गुरुवार, 24 मई 2012

धर्म चिंतन ...3

आचरण में वैयक्तिक होते हुए भी प्रभाव में व्यापक होता है धर्म। यह वैयक्तिक आचरण ही आत्मानुशासित समाज का प्राण है।


समाज की इकाई होने के कारण मनुष्यके लिए धर्म को अपने आचरण में लाना आवश्यक होता है। इसीलिए सुसमाज के लिए यह एक आवश्यक घटक है। समाज का उत्थान और पतन ही मापदंड है सद्धर्म के अनुशीलन का। समाज की नीव पारस्परिक प्रेम की सुदृढ़ शिलाओं से निर्मित होती है। किन्तु हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं....अभिकेंद्रण की इस प्रक्रिया ने हमें स्वार्थी और असंवेदनशील बना दिया है।


महानगरों के लोग चिंतित हैं कि समाज बिखर रहा है। पारस्परिक प्रेम और सहयोग का अभाव होता जा रहा है। पश्चिमी देशों के समाज की संरचना और उसके तत्व हमारे यहाँ से भिन्न हैं। भारत का समाज इतना दुर्बल और खोखला कभी नहीं रहा जितना कि आज है।


क्या कारण हैं इस खोखलेपन के ..?


यह ज्वलंत प्रश्न है ...इसका समाधान खोजना होगा हमें।


पिछली बार के चिंतन में एक प्रश्न यह भी उठा था कि लोगों में पारस्परिक प्रेम उत्पन्न कैसे किया जाय ? प्रेम तो सहज मन की उदार और व्यापक अनुभूति है। यह किसी दबाव में आकर नहीं हो सकता। इसके लिये हमें भारतीय समाज की प्राचीन संरचना और आश्रम व्यवस्था की ओर एक बार फिर देखनाहोगा। मानव जीवन की कुल जीवन अवधि में उसके कर्तव्यों का सुनिश्चित विभाजन ही इसका रहस्य है। हमारे उत्तरदायित्व तय थे,कर्तव्यों के सुनिश्चित विभाजन ने समाज को कर्मण्य बना दिया था।


बहुत से कार्य जो आज शासन के उत्तरदायित्व हैं ... तब समाज के उत्तरदायित्व थे ... जिनमें विशेष कार्य थे शिक्षा, पर्यावरणीय सुरक्षा और अशक्तों का स्वैच्छिक उत्तरदायित्व। समाज के ये उत्तरदायित्व अब शासन के उत्तरदायित्व हैं इसीलिए संस्कार बोध और धर्माचरण जैसे जीवन के आवश्यक तत्व लुप्त होते चले गए। तब कार्य श्रेष्ठ था ...अब विभिन्न पदों में बटे समाज को शासन प्रदत्त सुविधाएं श्रेष्ठ हो गयी हैं....कई स्तर पर होने वाले चुनाव ने पारस्परिक प्रेम को आग लगा दी। समाज की इकाई आत्माभिमुख हो स्वार्थ में लिप्त हो गयी है।


तो प्रेम उत्पन्न करने का उपाय है समाज की संरचना और व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किया जाना। गृहस्थाश्रम के पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति उपरांत वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति समाज के लिए ही समर्पित होता था। यह व्यवस्था पुनः जीवित किये बिना हम भारत को उसका प्राचीन गौरव कदाचित ही दिला सकें।


भौतिक विकास और यांत्रिक सुविधाओं ने जीवन की कठिनाइयों में कमी की है किन्तु इस विकास ने जीवन से संतोष, निष्ठा, प्रेम और सुख के महाकोष को लूट कर रिक्त कर दिया है। आश्रम व्यवस्था को पुनर्जीवित करने का उत्तरदायित्व समाज का है शासन का नहीं। समाज को एक समानांतर व्यवस्था बनानी होगी ..एक ऐसी व्यवस्था जिससे शासन पर निर्भरता कम से कम होती चली जाय। भारतीय समाज सशक्त तभी बन सकेगा।


क्रमशः ......

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर और युक्तिपूर्ण विवेचना..

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  2. सुंदर विवेचन और विश्लेषण ।
    या तो मुझे ही दिख रहा है या आपके हिंदी के सॉफ्टवेयर का दोष है बहुत सारी मात्रायें और रकार इधर के उधर लग गये हैं उससे पढने की शृंखला टूट रही है । शब्दों में जगह भी नही है ।

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    1. मेरे विचार में आप opera use कर रही हैं - google chrome try कीजिये ?

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  3. पहली पंक्ति में ही बयां हो गया………
    आचरण में वैयक्तिक होते हुए भी प्रभाव में व्यापक होता है धर्म। यह वैयक्तिक आचरण ही आत्मानुशासित समाज का प्राण है।

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