गुरुवार, 17 मई 2012

धार्मिक गाथाओं के स्वरूप

आर्यावर्त के आप्त पुरुषों द्वारा प्रकृति और उसकी नियंत्रक शक्तियों के बारे में जो ज्ञान अर्जित किया गया उसमें क्रमशः वृद्धि होती रही। यह ज्ञान तब की श्रुत परम्परा के अनुसार पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा। पाप की निरंतर वृद्धि, सत्य के निरंतर क्षरण और सत्यज्ञान के प्रति लोगों की विमुखता के कारण वेदोत्तर काल में वैदिक ज्ञान को बोधगम्य बनाने की दृष्टि से वैदिक सूत्रों की समय-समय पर व्याख्या की जाती रही है। परिणाम स्वरूप आरण्यक, पुराण, ब्राह्मण ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ आदि अस्तित्व में आये। पुनश्च, कलियुग में अनेक लोगों ने उसी ज्ञान को अपने-अपने तरीके से अभिव्यक्त किया...उसकी व्याख्यायें कीं। यहाँ तक कि बाद में आचरण के दिशानिर्देश के लिये पंचतंत्र जैसी कथायें भी अस्तित्व में आयीं। प्रश्न यह उठ सकता है कि जब वेद अपने आप में ज्ञान के लिये पूर्ण हैं तब अन्य ग्रंथों की भी आवश्यकता क्यों पड़ी? यह एक महत्वपूर्ण विषय है। 

ज्ञान एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। निरंतर नये रहस्यों के अनावरण होते रहने की प्रक्रिया है। इसमें जड़ता का कहीं कोई स्थान नहीं। सतत अनुसन्धान, परिमार्जन, समावेशीकरण और ज्ञान की सतत तृषा ने सनातन धर्म और भारतीय ज्ञान की निरंतर वृद्धि की है। यह धर्म तभी समृद्ध हो पाया है। सनातन धर्म विश्व का सर्वाधिक प्राचीन और सहिष्णुधर्म है। सहिष्णु इस अर्थ में कि इस धर्म में लोगों को आध्यात्मिक साधना के लिये पूर्ण स्वतंत्रता दी गयी है। यहाँ कोई पूर्व निर्धारित बन्धनकारी जड़त्व नियम नहीं है। जहाँ पूर्व निर्धारित लकीरें हैं ....परिमार्जन और समृद्धिकरण के लिये कोई स्थान ही नहीं है.....वहाँ विवाद हुये हैं और ऐसे धर्म अस्तित्व में आते और जाते रहे हैं। भारत की महानता इसीलिये है क्योंकि यहाँ चार्वाक को भी सुनने वाले हैं, कणाद को भी और जेमिनी को भी। "ग्रंथ" विचारों और लेखन को विस्तार देते हैं ...नयी दिशा देते हैं। आयुर्वेद जोकि एक चिकित्सा शास्त्र है, का मूलाधार अथर्व वेद है। यदि प्राचीन ग्रंथों में हम वैज्ञानिक तत्वों को नहीं देखेंगे ....उनपर विमर्ष नहीं करेंगे तो भारत के प्राचीन वैभव को जान कैसे पायेंगे? यह कितने लोगों को ज्ञात हैकि भारतीय पशुचिकित्सा (हस्ति आयुर्वेद) और वनस्पति चिकित्सा ( वृक्ष आयुर्वेद) जैसे आधुनिक विषय पश्चिम की नहीं भारत की देन हैं और उनके आधार हैं वेद। यह कितने लोगों को पता है कि जब लोगों को कृत्रिम बर्फ़ बनाना नहीं आता था तब भारत के लोग बर्फ़ बनाने में कुशल थे। कृषि में उपयुक्त होने वाले हल के बारे में भारत को पराधीन बनाने वाले अंग्रेजों ने ही पश्चिम को प्रथम बार जानकारी दी। हमें क्यों अपने प्राचीन ग्रंथों में छिपे वैज्ञानिक तत्वों की अनदेखी कर देनी चाहिये ? या क्यों हमें भिन्न दृष्टि से अपने प्राचीन ग्रंथों को देखने पर आपत्ति होनी चाहिये ?

लीक से इधर-उधर न हटने का आग्रह भारतीय ज्ञान परम्परा के लिये आत्मघाती होगा। त्रेतायुग और द्वापर युग के नायकों की गाथायें कलियुग में लिपिबद्ध की गयीं। तथ्यों को रोचक, बोधगम्य और प्रभावी बनाने के लिये कल्पना का सहारा लिया गया। इसीलिये रामचरित पर लिखे गये ग्रंथों में विभिन्नतायें देखने को मिलती हैं...पूरी तरह एकरूपता नहीं है। एक बात यह भी उठती हैकि इन गाथाओं की आवश्यकता क्यों है?

कई कारण हैं इसके; कोई मनोरंजन के लिये इन्हें सुनना चाहता है, कोई ज्ञान प्राप्ति के लिये, कोई अपने आराध्य की भक्ति के लिये, कोई अनुसन्धान के लिये, कोई सामाजिक दिशा निर्देश पाने के लिये .....और भी बहुत से कारण हो सकते हैं। किसी के शोधपत्र का विषय था-" रामचरित मानस में जड़ीबूटियों का उल्लेख"।

त्रेता युग में न तो वाल्मीकि जी थे और न तुलसीदास जी। इन्होंने कैसे लिखा राम के बारे में? क्या था आधार? दो थे आधार- श्रुत और कल्पना। लोकरंजन हेतु सामाजिक विषयों पर लिखने के लिये हम जिस कल्पना का सहारा लेते हैं उसे फ़िक्शन कहते हैं आप। और वैज्ञानिक कल्पनाओं को कहते हैं हाइपोथीसिस। बिना हाइपोथीसिस के विज्ञान उड़ान भरेगा कैसे?

वाल्मीकि जी और तुलसी दास जी साहित्यकार थे वैज्ञानिक नहीं । उनके प्रति हमारी श्रद्धा हो सकती है , भारत के राष्ट्रापति के प्रति हमारी श्रद्धा हो सकती है ...और भी कइयों के प्रति हमारी श्रद्धा हो सकती है। किंतु श्रद्धा होना और भगवान का प्रतिरूप मान लेना या अवतारी घोषित कर देना अलग बात है। अब्दुल कलाम जी के प्रति हमारी श्रद्धा है पर जब वे बाहर जाते हैं तो वहाँ वे अपने प्रति लोगों का भिन्न आचरण पाते हैं। हम इस बारे में कोई सर्वमान्य बाध्यकारी नियम नहीं बना सकते।

भारत की संस्कृति को जीवित रखना है तो निरंतर परिमार्जन करना पड़ेगा। हम ऐसा नहींकर पाते इसीलिये रूढ़ियों में जकड़े हुये हैं। धार्मिक गाथाओं को या किसी भी गाथा को किसी एक ही फ़्रेम में बाँधकर रखना घातक होगा। फ़्रेम में बाँध देने से आम जनता चमत्कार की आभासी दुनिया से आगे नहीं बढ सकेगी।

4 टिप्‍पणियां:

  1. पिछली सभी आपत्तियों का निचोड़ उत्तर इस प्रतिक्रियात्मक आलेख में है... क्या कारण है कि आपके चिंतन पर मुझे न्योछावर होने की इच्छा होती है?

    कारण है : एकदम सुलझा हुआ और निष्पक्ष चिंतन है.

    ... सबके पास ऎसी व्यास शैली नहीं होती जो दूध-का दूध और पानी-का-पानी कर दे.


    चरैवेती चरैवेती..

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  2. पुरानी कहानियाँ हर बार एक नया परिप्रेक्ष्य और नया संदेश दे जाती हैं।

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  3. सार्थक विवेचन .... अगर ऐसा होता है तो हर परम्परा समसामयिक और प्रासंगिक लगने लगेगी..... आभार

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