मंगलवार, 1 मई 2012

जो अपनी संस्कृति की बात करे, क्या वो पोंगापंथी है?

कैसे कहें कि हम आज़ाद हैं ! - लेखक : जीवराज सिंघी जी

 हम भारत के लोगों में आजादी का बोध ज़रा भी विकसित नहीं हो पाया. इसके विपरीत गुलामी के संस्कार लगातार मज़बूत होते गये. इस बात की पुष्टि के लिये किसी तरह का प्रमाण देने की जरूरत नहीं है. जिनका दिमाग और आँख साफ़ खुली हैं उन्हें कदम-कदम पर प्रमाण मिल सकते हैं. हमारा स्वाधीनता-संग्राम जिन शानदार मूल्यों और आदर्शों के बल पर खड़ा था वे तमाम मूल्य और आदर्श आज़ लगभग अप्रासंगिक हो गये हैं या यूँ कहें कि बना दिये गये हैं. हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं ने जो-जो सपने देखे थे, वे खंडहर की शक्ल में तब्दील हो गये हैं.

स्वाधीन भारत को लेकर सपना देखा गया था कि हमारी अपनी के राष्ट्रभाषा होगी, हम अपनी जरूरतों की चीजें खुद बनायेंगे, कुलीनतंत्र का निर्माण करने वाली अपनाएंगे, सदियों से शोषित-दमित दलितों और पिछड़ों को विशेष सुविधायें देकर ऊपर उठायेंगे और एक समतामूलक समाज का निर्माण करेंगे, देशकी नौकरशाही को भ्रष्टाचार से मुक्त कर जनता के प्रति जवाबदेह बनायेंगे, विदेशों पर आर्थिक निर्भरता से मुक्त होकर अपने पैरों पर खड़े होंगे, पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति के मोहजाल से मुक्त होकर अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे, अनेकता में एकता की अपनी प्राचीन परम्परा को और अधिक समृद्ध कर दुनिया के सामने एक आदर्श पेश करेंगे, एक ऐसा देश और समाज बनायेंगे, जिसमें कोई व्यक्ति भूख से नहीं मरेगा, जिसमें हर अहथ को काम और हर खेत को पानी मिलेगा और जिसमें ऎसी चिकित्सा सेवाएँ होंगी जिनके चलते किसी बीमार व्यक्ति को इलाज़ के अभाव में मरना नहीं पड़ेगा. लेकिन ये तमाम सपने आज़ पूरी तरह ध्वस्त हो गये हैं. इन सब बातों पर आज़ अव्वल तो कोई ईमानदारी से चर्चा नहीं करता और अगर कोई करने की कोशिश भी करता है तो खाए-अघाए और संभ्रांत समझे जाने वाले लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं और इनके अनुसार आचरण करने वालों को असभ्य समझने लगते हैं.

देश के इस दुर्भाग्यपूर्ण कायाकल्प के लिये कौन जिम्मेदार है? क्या इसके लिये बूढ़े और थके हमारे वे नेता जिम्मेदार नहीं, जिनके हाथों में आजादी मिलते ही हमारे देश की बागडोर आ गई थी. वे नेता, जिन्हें अवतार का दर्जा दिया और जिनके हाथों हमने अपना भाग्य सौंप दिया, इस दोषारोपण से कैसे मुक्त हो सकते हैं? लेकिन उनकी शान में कुछ कहने का साहस आज़ कौन कर सकता है? किसी ने अगर साहस किया भी है तो हमारे शासकवर्ग और परचार माध्यमों ने उसे खलपात्र करार दे दिया.

लगता है अंग्रेजों ने जाते-जाते इस देश में अपने एजेंट स्थापित कर दिये और उन्हें राजनीतिक उपनिवेश ख़त्म होने के बाद आर्थिक और सांस्कृतिक उपनिवेश चलाते रहने का काम सौंप दिया. ये एजेंट उन्हीं लोगों में से थे जो १९४७ से पहले उपनिवेश के तंत्र को चला रहे थे. परिणामस्वरूप, वही नौकरशाही, वही पुलिस, वही कोर्ट-कचहरियों का तंत्र और वही शिक्षा प्रणाली बनी रही. जैसे विदेशी शासन चलता था वैसे ही स्वदेशी शासन भी चलने लगा. भीतर ही भीतर ये तत्व साजिश करते रहे कि जिन मूल्यों के लिये आजादी का आन्दोलन चला था, वे मूल्य धीरे-धीरे हास्यास्पद बनते जाएँ. उन्होंने राष्ट्रीय एकता के भूत को खड़ा करके राष्ट्रभाषा के प्रति लोगों में अरुचि पैदा की. इतना ही नहीं मेरिट का नारा देकर कमज़ोर वर्गों को दी गई सुविधाओं को विकृत रूप में पेश किया. फिर खुली खिडकी के नाम पर विदेशी भाषा और विदेशी संस्कृति को अनिवार्य बताया जाने लगा. हमारे नेता लोग भी साम्राज्यवाद के अवशिष्ट तत्वों के रंग में रंगते गये. उन्होंने ऎसी शिक्षा प्रणाली बनायी कि उच्च धनी वर्गों का सत्ता पर पीढी-दर-पीढी नियंत्रण बना रहे. उच्च वर्गों के लिये अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा और पदों के लिये अंग्रेजी की योग्यता अनिवार्य कर दी जिससे गरीब और सामान्य वर्गों के बच्चे अधिकार वाले पदों पर आ सकें.

सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने और नेताओं को कथ्पुलियाँ बनाने के बाद इन अवशिष्ट तत्वों ने अंग्रेजों के नमक का हक़ अदा करना शुरू किया. हमारी हर योजना विदेशों की आर्थिक अथवा तकनीकी सहायता पर निभर करने लगी. कोई भी नई योजना तो अफसरों और मंत्रियों के झुण्ड विदेशी दौरों पर निकलते. १५ अगस्त १९४७ से पहले देश पर के विदेशी कम्पनी (ईस्ट इंडिया कम्पनी) का राज था. आजादी के बाद धीरे-धीरे एक-एक करके छह सौ से अधिक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के वेश में उपनिवेशवाद नये रूप में आ गया. अर्थतंत्र पर अधिकार करने के बाद संस्कृतितंत्र पर भी उनका कब्ज़ा हो गया. शिक्षण-संस्थाओं में ऎसी पौध तैयार होने लगी, जो राम को रामा और सीता को सीटा, कृष्ण को कृष्णा, शिव को शिवा, बुद्ध को बुद्धा और महावीर को महावीरा बोलने लगी. इस पौध के लिये ईमानदारी, मेहनत और परोपकार जैसे मूल्य बेमानी हो गये और सबसे बड़े मूल्य हो गये - पैसा और भोग-विलास.

इन बातों से किसी को तकलीफ नहीं हुई, किसी को चुभने जैसे बात भी नहीं लगी. इस बात का द्योतक है कि हमारा सारा शिक्षित और मध्य वर्ग उस रंग में रंग चुका है, जिसे उपनिवेशियों ने लाना चाहा था. अब जो कोई कीड़ों-मकोड़ों की तरह जिन्दगी बसर करने वाले ५० करोड़ लोगों की बात करेगा, १५ करोड़ बेरोजगार नौजवानों की बात करेगा वह लोगों की नज़र में सिरफिरा कहलायेगा. अब अंग्रेजी को हटाकर देशी भाषाओं को लाने की बात जो भी करेगा, वह मूर्ख कहा जायेगा. जो अपनी संस्कृति की बात करेगा, उसे पोंगापंथी करार दे दिया जायेगा. जो गरीबी-अमीरी और ऊँच-नीच की खाई पाटने की बात करेगा, उसे दकियानूस घोषित कर दिया जायेगा. जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ आवाज़ उठाएगा, उसे विकास विरोधी और पागल करार दे दिया जायेगा. जो स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों की बात करेगा, उसकी बात को उपहास में उड़ा दिया जायेगा.
साम्राज्य तंत्र ने, जो अब पूरी तरह हमारे देश पर हावी है, हमें कहीं का नहीं छोड़ा. हमारी हर योजना की परिणति विकृति में हुई. ग्राम विकास की योजनाओं ने हाथियों के झुण्ड पालने के सिवा कुछ नहीं किया. ग्रामसेवक से लेकर ऊपर तक... और गरीब हुआ, और गरीब किसान, मजदूर की हालत और खराब ही हुई. सरकारी कम्पनियाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की देखादेखी नवाबी शान-औ-शौकत में जनता का पैसा पानी की तरह बनाने लगीं. जनता के प्रतिनिध नये सामंत बन गये. लोकतंत्र की खोज में निकला देश फिर सामंती युग में पहुँच गया. सवाल और भी हैं, समस्याएँ और भी हैं, जो भारतीय राष्ट्र-राज्य को आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से लगातार नष्ट-भ्रष्ट कर रही है.

[लेखक की सामाजिक और राष्ट्रीय पीड़ा]

24 टिप्‍पणियां:

  1. अपने भ्रष्टाचार और नैतिक पतन से एक तरफ आज़ भारतीय सरकार अपनी साख गँवा चुकी है दूसरी तरफ समाज और संस्कृति के पुरोधा उसे पुनः स्थापित करने के लिये संघर्षरत हैं. ऐसे में कवि और साहित्यकारों का दायित्व बनता है कि वे अपने विचारों से साधारण जनता का मार्गदर्शन करें. हमारा देश विद्वानों से पटा पड़ा है... बस उनको खोजकर उन तक पहुँचने की जरूरत है. मुझे नयी-पुरानी पुस्तकों में जब भी आंदोलित करने वाले विचार मिलते हैं.. उनका विस्तार करना मुझे रुचता है.

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  2. आपके कहे एक एक शब्द में मेरे सहित उन समस्त भारतवासियों की पीड़ा निहित है, जो कि स्थिति की भयावहता को देख पा रहे हैं..

    पर विडंबना है कि हमारे स्वर नक्कारखाने में तूती से हैं..इन विचारों का सरे आम उपहास उड़ाया जाता है तथाकथित गुलाम मानसिकता वाले शिक्षितों द्वारा...

    पर फिर भी हम कहेंगे, आखिरी सांस तक कहेंगे, यही प्रण है स्वयं से...

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    1. आपकी हौसलाअफजाही से एक परिवार की अनुभूति होने लगी है.

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  3. कोटि-कोटि भारतीयों की पीड़ा है यह। स्वतंत्रता संग्राम की विशेष उपलब्धि मात्र इतनी ही है कि तंत्र को बदले बिना सत्ता का हस्तांतरण कुलीन भारतीयों के हाथ में आ गया। भारत में भारत के अनुरूप भारतीयों के लिये कोई तंत्र विकसित नहीं हो सका जिससे आम भारतीय का विकास हो पाता। विकास हो रहा है किंतु एक वर्ग विशेष का....दरिद्र वहीं का वहीं है। स्वतंत्र भारत में सर्वाधिक क्षति भारतीय संस्कृति और सभ्यता की हुई है। भारत को जिन मूल्यों के लिये जाना जाता था वे अब यहाँ खोजने से भी नहीं मिलते। हम सरकारों से कोई आशा नहीं कर सकते, अपने अस्तित्व और अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिये ख़ुद हमें ही संघर्श करना होगा।

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  4. उत्तर
    1. आप तक जीवराज जी के विचार पहुँचा पाया... मेरा इस लेख को पढ़ना और टाइप करना सफल हुआ.

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  5. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
    बुधवारीय चर्चा-मंच पर |

    charchamanch.blogspot.com

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  6. लेखक की नहीं, बहुत से लोगों की पीड़ा है ये| वो पीड़ा जो बिखरी है शायद इसीलिये सहनीय है, एकत्र हो जाए तो गुबार फट ही जाए|

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  7. सत्यमेव जयते! भारतीयता की भावना को कोई शक्ति आज तक मिटा नहीं सकी है, न ऐसा कभी हो सकेगा। झंझावात आते रहे हैं, आते रहेंगे, रूप बदलते रहे हैं, आगे भी बदलेंगे। पुरखे संस्कृत बोलते थे, संतति हिन्दी, बंगाली, अवधी, मैथिली बोलने लगी। बुद्ध को बुत भी कहा बुद्धा भी। जहाँ बुद्ध हर ओर विद्यमान हैं वहाँ उन्हें बुत्सु कहा जाता है। कोई नाम जपता रह जाता है कोई प्रभु के काम में लगता है। अब ये हमारे ऊपर है कि हम कर्मण्येवाधिकारस्ते को अपनाते हैं या नहीं।

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    1. @ हम डींगे मारने में कभी पीछे नहीं रहे.... जैसे यह कहना कि "कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी". और आत्मगौरव के वशीभूत अपनी सचेतता/सतर्कता कम कर देना.
      सत्ता में जितना अधिक प्रतिशत जिस मानसिकता के लोगों का होता है .... धीरे-धीरे हवा में उसका प्रभाव दिखायी देने लगता है.
      धूर्त सोच के लोगों से फैले प्रदूषण में साधुवृत्ति के लोगों को श्वास लेना विवशता बन जाता है.
      संकर नस्लों में प्रायः 'वसुधैव कुटुम्बकम' जैसे सूत्रों की अपनी न्यारी व्याख्याएँ हुआ करती हैं.
      एक शासक के पिता का ओरिजनल मूल आक्रान्ता जाति से था..
      वह चोरी-छिपे पंडित वर्ग में शामिल हो गया.
      उसकी पुत्री ने अन्य मजहब के हजरात से निकाह कर लिया...
      फिर उनसे हुई संतान ने किसी तीसरे ही रिलीजन में मेरिज कर ली.
      हुआ ये कि उनसे पनपी संतानों में 'भारतीयता' का तो नामो-निशाँ भी नहीं बचा.
      वे कहने को/ और राजनीति करने को ही भारतीय बने रहे..
      ... अब क्या हम कह सकते हैं "सत्यमेव जयते'.
      वर्तमान में तो चारों तरफ झूठ ही झूठ पाँव पसारे खड़ा है.

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    2. प्रतुल जी, सत्कर्म और डींगों का अंतर पहचानने का विवेक जिस समाज में विकसित हो जाता है, उसका कहना ही क्या। अगर चारों तरफ़ झूठ पाँव पसारे दिख रहा है तो हमें एक पल रुककर उसके कारणों पर विचार अवश्य करना चाहिये कि कहीं सत्य की डींगे मारने वाले लोग जाने-अनजाने असत्य को प्रश्रय तो नहीं दे रहे।

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  8. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, अंग्रेजों की चाल अब तक नहीं समझ पाये हैं भारतवासी।

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    1. अग्रिम पंक्ति में खड़े लोग जानबूझकर नासमझ बनते हैं...उन्हें (मतलब काले अंग्रेजों को) भारतीय लोगों की बात करना और उनके बारे में सोचना 'प्रोपर्टी' में हिस्सेदारी जैसा लगता है.

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  9. प्रतुल जी राम राम
    आन्दोलनकारी विचारो को विस्तार मिलना ही चाहिए ,अब वो चाहे हमारे हो या किसी अन्य के !और आपको ये रुचता है और हमें ऐसे विचार पढने को मिल जाते है,साथ ही मंथन करने का ek एक अवसर भी!
    समस्या को समस्या ही बताना चाहिए,उसको अन्य किसी भी रूप में स्विकार करना अनुचित ही नहीं अत्यंत हानिकारक भी होता है,और ना केवल अब के लिए बल्कि भविष्य के लिए भी!
    हमारी शिक्षा पद्धति में जो पतिवर्तन पराधीनता के काल में हुए वो समस्या ही तो थे पर स्वतन्त्रताके पश्चात भी उनको हमने नहीं छोड़ा!हम आज भी वही पढ़-पढ़ा रहे है जो अंग्रेज चाहते थे,सम्भवतःउसी के कारण बहुत सी बातो के मायने बदल गए !पहले जो जीवन सुख के लिए जिया जाता था अब मात्र सुविधाओ का गुलाम हो कर रह गया है!स

    कुँवर जी,

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    1. @ प्रिय कुँवर जी,

      रामराम.

      आपने वस्तुस्थिति बयाँ की. फिर भी राष्ट्रीय सोच के विचारक लेखकों के प्रयासों से हम/आप जैसे जगने के इच्छुक नागरिकों में जितनी भी जागृति आ पाये... लेख की सफलता ही माना जाना चाहिए.

      वास्तविकता का बोध कराने वाले लेख, सोते से जगाने वाले आलेख, मृत में प्राण फूँकने वाले मन्त्रतुल्य निबंध, निष्क्रिय को चालित कर देने वाले चिपलूनकरीय ऊर्जावान सन्देश ...... राष्ट्र-सेवा में योगदान देते रहेंगे.

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  10. यह चिन्तन और चिंता दोनो ही विचारणीय है।

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  11. सुज्ञ जी, मैं अकसर सोचता हूँ
    " काश! 'निरामिष क्रान्ति' यदि इस देश में कभी हुई होती और उसमें सभी मतावलंबियों का सहयोग मिलता...तो देश की बड़ी-बड़ी समस्याएँ सुलझ गयी होतीं!"

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  12. आभार प्रतुल जी | आपकी चिंता बिलकुल जायज़ है |

    परन्तु आम स्थितियों में - १०० में से ९० जन तो सिर्फ अपना रूटीन जीवन जीते हैं - वे इन सब चीज़ों में पड़ना ही नहीं चाहते | बचे दस - इनमे २ यज्ञ करें तो २ यज्ञ विध्वंसक भी हैं | बचे हुए ६ पर निर्भर होता है की यज्ञ करने वाले जीतेंगे या विध्वंसक | वे ६ मन में जानते हैं की क्या सही है और क्या गलत, लेकिन काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की बेड़ियों के चलते कई बार गलत का साथ भी देते हैं, और आत्मा की आवाज़ के कहते कई बार सही का भी साथ देते हैं | यह आम स्थिति है - सिर्फ हमारे भारत में ही नहीं - पूरे संसार में |

    लेकिन कभी कभी (सदियों में एक बार ) कोई कोई इतने समर्थ जन भी कभी कभी जन्म लेते हैं जो अकेले एक ही सब को चला सकते हैं - तब उन्ही की जीत होती है - बाकी ९ कुछ नहीं कर पाते हैं | यदि वह समर्थ व्यक्ति रावण हो - तो रावण राज मिलता है, राम हो तो राम राज्य | लेकिन ऐसे होता बहुत ही rarely है |

    हम में से हर एक के पास लगातार मौके आते रहते हैं जीवन में, कि हम सही या गलत को चुने | तब हम कौनसा रास्ता चुनते हैं - इसी पर निर्भर होता है की हमारा समाज / देश किस पथ पर अग्रसर होगा |

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    1. शिल्पा जी, सहमत हूँ आपसे...

      मैं राष्ट्रवादी विद्वान् लेखकों की आँखों से देखकर ज़्यादा समझ पाता हूँ. उनके अनुभव उस पीड़ा की ओर भी ध्यान दिला देते हैं जो लकवाग्रस्त सांस्कृतिक शरीर महसूस करना नहीं जानता.

      मैंने विविध मतावलंबियों के विचारों में राष्ट्रीयता [भारतीयता] तलाशना शुरू कर दिया है. देश को कौन अपना मानता है और कौन उसे सराय समझकर रह रहा है... इस पर शोध होना जरूरी है.. मुझे लगता है कि राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों पर तभी लगाम लगेगी जब राष्ट्र-प्रेमियों और राष्ट्र-नियंताओं को कपटियों व धूर्तों को पहचानना आयेगा.

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    2. जी - पहचानने के लिए आँखें खुली होना आवश्यक होता है |

      - ध्रुतराष्ट्र पुत्र मोह में अंधे हैं |
      - गांधारी "पतिव्रता" कहलाने के (उस शब्द से जुड़े आदर के) मोह में आँखों पर पट्टी बांधे हुए हैं |
      - द्रौपदी की इज्ज़त सरे आम उछाली जा रही है |
      - द्रोण ने द्रुपद से शत्रुता निभाने के लिए खुद को गलत पक्षों का ऋणी बना लिया है |
      - भीष्म ने अपने पिता के स्त्री मोह (सत्यवती) को पूर्ण करने के लिए खुद को एक बिना सोची समझी प्रतिज्ञा में बाँध लिया ( जबकि वे जानते थे की राजा बनना उनका सिर्फ अधिकार ही नहीं - कर्तव्य भी था | "अधिकार" पिता की ख़ुशी पर छोड़ा जा सकता है - "कर्त्तव्य" किसी के लिए भी बलि नहीं चढ़ाया जा सकता | ) अब उन्हें अपनी इज्ज़त ( के मैं प्रतिज्ञा पर खरा हूँ ) सत्य और धर्म के बोध से भी अधिक ताकत से बांधे हुए है |
      - कर्ण जानता तो है - परन्तु दुर्योधन ने उसे "मित्र और अंगराज" बना कर उसकी निष्ठा खरीद ली थी ( जब अपने को अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर साबित करने का मौका उसे बरसों पहले मिला था ) ; ऊपर से अर्जुन से श्रेष्ठ होने का भाव , इसे स्वीकार न किया जाने के पीड़ा, "सूतपुत्र" शब्द के तीरों का दर्द, और पांडवों और द्रौपदी द्वारा अपना लगातार अपमान - इस सब चीज़ों ने उसे भी अँधा बना रखा है |
      - विदुर सब देख समझ रहे हैं, कह भी रहे हैं - पर उनकी कोई सुनता नहीं |

      - और अब सब मूक और अंधे बने बैठे हैं | तब हस्तिनापुर को गर्त की और जाते कौन देखे, कौन रोके ?
      -------------------
      वैसे - कौशलेन्द्र सर के ब्लॉग की ताजी पोस्ट ""रुग्णत्व का पोटेंशियल" में मैंने आपका नाम लिया है | चाहें - तो वहां देख लें |

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  13. सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, नैतिकता-अनैतिकता, देशभक्ति-देशद्रोह .....सभी परिभाषाओं ने नये वस्त्र धारण कर लिये है इन नये वस्त्रों का प्रचार भी बहुत हुआ है ..प्रशंसा भी। आम आदमी दिग्भ्रमित हो गया है...बड़े-बड़ॆ लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं,एक मकड़जाल तैयार हो गया है। बुद्धिविलास के भंवर में आम आदमी की समस्यायें डूब गयी हैं।

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    1. @सत्य-असत्य ...
      नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
      उभयोरपि दृष्टोSअन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥२।१६॥
      ... श्रीमद भगवद गीता |

      असत का अस्तित्व नहीं है , और सत् का अभाव नहीं है ........ वस्त्र कितने ही सुन्दर धारण कर लिए जाएँ - असत्य कभी सत्य नहीं बन सकता, अनैतिकता कभी नैतिकता नहीं बन सकती , अँधेरा तब तक ही रह सकता है जब तक सत्य का प्रकाश हुँकार न भरे.... |

      @ आम आदमी दिग्भ्रमित हो गया है..
      दिग्भ्रमित तो होगा ही - काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार की बेड़ियों में जकड़ा जो हुआ है - माया के पर्दों पर परदे हैं | तो भ्रमित होना स्वाभाविक है |

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