बुधवार, 14 मार्च 2012

स्वप्न का रहस्य

     जिज्ञासा और अनुसन्धान मनुष्य की वे सहज बौद्धिक वृत्तियाँ हैं जिनके कारण सभ्यताओं का उदय और विकास होता है। इस विकास की अंतिम परिणति सदा ही दुःखद अवसान के रूप में सभ्यता के इतिहास का एक अनिवार्य भाग बनती रही है। मनुष्य के विचार, उसकी कार्य प्रणाली और उसके लक्ष्य 'काल' को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करते रहे हैं। किंतु आश्चर्यजनक रूप से इन परिभाषाओं की भी एक निर्धारित क्रम से पुनरावृत्ति होती रही है। यह क्रम इतना सुनिश्चित है कि काल का वर्गीकरण कर पाना मनुष्य के लिये बड़ा सुगम हो गया। हिमालय की उपत्यिकाओं में साधनारत ऋषियों ने काल के लयबद्ध नर्तन का प्रत्यक्ष किया। यह महानर्तन अद्भुत है...विज्ञान के प्रकाश से देदीप्यमान और नर्तन की कला के लास्य से आनन्ददायी। ऊर्जा से पिंड और पुनः पिंड से ऊर्जा तक की ही यात्रा नहीं अपितु अभाव से भाव और पुनः भाव से अभाव तक चिरनिद्रा की लयबद्ध यात्रा के दर्शन ने बुद्धिजीवियों को सदा ही सम्मोहित किया है। सत्यम शिवम सुन्दरम का यह साक्षात्कार सात्विकों के जीवन का लक्ष्य रहा है। ऐसे ही एक लक्ष्य के साथ कभी सुदूर ग्रीसवासी ज़ोडोरियस को अपने गुरु सोलोमन की आज्ञा से हिमालय की यात्रा के लिये प्रस्थान करना पड़ा था।
     उस रात ज़ोडोरियस को फिर नींद नहीं आ सकी। रात्रि के अंतिम प्रहर में देखे गये उस स्वप्न ने एक हलचल सी मचा दी थी। भोर होते ही ज़ोडोरियस अपने गुरु सोलोमन से इस अद्भुत स्वप्न के रहस्य को जानने के लिये बेचैन हो उठा।
      स्वप्न के रहस्य का गुरु समाधान नहीं कर सके, किंतु उन्होंने समाधान का मार्ग बता दिया - हिमालय । शीघ्र ही ज़ोडोरियस ने भारत की यात्रा प्रारम्भ की।
      अपनी जिज्ञासा की शांति के लिये पृथिवी के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा कर ब्रह्मावर्त के हिमाच्छादित शीतप्रांत में पहुँचे ग्रीसवासी ज़ोडोरियस ने अपने मार्ग में पड़ने वाले अंतिम ग्राम 'आरोहण' को प्रणाम कर पृथिवी के जनशून्य भाग में प्रवेश किया।
    तब इस देश का नाम ब्रह्मावर्त था,.....भारत और आर्यावर्त जैसे न जाने कितने और भी नाम रह चुके थे इसके। ब्रह्मावर्त से लेकर इंडिया तक की इस काल यात्रा में मोहन जोदड़ो और हड़प्पा जैसी न जाने कितनी सभ्यताओं का उदय, विकास और अवसान होता रहा। लौकिक विकास ने जीवन को भौतिक सुख प्रदान किया तो आध्यात्मिक विकास ने मन को शांत किया। और सदा की तरह यांत्रिक विकास पतन का मार्ग प्रशस्त करता रहा।
    ब्रह्मावर्त के तपोनिष्ठ महर्षियों की अनुकम्पा से ग्रीस से आरोहण तक की यात्रा मनोयांत्रिकनियंत्रण प्रणाली से संचालित विशेष यान से पूरी करने के बाद आगे की पदयात्रा का मार्ग अति कठिन था किंतु ज़ोडोरियस की जिज्ञासा के आगे यह कठिनायी कुछ भी नहीं थी।
    जनशून्य हिमप्रांत में, आरोहण ग्राम के कुछ ही आगे जाने पर ज़ोडोरियस की भेंट एक दीर्घकाय ताम्रवर्णी साधु से हुयी। ज़ोडोरियस को जनशून्य प्रांत की ओर बढ़ते देख साधु ने हाथ से संकेत कर उसे अपने पास बुलाया। ज़ोडोरियस के समीप पहुँचते ही साधु ने ब्रह्मांडीय भाषांतरण सूक्ष्म प्रणाली के माध्यम से पूछा - "पथिक! इस मार्ग पर तो ज्ञान पिपासु ही आगे बढ़ते हैं, अन्य कोई इधर नहीं आता। कहो, मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?"
     ज़ोडोरियस ने साधु को आश्चर्य से देख मन में विचार किया- अद्भुत है यह देश ....और अद्भुत अनुमानशक्ति है यहाँ के लोगों की। उसने जिज्ञासु भाव से निवेदन किया- "अपने गुरु सोलोमन की आज्ञा से मैं चिरायु ऋषि के दर्शन का अभिलाषी हूँ किंतु इस हिम प्रांत में अपने लक्ष्य तक पहुँचना दुष्कर प्रतीत हो रहा है मुझे।"
साधु ने अपने नेत्र बन्द किये, किंचित मौन के पश्चात बोले- "ज्ञान के पिपासु को अपना मार्ग स्वयं ही निर्मित करना होता है। जिज्ञासा की तीव्रता और उद्देश्य की पवित्रता से इस पथ निर्माण में सहायता मिलती है। स्मरण रहे कि सूर्योदय की दिशा से विचलित हुये बिना आगे बढ़ते जाना है तुम्हें। .....और हाँ! प्राण रक्षा के लिये तुम्हें अष्टभक्ष्य के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा वहाँ।"
    ज़ोडोरियस ने पूछा- "किंतु मैं उन्हें पहचानूँगा कैसे?"
    ज़ोडोरियस को अपने पीछे आने का संकेत कर साधु एक ओर को चल दिये। निकट ही, जहाँ हिम अधिक नहीं था श्वेत धारीयुक्त दीर्घपत्र वाले एक छोटे से पौधे को देख साधु रुक गये। अपनी सुदीर्घ अंगुलियों से पौधे के आसपास के हिम को हटाकर उन्होंने पौधे को समूल उखाड़ लिया। ज़ोडोरियस ने देखा, पौधे के मूल में श्वेत कन्दों का एक गुच्छ था। साधु ने कन्दों को विलग किया फिर हिम से रगड़कर मिट्टी को साफ़ किया और ज़ोडोरियस को देते हुये कहा- " यह अधिक मीठा तो नहीं पर साधकों की प्राण रक्षा के लिये उत्तम है, जीवनदायी होने के कारण हम इसे जीवक कहते हैं।"
     दोनो पुनः आगे बढ़े, समीप ही उन्हें एक और पौधा मिला। इसके पत्र और भी तनु किंतु दीर्घ थे, पत्रों का रंग भी उतना गहरा नहीं था। साधु ने उसे भी उखाड़कर पूर्ववत हिम से रगड़ उसके पुष्ट कन्दों को साफ किया फिर ज़ोडोरियस को देते हुये कहा- "यह जीवक से कुछ अधिक मीठा है, और पुष्टिकर भी। ऋषियों का प्रिय भक्ष्य होने के कारण लोग इसे ऋषभक कहते हैं। अष्टभक्ष्य में यहाँ इतना ही है शेष भी यत्र-तत्र मिल जायेंगे, किन्तु तुम्हारी प्राण रक्षा के लिये ये दो ही पर्याप्त और प्रचुर हैं। जाओ, अपने लक्ष्य को प्राप्त करो।"
साधु लौट गये, ज़ोडोरियस ने श्रद्धावनत हो साधु को प्रणाम कर आगे की ओर प्रस्थान किया।
     चिरायु ऋषि के दर्शन की अभिलाषा से ज़ोडोरियस आगे बढ़ता गया.......जनशून्य प्रांत में जहाँ प्राण रक्षा दुष्कर है, वह जिज्ञासु भाव से आगे बढ़ता रहा। प्रिय पुत्र म्यूनस और पत्नी वीनस के मोह का स्वाभाविक बन्धन भी उसके लिये बाधा नहीं बन सका। पश्चिम की पूर्व यात्रा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती रही। ऋषभक और जीवक का कन्दाहार कर प्राण रक्षा करते हुये भटकते ज़ोडोरियस को एक दिन फिर एक जलकुण्ड के दर्शन हुये। किंतु पिछले दिनों मिले जलकुण्ड की तरह यह जलकुण्ड वाष्पाच्छादित नहीं था। तथापि ज़ोडोरियस ने इस शीत जलकुण्ड में स्नान करना निश्चित किया।
    ज़ोडोरियस ने जलकुण्ड में छलांग लगा तो दी किंतु तुरंत ही उसे अपनी भूल का आभास हो गया। उसका सम्पूर्ण गात शीत के प्रभाव से संवेदनाशून्य होने लगा। उसने किनारे आने का प्रयास किया पर हाथ-पैर उतना सहयोग कर पाने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे। अथक प्रयास के बाद वह जैसे-तैसे किनारे तक पहुँच तो गया किन्तु जैसे ही उसने कुण्ड के किनारे की हिम परत को पकड़ ऊपर आने का प्रयास किया कि विलग हुये हिमखंड के साथ वह पुनः उसी में जा गिरा। छपाक के साथ कुण्ड की जमा देने वाली जल राशि ने उसका पुनः स्वागत किया। पत्नी वीनस, पुत्र म्यूनस और मित्रों प्लेटोरियस,नोड्रोस एवं ग्ल्यूको आदि की स्मृतियों की धुन्ध के बीच वह मूर्छित हो गया।
क्रमशः .....

4 टिप्‍पणियां:

  1. चमत्कृत होने की इच्छा ख़त्म नहीं हुई है ।।

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  2. ज़ोडोरियस की यात्रा और ॠषि-दर्शन का आलेखन, एक गम्भीर कथानक!! बधाई
    अगले अंक की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी!!

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