दिलों में दया भाव का संरक्षक शाकाहार
|
॥ हिंसक पशु का भी अभयदान॥ |
"जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों"। यह वाक्य बडी
सहजता से कह दिया जाता है। और ऐसा कहना इसलिए भी आसान है क्योंकि मानव
व्यवहार और उसकी सम्वेदनाओं को समझ पाना बड़ा कठिन है। निश्चित ही मानव
स्वभाव को एक साधारण नियम में नहीं बांधा जा सकता। यह बिलकुल जरूरी नहीं है
कि सभी मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हो, पर यह भी सच्चाई है कि
माँसाहारियों के साथ कोमल भावनाओं के नष्ट होने की संभावनाएं अत्यधिक ही
होती है। सम्भावनाएँ देखकर यह सावधानी जरूरी है कि घटित होने के पूर्व ही
सम्भावनाओं पर लगाम लगा दी जाय। विवेकवान व्यक्ति परिणामो से पूर्व ही
सम्भावनाओं पर पूर्णविराम लगाने का उद्यम करता है। हिंसा के प्रति जगुप्सा
के अभाव में अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं बन सकती। हमें अगर सरल और
शान्तिपूर्ण जीवन शैली अपनानी है तो हमारी करूण और दयायुक्त सम्वेदनाओं का
रक्षण करना ही होगा। क्योंकि यह भावनाएँ, हमें सहिष्णु और सम्वेदनशील बनाए
रखती है।
बिना किसी जीव की हत्या के मांस प्राप्त करना असम्भव है, भोजन तो प्रतिदिन
करना पड़ता है। प्रत्येक भोजन के साथ उसके उत्पादन और स्रोत पर चिंतन हो
जाना स्वभाविक है। हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न माँस, हिंसक
विचारों को जन्म देता है। ऐसे विचारों का बार बार चिंतवन, अन्ततः परपीड़ा
की सम्वेदनाओं को निष्ठुरता के साथ ही नासूर भी बना देता है।
दया भाव पर यह पूरा आलेख पढ़ें निरामिष पर…………
बहुत सटीक!
जवाब देंहटाएंआभार, शास्त्री जी!!
हटाएंआपका यह प्रयास सराहनीय है ।
जवाब देंहटाएंआभार,सु्त्रधार जी
हटाएंसार्थक प्रयास ।
जवाब देंहटाएंआभार, सदा जी
हटाएं— यदि आटाचक्की में आटा पीसा जाये तो मूर्खता मानी जायेगी.
जवाब देंहटाएं— यदि बीज से केवल बीज ही प्राप्त हों तो उसका बीज होना व्यर्थ है.
— यदि मिट्टी को गूँथकर पुनः मिट्टी ही कर दिया जाये तो शिल्पी किस बात का?
— यदि जीव के भक्षण से स्व-जीव को रक्षित किया जाये तो कैसी सभ्यता? कैसी मानवता?
— यदि मांस खाकर ही स्व-मांस को बढ़ाया जाये तब कैसी समझदारी?
जो जीव केवल भूख मिटाने और वंश बढ़ाने के लिये ही धरा पर विचरते हैं... उन्हें ही अपनी भूख का निवाला बना लिया जाये तब मनुष्य-पशु में क्या भेद रहा?
सही कहा प्रतुल जी एकदम सटीक!!
हटाएंयदि मांस खाकर ही स्व-मांस को बढ़ाया जाये तब कैसी समझदारी?
जवाब देंहटाएंजो जीव केवल भूख मिटाने और वंश बढ़ाने के लिये ही धरा पर विचरते हैं... उन्हें ही अपनी भूख का निवाला बना लिया जाये तब मनुष्य-पशु में क्या भेद रहा?....
नमन गुरुदेव .....
आपके विचारों पर नत मस्तक हैं ....
हम तो हैं ही शाकाहारी.....
( एक बात याद आ गई ....विवाह के बाद हमें जबरदस्ती मांस खिलाया गया ....हमने रो-रो कर थोडा खाया फिर उलटी हो गई ..न जाने कितने दिन पेट खराब रहा )
हरकीरत जी,
हटाएंयह अरूचिकर अनुभव बांटने के लिए आपका आभार!!