शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

हिंसामूल जगुप्साप्रेरक


हिंसामूलमध्यमास्पदमल ध्यानस्थ रौद्रस्य यदविभत्स,
रूधिराविल कृमिगृह दुर्गन्धिपूयदिकम्।
शुक्रास्रक्रप्रभव नितांतमलिनम् सदभि सदा निंदितम्,
को भुड्क्ते नरकाय राक्षससमो मासं तदात्मद्रुहम्॥
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अर्थार्त:
मांस हिंसा का मूल, हिंसा करने पर ही निष्पन्न होता है। अपवित्र है। और रौद्र (क्रूरता) का कारण है।देखने में विभत्स, रक्तसना होता है, कृमियों व सुक्षम जंतुओं का घर है। दुर्गंध युक्त मवाद वाला, शुक्र-शोणित से उत्पन्न, अत्यंत मलिन, सत्पुरुषों द्वारा निंदित है। कौन इसका भक्षण कर, राक्षस सम बन, नरक में जाना चाहेगा।

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बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

आदर्श


आचार्य प्लुष ने शास्त्री की परीक्षा के पश्चात अपने दो मेधावी शिष्यों से उनके जीवनादर्शों के विषय में पूछा. 

एक ने कहा — "गुरु ही हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है, मोक्ष का मार्ग दिखाता है और ईश्वर का दर्शन करवाता है, अतः गुरु की महत्ता सर्वमान्य है. मेरे आदर्श आप हैं." 

दूसरे ने अपनी वाणी में पहली बार उच्छृंखलता लाते हुए कहा — "समयानुकूल उचितानुचित कार्य करने की निर्णायक बुद्धि आपने ही हमें प्रदान की है गुरुदेव. इसलिये आप में भी छिद्रान्वेषण करना मेरा प्रथम कर्तव्य है. मैं अपना आदर्श स्वयं को मानता हूँ." 

गुरुदेव इस गर्वोक्ति को सुन कुपित हुए. उन्होंने दूसरे शिष्य को यह कहते हुए गुरुकुल से निकाल दिया — "जो गुरुओं में दोष ढूँढता है वह जीवन के किसी क्षेत्र में उन्नति नहीं कर सकता." 

जाते हुए शिष्यों का उसके प्रिय मित्रों तक ने अपमान किया. 

पाँच वर्ष बीत गये. हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी गुरुदेव अपने शिष्य कुञ्जदेव के साथ समस्त गुरुकुलों द्वारा आयोजित 'संस्कृत साहित्य सम्मेलन' में पधारे. कुञ्जदेव के पांडित्य ने सभी विद्वान् जनों का मन मोह लिया किन्तु महादेव के पांडित्य को देखकर गुरुदेव के हर्षातिरेक से आँसू बह निकले. उन्हें कुछ आत्मग्लानि हुई. महादेव ने आकर जब गुरुदेव के चरण-स्पर्श किये तो वे गदगद कंठ से पूछ बैठे — "तुम्हारी उस कथनी और इस कथनी में अंतर पा रहा हूँ." 

महादेव ने संतुष्टि के भाव से कहा — "गुरुदेव! आप द्वारा दी गयी शिक्षा से ही 'शत्रुता लेकर भी परहित साधने का भाव' मेरा स्वभाव बन गया है. शास्त्री से पूर्व ही कुञ्जदेव के मन में मेरे प्रति ईर्ष्या थी, जो एक प्रतिभावान छात्र की उन्नति में अवरोध बँटी. इसलिये मैंने गुरु के ह्रदय और गुरुकुल दोनों से निकल जाना ही उचित समझा." 

गुरुदेव की आँखें मुस्कुराहट के साथ चमक उठीं. मानो उनकी खोजी दृष्टि ने कुछ अनमोल वस्तु ढूँढ निकाली हो. 

आचार्य प्लुष ने गुरुकुल में आकर अपने समस्त शिष्यों के समक्ष पुनः आदर्श को परिभाषित किया — "जीवन के वे मूल्य या सिद्धांत जो हमें हमेशा ऊर्ध्वगामी दिशा दें, पतन अर्थात नीचे गिरने से बचावें या कभी-कभी विषम परिस्थितियों में भी जिन्हें पकड़कर हम अघ के महागर्त में गिरने से बच जाया करते हैं, आदर्श कहते हैं." 

किसी व्यक्ति को इस कसौटी पर रखकर ही अपना आदर्श बनाना चाहिए. समय के साथ आदर्श भी यदि विचलित होवें तो उन्हें भी बदल देना श्रेयस्कर है. 

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

वसुधैव कुटुम्बकम्


अय निजः परोवेति, गणना लघुचेत साम्।
उदार चरितानाम् तु, वसुधैव कुटुम्बकम्॥



अर्थात्:

यह मेरा और यह पराया है, ऐसा विचार भी तुच्छ बुद्धि वालों का होता है। श्रेष्ट जन तो सारे संसार को अपना कुटुम्ब मानते है।
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सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

वैचारिक दक्षता का अहंकार विद्वान को ले डूबता है।


परोपदेशवेलायां, शिष्ट सर्वे भवन्ति वै।
विस्मरंति हि शिष्टत्वं, स्वकार्ये समुपस्थिते॥
                                                       -मानव धर्मशास्त्र
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अर्थार्त:

"दूसरो को उपदेश देने में कुशल, उस समय तो सभी शिष्ट व्यवहार करते है, किंतु जब स्वयं के अनुपालन का समय आता है, शिष्टता भुला दी जाती है।"
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सार:
वैचारिक दक्षता का अहंकार विद्वान को ले डूबता है।
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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

तृष्णा न होती जीर्ण


भोगा न भुक्ता  वयमेव  भुक्ता, तपो न तप्तं  वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव यता, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥

                                                                                               -भृतहरि

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अर्थार्त:

हमने भोग नहिं भोगे बल्कि भोगों ने ही हमें भोग लिया। हम तपस्या से नहिं तपे किन्तु दु:ख-ताप से हम स्वयं संतप्त हो गये। समय नहिं बीता पर हम स्वयं ही बीत गये। हमारी तृष्णा तो किंचित भी जीर्ण(न्यून) न हुई, हम जीर्ण (बुढ्ढे) हो गये।

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भोगवादीयों, प्रकृतिशोषकों, परिग्रहियों रूप मनमौजीयों (जो स्वार्थवश मन तरंग से भोग-उपभोग करते है) के लिये इससे श्रेष्ठ क्या उदाहरण होगा।
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पंकजसिंह राजपूत की टिप्पणी से…

यदि भोगों में सांसारिक वस्तुओं में सुख होता तो वे उन्हें कभी न छोड़ते, परन्तु भोगो में संसार की वस्तुओं में सुख नहीं है, यह क्षणिक सुख है, जो अंत में दुःख रूप ही है, केवल आरम्भ में ही सुखमूलक लगता है !!!
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गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

गर्व रहित ज्ञान


दानं प्रियवाक्सहितं, ज्ञानमगर्व क्षमान्वितं शौर्यम्।
वित्तं त्यागनियुक्तं, दुर्लभमेतच्च्तुष्ट्यं लोके॥
--विष्णुश्रम
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अर्थ:
 
प्रियवचन सहित दान, गर्व रहित ज्ञान, क्षमा युक्त शौर्य, त्याग सहित धन। लोक में यह चार बातें बडी दुर्लभ है।
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शास्त्र-विवेचन

1-शास्त्रों का अध्यन, शास्त्र के मूल आशय को समझने के लिये निराग्रह मनस्थिति होनी चाहिए।

2-शास्त्रकारों का अभिप्राय समझकर, उसी दृष्टि से अर्थ और भावार्थ करना चाहिए।

3-जो विषय बुद्धिग्राह्य न हो, उसे सही परिपेक्ष में समझने का प्रयास होना चाहिए, व्यर्थ उपहास नहिं करना चाहिए।

विचार विमर्श, चर्चा आदि तो धर्म-शास्त्रार्थ के ही अंग है, संशय-समाधान दर्शन-मंथन में आवश्यक तत्व है।
बिना जाने ही तथ्य खारिज करना मिथ्यात्व का लक्षण है। और यहां मिथ्यात्वी ही पाखण्डी
माना गया है।

धर्म-तत्व में मूढता, संसार तर्क में शूर।
कर्म-बंध के कारकों पर, गारव और गरूर?

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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

धूर्तों का सत्कार निषिद्ध

पाखण्डिनो विकर्मस्थान्, वैडालवृतिकान् शठः न्।
हैतुकान् बकवृत्तिश्च, वाङ्मात्रेणापि नाचंयेत्॥
                                                                              -मनुस्मृति, अ 4 श्लो 30
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-- पाखण्डियों का, निषिद्ध-कर्म करने वालो का, बिल्ली के समान दगाबाज़ों का, बगुले के समान दिखावटी आचार पालने वाले धूर्तों का, शठों का, शास्त्र की विरुद्धार्थ व्याख्या करनें वालों का वचन मात्र से भी सत्कार न करना चाहिए।
(जो अपने हित के लिये धर्म का निषेध करते है, उस विचारधारा का इन पाखण्डियों में समावेश हो जाता है।)
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बक वृत्ति:

एक बार सरोवर में एक बगुले को एकाग्रचित खड़ा देखकर राम ने लक्ष्मण से कहा "देखो, कैसा तपस्वी है जो पूरे मनोयोग से साधना कर रहा है." इसे एक मछली ने सुना और राम से कहा "आपको नहीं मालूम इसीने हमारे पूरे परिवार को समाप्त कर दिया है."

बिडाल वृत्ति:

प्रायः संबंधों की आड़ में अनैतिक कार्य करना, संबंधों की मर्यादा के विपरीत आचरण बिडाल-वृत्ति कहा जाएगा. मालिक सोचता है कि उसकी पालतू बिल्ली उसकी रसोई में रखा दूध नहीं पीयेगी. लेकिन बिल्ली हमेशा यही सोचती है कि मालिक ने दूध उसी के लिये रखा है. बदनीयत को अपने खोखले तर्कों से ढकने का कार्य इसी वृत्ति वालों का है.
                                                                                                                                -प्रतुल वशिष्ठ
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सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ।



ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुवरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात ॥

उस प्राणस्वरूप,दुःखनाशक, सुखस्वरूप,श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक् देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ।

'ओउम् मा प्र गाम थो वयं मा यज्ञान्द्रि सोमिन:। मान्त: सुर्नो अरातय:।'

अर्थात् 'हम ऐश्वर्य संपन्न होकर सन्मार्ग से दूर न जाएं। हे ऐश्वर्य प्रदाता, परोपकार से हम दूर न जाएं। दान न देने वाले हमारे बीच न ठहरे ।

यथार्थ के धरातल का हम हर क्षण अहसास करे, हमें हमारा विवेक व धैर्य ही सन्मार्ग की ओर ले जाएगा। क्योंकि---------------
''र्निन्दंतु नीति निपुण: यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी समाविशतु
      यदि वा यथैष्टम् न्यायापत् पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।'' 

अर्थात् 'कोई निंदा करे अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी आए अथवा चली जाए, मृत्यु आज हो या युगों पश्चात्, न्याय के पथ पर चलने वाले कभी विचलित नहीं होते।' 
यजुर्वेद में लिखा है-
''कुर्वन्नेवेहं कर्माणि जिजीविषेच्छत समा।'' 
अर्थात् सत्कर्म करता हुआ मनुष्य सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। 
वेदों में दीर्घायु की कामना की गई है, किंतु सत्कर्म करते हुए। और किसी  को अपशब्द कहना या किसी का दिल दुखाना सत्कर्म तो नहीं हो सकता ,किसी भी तरीके से नहीं हो सकता. सन्मार्ग पे चलना कभी भी किसीके प्रति दुर्भावना रखना नहीं हो सकता है.

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

वन्दे भारतमातरम् !!!

रत्नाकराधौतपदां हिमालायकिरीटिनीम !
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढयां वन्दे भारतमातरम् !!!

अर्थ :-

रत्नों की खान समुद्र जिसके पैर धोता है, हिमालय जिसका मुकुट है, ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों रुपी रत्नों से समृद्ध ऐसी भारतमाता की मैं वंदना करता हूँ !!!

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

विद्या

मातेव रक्षति पितेव हिते वियुकंते,
कान्तेव चाभिर्मयत्यपनिय खेदं ।
लक्ष्मीस्तनोति वितनोति च दिक्षु  कीर्ति,
कि किन्न साध्यति कल्पलतेव विद्या ॥

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माता की भांति रक्षा करती है, पिता की तरह हित में प्रवृत रहती है, पत्नी के समान खेद हरण कर आनंद देती है, लक्ष्मी का उपार्जन करवाती है, संसार में कीर्ति प्रदान करती है। सदविद्या वास्तव में कल्पलता के समान है।
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शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

विजय का रहस्य / Secret of Success

वैदिक काल  में प्रायः देवताओं और असुरों में संघर्ष होता रहता था। ये दोनों सभ्यताएं एक दूसरे को नष्ट करने पर तुली थीं। देवता दैवी सम्पदा के आगार थे, असुर पूर्णतया भौतिकवादी थे। उनमें अनेक प्रकार की कमियों थीं। वे अत्यन्त क्रूर एवं अत्याचारी थे, जबकि देवता चाहते थे कि सभी शान्तिपर्वक रहें। जो अच्छी बातें हो उन्हें सभी अपनाएं और मिल-जुलकर रहें। उनका उद्देश्य विभिन्नता में एकता था, विभिन्नता को नष्ट करके एकता लाना नहीं था। वेद कहता है-

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

नम्रता


भवन्ति नम्रास्तरवः फ़लोदगमैर्नवाम्बुभिर्भूमिविलम्बिनो घना:।
अनुद्धता सत्पुरुषा: समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणम ॥

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- जैसे फ़ल लगने पर वृक्ष नम्र हो जाते है,जल से भरे मेघ भूमि की ओर झुक जाते है, उसी प्रकार सत्पुरुष  समृद्धि पाकर नम्र हो जाते है, परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा होता है।
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रविवार, 10 अक्तूबर 2010

वह प्रभु एक ही है (एकात्मता - मंत्र)


यं वैदिक मन्त्रदृश: पुराना 
इन्द्रं यमं मातरिश्वानामाहु:
वेदान्तिनोस्निर्वचनीयमेकं  
यं ब्रह्मशब्देन विनिर्दिश्न्ति !! (१)

शैवा यमिशं शिव इत्यवोचन 
यं वैष्णवा विष्णुरिति स्तुवन्ति !
बुद्ध स्तथा ह्र्न्निती बौद्धजैना:
सत-श्री-अकालेती च सिक्ख संत: !! (२)

शास्तेति केचित कतिचित कुमार:
स्वामीति मातेति पिटती भक्त्या !
यं प्रार्थयन्ते जग्दीशितारम 
स एक एव प्रभुर्द्वितीय: !! (३)

  • अर्थ
प्राचीन काल के मंत्र द्रष्टा ऋषियों ने जिसे इन्द्र, यम, मत्रिश्वान कहकर पुकारा और जिस एक अनिर्वचनीय का वेंदंती ब्रह्म शब्द से निर्देश करते हैं !

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

मधुर वचन

प्रियवाक्य प्रदानेन, सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात तदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता ?॥

--मधुर वचन से ही सभी प्रसन्न होते है, अतः सभी को मधुर वाणी ही बोलनी चाहिये। भला वचन की भी क्या दरिद्रता?

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   चुडियों का व्यापारी, एक गधी पर चुडियां लाद कर बेचा करता था। एक बार किसी एक गांव से दूसरे गांव जाते हुए रास्ते में बोलता जा रहा था, 'चल मेरी माँ, तेज चल'।'चल मेरी बहन,जरा तेज चल'। साथ चल रहे राहगीर नें जब यह सुना तो पुछे बिना न रह पाया। "मित्र  तुम इस गधी को क्यों माँ बहन कहकर सम्बोधित कर रहे हो?"
चुडियों वाले ने उत्तर दिया, "भाई मेरा व्यवसाय ही ऐसा है, मुझे दिन भर महिलाओं से ही वाणी-व्यवहार करना पडता है। यदि मैं इस जबां को जरा भी अपशब्द अनुकूल बनाउं तो मेरा धंधा ही चौपट हो जाय।  मैं अपनी वाणी की शुद्धता के लिये, इस गधी को भी माँ-बहन कह सम्बोधित करता हूं। इससे मेरे वचन पावन व सौम्य-सजग  बने रहते है,  और मेरा मन भी पवित्रता से हर्षित रहता है।
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बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

वरण करो न अंध विचार

वरण  करो न  अंध विचार
हो जाता है हरण सभ्यता  का इससे  विस्तार।।
जीवन-तरणी डूब नहीं जाती है बिन पतवार।।
उसे बचाने वाला भी बनता है एक विचार – 
"किसी तरह से पार लगूँगा, मानूँगा न हार।।"
नेत्रहीन विश्वासों की आयी है अंध बयार।।
बचो, कहीं फिर उड़ ना जाए वेदों-सा शृंगार।।


वरण  करो न  अंध विचार
हो जाता है हरण सभ्यता  का इससे  विस्तार।।
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