सहिष्णुता और प्राणीमात्रके प्रति प्रेम के कारण भारत के लोगों ने वसुधैव
कुटुम्बकम का उद्घोष किया था। यह एक आदर्श विराटपरिवार की कल्पना थी। किन्तु जैसा कि प्रायः होता आया है व्यावहारिकता के धरातल तक आते-आते आदर्श बिखरने और टूटने लगते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम का आदर्श भी बिखरने लगा। कुटुम्ब के ही कुछ लोग कुटुम्ब पर आघात करते रहे और अंततः भारत को पराधीन होना पड़ा। भारत का स्वाभिमान आहत हुआ, आदर्शों पर प्रश्न चिन्ह लगे और हमें विपन्न हो जाना पड़ा।
यह विपन्नता केवल आर्थिक ही नहीं थी अपितु सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, राजनैतिक....सभी प्रकार की विपन्नता थी।
नहीं ...हमारा आदर्श दोषयुक्त नहीं था ...आदर्श दोषयुक्त हो ही नहीं सकता। तब क्यों हुआ यह सब?
यह विचारणीय है। इस विषय पर चिंतन किये जाने की आवश्यकता है।
संभवतः हमने समाज के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर अधिक ध्यान नहीं दिया और आदर्श के आकाश में उड़ते रहे....धरातल छूट गया....धरातल की सारी चीजें छूट गयीं। समाज की इकाई छिन्न-भिन्न हो गयी।
...और समाज का मनोवैज्ञानिक पक्ष यह है कि वह सशक्त होना चाहता है ...अपने ही एक अंग पर प्रभुत्व बनाना चाहता है। समाज स्वयं के ही अंग के शोषण से पोषित होता है। सामाजिक विषमता का सूत्रपात यहीं से होता है।
आज विदेशी दासता से मुक्त होने के पश्चात् भी हम अपने स्वाभिमान को पुनः प्राप्त नहीं कर सके हैं। अपने प्राचीन भारतीय गौरव को स्पर्श तक नहीं कर सके हैं। आंग्ल शासन के विदा होने के पश्चात् भी हम अपने तंत्र को नहीं ला पाये ...उस तंत्र को नहीं ला पाये जिस तंत्र के कारण हम पूरे विश्व में जाने जाते थे।
आयातित संविधान, आयातित विचार, आयातित संस्कृति, आयातित भाषा, आयातित व्यापार तंत्र, आयातित उपभोग वस्तुयें....हम स्व के अधीन हो ही कहाँ सके?
हमारा तंत्र "स्व-तंत्र" होना चाहिये ..पूरी तरह भारतीय होना चाहिये .....भारत की माटी की सुगन्ध की तरह ..पूर्ण स्वदेशी। तभी हमें राष्ट्रधर्म के दर्शन हो सकेंगे.....अभी तो राष्ट्रधर्म कहीं दिखायी तक नहीं देता।
मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों हुआ ...कैसे हुआ ...कि हमने वसुधैव कुटुम्बकम् की पताका तो फहराई पर काल विशेष में समाज के दो अत्यंत महत्वपूर्ण अंगों, स्त्रियों और सवर्णेतर वर्ग की घोर उपेक्षा की। उन्हें उनके सामान्य अधिकारों से वंचित रखा, उनका शोषण किया ...अमानवीयता की सीमा तक।
बाद के कालखण्ड में सवर्णेतर वर्ग की उपेक्षा बन्द हुयी ...शनैःशनैः वे समाज की मुख्यधारा में आने लगे ...किंतु इस बीच बहुत बड़ी क्षति हो चुकी थी ....वह क्षति अभी भी हो रही है .....धर्मांतरण की क्षति। भारत के एक वर्ग का बड़ी तीव्रता के साथ धर्मांतरण हुआ....अभी भी हो रहा है ....यह प्रक्रिया किंचित कम अवश्य हुयी है पर पूर्ण विराम नहीं हो सका अभी तक। यद्यपि इस धर्मांतरण से कोई विशेष लाभ हुआ हो उन्हें ..ऐसा भी कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता।
धर्म की अवधारणा को समझे बिना देशज धर्म का परित्याग कर आयातित धर्म का धारण भारतीय समाज और भारत की धरती को खण्डित करने का एक बार पुनः कारण बन सकता है।
मैं धर्मांतरण को देशद्रोह के रूप में देखता हूँ। यह महान सनातनधर्म के प्रति अविश्वास का प्रतीक और उसकी व्यर्थता की उद्घोषणा है। यह धर्म के मर्म को न समझने का हठ है। यह भारत को खण्डित करने का वंचनापूर्ण आन्दोलन है।
काल विशेष में स्त्रियों और शूद्रों को लेकर उपेक्षा, शोषण और उनके घोर अपमान का जो षड्यंत्र भारत में चला वह घोर ग्लानि का कारण है....उसके कारण अब हम अपनी परम्पराओं पर गर्व करने योग्य नहीं रह गये। भारतीय समाज के पतन का एक बहुत बड़ा कारण यह भी रहा है।
स्त्रियों और शूद्रों के लिये अपमानजनक उद्घोषणायें करने वाले लोग निन्दा के पात्र हैं। मैं ऐसी हर उस उद्घोषणा और साहित्यिक रचना की भर्त्सना करता हूँ जो उन्हें सहज मानवीय अधिकार से वंचित कर अपमानित करती है।
क्रमशः ...
जहाँ सबको समाहित किया जाये, वही सबके लिये उपयुक्त...
जवाब देंहटाएंएतत् तु स्वीकरोम्हमपि यत् भारते एवं बहुधा जातं यदा अस्माकं तिरस्कार: अन्येषां धर्मपरिवर्तनम् अभवत् । किन्तु प्राचीनकाले एवं नासीत् । एवं संभवत: मुगलकालादारभ्य अभवत् ।
जवाब देंहटाएंकिन्तु सम्प्रति स्थिति: नियन्त्रणे अस्ति । अस्माकं स्वयंसेवका: निरन्तरम् अस्मिन् एव कार्ये संलग्ना: सन्ति यत् के कथम् अस्माकं धर्मे स्थिरा: भवेयु: इति ।
भवत: लेख: जनानां प्रेरणा भवेत् इति मे आशा ।
महोदय! धर्मपरिवर्तन के अनेक कारणों में से एक कारण तिरस्कार भी रहा है।जिसके लिये हमारा तत्कालीन समाज दोषी रहा है। स्थिति नियंत्रण में नहीं है, स्वतंत्र भारत में भी धर्मांतरण हो रहा है ...छद्म रूप में नहीं अपितु खुले रूप में। पहले बल का प्रयोग अधिक था, अब इसमें लालच को भी सम्मिलित कर लिया गया है। अशिक्षा और अन्धविश्वास भी आधुनिक धर्मांतरण का एक बड़ा कारण है।
हटाएंआनंद पाण्डेय जी यदि इसी प्रकार देवभाषा माध्यम से ही संवाद करेंगे तो यह शनैः शनैः हमारे संपर्क में भी रहेगी.
हटाएंमन्त्र-उच्चारण में अब मात्र संध्या और यज्ञ तक ही संस्कृत का व्यवहार रहता है... 'संस्कार' कराने के लिये भी यह एक जरूरी भाषा समझी जाती है.
आपने स्यात तिरिस्कार के उस नियंत्रण की बात की जो हिन्दुओं के बीच रहा था... हाँ अब हिन्दुओं के बीच तो तिरिस्कार न्यूनतर है. किन्तु अभी भी समाज के उपेक्षित वर्ग इस्लाम और ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण से त्रस्त है. उनकी अबोधता का लाभ उठाया जा रहा है.
ठीक कह रहे हैं आचार्य जी.
कुटुम्ब के ही कुछ लोग कुटुम्ब पर आघात करते रहे....
जवाब देंहटाएं@ जिन्हें कुटुंब का मुखिया बनाया या जो अपनी आयु के आधार पर स्वमेव कुटुंब के मुखिया घोषित रहे क्या यह सब उनका करा-धरा नहीं है?
सत्य वचन! यह परम्परा अभी भी है, हम जिसे अपना तारनहार चुनते हैं वह अपनी पीढ़ियों को ही तारता है, वह भी अपने चुनने वालों के भविष्य के मूल्य पर।
हटाएंयह विपन्नता केवल आर्थिक ही नहीं थी अपितु सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, राजनैतिक....सभी प्रकार की विपन्नता थी।
जवाब देंहटाएं@ क्या चारों ओर फैली इस विपन्नता में कहीं कोई कोना ऐसा नहीं जो सुखद अनुभूति का हो? यदि वास्तव में यह विशुद्ध विपन्नता ही है तो धर्म की पुनःस्थापना के लिये प्रभु का प्राकट्य क्योंकर नहीं हुआ? कहीं तो कुछ ऐसा होगा जो अभी तक धर्म-साधकों को जिलाए है, आशान्वित किये है.
भारतीय जनमानस में आध्यात्मिक विश्वास की जड़ें कितनी भी सूख जायं पर उनमें पुनर्नवा मूल की तरह पुनर्जीवित होने की सम्भावनायें सदा ही बनी रहती हैं..यही वह विशिष्ट गुण है जिसके कारण हम विश्व की प्राचीनतम संस्कृति के वाहक अभी तक बने हुये हैं। विपन्नता की स्थिति में तो हम और भी आध्यात्मिक हो उठते हैं। हमारी दुर्बलता ही हमारी शक्ति बनकर प्रकट होती है। एक भौतिक दृष्ट्या समर्थ व्यक्ति की अपेक्षा विपन्न व्यक्ति कहीं अधिक आध्यात्मिक होता है..यही तो उसकी पूंजी होती है जिसके बल पर वह अपना पूरा जीवन काट पाता है।
हटाएंसमाज स्वयं के ही अंग के शोषण से पोषित होता है। सामाजिक विषमता का सूत्रपात यहीं से होता है।
जवाब देंहटाएं@ क्या सामाजिक विषमता सचमुच में विषमता है..... क्या वह विविधता नहीं स्वभाव की, वृत्ति की, आदत की..... क्या वाम हस्त शौच धोवन के कारण से निकृष्ट हो जाता है? और ... क्या दक्ष हस्त आहुति देने के कारण से श्रेष्ठ बन जाता है? ... जिसकी जैसी काबिलियत उसका वैसा स्थान.... एक सोच ये भी है कि हमारे शरीर का बायाँ भाग दाहिने भाग पर शासन करता है... क्योंकि हमेशा (प्रायः) दाहिना हाथ अधिक काम करता है... बायाँ अपनी रक्षा दाहिने से कराता है, वह मात्र उसका सहयोग करता है....
आदेश देने वाला और आदेश का पालन करने वाला समाज में दोनों की मौजूदगी है... क्या इससे ये माना जाये कि एक वर्ग दूसरे पर शासन करता है? मुझे तो लगता है हम स्वयं को उस साँचे में स्वयं ढाल लेते हैं जिसके हम योग्य होते हैं.... निर्णय लेने की क्षमता न होने पाने की स्थिति में हम गुरु अथवा नायक को तलाशते हैं.... इसमें क्या दोष है?
विविधता और विषमता में मौलिक अंतर अस्तित्व का है। विविधता तभी तक स्वीकार्य है जब तक कि सभी भिन्नताओं का अस्तित्व सुरक्षित है। एक भिन्नता यदि दूसरी भिन्नता जो निगलने लगे....दूसरे का अस्तित्व ही संकटग्रस्त हो जाय तो यह शोषण है। शोषण ही विषमता को जन्म देता है।
हटाएंहमारे मस्तिष्क का दाहिना भाग शरीर के बायें अंगों की और मस्तिष्क का बायाँ भाग शरीर के दाहिने अंगों की क्रियायों के लिये उत्तरदायी होता है। समाज के विभिन्न वर्ग यदि इसी तरह एक दूसरे का सकारात्मक ध्यान रखें तो हम एक स्वस्थ्य समाजका निर्माण कर सकते हैं।
सत्य है कि समाज को नेतृत्व की आवश्यकता होती है ...और हर व्यक्ति में यह क्षमता नहीं होती ...यह भिन्नता है विषमता नहीं। इस भिन्नता को सहकारिता और पूरक भाव के रूप में लिया जाना चाहिये। यहाँ तक कोई दोष नहीं, दोष तब उत्पन्न होता है जब सक्षम लोग अक्षम को अपने हित का साधन बना लेते हैं।
प्रश्न समुचित उत्तर पाकर भाग्यशाली हो जाते हैं. प्रश्न को जब अपने योग्य उत्तर नहीं मिलता वह अहंकारी हो जाता है. प्रश्न के अहंकारी होते ही प्रश्नकर्ता मदमस्त हाथी की तरह कोमलतम भावों को कुचलने को आमादा हो जाता है.
हटाएंआचार्य जी, आप की संगती सचमुच सुधापान तुल्य है. मन तृप्त होता है. गुरु ऋण बढ़ता जा रहा है. चुकाने को मुझे भी यत्न करना ही होगा.... सोच रहा हूँ कैसे?
आचार्य जी, समय मिलते ही कल फिर आऊँगा... मुझे आपका चिंतन अभिभूत कर देता है.
जवाब देंहटाएंभविष्य के श्रेष्ठ निबंधों में इसकी गणना की जायेगी... हमारा सौभाग्य है कि आप इस ब्लॉग के लेखक हैं.