शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

हिंसामूल जगुप्साप्रेरक


हिंसामूलमध्यमास्पदमल ध्यानस्थ रौद्रस्य यदविभत्स,
रूधिराविल कृमिगृह दुर्गन्धिपूयदिकम्।
शुक्रास्रक्रप्रभव नितांतमलिनम् सदभि सदा निंदितम्,
को भुड्क्ते नरकाय राक्षससमो मासं तदात्मद्रुहम्॥
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अर्थार्त:
मांस हिंसा का मूल, हिंसा करने पर ही निष्पन्न होता है। अपवित्र है। और रौद्र (क्रूरता) का कारण है।देखने में विभत्स, रक्तसना होता है, कृमियों व सुक्षम जंतुओं का घर है। दुर्गंध युक्त मवाद वाला, शुक्र-शोणित से उत्पन्न, अत्यंत मलिन, सत्पुरुषों द्वारा निंदित है। कौन इसका भक्षण कर, राक्षस सम बन, नरक में जाना चाहेगा।

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4 टिप्‍पणियां:

  1. ..
    यह सत्य है कि घृणा ही हिंसा का पहला पडाव है.
    हम जिससे पहले घृणा करते हैं और फिर उसके प्रति दूरी बनाने की भावनाएँ मन में घर करती हैं.
    फिर हम उसे निकृष्ट मानने लगते हैं
    अपने को बेहतर मानते हैं श्रेष्ठ मान उसका अपमान करते हैं.
    अपमान से भी इच्छा नहीं भरती तो मारपीट पर उतर आते हैं.
    घृणा की अतिशयता से घृणास्पद व्यक्ति की ह्त्या तक के विचार आने लगते हैं.
    अतः घृणा हमें अपनी कुत्सित भावनाओं और
    मन के विकारों से करनी चाहिए.

    ..

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  2. ..

    परन्तु राष्ट्रद्रोह करने वाले लोगों के प्रति वर्तमान में केवल घृणा का संग्रह ही करो. कभी-n-कभी इस घृणा का रूप ..... 'क्रोध' रूपी पूँजी में एक्सचेंज होगा .... तब इसकी आवश्यकता होगी.

    ..

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  3. ..

    घृणा कभी भी
    निर्धन से,
    अशिक्षित से,
    मूर्ख से,
    बीमार से,
    विकलांग से,
    भिखारी से,
    मनोरोगी से नहीं करनी चाहिए.

    ..

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  4. बेहद प्रेरक विचार, प्रतुल जी

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