आचार्य प्लुष ने शास्त्री की परीक्षा के पश्चात अपने दो मेधावी शिष्यों से उनके जीवनादर्शों के विषय में पूछा.
एक ने कहा — "गुरु ही हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है, मोक्ष का मार्ग दिखाता है और ईश्वर का दर्शन करवाता है, अतः गुरु की महत्ता सर्वमान्य है. मेरे आदर्श आप हैं."
दूसरे ने अपनी वाणी में पहली बार उच्छृंखलता लाते हुए कहा — "समयानुकूल उचितानुचित कार्य करने की निर्णायक बुद्धि आपने ही हमें प्रदान की है गुरुदेव. इसलिये आप में भी छिद्रान्वेषण करना मेरा प्रथम कर्तव्य है. मैं अपना आदर्श स्वयं को मानता हूँ."
गुरुदेव इस गर्वोक्ति को सुन कुपित हुए. उन्होंने दूसरे शिष्य को यह कहते हुए गुरुकुल से निकाल दिया — "जो गुरुओं में दोष ढूँढता है वह जीवन के किसी क्षेत्र में उन्नति नहीं कर सकता."
जाते हुए शिष्यों का उसके प्रिय मित्रों तक ने अपमान किया.
पाँच वर्ष बीत गये. हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी गुरुदेव अपने शिष्य कुञ्जदेव के साथ समस्त गुरुकुलों द्वारा आयोजित 'संस्कृत साहित्य सम्मेलन' में पधारे. कुञ्जदेव के पांडित्य ने सभी विद्वान् जनों का मन मोह लिया किन्तु महादेव के पांडित्य को देखकर गुरुदेव के हर्षातिरेक से आँसू बह निकले. उन्हें कुछ आत्मग्लानि हुई. महादेव ने आकर जब गुरुदेव के चरण-स्पर्श किये तो वे गदगद कंठ से पूछ बैठे — "तुम्हारी उस कथनी और इस कथनी में अंतर पा रहा हूँ."
महादेव ने संतुष्टि के भाव से कहा — "गुरुदेव! आप द्वारा दी गयी शिक्षा से ही 'शत्रुता लेकर भी परहित साधने का भाव' मेरा स्वभाव बन गया है. शास्त्री से पूर्व ही कुञ्जदेव के मन में मेरे प्रति ईर्ष्या थी, जो एक प्रतिभावान छात्र की उन्नति में अवरोध बँटी. इसलिये मैंने गुरु के ह्रदय और गुरुकुल दोनों से निकल जाना ही उचित समझा."
गुरुदेव की आँखें मुस्कुराहट के साथ चमक उठीं. मानो उनकी खोजी दृष्टि ने कुछ अनमोल वस्तु ढूँढ निकाली हो.
आचार्य प्लुष ने गुरुकुल में आकर अपने समस्त शिष्यों के समक्ष पुनः आदर्श को परिभाषित किया — "जीवन के वे मूल्य या सिद्धांत जो हमें हमेशा ऊर्ध्वगामी दिशा दें, पतन अर्थात नीचे गिरने से बचावें या कभी-कभी विषम परिस्थितियों में भी जिन्हें पकड़कर हम अघ के महागर्त में गिरने से बच जाया करते हैं, आदर्श कहते हैं."
किसी व्यक्ति को इस कसौटी पर रखकर ही अपना आदर्श बनाना चाहिए. समय के साथ आदर्श भी यदि विचलित होवें तो उन्हें भी बदल देना श्रेयस्कर है.
प्रतुल जी,
जवाब देंहटाएंसाधुवाद!
आदर्श के लिये शिक्षाप्रद प्रेरक प्रसंग॥
उपकारी के प्रति कृतज्ञ भाव और अपकारी के प्रति समता भाव यही आदर्श स्थति है।
इस आलेख के लिये आभार।
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जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और प्रेरणादायक दृष्टांत प्रस्तुत किया है आपने।
ह्रदय से आभार आपका।
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जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी एवं दिव्या जी,
मुझे प्रतीक्षा है अमित की.
वे इसे पढ़े तो आगे कुछ और लिखने की सोचूँ.
वे वर्तमान में मेरे उत्प्रेरक हैं.
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जवाब देंहटाएंप्रतुल जी,
मन में कुछ प्रश्न हैं ।
१- क्या गुरु को क्रोध करना शोभा देता है ?
२-क्या क्रोध गुरु का अहंकार नहीं दर्शा रहा ?
३- क्या गुरु में क्षमा का गुण नहीं होना चाहिए , प्रत्येक अवस्था में ?
४- गुरु विचलित क्यूँ हो गए विद्यार्थी के उत्तर से ?
५- विद्यार्थी उच्श्रीखाल है तो समझ आया , लेकिन गुरु का क्रोध करना , उचित नहीं लगा।
६- गुरु को क्षमाशील होते हुए , अपने शिष्य को और आगे तक संझाना चाहिए था , न की क्रोध वश उसे आश्रम से निकाल देना चाहिए था।
७- क्या शिष्य कभी गुरु से आगे नहीं जा सकता ? गुरु का इगो हर्ट नहीं होना चाहिए था।
८-क्या गुरु सिर्फ अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है ?
९ - सच्चा गुरु तो वही है जो शिष्य के साथ प्रेम का भाव रखता है।
१० -एक गुरु अपने शिष्य को इस संसार में भटकने के लिए कैसे छोड़ सकता है भला ?
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गुरु को क्षमाशील होना चाहिए।
अपेक्षाओं से रहित होना चाहिए।
अहंकार से मुक्त होना चाहिए।
शिष्यों के प्रति क्रोध नहीं होना चाहिए ।
तथा एक स्थायी प्रेम भाव होना चाहिए।
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आभार
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जवाब देंहटाएंदिव्या जी आपके प्रश्नों के उत्तर :
१- क्या गुरु को क्रोध करना शोभा देता है ?
@ कदाचित नहीं.
हाँ, क्रोध का अभिनय अनुशासन बनाने के लिये आवश्यक है.
२-क्या क्रोध गुरु का अहंकार नहीं दर्शा रहा ?
@ गुरु होना किसी पहुँची हुई अवस्था का नाम नहीं है वह तो एक रोज़गार भी है. जिसे कामी-क्रोधी तथा सद्भावी दोनों प्रकार के व्यक्ति ही पा लेते हैं. गुरु में भी तो सुधार की गुंजाइश होती है. वह भी तो काफी कुछ अपने शिष्यों से चुपचाप सीख लेता ही है. लेकिन आयु की दृष्टि से गुरु ही गुरु रहता है और शिष्य शिष्य.
३- क्या गुरु में क्षमा का गुण नहीं होना चाहिए, प्रत्येक अवस्था में ?
@ गुरु में क्षमा गुण अवश्य होना चाहिए. लेकिन 'प्रत्येक अवस्था में' कैसे संभव है? वह भी तो किसी क्षेत्र [आध्यात्म/धर्म/दर्शन] में शिष्यत्व लेकर साधना कर रहा होता है. वह निरंतर सद्गुणों को अपनाने के प्रयास में रहता है.
४- गुरु विचलित क्यूँ हो गए विद्यार्थी के उत्तर से ?
@ मानवीय स्वभाव. प्रशंसा सुनना मानवीय कमजोरी है और आलोचना सुनने से क्रोध आता ही है. जिसे कुछ गुरुजन उसे प्रदर्शित नहीं करते, तर्क गड़ने में जुट जाते हैं. सामने वाले को झुकाने में लगे रहते हैं. विद्यार्थी क्योंकि उनकी पाठशाला का था उसपर उनका वश था. विद्यार्थी स्वयं भी जाना चाहता था. जाने वाले विद्यार्थी ने अहंकारी होने का सफल नाटक किया था.
५- विद्यार्थी उच्श्रीखाल है तो समझ आया , लेकिन गुरु का क्रोध करना, उचित नहीं लगा।
@ गुरु को लेकर हमारे मन में आदर्श कल्पना जब होती है, तब ऐसे ही प्रश्न उठते हैं. समय रहते गुरु भी मंज जाते हैं.
६- गुरु को क्षमाशील होते हुए, अपने शिष्य को और आगे तक समझाना चाहिए था, न कि क्रोधवश उसे आश्रम से निकाल देना चाहिए था।
@ हाँ होना तो यही चाहिए था, लेकिन कथा फिर "परहित साधने के सन्देश' को कैसे व्यक्त कर पाती. कथा में जब कहीं अन्याय होता है तब ही कथा विस्तार पाती है.
७- क्या शिष्य कभी गुरु से आगे नहीं जा सकता ? गुरु का इगो हर्ट नहीं होना चाहिए था।
@ शिष्य हमेशा गुरु से आगे ही जाता है. गुरु जो शिष्य को ज्ञान देता है उसमें शिष्य अपनी मेधा से वृद्धि ही करता है, उसे घटाता नहीं. बिजली आविष्कृत होने के बाद ही उससे बने उपकरणों का आविष्कार हुआ.
गुरु यदि मंज चुका हो तो ईगो हर्ट नहीं होता.
८-क्या गुरु सिर्फ अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है ?
@ एक जंगल में एक साधु थे अपने एकमात्र शिष्य के साथ रहते थे. गुरु जी ने एक बार शिष्य को एषणाओं के विषय में प्रवचन दिया और कहा कि एषणाओं से कोई नहीं बचा. वित्त एषणा और पुत्र एषणा से तो कोई बच भी जाए लेकिन यश एषणा से कोई नहीं बच पाया है. ऐसा कोई विरला ही होगा जो किसी एकांत में रहकर संतुष्ट हो. तब शिष्य ने ही कहा कि "गुरुवर केवल आप ही एक ऐसे हैं जो मुझ मात्र को लेकर इस निर्जन प्रदेश में संतुष्ट हैं." यह सुनकर गुरुवर के मुख पर मुस्कान दौड़ गयी.
९ - सच्चा गुरु तो वही है जो शिष्य के साथ प्रेम का भाव रखता है।
@ सच्ची बात कही.
१० -एक गुरु अपने शिष्य को इस संसार में भटकने के लिए कैसे छोड़ सकता है भला ?
@ संसार भटकने के लिये नहीं. परमात्मा ने हर कहीं शिक्षा का प्रबंध किया है. शिक्षा पाने वाले प्राकृतिक उपादानों और जड़ वस्तुओं मूक पशु-पक्षियों से भी शिक्षा ग्रहण कर लेते हैं.
वैसे भी गुरु का शिष्य से अधिक मोह शिष्य के ज्ञानार्जन में बाधा बन सकता है.
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गुरु को क्षमाशील होना चाहिए। >>>>>>>>>>>>>>>>>>> सत्य
अपेक्षाओं से रहित होना चाहिए। >>>>>>>>>>>>>>>>>> सत्य
अहंकार से मुक्त होना चाहिए। >>>>>>>>>>>>>>>>>>>> सत्य
शिष्यों के प्रति क्रोध नहीं होना चाहिए । >>>>>>>>>>>>>> सत्य
तथा एक स्थायी प्रेम भाव होना चाहिए। >>>>>>>>>>>>>> सत्य
आदर्श गुरु ऐसा ही होना चाहिए. लेकिन गुरु यदि ऐसा न हो तो उसका अपमान भी नहीं करना चाहिए. उसमें यदि सुधार की गुंजाइश दिखती है तो उसे अवसर देने चाहिए.
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बहुत ही तात्विक और सार्थक चर्चा हो रही है, गुरू-शिष्य व्यवहार पर॥
जवाब देंहटाएंआप दोनों का आभार!!
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जवाब देंहटाएंप्रतुल जी,
अपने प्रश्नों के उत्तर पाकर मन में एक शान्ति एवं संतुष्टि है। इन विवेकपूर्ण उत्तरों के लिए आपका आभार ।
सुज्ञ जी आपका भी आभार।
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