रभावित होती हैं।
3- सूर्योदय, सूर्यास्त और छहऋतुयें पृथिवी पर तथा ब्रह्माण्ड के सभी निकटस्थ खगोलीय पिण्ड एक-दूसरे पर अवश्यंभावी भौतिक प्रभाव डालते ही हैं।
4- सूर्य और ऋतुयें पृथिवी की जीव सृष्टि का अभिन्न कारण हैं। इसी अभिन्नता को ध्यान में रखते हुये सृष्टि के प्रतीक स्वरूप चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को वर्ष का आरम्भ स्वीकार किया गया। कोई भी आरम्भ नवीनता का द्योतक है। चैत्र माह में वसंत ऋतु के पश्चात जीर्णता का परित्याग कर पुनः नवीनता का चोला धारण करने वाली प्रकृति नवऊर्जा और नवचेतना का सन्देश देती है।
5- वसंत के पश्चात ग्रीष्मऋतु प्रकृति को नवसृष्टि के लिये तैयार करने का शंखनाद करती है जो शक्ति के बिना सम्भव नहीं है। शक्ति समय-समय पर आवश्यकतानुरूप अपने विभिन्न रूपों में अवतरित होती है, इसीलिये हमारे यहाँ नववर्ष के प्रथम नौ दिन तक शक्ति के विभिन्न रूपों को जानने, उन्हें समझने और उनके व्यावहारिक महत्व को जीवन में समाहित करने के उद्देश्य से नवरात्रि आराधना का विधान लौकिक जीवन में प्रचलित है।
6- चैत्र माह जीवन प्रक्रिया का एक सन्धिकाल सा प्रतीत होता है जिसमें कई परिवर्तन अपेक्षित होते हैं। भारतीय परिस्थितियों में मानव जीवन के लिये इन परिवर्तनों को सुगम और अनुकूल बनाने के लिये विद्वान महर्षियों द्वारा कुछ परम्परायें प्रचलित की गयीं।
7- वसंत के पश्चात ग्रीष्म के आगमन होते ही सूर्य अपनी शक्ति से पृथिवी की संचित शक्तियों का (राजा द्वारा लिये जाने वाले कर, “टैक्स” की तरह) आहरण करने लगता है जिससे बाह्य ताप का तो सभी को अनुभव होता है पर सभी जीवों की पाचकाग्नि मन्द हो जाती है, इसलिये ऐसे आहार-विहार की योजना प्रशस्त की गयी (यथा- कृशरा(खिचड़ी), सत्तू, आदि सुपाच्य और हल्के भोज्य पदार्थ) जो मानव शरीर के लिये अनुकूल हो। इस काल में दही, मावा आदि दुग्ध विकारों का सेवन वर्ज्य रहता है। इनके सेवन से अपच और अम्लता आदि उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। इस काल में प्रतीकात्मक रूप से तैलाभ्यंग की परम्परा रही है। स्नान से पूर्व तैलाभ्यंग करने से डिहाइड्रेशन से तो बचाव होता ही है, वातजव्याधियों की इटियोलॉजी भी दुर्बल हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप आगामी वर्षा में होने वाली अर्थ्राइटिस जैसी व्याधियाँ प्रेसीपिटेट नहीं हो पातीं या कम होती हैं।
भारतीय संवत्सर परम्परा महान कालगणना मात्र ही नहीं है अपितु प्रकृति, जीवन और ऊर्जा के नवीनीकरण का पर्व है। यह हमारी महान परम्पराओं का प्रतीक और उत्कृष्ट वैज्ञानिक विरासत भी है। आधुनिकता के क्षरित वातावरण में हमें अपनी उत्कृष्टता को हर हाल में बचाये रखना होगा।
जय भारत! जय सनातन धर्म!! जय आर्यभट्ट!!!