हिंसा की तुलना,
माँसाहार बनाम
शाकाहार
उसी परिपेक्ष्य में अब देखते है पशु एवं पौधों में तुलनात्मक भिन्नता……
पेड-पौधों से फल पक कर स्वतः ही अलग होकर गिर पडते है। वृक्षों की टहनियां पत्ते आदि कटने पर पुनः उग आते है। कईं पौधों की कलमें लगाई जा सकती है। एक जगह से पूरा वृक्ष ही उखाड़ कर पुनः रोपा जा सकता है। किन्तु पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनका कोई भी अंग भंग कर दिया जाय तो वे सदैव के लिए विकलांग, मरणासन्न या मर भी जाते हैं। सभी जीव अपने अपने दैहिक अंगों से पेट भरने के लिये भोजन जुटाने की चेष्टा करते हैं जबकि वनस्पतियां चेष्टा रहित है और स्थिर रहती हैं। उनको पानी तथा खाद के लिये प्रकृति या दूसरे जीवों पर आश्रित रहना पड़ता है। पेड-पौधो के किसी भी अंग को विलग किया जाय तो वह पुनः पनप जाता है। एक नया अंग विकसित हो जाता है। यहां तक कि पतझड में उजड कर ठूँठ बना वृक्ष फिर से हरा-भरा हो जाता है। उनके अंग नैसर्गिक/स्वाभाविक रूप से पुनर्विकास में सक्षम होते है। वनस्पति के विपरीत पशुओं में कोई ऐसा अंग नही है जो उसे पुनः समर्थ बना सके, जैसे आंख चली जाय तो पुनः नहीं आती वह देख नहीं सकता, कान नाक या मुंह चला जाय तो वह अपना भोजन प्राप्त नहीं कर सकता। पर पेड की कोई शाखा टहनी अलग भी हो जाय पुनः विकसित हो जाती है। वृक्ष को इससे अंतर नहीं पड़ता और न उन्हें पीड़ा होती है। इसीलिए कहा गया है कि पशु–पक्षियों का जीवन अमूल्य है, वह इसी अर्थ में कि मनुष्य इन्हें पौधों की भांति धरती से उत्पन्न नहीं कर सकता।
निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।
पूरा आलेख पढ़ें निरामिष पर
इस लेख के पूर्वार्ध "शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल" में आपने पढा- माँसाहार समर्थकों का यह कुतर्क,कि वनस्पति में भी जीवन होता है, उन्हें आहार बनाने पर हिंसा होती है। यह तर्क उनके दिलों में सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह तो क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है। फिर भी सच्चाई तो यह है कि पौधे मृत्यु पूर्व आतंक महसुस नहीं करते, न ही उनमें मरणांतक दारूण वेदना महसुस करने लायक, सम्वेदी तंत्रिका तंत्र होता है। ऐसे में विचारणीय प्रश्न, उस हत्या से भी कहीं अधिक हमारे करूण भावों के संरक्षण का होता है। क्रूर निष्ठुर भावों से दूरी आवश्यक है। हमारा मानवीय विवेक, हमें अहिंसक या अल्पहिंसक आहार विकल्प का ही आग्रह करता है।
उसी परिपेक्ष्य में अब देखते है पशु एवं पौधों में तुलनात्मक भिन्नता……
पेड-पौधों से फल पक कर स्वतः ही अलग होकर गिर पडते है। वृक्षों की टहनियां पत्ते आदि कटने पर पुनः उग आते है। कईं पौधों की कलमें लगाई जा सकती है। एक जगह से पूरा वृक्ष ही उखाड़ कर पुनः रोपा जा सकता है। किन्तु पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनका कोई भी अंग भंग कर दिया जाय तो वे सदैव के लिए विकलांग, मरणासन्न या मर भी जाते हैं। सभी जीव अपने अपने दैहिक अंगों से पेट भरने के लिये भोजन जुटाने की चेष्टा करते हैं जबकि वनस्पतियां चेष्टा रहित है और स्थिर रहती हैं। उनको पानी तथा खाद के लिये प्रकृति या दूसरे जीवों पर आश्रित रहना पड़ता है। पेड-पौधो के किसी भी अंग को विलग किया जाय तो वह पुनः पनप जाता है। एक नया अंग विकसित हो जाता है। यहां तक कि पतझड में उजड कर ठूँठ बना वृक्ष फिर से हरा-भरा हो जाता है। उनके अंग नैसर्गिक/स्वाभाविक रूप से पुनर्विकास में सक्षम होते है। वनस्पति के विपरीत पशुओं में कोई ऐसा अंग नही है जो उसे पुनः समर्थ बना सके, जैसे आंख चली जाय तो पुनः नहीं आती वह देख नहीं सकता, कान नाक या मुंह चला जाय तो वह अपना भोजन प्राप्त नहीं कर सकता। पर पेड की कोई शाखा टहनी अलग भी हो जाय पुनः विकसित हो जाती है। वृक्ष को इससे अंतर नहीं पड़ता और न उन्हें पीड़ा होती है। इसीलिए कहा गया है कि पशु–पक्षियों का जीवन अमूल्य है, वह इसी अर्थ में कि मनुष्य इन्हें पौधों की भांति धरती से उत्पन्न नहीं कर सकता।
निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।
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सूचना:निरामिष का करूणामय एक वर्ष पूर्ण हुआ। यह निरामिष ब्लॉग के द्वितीय वर्ष में प्रवेश का गौरवशाली अवसर है इसी प्रसंग पर अगली पोस्ट विशेषांक की तरह होगी।
माँसाहार समर्थकों का यह मुख्य कुतर्क है कि वनस्पति में भी जीवन होता है इसलिए उन्हें आहार बनाने पर भी हिंसा होती है। आपने इसका उचित जबाब दिया है इसके लिए आभार !!!! निरामिष ब्लॉग के प्रथम वर्षगाँठ पर हार्दिक बधाई !!!!
जवाब देंहटाएंशाकाहार के प्रसार के लिये कृतसंकल्प निरामिष ब्लॉग पर माँसाहार और शाकाहार का तुलनात्मक अध्ययन पढना अच्छा लगा। बहुत अच्छा प्रयास है, नववर्ष पर आपको हार्दिक शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंमुझे एक बात समझ नहीं आती... वो ये कि ....
जवाब देंहटाएं– मीट की दुकानें,
– मुर्गा-मछली की मार्केट और
– अंडा आमलेट के ठेले
आमतौर पर गंदे नाले के किनारे,
घूरे की ढेरी के पास,
खत्ते के करीब ही क्यों पाये [लगाए] जाते हैं?
... खाने और खरीदने वालों को भी नाक-मुँह सिकोड़ते नहीं देखा गया....क्या खाने वाले भी जानते हैं कि उनका भोजन किस स्तर का है?
लेकिन
— किसी करप्ट नेता को थप्पड़ पड़ने पर,
— पशुओं को पालतू बना उससे रोज़गार चलाने पर,
................ 'वायोलेंस' 'वायोलेंस' क्यों चिल्लाते हैं?
वाह!! प्रतुल जी, बड़ा तीखा सवाल!!
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