गुरुवार, 31 मई 2012

धर्मचिंतन ...6

 

आज हम विचारों के सन्धिकाल पर हैं। वैदिक युग का प्रकाश ढ़ल चुका है, अज्ञान का तमस घिरता आ रहा है...अभी पूरी तरह घिर नहीं पाया। कुछ धुँधलका सा है जिसमें दिख तो सब कुछ रहा है पर स्पष्ट कुछ भी नहीं है। मनुष्य के जीवन का यह संकट काल है..द्विविधाओं से भरा हुआ....विचलन की सम्भावनाओं को अपने में समेटे हुये।

इस तमस में धर्म और अधर्म के मध्य की विभाजक रेखा लुप्त होती जा रही है। कल किसी ने बताया कि अब भारत में भी अविवाहित युगलों को एक साथ रहने के विधिक अधिकार मिलने वाले हैं। यदि ऐसा होता है तो यह भारतीय परिवार, समाज और सनातन धर्म को और भी छिन्न-भिन्न करने का एक बड़ा कारण बनेगा। भारतीय समाज व्यवस्था में अविवाहित युगलों को एक साथ रहने की अनुमति कभी नहीं रही। कामेच्छा के तीव्र प्रवाह को सही दिशा में ले जाने की अपेक्षा अन्धकूप की ओर ले जाने का प्रयास है यह। 

चिंतनीय है ....हमारे चार प्रशस्त आश्रमों का क्या होगा तब? इन आश्रमों की पारस्परिक सीमा रेखायें क्या होंगी? धर्मानुशीलन के चार अनिवार्य अवसरों को समाप्त कर देने से धर्मानुशीलन का अवसर कैसे मिल सकेगा?  

चारो आश्रमों में श्रेष्ठ गृहस्थ आश्रम का तो लोप ही हो जायेगा। ऐसे युगलों से उत्पन्न संतानों को पश्चिम की परम्परा के अनुसार माता-पिता का नहीं अपितु शासन का उत्तरदायित्व माना जायेगा। चर्चों  के पादरी उनके पिता होंगे। पारिवारिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जायेगा।  भारतीय समाज जब पूरी तरह पतन के गर्त में डूब जायेगा तब फिर कोई वैलेंटाइन जन्म लेगा और भारत के लोगों को विवाह के महत्व को समझायेगा। 

नवीनता प्रकृति का नियम है ...अवश्यम्भावी है पर इस नवीनता के व्यामोह में हम जिधर बढ़ते जा रहे हैं वह समाज के विकास की नहीं ..पतन की दिशा है। समझ में नहीं आता कि जिन परम्पराओं के दुष्परिणामों को  भोग चुकने के पश्चात् पश्चिम तिलांजलि देना चाह रहा है उन्हें ही पूर्व क्यों अपनाना चाह रहा है? 

हमें विचार करना होगा कि भारतीय समाज की रूप-रेखा धर्म के अनुकूल कैसे बनायी जाय। पारिवारिक जीवन में एक सुव्यवस्था, दृढ़ता और प्रेममय सम्बन्धों की ऊर्जा प्रवाहित करने के लिये  हमें शीघ्र ही कोई निर्णय लेना होगा। विनम्र आग्रह है उन नवयुगलों से जो पश्चिम की इस परम्परा को भारत में पोषित करना चाह्ते हैं कि वे इस पथ के दुष्परिणामों के बारे में पहले गम्भीरता से चिंतन अवश्य करें। क्या वे अपने बच्चों के प्रति अपने पवित्र उत्तरदायित्वों से मुँह मोड़ना चाह्ते हैं? क्या वे चाहते हैं कि उनके रक्तांशों का पालन पोषण शासन के कर्मचारी करें या फिर वे मातृ-पितृ विहीन हो पशुओं की भाँति स्वतंत्र रूप से जीवन संघर्ष में अपने भाग्य का निर्माण करें ?

ध्यान रखना होगा ...मानव सभ्यता की सबसे बड़ी पूँजी है प्रेम ......हम उसे ही खोने का उपक्रम कर रहे हैं। मैं पश्चिम की परम्पराओं का विरोध नहीं कर रहा किंतु जो परम्परायें दोषपूर्ण प्रमाणित हो चुकी हैं उनकी ओर हमारा आकर्षण क्यों होना चाहिये? अनुकरण ही करना है तो पश्चिम् की राष्ट्रीय भावना और जनसेवा भावना का अनुकरण क्यों न करें?  

क्रमशः ......

   


10 टिप्‍पणियां:

  1. आज हम विचारों के सन्धिकाल पर हैं। ... अज्ञान का तमस घिरता आ रहा है...कुछ धुँधलका सा है ... मनुष्य के जीवन का यह संकट काल है..द्विविधाओं से भरा हुआ....विचलन की सम्भावनाओं को अपने में समेटे हुये।
    @ क्या यह सच नहीं कि प्रत्येक युग में कोई-न-कोई द्विविधा बनी रही है.... सतयुग से लेकर कलयुग तक धर्म और अधर्म आमने सामने बने रहे हैं.
    क्या देवासुर संग्राम, राम-रावण युद्ध, महाभारत नामक समर दो युगों के संधिकाल में आये व्यापक वैचारिक बदलाव का ही परिणाम नहीं थे?

    धर्म-ग्रंथों में उल्लिखित हम अपने इतिहास को संकुचित सोच के साथ ग्रहण करते हैं.... इसलिये तो पाश्चात्य मानसिकता से ग्रस्त आधुनिक इतिहासकार अपने धर्म-ग्रंथों के ऐतिहासिक कथानकों पर पुनर्चिन्तन करना बेकार की मगजमारी मानते हैं. आजकल एक मानसिकता तेज़ी से हावी होने के प्रयास में है वो ये कि 'जितनी भी भारतीय संस्कृति के अतीत की उज्ज्वल गाथाएँ हैं...वे मात्र कपोलकल्पित चित्रकथाएं हैं मतलब कि वे समय-समय पर भारतीय कवि-लेखकों के द्वारा मनोरंजनार्थ गढ़ी गई कोमिक्स भर हैं.

    फिर भी एक बात को विनम्रता के साथ स्वीकार करना बुरा नहीं माना जाना चाहिए, वो ये कि पौराणिक कथाओं में कल्पनाशीलता की ऊँची उड़ान है. वो जिन उद्देश्यों को लेकर लिखे गये हैं वे शोध का विषय बन सकते हैं. पौराणिक-चिंतन की समाज के उन्नयन के सन्दर्भ में प्रासंगिकता पर हमें फिर से सोचना होगा.

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    1. वैचारिक श्रेष्ठता के अहम् के टकराव का परिणाम है युद्ध। इतिहास हमें अपनी भूलों की पुनरावृत्ति के प्रति सचेत करता है...और जो कुछ अच्छा हुआ था उसके प्रति प्रेरणा उत्पन्न करने का कार्य करता है। हमारे अतीत की गाथायें आवश्यक होने पर तत्क्षण पथ निर्माण करने में समर्थ हैं .....पथिक भर तत्पर होना चाहिये।

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  2. इस तमस में धर्म और अधर्म के मध्य की विभाजक रेखा लुप्त होती जा रही है। ....
    @ यह पीड़ा सचमुच चिंतनीय है.... अधर्म के पाले में खड़े हुए यह नहीं जानते कि वे कहाँ खड़े होकर 'धर्म का जयकारा लगा रहे हैं.' 'मिथ्या पर पोषित होने वाली पीढ़ी 'सत्य के उजाले का उपदेश' उलूकमतियों से सुनकर विश्वस्त है.' 'मात्र अपनी भौतिक उन्नति से संतुष्ट (अधर्मी) लोग धर्म की पताका फहरा रहे हैं.'

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  3. ..... भारतीय समाज जब पूरी तरह पतन के गर्त में डूब जायेगा तब फिर कोई वैलेंटाइन जन्म लेगा और भारत के लोगों को विवाह के महत्व को समझायेगा।

    @ आपके द्वितीय अनुच्छेद में दूरदर्शिता पूर्ण चिंतन झलकता है.... लेकिन मैं इस बात से विश्वस्त हूँ कि भारतीय विद्वानों का एक बड़ा वर्ग सांस्कृतिक विरासत को बचाने में रात-दिन लगा हुआ है. देर-सवेर हमारी नयी पीढी के युवाओं को भारतीय नैतिक मूल्यों का बोध होगा.... वर्णाश्रम व्यवस्था की पुनर्स्थापना में ही सामाजिक उन्नति को स्वीकारा जायेगा. आज की कथित दलित, शूद्र, हरिजन, पिछड़ी और अल्पसंख्यक बिरादरियाँ के मन-मस्तिष्क में घुले विषाक्त पूर्वाग्रहों की कड़वाहटें विरेचित होंगी.

    मेरा यह भी सपना है कि एक दिन कर्म के आधार पर 'वर्ण' वितरित होगा. घर-परिवारों में पूरी आयु बिताने वाले वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम योग्य वृद्धों की आसक्ति कम होगी. उनका प्रकृति में बसेरा बनेगा. उनके अनुभवों से जिज्ञासुओं को लाभ मिलेगा. मेरे मन में निःशब्द गाना बज रहा है... "जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती हो बसेरा. वो भारत देश है मेरा. वो भारत देश है मेरा. जहाँ सत्य-अहिंसा और धर्म का. पग-पग लगता फेरा. वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा.... जय भारती, जय भारती." कृपया सभी सत्संगी इस गाने को जरूर सुनें. यह गाना हमें भरपूर आशावादी बनाता है.

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    1. आशान्वित तो हम भी हैं। जो बनता है वह कभी बिगड़ता भी है ..बिगड़कर पुनः बनता है। सनातन सत्य होने से भारतीय संस्कृति कहीं न कहीं बची अवश्य रहेगी किंतु आशा ही पर्याप्त नहीं है, कुछ करना भी होगा।

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  4. ... समझ में नहीं आता कि जिन परम्पराओं के दुष्परिणामों को भोग चुकने के पश्चात् पश्चिम तिलांजलि देना चाह रहा है उन्हें ही पूर्व क्यों अपनाना चाह रहा है?

    @ 'पश्चिम' जिनको दे रहा है तिलांजलि... उन्हें 'पूर्व' कई कारणों से स्वीकार रहा है...
    — हज़ारों वर्षों की पराधीनता ने भारतीय रक्त में दास-वृत्ति के संस्कार समाविष्ट कर दिये हैं.
    — जैसे गुलाम अपने मालिक या राजा की जूठन को उनकी कृपा मानकर उपभोग में लाता है और अपने मन में मालिक समान होने के भ्रम से अपनी प्रसन्नता स्थिर करता है. वैसे ही किसी का परित्यक्त, किसी का अवशिष्ट अथवा किसी का तिरस्कृत प्रायः नये उपभोक्ताओं के लिये वा अनजानों के लिये शुल्करहित होने से आकर्षण का कारण रहते हैं.
    — जब एक वस्तु या सुविधा से काम चलता हो तब उसकी सहसा हुई वृष्टि में भीगने की इच्छा करना 'हवस' कहलाता है. और इस 'हवस' को 'मजहबी जामा' पहनाकर या 'आधुनिक सोच की आत्ममुग्धता' कारण से स्वीकार्य बना लेना चलन में आ गया है.

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  5. अनुकरण ही करना है तो पश्चिम् की राष्ट्रीय भावना और जनसेवा भावना का अनुकरण क्यों न करें?

    @ समसामयिक प्रेरक कथन... जिसमें अंधअनुयायियों को उलाहना दिया गया है. जिसमें किंकर्तव्यविमूढों को कर्तव्य की दिशा दिखायी गयी है. जिसमें भारतीय शोधार्थियों में शोध के सनातन विषयों के प्रति अलख जगाने का प्रयास है.

    आचार्य जी, इस सत्संग का पूरा लाभ मिला है मुझे.

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  6. आपके पोस्ट पर पहली बार आया हूं । आना सार्थक हुआ । मेरी कामना है कि आप सदा सृजनरत रहें । मेरे नए पोस्ट "बिहार की स्थापना के 100 वर्ष" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  7. हम भी इस सत्संग का आनंद ले रहे हैं .. क्या कहा जाए इस श्रृंखला के लिए ? .. प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिलेंगे .. प्रतुल जी के साथ हो रही चर्चा ने आनंद को दोगुना बढ़ा दिया है ...

    आपका बहुत बहुत आभार कौशलेन्द्र जी |

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  8. हम तो अनुकरणीय थे कभी, आज अनुकरण करने में माहिर हो गए हैं।

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