सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

वैचारिक दक्षता का अहंकार विद्वान को ले डूबता है।


परोपदेशवेलायां, शिष्ट सर्वे भवन्ति वै।
विस्मरंति हि शिष्टत्वं, स्वकार्ये समुपस्थिते॥
                                                       -मानव धर्मशास्त्र
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अर्थार्त:

"दूसरो को उपदेश देने में कुशल, उस समय तो सभी शिष्ट व्यवहार करते है, किंतु जब स्वयं के अनुपालन का समय आता है, शिष्टता भुला दी जाती है।"
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सार:
वैचारिक दक्षता का अहंकार विद्वान को ले डूबता है।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. .

    सत्य वचन. चिंतन को विस्तार ..........

    परन्तु किसी कला में दक्षता से यह प्रमाणित नहीं होता कि कोई व्यक्ति वास्तव में विद्वान् है.

    देखने में आया है कि कई उपदेशक धाराप्रवाह ऐसा बोलते हैं कि लगता कि सरस्वती इनकी जिह्वा से उतरती ही नहीं.

    इसे हम वैचारिक दक्षता कह सकते हैं. जैसे कोई पुजारी नियमित कोई आध्यात्मिक पाठ करे और सर्वमान्य नैतिक मूल्यों पर बोले, अभ्यास वाले उदाहरणों को दृष्टांत रूप में परोसे. लेकिन उस उपदेशक की करनी अपनी कथनी से ही भिन्न हो. तो ऐसे दक्ष विद्वान् व्यावहारिक विद्वान् नहीं कहला सकते. या कहलायेंगे भी तो अल्पकाल के लिये या फिर सीमित दायरे में. जो वास्तविक विद्वान् होते हैं उनका लोहा तो कुमार्गी भी मानते हैं. शत्रु और चरित्रहीन व्यक्ति ऐसे व्यक्तित्व के सम्मुख नत रहते हैं.

    .

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  2. @ऐसे दक्ष विद्वान् व्यावहारिक विद्वान् नहीं कहला सकते. या कहलायेंगे भी तो अल्पकाल के लिये या फिर सीमित दायरे में. जो वास्तविक विद्वान् होते हैं उनका लोहा तो कुमार्गी भी मानते हैं. शत्रु और चरित्रहीन व्यक्ति ऐसे व्यक्तित्व के सम्मुख नत रहते हैं.

    विद्वान की गहन गम्भीर समिक्षा!!, तात्पर्य ऐसे बौद्धिकों से ही था, जो स्वयं को विद्वान मान बैठते है।

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