रत्नाकराधौतपदां हिमालायकिरीटिनीम !
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढयां वन्दे भारतमातरम् !!!
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढयां वन्दे भारतमातरम् !!!
अर्थ :-
रत्नों की खान समुद्र जिसके पैर धोता है, हिमालय जिसका मुकुट है, ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों रुपी रत्नों से समृद्ध ऐसी भारतमाता की मैं वंदना करता हूँ !!!
@@@ अमित शर्मा ने कहा…
जवाब देंहटाएंसुग्यजी समय कम मिल पा रहा है. इसलिए निवेदन है की अगर संभव हो सके तो एक पोस्ट भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान सम्बंधित बन पड़े तो ब्लॉग को थोड़ी गति मिले और, एक श्रंखला रूप में लगातार अन्य साथी भी एक एक पोस्ट इस विषयक डाल दें तो, उत्तम होगा. दो टीन दिन में एक पोस्ट मैं भी डालने की कोशिश करूँगा.
********* भाई साहब - हमने तो शुरुआत कर दी अब पोस्टों की श्रृंखला का आरम्भ कीजिये !!
बहुत अच्छी प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .
बचपन में पढी कविता "हमको है अभिमान देश का" याद आ गई!
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जवाब देंहटाएंवन्दना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो.
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मेरा स्वर :
"पैर तुम्हारे धोता सागर, धोता ही है जाता.
क्यों चलती हो पंकिल पथ, क्यों धूल-मार्ग है भाता?
सिर पर मुकुट पहनकर हिम का तुम अब तक थी रहतीं.
लेकिन भक्त जनों के कारण मुकुट सिमटता जाता."
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प्रतुल जी,
जवाब देंहटाएंमुकुट सिमटता जाता
आपका वेदना व्यथित स्वर, घायल कर गया॥
वंदेमातरम।
जवाब देंहटाएंवन्दे नितरां भारतवसुधाम्।
जवाब देंहटाएंमैं पढता ज्यादा हूँ और लिखता हूँ बहुत कम . समय भी कम है हरेक के पास , मेरे पास भी मगर आपकी पोस्ट है शानदार , इसलिए बताना ज़रूरी समझा . शुक्रिया बहुत बहुत .
जवाब देंहटाएंक्या मैं भी योगदान कर सकता हूँ , कृपया मेरे ब्लॉग पर आकर जवाब दें . मेरा भी हौसला बढेगा ?
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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जवाब देंहटाएंहाकिम यूनुस खान जी,
आप उलझते बहुत हैं, सुलझते हैं बहुत कम. समय भी कम है सबके पास, आपके पास भी मगर जिन प्रश्नों के साथ आप अपने ब्लॉग पर बैठे हैं. उनका उत्तर तो विद्वानों की शरण में जाने से ही होगा न.
एक सत्य घटना के द्वारा आपके प्रश्न शायद सुलझ सकें :
"मेरे एक मित्र हैं अजय कुमार. एक भयानक दुर्घटना में उनके मस्तिष्क को काफी चोट लगी और जिस करण उनकी सूँघने की शक्ति ख़त्म हो गयी. आपको याद होगा कि कुछ साल पहले उडीसा में सूनामी से भारी तबाही हुयी थी. वहीं 'दिल्ली आर्य वीर दल' ने राहत शिविर लगाया था जिसमें 'अजय जी' की उपयोगिता काफी रही. क्योंकि उन्हें सुँघाई नहीं देता था इस कारण उन्हें दुर्गंधित लाशें उठाने में कम परेशानी हुई."
प्राकृतिक आपदा का शिकार कोई भी कभी भी कहीं भी हो सकता है. वहाँ जड़ और चेतन में भेद नहीं किया जाता.
— आप जीव-जंतुओं का कोई एक भाग (अंग) काटते हैं वह पुनः नहीं उग आता. उसे ताउम्र विकलांग होकर रहना होता है.
— वहीं वनस्पतियों (पेड़-पौधों) से आप अनेक वर्ष तक तरह-तरह के लाभ ले सकते हैं. समूल नष्ट करना वृक्ष का पहले भी अपराध था और आज भी नैतिक दृष्टि से बुरा ही है.
— अनाज की फसलें अपनी पूरी आयु लहलहाती हैं. उसके बाद ही वह भक्ष्य होती हैं.
— फिर भी कई अन्य वनस्पतियाँ हैं जो अपने जीवन में ही उपभोग की जाती हैं. उनमें अनुभूति है ...... इस कारण क्या हम अपनी आहार-प्रणाली बदल लें? यह अनुभूति किस स्तर की है? इसे सुलझाना आपकी ही नहीं हमारी भी ज़रुरत है.
लगता है कि आपके समस्त प्रश्न केवल अपने मांसाहार के पक्ष को मज़बूत बनाने को ही हैं? इसे समझने में देर नहीं लगती.
फिर भी अपने गुरु वत्स जी की शरण में जाना चाहूँगा. मैं उनसे आग्रह करता हूँ कि वे इस जिज्ञासा अथवा कुतर्क का शमन करें.
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प्रतुल जी,बहुत बढ़िया... प्रचारक को सही समाचरण देने के लिये बधाई.
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जवाब देंहटाएंयुनुस खान जी का प्रश्न है :
क्या यह सही है कि पेड़-पौधे जीवित चीज़ माने जाते हैं?
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पहले स्तर पर .......
जीवित वह है जिसमें जीव है.
जिसमें गति है, विकास है, जनन-क्षमता है.
दूसरे स्तर पर .......
जीवित वह है जिसमें अपने बचाव की क्षमता है. उपाय हैं. योजनायें हैं. प्रतिक्रियाएँ हैं.
तीसरे स्तर पर .......
जीवित वह है जिसमें अनुमान हैं, कल्पनाएँ हैं, विचार हैं, मनन है, संग्रह करने का गुण है.
चौथे स्तर पर ...........
जीवित वह है जो एक परिपाटी का विकास करके चलता है. जिसमें भावनाएँ हैं, संवेदनाएँ हैं.
इस तरह हम अपने जीवित होने के प्रमाण परस्पर देते रहते हैं. यदि आपके प्रश्न अनुत्तरित रह जाएँ तो आपको हमारे जीवित रहने का क्या लाभ होगा.
जिस तरह प्रश्नों का भोजन .......... तार्किक उत्तर हैं.
उसी तरह मनुष्यों का भोजन ......... सात्विक शाकाहार है.
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प्रतुलजी,
जवाब देंहटाएंअतिसार्थक प्रत्युत्तर!!,
उसी तरह मनुष्यों का भोजन ......... सात्विक शाकाहार है.
क्रूरत्तम विचारों से दूरी और न्युनतम हिंसा का आश्रय विवेक है, शाकाहार।
प्रतुलजी,
जवाब देंहटाएंअतिसार्थक प्रत्युत्तर!!,