बड़ा ही गूढ़ विषय है धर्म.... गूढ़ भी और मननीय भी।
गूढ़ इसलिये क्योंकि इस विषय पर न जाने कितना चिंतन हुआ है अभी तक ...न जाने कितना हो रहा है ...न जाने कितना होता रहेगा। मननीय इसलिये क्योंकि मानव सभ्यता के लिये एक सदा सर्वदा चिंतनीय- मननीय विषय रहा है यह।
किंतु ऐसा क्या है इसमें कि इतने चिंतन-मनन की आवश्यकता पड़ रही है.....और पड़ ही नहीं रही अपितु निरंतर बढ़ती ही जा रही है यह आवश्यकता?
आज के चिंतन का यही प्रतिपाद्य विषय है।
किंतु इससे पूर्व तनिक इस पर भी विचार कर लिया जाय कि क्या मानवेतर प्राणियों को भी आवश्यकता होती है धर्म की?
उत्तर है- हाँ। ....और केवल मानवेतर प्राणियों को ही नहीं अपितु वनस्पतियों और जड़ जगत को भी आवश्यकता होती है धर्म की।
अर्थात् जड़-चेतन सहित सम्पूर्ण चराचर जगत को आवश्यकता होती है धर्म की।
भौतिकवादियों के एक पंथ ने कहा कि धर्म तो अहिफेन (अफ़ीम) है मानव मस्तिष्क के लिये ....मानव समाज के लिये।
यह तो विवाद की बात हो गयी। मनुष्यों का एक समूह कहता है कि धर्म सम्पूर्ण चराचर जगत के लिये आवश्यक है ....और दूसरा समूह कहता है कि यह तो अहिफेन है।
जो इसे अहिफेन मानते हैं वे अपने जीवन में किसी धर्म को नहीं अपनाते वे धर्म से निस्पृह हैं .....ऐसा उनका कहना है। पर यह सच नहीं है...धर्म के बिना तो जड़ या चेतन किसी के भी अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।
धर्म तो अपरिहार्य है इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये .....उसके अस्तित्व के लिये।
लोकरीति में एक भ्रामक शब्द प्रचलित है "धर्म-निरपेक्ष"। जबकि सब कुछ ....हर कोई धर्म सापेक्ष हैं ....धर्म निरपेक्ष कुछ नहीं ...कोई नहीं होता।
ये जो कहते हैं कि उनके जीवन में किसी धर्म का कोई अस्तित्व नहीं वे वस्तुतः धर्म के वैज्ञानिक स्वरूप को पहचान ही नहीं पा रहे हैं। वे साँस तो ले रहे हैं पर यह नहीं जानते कि जिस वायु को वे अपनी नासिका से अन्दर खीचते हैं उसमें और कितनी गैसों का मिश्रण है ...और किस अनुपात में है। वे यह भी स्वीकारने को तैयार नहीं कि श्वास-प्रश्वास की यह क्रिया उनके शरीर की प्रत्येक कोशिका के अन्दर निरंतर होती रहती है।
धर्म का यह जो स्वरूप है जिसे मैंने जड़-चेतन सभी के लिये अपरिहार्य बताया वह अलिखित है .....और परमेश्वर के द्वारा सुनिर्धारित किया गया है। यह अपरिवर्तनीय भी है ...इसके पालन में कोई भी शिथिलता स्वीकार नहीं होती यहाँ।
जहाँ-जहाँ इनर्जी है ......जहाँ -जहाँ मैटर है, वहाँ-वहाँ इस धर्म का अनिवार्य पालन सुनिश्चित है।
इस प्राकृतिक धर्म का पालन तो स्वस्फूर्त गति से होता रहता है ...अहर्निश। किंतु इसके अतिरिक्त भी हमें कुछ और भी धर्मों की आवश्यकता पड़ती है।
तो क्या हम एक साथ कई धर्मों का पालन करते हैं?
सत्य तो यही है।
हमें व्यक्तिगतधर्म, परिवारधर्म, पिताधर्म, पुत्रधर्म, पत्नीधर्म, समाजधर्म,राष्ट्रधर्म, और विश्वधर्म का भी पालन करना पड़ता है। ...ये धर्म अपेक्षित हैं किंतु स्वस्फूर्त नहीं होते ....करना पड़ता है।
यह स्वभाव है मनुष्य का कि उसे जो प्रयास पूर्वक करना पड़ता है ...त्रुटियाँ और शिथिलतायें वहीं होती हैं। ....और यही कारण है कि धर्म के इस स्वरूप पर न जाने कितना चिंतन और विवाद होता रहा है।
इस चिंतन और विवाद का कारण प्रारम्भ होता है हमारे समूह में रहने और परस्पर अन्योन्याश्रित होने से।
व्यक्तिगत धर्म अलग है और समूह का अलग....दोनो में सामंजस्य अपेक्षित है। यह सामंजस्य ही समाज के उत्थान और सुखमय जीवन की कुंजी है .......जो कि खो गयी है कहीं ...मिल नहीं पा रही।
मनुष्येतरप्राणी भी रहते हैं समूह में ....इसलिये उनके भी समाज हैं। समाज हैं उनके .....इसलिये धर्म वहाँ भी अपेक्षित है।
उनके पास कोई धर्माचार्य नहीं है, कोई लिखित धर्मग्रंथ नहीं हैं ...उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ती इसकी ...किंतु पालन होता है धर्म का।
हमारे पास अनेक धर्माचार्य हैं.....कई लिखित धर्मग्रंथ हैं ...किंतु पालन नहीं होता उनका।
मनुष्येतर प्राणी धर्म से बंधे हुये हैं ....हम धर्मग्रंथों से बंधे हुये हैं। इसीलिये वहाँ धर्म को लेकर इतनी उठा-पटक नहीं होती। जो थोड़ी बहुत होती भी है वह आपस में सुलझा ली जाती है। हम आपस में सुलझा नहीं पाते ...युद्ध करके भी नहीं।
तो हमें चिंतन करना होगा कि सभी प्राणियों में मनुष्य की श्रेष्ठता को बनाये रखने के लिये हमें और क्या करना है?
क्रमशः ...
अद्भुत चिंतन ... आत्मा को खुराक मिली....
जवाब देंहटाएंधर्म जैसे घूढ़ और माननीय विषय पर चिंतन आरम्भ करने के लिए आभार ! पुनः हमें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा...
जवाब देंहटाएंआदरणीय प्रतुल जी के शब्दों में ही "आत्मा को खुराक" मिलेगी,लेख से भी और आने वाली अमूल्य टिप्पणियों से भी !
कुँवर जी,
वैज्ञानिक दृष्टि से सोचें तब भी जब किसी आदिमानव नें अपनी सुख-सुविधा के उद्देश्य से सभ्यता स्वीकार करते हुए पहला 'नियम' बनाया होगा, वही धर्म कहलाया। सभ्यता किसलिए है, सभ्यता है स्वयं सुखपूर्वक रहने एवं प्रकृति के सभी जीव-तत्वो आदि को सुखपूर्वक रहने के कर्तव्यों की प्रतिपूर्ति। ऐसे ही कर्तव्य युक्त स्वीकार्य विधानों का नाम धर्म है।
जवाब देंहटाएंकिन्तु जब मानव उलट संस्कृति से विकृति और गमन करता है तो वह किसी भी तरह धर्म नहीं होता। चाहे अपने मंतव्य सिद्ध करने के लिए इस उलटे चलन को वह धर्म कहे।
इस सृ्ष्टि क्रिया को जिस नियम ने धारण कर रखा है, जिस नियम से सृ्ष्टि का संचालन ओर विकास प्रकृ्ति कर रही है तथा जिस क्रिया से प्राणि क्रमश: उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकता है तथा जिससे उसकी आध्यात्मिक ,अधिदैविक और अधिभौतिक उन्नति हो सकती है,चाहे वह कठिन साध्य ही क्यों न हो-------वही धर्म है।
जवाब देंहटाएंऔर ये धर्म तो एक प्रकार से मानव का स्वभाव-गुण है। जिस प्रकार भूख लगना, श्वास लेना मानव का स्वभाव-गुण है, ठीक उसी प्रकार मनौवैज्ञानिक स्तर पर किसी न किसी धर्म को अपनाना भी मनुष्य का स्वभाव-गुण है। जो व्यक्ति किसी परम्परागत धर्म को स्वीकार नहीं करता वो भी किसी न किसी मानवतावादी धर्म् को तो अवश्य अपनाता हीं है।
बडे दिनों बाद पंडित जी का स्वागत!! बड़ी प्रसन्नता हुई
हटाएंसार्थक व सटीक कथन-
"जो व्यक्ति किसी परम्परागत धर्म को स्वीकार नहीं करता वो भी किसी न किसी मानवतावादी धर्म् को तो अवश्य अपनाता हीं है।"
जी! भाई जी! धर्म निरपेक्ष तो कोई नहीं है। बस, धर्म की परिभाषायें अपने-अपने अनुसार कर ली गयी हैं। धर्म में धारण शक्ति है ....एक रिश्वतखोर रिश्वत लेने की वैचारिक धारणा का पोषक है। दूसरा सत्यानुशीलन कर कठिन मार्ग को चुनने की वैचारिक धारणा का पोषक है। दोनो ही अपने-अपने धर्म का अनुशीलन कर रहे हैं किंतु किसका धर्म लोक कल्याणकारी है और किसका मात्र स्वकल्याणकारी है ...यह डिस्क्रिमिनेशन करना ही सदाचारियों का कर्तव्य है।
हटाएंजो धारण करे वही धर्म है, तब तो धर्म पर चर्चा बनती है।
जवाब देंहटाएंसत्यवचन पाण्डेय जी!किंतु धारण करना क्या है और कब करना है ...यही तो विवाद का मूल है। सैनिक युद्ध के समय ही शस्त्र धारण करता है...और आतंकवादी शांति के समय भी शस्त्र धारण कर अशांति उत्पन्न करता है। ओसामा की मृत्यु पर अमेरिका में हर्ष हुआ ...उसी घटना पर भारत में लोगों को दुःख हुआ और उसकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थनायें की गयीं। कोई भी आतंकवादी स्वयं को अधार्मिक नहीं कहता ....प्रत्युत अपने कृत्य को धर्म की रक्षा के लिये किया गया आवश्यक संघर्ष बताता है। जब लोग धर्म की परिभाषायें स्वहित के लिये करने लगें तो पतन निश्चित हो जाता है। आज हमारे समाज के पतन का यही कारण है। हृदय में प्रेम और लोक कल्याण की भावना होगी तो वहाँ धर्म की परिभाषा कुछ और ही होगी।
हटाएंप्रिय बन्धुओ! नैतिकता के तेज़ी से बदलते मापदण्डों के दो उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं एक लिपिक को जानता हूँ...वह रिश्वत लेकर भी "सही काम" करने में टाल-मटोल करता था और वर्षों लोगों का काम लटका कर रखता था। किसी प्रकरण में शीर्ष अधिकारी से ही उसका पंगा हो गया। उन्होंने उसका स्थानांतरण अपने ही कार्यालय में कर दिया, और उसे केवल बैठे रहने का काम दे दिया। एक बार मेरी उससे भेट हुई तो रो पड़ा, बोला-" आठ साल से रोज आकर बैठा रहता हूँ, सब लोग काम करते हैं, पैसा कमाते हैं। जब मुझे कोई काम ही नहीं मिलेगा तो कमाऊँगा क्या? बस, वही बंधी बंधाई तनख़्वाह भर मिलती है। अब आप ही बताइये डॉक्टर साहब क्या इन्हीं लोगों का पेट है? मेरा पेट नहीं है?अगर मैं कुछ गलत कह रहा हूँ तो चार जूता मार लेना पर न्याय की बात कहना आज। मैं कितना दुःखी हूँ यह मैं ही जानता हूँ"
जवाब देंहटाएंउसी कार्यालय के एक और लिपिक ने एक बार मुझसे स्पष्ट कह दिया कि चिकित्सा प्रतिपूर्ति के जो बिल आपके मरीज़ों के आये हैं वे तब तक पड़े रहेंगे जब तक आप उनका 10% दे नहीं देंगे। बात बढ़ी और उसने बिगड़ते हुये कहा-"आप मरीज़ों से लें या मत लें मुझे इससे क्या मतलब? आप तो मुझे मेरा हिस्सा दे दीजिये नहीं तो ये बिल पास नहीं होंगे।
वे बिल आज तक पास नहीं हुये।
जो धारण करें वही धर्म । धर्म को कर्तव्य के रूप में भी देखा जाता है वही जो हमारे लिये उचित है । लेकिन उचित और अनुचित के बीच की रेखा आज कितनी धूमिल और अस्पष्ट है ।
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